Tuesday, December 23, 2008

धुंध से उठती धुन


हिंदी के अप्रतिम गद्यकार निर्मल वर्मा के लेखन में एक विरल धुन हमेशा सुनी जा सकती है। वह कभी मन के भीतर के अंधेरे-उजाले कोनों से उठती है, किसी शाम के धुंधलाए साए से उठती है या फिर आत्मा पर छाए किसी अवसाद या दुःख के कोहरे से लिपटी सुनाई देती है। मैं यहां उनकी डायरी का एक अंश प्रस्तुत कर रहा हूं और उस पर आधारित अपनी पेंटिंग भी। अपनी सुविधा के लिए मैंने इस डायरी के अंश का शीर्षक दे दिया है जो दरअसल उनकी ही एक किताब का शीर्षक भी है।

सितंबर की शाम, बड़ा तालाब।
देखकर दुःख होता है कि देखा हुआ व्यक्त कर पाना, डायरी में दर्ज कर पाना कितना गरीबी का काम है, कैसे व्यक्त कर सकते हो, उस आंख भेदती गुलाबी को जो बारिश के बाद ऊपर से नीचे उतर आती है, एक सुर्ख सुलगती लपट जिसके जलने में किसी तरह की हिंसात्मकता नहीं, सिर्फ भीतर तक खिंचा, खुरचा हुआ आत्मलिप्त रंग, तालाब को वह बांटता है, एक छोर बिलकुल स्याह नीला, दूसरा लहुलूहान और शहर का आबाद हिस्सा तटस्थ दर्शक की तरह खामोश सूर्यास्त की इस लीला को देखता है। पाट का पानी भी सपाट स्लेट है-वहां कोई हलचल नहीं-जैसे रंग का न होना भी हवा का न होना है, लेकिन यह भ्रम है, सच में यह हिलता हुआ तालाब है, एक अदृश्य गुनगुनी हवा में कांपता हुआ और पानी की सतह पर खिंचते बल एक बूढ़े डंगर की याद दिलाते हैं जो बार बार अपनी त्वचा को हिलाता है और एक झुर्री दूसरी झुर्री की तरफ भागती है, काली खाल पर दौड़ती सुर्ख सलवटें जो न कभी नदी में दिखाई देती हैं न उफनते ेसागर में हालांकि इस घड़ी यह तालाब दोनों से नदी के प्रवाह और सागर की मस्ती को उधार में ले लेता है लेकिन रहता है तालाब ही, सूर्यास्त के नीचे डूबी झील। मैं घंटों उसे देखते हुए चल सकता हूं, एक नशे की झोंक में औऱ तब अचानक बोध होता है-अंधेरा, गाढ़ा, गूढ़ मध्यप्रदेशीय अंधकार जिसमसें पलक मारते ही सब रंग आतिशबाजी की फुलझड़ी की तरह गायब हो जाते हैं और फिर कुछ भी नहीं रहता, सब तमाशा खत्म। रह जाती है एक ठंडी, शांत झील, उस पर असंख्य तारे और उनके जैसे ही मिनिएचरी अनुरूप पहाड़ी पर उड़ते चमकते धब्बे-भोपाल के जुगनू।
लेकिन यह डायरी तीन दिन बाद की है, कैसे हम उन्हें खो देते हैं जो एक शाम इतना जीवन्त, स्पंदनशील, मांसल अनुभव था-इज इट दि मिस्ट्री आफ पासिंग टाइम आर दि ट्रुथ आफ इटर्नल डाइंग?

Saturday, December 20, 2008

सर्द सन्नाटा है, तन्हाई है, कुछ बात करो


मैं क्यों बार-बार गुलज़ार साहब की ओर लौटता हूँ। उसमें हमेशा कोई दृश्य होता है, कोई बिम्ब होता है, बहुधा प्रकृति की कोई छटा होती है, लगभग मोहित करती हुई या मैं इसलिए उनकी तरफ लौटता हूँ कि उनमें मुझे हमेशा एक ताजगी या नयापन मिलता है, अपनी बात को कहने का एक शिल्पहीन शिल्प मिलता है।

क्या उनकी शायरी में सिर्फ रुमानीपन मिलता है जो मेरी खास तरह की सेंसेबिलिटी से मेल खाता है? क्या मैं उनकी कविता में किसी हसीन ख्वाहिश, मारू अकेलेपन या दिलकश खामोशी के वशीभूत लौटता हूँ? क्या उसमें स्मृतियाँ और स्मृतियाँ होती हैं, जिनकी गलियों और पगडंडियों से होकर गुजरते हुए हमेशा एक गीला अहसास होता है?

और ये अहसास भी ऐसे जैसे कोई खामोश मीठे पानी की झील हमेशा कोहरे से लिपटी रहती है? या कोई अपने में अलसाया पहाड़ को सिमटते कोहरे में बहते सब्जे से और भी सुंदर नजर आता है? या बनते-टूटते, खिलते-खुलते और सहमते-सिमटते रिश्तों का ठंडापन या गर्माहट है? या कि उनमें कोई जागते-सोते-करवट लेते ख्वाबों की बातें हैं? या कि सिर्फ अहसास जिन्हें रूह से महसूस करने की वे बात करते हैं? या कि इन सबसे बने एक खास गुलज़ारीय रसायन से बने स्वाद के कारण जिसका मैं आदी हो चुका हूँ?

शायद ये सब बातें मिलकर उनकी शायरी का एक ऐसा मुग्धकारी रूप गढ़ती हैं जिस पर मैं हमेशा-हमेशा के लिए फिदा हो चुका हूँ। इसीलिए इस बार संगत के लिए मैंने फिर से गुलज़ार की एक और नज़्म लैण्डस्केप चुनी है। यह भी एक दृश्य से शुरू होती है। दूर के दृश्य से। जैसे किसी फिल्म का कोई लॉन्ग शॉट हो। वे हमेशा अपनी बात को कहने के लिए कोई दृश्य खोजते हैं और खूबी यह है कि किसी में कोई दोहराव नहीं क्योंकि दृश्य को अपनी काव्यात्मक भाषा में रूपायित करने के लिए इसे बरतने का उनका तरीका अलहदा है, मौलिक है क्योंकि वे दृश्य को दृश्य नहीं रहने देते।

अपनी कल्पना के किसी नाजुक स्पर्श से, अपने भीतर उमड़ते-घुमड़ते किसी भाव या समय की परतों में दबी किसी याद से इतना मानीखेज़ बना देते हैं कि फिर वह दृश्य दृश्य नहीं रह जाता। यह उनकी खास शैली है जो उन्होंने रियाज से नहीं ज़िंदगी के तज़ुर्बों की निगाह से हासिल की है जो किसी शायर के पास ही हो सकती है।

यह नज़्म इन पंक्तियों से शुरू होती है-

दूर सुनसान से साहिल के क़रीब

इक जवाँ पेड़ के पास

इसमें साहिल है। यह दूर है। और वह सुनसान भी है। इसके पास एक पेड़ है, यह जवाँ है। दूर, सुनसान, साहिल, करीब और पेड़ जैसे सादा लफ्ज़ों से वे एक दृश्य बनाते हैं। लेकिन यह दृश्य यहीं तक सिर्फ एक दृश्य है। इसके बाद गुलज़ार की वह खास शैली का जादू शुरू होता है जिसे शिल्पहीन शिल्प कहा है। यानी कोई शिल्प गढ़ने की मंशा से आज़ाद होकर अपनी बात को इतने सादे रूप में कहना कि वह एक खास तरह के शिल्प में बदल जाए।

आगे की पंक्तियाँ पढ़िए-

उम्र के दर्द लिए, वक़्त का मटियाला दुशाला ओढ़े

बूढ़ा-सा पॉम का इक पेड़ खड़ा है कब से

यहाँ एक बूढ़े पॉम के पेड़ के जरिए एक व्यक्ति के अकेलेपन को कितनी खूबी से फिर एक दृश्य में पकड़ा गया है। यह पेड़ वक़्त का मटियाला दुशाला ओढ़े है। जाहिर है इस मटियालेपन में वक्त के बीतने का अहसास अपने पूरे रुमानीपन के बावजूद कितना खरा, खुरदरा और पीड़ादायी है। यह सदियों की खामोशी में अकेलेपन का गहरा अहसास है।

सालों की तन्हाई के बाद

झुकके कहता है जवाँ पेड़ से : 'यार

सर्द सन्नाटा है तन्हाई है

कुछ बात करो'

अब यह अकेलेपन का जो अहसास है, बहुत घना हो चुका है। और ऊपर से सर्द सन्नाटा है और तन्हाई है। जाहिर है यह सब कितना जानलेवा है। लेकिन खामोशी में सदियों के अकेलेपन को कहने की जो अदा है उसमें कोई चीख-पुकार नहीं है। जैसे बहुत ही गहरी एक आवाज़ है जो अपने पास खड़े एक जवाँ पेड़ से कुछ बात करने इच्छा जता रही हो।

यह एक पेड़ है जो सालों की तन्हाई में खड़ा है और झुक के कुछ बात करने के लिए कह रहा है। यह बात इतने सादा, इतने संयत और मैच्योर ढंग से कही गई है कि सीना चीर के रख देती है।

ना यह हमारी ही बात। हमारे अकेलेपन, हमारी खामोशी, हमारे सन्नाटे और हमारी तन्हाई की बात। इसे ध्यान से सुनिए, यह आपके कान में कही गई बात है, आपके दिल के किसी कोने से उठती बात है -

कि सर्द सन्नाटा है, तन्हाई है, कुछ बात करो।


पेंटिंगः रवीन्द्र व्यास

(वेबदुनिया के लिए लिखे जा रहे साप्ताहिक कॉलम संगत की एक कड़ी)

Wednesday, December 17, 2008

एक मारक, मोहक और मादक सम्मोहनः शकीरा


फिदा होना मेरी फितरत है और जिन पर फिदा हूं उनकी फेहरिस्त ज्यादा लंबी नहीं है। इस फेहरिस्त के छोटे-छोटे फासलों पर कुछ फनकार हैं जिनके फन में फनां होने का मन करता है। मैं दो कारणों से कोलंबिया पर फिदा हूं। यहां दो महान शख्सियतें हुईं। एक अदबी और दूसरी मौसिकी की। दोनों ही अपने फन के माहिर फनकार। दोनों की अदा सबसे अलहदा। दोनों ही जादुई। एक अपनी भाषा और कल्पना के जादुई यथार्थ या यथार्थ की जादुई कल्पना में जवां तो दूसरा अपने सुर और नाच में रवां। माय गॉड क्या हुनर पाया है दोनों ने। एक हैं हमारे गाबो यानी गैब्रियल गार्सिया मार्केज, हरदम अपनी कला के जिगर से भाषा, कल्पना और यथार्थ का ऐसा अद्भुत रसायन बनाते हुए जिसका आस्वाद ऐसा गूंगा बना देता है जिसने गुड़ चखा हो। और दूसरी हैं शकी यानी शकीरा। शकीरा इसाबेल मेबरिक रिपोल।

जहां गाबो अपने मैजिकल रियलिज्म के लिए मशहूर हैं तो दूसरी के बारे में मुझे कहने दीजिए अपने रियल मैजिकलिज्म के लिए।

मैं एक बार फिर शकीरा की ओर लौटा हूं। ३१ साल की जवानी में उसका जलवा इतना जानदार है कि वह जब थिरकती है तो लगता है एक कौंध मचलती-उछलती नाच रही है। उसकी थिरकन में बदन की बल खाती बिजलियां एक लपट की तरह आपको लपकने की कोशिश करती लगती हैं। उसका नाच एक अंतहीन आंच का आगोश है। उसकी आवाज आबशार की तरह आपको ठंडी राहत देती है तो कभी अंगारे की आंच का अहसास भी कराती है। कई बार उसकी आवाज अपनी मखमली अंगुलियों से आपकी रूह को गुदगुदाने लगती है तो कभी अंगुली पकड़कर आपको इश्क के बियाबान में भटकने के लिए छोड़ आती है। उसको गाते-नाचते देखता हूं तो उसके बदन की लयात्मक हरकत से ज्यादा उसकी उस कल्पनाशील रचनात्मकता पर फिदा होता हूं जिसके जरिए वह ऐसा मारक, मोहक और मादक सम्मोहन रचती है।

यह ऐसे ही संभव नहीं हुआ।

जब वह चार साल की थी उसके भाई की अचानक मौत हो जाती है। उसके लिए यह जीवन का पहला सदमा। चार साल की उम्र में इस सदमे से मिले दुःख को वह कविता में ढालती है और उसका यह दुःख कविता में कोंपल की तरह फूट कर अपनी नन्ही हथेलियां हिलाता है। आठ की होते-होते वह एक गीत रचती है, इसे अकेले में गुनगुनाती है। एक दिन अचानक एक रेस्त्रां में टेबल पर नंगे पांव नाचने लगती है। सब अवाक। ११ की उम्र में गिटार पर उसकी अंगुलियां फिसलने लगती है और फिजां में मीठी स्वर-लहरियां गूंजती हैं।

बस यहीं से वह सांगीतिक सफर शुरू होता है जिसमें सुंदर गीत हैं, दिल को छू लेने वाले बोल हैं, शांत और उद्दाम संगीत है और साथ ही चमत्कृत कर देने वाला लचकता नाच भी है। फिर क्या, शकीरा ने लिखी शोहरत के शिखर पर कामयाबी की नई इबारत। पैसों की झमाझम बारिश और आलीशान जीवन की चकाचौंध। आज वह कोलंबिया की सबसे ज्यादा धन कमाने वाली गायिका बन गई है। फोर्ब्स ने उसे दुनिया की चौथी सबसे अमीर गायिका घोषित किया है। वह ३८ मिलियन डॉलर सालाना कमाती है। फ्लोरिडा में साढ़े छह हजार फीट पर बना आलीशान भवन उसे अब छोटा लगता है।

वह रॉक एन रोल की दीवानी है, उसे अरेबिक संगीत मोह लेता है, बैली डांस की अदाएं उसकी प्रेरणाएं बनती हैं। वह द बीटल्स, द पोलिस, द क्योर और निर्वाणा जैसे बैंड से बेहद प्रभावित है। उसके संगीत और नाच में दुनियाभर के संगीत की खूबियों का संतुलित रसायन मिलेगा जिसका आस्वाद सिर्फ शकीरा के गीत-संगीत में ही पाया जा सकता है। वह तो कहती भी है कि मैं रॉक म्यूजिक से प्यार करती हूं लेकिन मेरे पिता सौ फीसदी लेबनानी हैं इसलिए मैं अरबी संगीत के स्वाद और ध्वनियों की भी दीवानी हूं। इन्हीं के प्रति मेरा प्रेम और लगाव कई बार मेरे संगीत में फ्यूजन की तरह गूंजता है।

एक प्रोड्यूसर मोनिका एरीजा ११ साल की उम्र में ही शकीरा के टैलेंट को ताड़ लेती हैं और विश्वविख्यात म्यूजिक कंपनी सोनी में आडिशन करवाती हैं। पहले आडिशन में वह फेल हो जाती है लेकिन कुछ समय के अंतराल के बाद उसे तीन एलबम का कॉन्ट्रेक्ट मिलता है। पहले दो एलबम मैजियो (१९९१), पेलिग्रो (१९९३) फ्लॉप हो जाते हैं लेकिन न्यू एस्त्रों रॉक एलबम में उसका योगदान उसे जबरदस्त कामयाबी दिलाता है और फिर तीसरा एलबम पेएस डेस्काल्जोस (१९९५) इतना हिट हो जाता है कि उसकी पचास लाख कॉपियां हाथों हाथ बिक जाती हैं। इसके बाद डोंड इस्तान लॉस लेड्रोंस से और बड़ा एक्सपोजर मिलता है। वह एमटीवी म्यूजिक और ग्रेमी अवॉर्ड हासिल करती है। इतनी ख्याति पाने के बाद उसका अब तक कोई इंग्लिश एलबम नहीं आता है। दुनियाभर के लोगों का दिल जीतने के लिए ग्लोरिया इस्टीफेन की मदद से अपना पहला इंग्लिश एलबम लाती है-लॉन्ड्री सर्विस। इसे अपार लोकप्रियता हासिल होती है। इसकी एक करोड़ तीस लाख कॉपियां बिक जाती हैं और जब २००६ में उसका दूसरा इंग्लिश एलबम अोरल फिक्सेशन (दो वाल्यूम में) आता है तो वह एक अमेरिकन और तीन ग्रेमी अवॉर्ड अर्जित करती है। इस एलबम के गीत हिप्स डोंट लाई तो वह ऐसा गाती और नाचती है कि दुनिया उस पर फिदा हो जाती है। उसका यह एलबम यूएस और यूके चार्ट में अव्वल नंबर पर आता है। इसके बाद शकीरा शकीरा, व्हेनएवर व्हेनएवर आदि गीतों को भी खूब शोहरत मिलती है।

२००७ में वह अपने ही हमवतन दिग्गज उपन्यासकार मार्केज के उपन्यास लव इन द टाइम अॉफ कॉलरा पर इसी नाम से बनी फिल्म में न केवल एक छोटी सी भूमिका निभाती है बल्कि दो गीत लिखती भी है और गाती भी है। वह ऐसी गायिका है जो अपने गीत खुद लिखती है या अपनी साथी गीतकार के साथ लिखती है। उसके गीत हजार तरह से प्रेम करने के लिए स्त्री की पुकार के गीत हैं। उसमें उद्दाम और कोमल इच्छाएं अभिव्यक्त होती हैं। उसके लिखे गीत की एक पंक्ति है-तुम ईश्वर के हाथों लिखे गए गीत हो। कई बार वह प्रेम से लबालब भरे गीतों को गाते हुए लगभग बदहवास सी नाचने लगती है। वह कहती है मेरे प्रशंसक सोचेंगे कि मैं न्यूरॉटिक हूं। मैं तो अॉब्सेसिव कम्पल्सिव परफेक्शनिस्ट हूं। यह उन्हें पसंद है या नहीं मुझे नहीं मालूम लेकिन इतना तय है कि वे मुझे ज्यादा समझने की कोशिश करेंगे। इससे वे समझ पाएंगे कि मेरी जिंदगी का मकसद क्या है? मैं किसके लिए लड़ रही हूं और वह क्या है जो मुझे प्रेरित करता है, मुझे गतिशील रखता है। मैं महसूस करती हूं ऐसा करके मैं अपने प्रशंसकों के और भी करीब आ जाती हूं, जो शायद इसके पहले संभव नहीं हुआ था।वह प्रेम में डूबी है और उसका प्रेम है अर्जेंटीना के भूतपूर्व राष्ट्रपति का बेटा।

खबर है कि वह इन दिनों इटैलियन गायक ताजियानो फैरो के साथ भी गाना गाने वाली है। हाल-फिलहाल वह कार्लोस संताना के साथ अपने नए एलबम इल्लिगल को बनाने में मसरूफ है।

उसका मानना है कि जिदंगी में ऐसे पल आते हैं जब जिंदगी खुद को सरल करती है और तब हम अपनी हथेलियों में भाग्य के बारे में कुछ भी नहीं पूछते। और हम फिर अपनी मनपसंद कविताएं पढ़ना शुरू करते हैं और कभी कभी अपनी कविताएं लिखने का साहस । हम हमेशा फिर-फिर प्रेम में डूबने लगते हैं...

दिलचस्प-दिलकश शकीरा

१।मैं सोचती हूं मेरे बदन का सबसे खूबसूरत अंग मेरा दिमाग है।

२। मुझे जेवर बिलकुल पसंद नहीं, मेरी सेहत ही मेरा जेवर है।

३। औरतें कभी संतुष्ट नहीं हो सकती क्योंकि पुरुषों के मुकाबले वे ज्यादा जटिल होती हैं।

४. मैं बिना मैकअप के घर से बाहर नहीं निकलती, आप जानते हैं, मैं एक महिला हूं।

शकीरा ः एक नजर

१। जन्म दो फरवरी १९७७ बेरेंक्विला (कोलंबिया)।

२। मां नीदिया रिपोल, लेबनानी पिता विलियम मेबरेक।

३। शकीरा का अरबी में अर्थ है-गरिमामयी स्त्री।

४। दुनिया की सौ सबसे हॉट सेलिब्रिटी में शामिल।

५। चैरिटी के जरिये उत्तरी कोलंबिया में गरीब बच्चों के स्कूल खोलना चाहती हैं।

६। यूनिसेफ की गुडविल एम्बेसेडर

७.स्पैनिश कंपनी के साथ कॉस्मेटिक्स प्रॉडक्ट्स की रेंज लांच की।

८. सन सिल्क के इंटरनेशनल एड में मैडोना और मर्लिन मुनरो के साथ।

९. हाइट पांच फुट दो इंच।

१०. वजन १०६ पौंड

Saturday, November 29, 2008

रुदन जो पहुंचता है ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक


मुंबई में आतंकवादी हमले के घेरे में डेढ़ सौ से ज्यादा लोगों के मरने की खबरें और इस घेरे में घायलों की गूँजती चीखें इस घेरे का व्यास और मारकता ज्यादा बढ़ाती हैं। इस पागलपन का असर कहाँ तक गया है, इसका अंदाजा शायद राजनीतिज्ञों, अर्थशास्त्रियो, समाजशास्त्रियों, पुलिस और कानून के विशेषज्ञों द्वारा अलग अलग लगाया जाएगा और इनकी राय, विश्लेषण और इससे निकलने वाले विचार महत्वपूर्ण माने जाएँगे लेकिन इस तरह की घटनाओं और पागलपन को एक कवि की निगाह बिलकुल भिन्न तरह से देखती-दिखाती है। एक कवि अपने समय की बड़ी घटनाओं और चीखों-चीत्कारों का ज्यादा मानवीय और मानीखेज ढंग से बखान करता है।

इजराइल के महान कवि येहूदा अमीखाई की एक कविता बम का व्यास इस तरह की हिंसा भरी घटनाओं की दूर तक फैली हद में आए लोगों के दुःख को अपनी नैतिक संवेदना के साथ इतनी मारकता से अभिव्यक्त करती हैं कि आप गहरे विचलित हो जाते हैं। येहूदा अमीखाई अपनी कविता में अचूक दृष्टि और गहरी मानवीय प्रतिबद्धता से अपने समय की हलचलों को इस तरह छूते हैं कि वह अपनी तमाम स्थानीयता और भौगोलिकता को पार करते हुए एक सार्वभौमिक सत्य को उद्घाटित करती है। हिंसा, युद्ध और आतंक तथा अपने समय की सचाइयों को उन्होंने बिना चीखे-चिल्लाए अपने संयत रचनात्मक कौशल से अभिव्यक्त किया। इसकी मार्मिकता हमें गहरे तक विचलित करती है। उनकी इस कविता बम का व्यास में जो सच और मर्म है वह अपनी नैतिक संवेदना में थरथराता हुआ तमाम तरह की हिंसा के खिलाफ एक तीखा प्रतिरोधी स्वर बन जाता है। कविता इन पंक्तियों से शुरू होती है-

तीस सेन्टीमीटर था बम का व्यास

और इसका प्रभाव पड़ता था सात मीटर तक

चार लोग मारे गए, ग्यारह घायल हुए

शुरूआत की इन तीन पंक्तियों में कुछ सूचनाएँ हैं। ये सूचनाएँ लगभग खबर के अंदाज में हैं। इसमें एक तरह का भावनात्मक सूखापन साफ लक्षित किया जा सकता है क्योंकि इनमें आंकड़े हैं और इन पर अपनी तरफ से कोई टिप्पणी करने की कोशिश नहीं की गई है। चौथी और पाँचवी पंक्ति में भी सूचना है लेकिन यहां संवेदना का स्पर्श है। दो अस्पताल और एक कब्रिस्तान के तबाह होने की बात है लेकिन कवि की निगाह यह बताने से नहीं चूकती कि इनके चारों तरफ एक बड़ा घेरा है दर्द और समय का। इनके चारों तरफ़ एक और बड़ा घेरा है - दर्द और समय का

दो हस्पताल और एक कब्रिस्तान तबाह हुए

इस तरह की घटना को कवि की निगाह किस तरह देखती है इसकी काव्यात्मक मिसाल काबिले गौर है लेकिन वह जवान औरत जिसे दफ़नाया गया शहर में

वह रहनेवाली थी सौ किलोमीटर से आगे कहीं की

वह बना देती है घेरे को और बड़ा

इन पंक्तियों में सौ किलोमीटर आगे रहने वाली एक जवान औरत को दफनाने की सूचना धीरे-धीरे काव्य संवेदना में थरथराती हुई इस घेरे को और बड़ा बनाती जा रही है। जाहिर है जिस बम का व्यास तीन सेंटीमीटर था वह अब कवि की निगाह से लगातार फैलता जा रहा है। कविता यही करती है। वह अपनी तरलता और संवेदना में एक बड़े सच को, उसमें छिपे मर्म को इसी तरह व्यक्त करती है। अब यह घेरा और बड़ा हो रहा है क्योंकि जिस बम से मरी औरत का आदमी सुदूर किनारों पर उसका शोक कर रहा है जो समूचे संसार को इस घेरे में ले रहा है।

और वह अकेला शख़्स जो समुन्दर पार

किसी देश के सुदूर किनारों पर

उसकी मृत्यु का शोक कर रहा था

समूचे संसार को ले लेता है इस घेरे में

कहा जाता है कि हिंसा का शिकार सबसे ज्यादा महिलाएँ और बच्चे होते हैं। यदि हम आँकड़ें और उन तमाम खबरों को यहाँ न भी दें तो यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि हिंसा की मार कहाँ-कहाँ और किस-किस तरह महिलाओं और बच्चों पर पड़ती है। कवि अपनी आखिरी पंक्तियों में जो सच बताने जा रहा है वह इस कविता को कितना बड़ा बना देता है, इस बम के व्यास के घेरे को कितना फैला देता है, इन पंक्तियों को पढ़िए-

और अनाथ बच्चों के उस रुदन का तो मैं

ज़िक्र तक नहीं करूँगा

जो पहुँचता है ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक

और उससे भी आगे

और जो एक घेरा बनाता है बिना अन्त

और बिना ईश्वर का ...

जैसा कि इस टिप्पणी में पहले कहा गया है कि एक कवि की निगाह इस घटना को कितनी गहरी संवेदना के जल में थरथराते हुए देखते-दिखाती है कि हम गहरे विचलित हो जाते हैं। इस बम विस्फोट में कवि उन अनाथ बच्चों के रूदन का जिक्र नहीं करना चाहता जो ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक और उससे भी आगे चला गया है। यह रूदन ही वह घेरा बनाता है अंत का और बिना ईश्वर का। कहने की जरूरत नहीं कि एक कवि ही वह अनसुना रूदन सुना सकता है जिससे हमारी आत्मा तक सिहर जाती है। सचमुच एक कवि हमारे सामने कितना बड़ा और बारीक मर्म उद्घाटित कर रहा है जिसमें अनाथ बच्चों के रूदन का अंतहीन और बिना ईश्वर का घेरा है। इस कविता की सबसे बड़ी ताकत यह है कि यह कविता अपने को भावुकता से बचाती हुई उस नैतिक संवेदना से बनी है जो तमाम हिंसा के खिलाफ एक प्रतिरोध है।


कविता का अनुवाद ः अशोक पांडे
पेंटिंग ः रवीन्द्र व्यास

(यह वेबदुनिया के लिए लिखे जा रहे साप्ताहिक कॉलम संगत की एक कड़ी है। मैं इसे मुंबई में आतंकी हमले में मारे गए इंदौर के युवा इंजीनियर गौरव जैन को समर्पित करता हूं।)

Saturday, November 15, 2008

इति जैसा शब्द



हेमन्त शेष की कविता


नर्म और सुगंधमयी कोंपलों की तरह
फूट आती हैं नीली
कांपती हुई इच्छाएं
अनसुने दृश्यों और अनदेखी आवाज़ों के स्वागत में
प्रेम खोल देता है आत्मा की बंद खिड़की


वहां बिलकुल शब्दहीन
अोस से भरी हवाएं प्रवेश कर सकती हैं


देह की दीर्घा की हर चीज़
भीगी और मृदुल जान पड़ती है


बेचैन हाथों से
मृत्यु और काल का प्राचीन फाटक खोलकर
पूरी पृथ्वी पर बचे दो लोग आचमन के लिए
अलौकिक रोशनी से भरे तालाब की तरफ़ आते हैं


भय और आशंका की असंख्य लहरें गड्‍डमड्ड कर देती हैं स्पर्शों के बिम्ब


सिर्फ़ रात के आकाश की कलाई पर गुदा हुआ मिलता है
स्थायी हरा चंद्रमा
जिसके हर गुलाबी पत्थर पर लिखा वे
एक-दूसरे का नाम देखते हैं


वहां से झीने आलोक में डूब दिन उन्हें
जहाज़ों की तरह तैरते नज़र आते हैं
अनन्त दूरियां और विस्तारों तक जिन्हें ले जाते हैं आकांक्षा के पंख


शरीर में जागे हुए करोड़ों फूलों और
कुहरे में झिलमिलाते हुए जुगनूअों जैसी
मौलिक लिपि में
प्रेमीगण बार-बार लिखते हैं
संसार की सबसे प्राचीन त्रासद पटकथा


वे जिसकी बस
कांपती हुई नीली शुरूआत जानते हैं


इति जैसा कोई शब्द
प्रेम के शब्दकोश में नहीं होता।

(कवि के प्रति गहरा आभार प्रकट करते हुए और इस कविता के साथ अपनी पेंटिंग लगाकर कृतज्ञ महसूस करते हुए)

Tuesday, November 11, 2008

एक बार तुमसे प्रेम कहूंगा



एक बार खिलता फूल कहूंगा
एक बार जिगर में अंगारा
एक बार गहराती रात कहूंगा
एक बार झिलमिल तारा


एक बार जागा सपना कहूंगा
एक बार हाथ में लकीर
एक बार धूनी रमाता कहूंगा
एक बार गाता फकीर


एक बार दर दर भटका कहूंगा
एक बार मिला कमंडल
एक बार ये है चिमटा कहूंगा
एक बार अलख निरंजन


एक बार तुमसे प्रेम कहूंगा
एक बार टपका आंसू
एक बार पहाड़ काटूंगा कहूंगा
एक बार नदी में झांकूं


पेंटिंग ः मार्क शागाल

Saturday, November 8, 2008

बारिश की आवाज़ (अंतिम किस्त)


अचानक बारिश तेज होने लगती है लेकिन मैं बारिश की परवाह किए बिना धीरे-धीरे चलने लगता हूं। मैं देखता हूं लोग भागते हैं और सिर छिपाने की जगह ढूंढ लेते हैं। कोई चाय के टपरे के नीचे या घने पेड़ के नीचे शरण लेता है। कोई आड़ ढूंढ़ लेता है, कोई छाते के नीचे बुला लेता है और दोस्त की तरह कंधे पर हाथ ऱखकर धीरे से मुस्करा देता है। एक मां अपने बच्चे को आंचल से ढांक लेती है और बच्चा टुकुर-टुकुर बौछारों को देखते रहता है। कुछ युवा हैं जो उम्र की इस दहलीज पर खड़े बारिश को मनमानी करने देते हैं। एक लड़की खिड़की में बैठी बारिश को देख रही है। बारिश के इस संगीत में उसके होठों पर कोई गीत है जिसे वह बारिश की लय के साथ गुनगुना रही है। हो सकता है, उसकी स्मृति में पहले चुम्बन की बारिश हो और उसी चुम्बन की मिठास में वह गुनगुना रही हो।
कुछ स्त्रियां फैक्टरी से निकली हैं और बारिश में अपने आप सिमट जाती हैं। जैसे यह सिमटना उन्हें बारिश में भीगने से बचा लेगा। वे भागने लगती हैं तो उनकी सांवली और ठोस पिंडलियां श्रम की आभा में चमकती हैं। वे पोलिथिन की थैलियों निकालती हैं और अपने सिरों में फंसा लेती हैं। भीड़ में अपना पल्लू संभालती हैं और चौकस निगाहों से तेजी से चलने लगती हैं।
उधर फुटपाथ पर एक भिखारी बारिश में अपने घर को संभालता है। अपना कम्बल और बची-खुची रोटी बचाता है। बस स्टॉप के शेड में वह अपना फटा कुरता झटकारता है और आसमान की अोर मुंह उठाकर बड़बड़ाता है। उसकी बड़बड़ाहट को अनसुना करते हुए लोग तितर-बितर भाग रहे हैं।
मंदिरों में दर्शनार्थियों की भीड़ है। मंदिर के सामने जूते-चप्पलों का अंबार लगा है और चारों तरफ मंदिर की घंटियों की आवाज गूंज रही है। दर्शनार्थी घंटी बजाते हैं तो सूखी रोटियां चबाते हुए भिखारी सिर उठाकर थोड़ी देर मंदिर की तरफ देखता है और फिर सिर झुकाकर रोटियां चबाने लगता है।
मैं पूरा तर-बतर हो चुका हूं औऱ मेरे जूतों में पानी भर चुका है। घर पहुंच कर जूते उतारता हूं तो पिता के जूतों से निकलते गंदले पानी की आवाज गूंजती है। मैं सिर पोंछता हूं और मेरी कनपटी पर पानी की बूंदें थोड़ी देर ठहरकर फिसलने लगती हैं। मैं जेब से दोस्तों के गीले हो चुके पते निकालता हूं और डायरी में रख देता हूं।
मैं छींकने लगता हूं तो मां अचानक चौंकती है और काढ़ा लाकर कहती है-पी ले, सर्दी नहीं होगी। मां की इस आवाज के पीछे मैं कई-कई बारिशों की आवाजें फिर से सुनता हूं। बारिश में मां कई दिनों तक चुप रहती हैं और अपना काम करती रहतीं। पिता, मां को चुपचाप काम करता हुआ देखते रहते।
कई दिनों बाद धूप निकली है। आसमान एकदम साफ और नीले कांच की तरह चमक रहा है। पेड़ साफ धुले नहाए अपने हरेपन में मुस्करा रहे हैं। अचानक मुझे हंसी की आवाज आती है। बहुत मुलायम हंसी। ऐसी हंसी जिसे सुनकर संतूर याद आए।
मैंने ऐसी हंसी बहुत दिनों के बाद सुनी थी और यह हंसी घर में से ही आ रही थी। मैं अंदर गया तो देखा मां छत की अोर देखकर हंस रही थी। कवेलू वाली हमारी छत में एक बड़ा छेद हो गया था और उसमें से धूप झर रही थी।
धूप मां के चेहरे पर झरने की तरह गिर रही थी और मां की हंसी का उजलापन पूरे घर में फैल गया था।
मैं मां की हंसी के उजलेपन में खड़ा मां की हंसी सुन चुपचाप सुन रहा था।
मैं बहुत खुश था और हलके बादलों की तरह आसमान में उड़ना चाहता था। मैंने सोचा ऐसे में दोस्तों को पत्र लिखना चाहिए। मैंने बहुत दिनों बाद पत्र लिखा। एक दोस्त का जवाब आया। मैंने उसे खोला और पढ़ना शुरू किया।
दोस्त ने लिखा था-तेरा पत्र पढ़कर ऐसा लगा कि धूप में बारिश हो रही है....

Tuesday, November 4, 2008

बारिश की आवाज़ (दूसरी किस्त)



बाहर पानी भरी सड़क पर इक्का -दुक्का वाहनों की आवाज़ें आती । बीच-बीच में नेपाली की सीटी की आवाज़ गूंजती सुनाई पड़ती और उसमें कुत्ते के भौंकने की आवाज अजब तरह से मिल जाती। कोई एक हे राम कहता हुआ निकल जाता। पेड़ों की सरसराहट से लगता बारिश बीच-बीच में तेज़ हो रही है।
हमारे घर के आगे पीपल और पिछवाड़े नीम का पेड़ है। बारिश में ये पेड़ जटाधारी की तरह हिलते हुए भयावह लगते और हमें कभी-कभी लगता ये पेड़ हमारे घर पर गिरकर उसे धराशायी कर देंगे। लेकिन सालों से ये पेड़ बारिश में झूमते रहते और हमारे घर की देह कांपती रहती ।
जब बारिश बंद हो जाती तो उसके बहुत देर बाद तक हमारे घर की छत पर कभी बौछारों या बूंदों के टपकने की आवाज़ आती रहती। छत पर पेड़ों की डगाल झूलती रहती और पत्तों से फिसलता पानी हमारी छत पर टपकता रहता। बहुत तेज़ हवा चलती तो हमें लगता बारिश फिर से शुरू हो गई है। हवा के चलने से पत्तों पर ठहरा पानी एक साथ गिरकर छतों पर गिरता तो लगता बारिश हो रही है। पेड़ की सरसराहट से भी बारिश की आवाज़ निकलती रहती।
कई बार सिर्फ टप् टप् टप् टप् की आवाज़ आती। जैसे बरसों से इकट्ठा हुआ पानी पत्थरों में पैदा हुई दरारों से रिसता हुआ धीरे-धीरे टपक रहा हो। इन बूंदों की आवाज़ घर में एक अजीब वातावरण पैदा करतीं। उस आवाज़ को लगातार सुनते हुए पिता का चेहरा कंदरा में बैठे किसी साधु की तरह लगता। बारिश के दिनों में दिन में भी अंधेरा लगतार् जैसे हम किसी कंदरा यद में बैठे हों।
रात में सोते हुए हमें यही लगता कि हम किसी कंदरा में सो रहे हैं लेकिन छत पर बिल्ली के चलने की आवाज़, सड़क पर कुत्ते के भौंकने और गाय के रंभाने की आवाज़ से या फिर सीटी की आवाज़ सुनकर हमें लगता हम कंदरा में नहीं, अपने घर में ही सो रहे हैं।
सुबह हम उठते तो सबसे पहले रसोईघर से खटर-पटर की आवाज़ सुनते। फिर मां की आवाज़ होती और इसके पीछे पेड़ों के सरसराने की आवाज़ होती। एक पक्षी की आवाज़ भी हम सुनते जिसे हमने कभी देखा नहीं।
हम भाई-बहन कुल्ला करने और चाय पीने के बाद पहला काम यही करते कि आंगन में आकर पानी में छपाक् छपाक् खेलते। मां चिल्लाती कि सर्दी हो जाएगी लेकिन हम अपनी छपाक् छपाक् में मगन रहते। फिर आसमान की अोर मुंह उठाकर गाने लगते-पानी बाबा आना, ककड़ी भुट्टा लाना।
अपने बचपन के दोस्तों के नाम मैं भूल गया लेकिन उनके चेहरे मुझे याद आते हैं। एक दोस्त के माथे पर चोट का निशान था। मैं जब भी उसे याद करता हूं तो सबसे पहले वह चोट का निशान याद आता है। पता नहीं, माथे पर वह चोट का निशान उसे कैसे पड़ा? वह कहीं से गिर पड़ा था या किसी ने उसे मारा था या जन्मजात था, मुझे याद नहीं। लेकिन जब उसके पिता ट्रांसफर होकर जाने लगे तो उस वक्त बारिश हो रही थी। वे सब तांगे में बैठ चुके थे। मेरा वह दोस्त भी। मैं खिड़की में बैठा तांगे को जाते हुए देख रहा था। तांगा थोड़ी दूर ही गया होगा कि उस दोस्त ने अपनी जेब से आधा खाया भुट्टे का टुकड़ा निकाला और मेरी तरफ उछाल दिया। भुट्टे का वह टुकड़ा एक क्षण के लिए धूप में चमका और छप्प से पानी भरे गड्ढे में गिरा। वह छप्प की आवाज़ और दोस्त का हिलता हुआ हाथ मेरी स्मृति में हमेशा के लिए ठहर गया।
और यह बारिश की आवाज़ ही थी जो मेरे बड़े होने के साथ-साथ यहां तक चली आई थी। बारिश में ही मेरे नए दोस्त बने और पुराने छूटे। मुझे अच्छी तरह याद है जब हम दोस्तों को पहली नौकरी मिली थी तो एक रायपुर, एक बालाघाट और एक फरीदाबाद चला गया। कुछ इसी शहर में रह गए थे। फिर एक के पिता, दूसरे का भाई और तीसरे की मां मर गई थी और बारिश में हम एक-दूसरे के आत्मीयजनों को चिटकती चिता में जलता देख रहे थे। हमारे अंदर रह रहकर कुछ चीजें गिरती रहती थीं और हम आंखें बंद किए उनका दरकना और गिरना सुनते रहते थे।
फिर कुछ दिनों बाद हमने बिना बोले विदा ली। वे हाथ हिलाते हैं और मैं उनका कांपना देखता हूं। वे मेरी फीकी हंसी की अोट में रुलाई को सुनते हैं। वे धीरे-धीरे चलने लगते हैं। पानी भरी सड़क पर उनकी पदचाप सुनता हूं, अपनी पीठ के पीछे। वे जा चुके हैं। और बारिश मुझे भिगो रही है। मैं अकेला धीरे-धीरे चलने लगता हूं। जो दोस्त विदा ले चुके हैं उनके सुनाए चुटकुले याद आते हैं और ठहाकों की गूंज सुनाई पड़ती है।
दोस्त विदा ले चुके हैं लेकिन लगता है, बांए कंधे पर एक दोस्त का हाथ अब भी रखा हुआ है।
विदा होने से पहले हमने अपनी-अपनी प्रेमिकाअों को याद किया। फिर हमने सोचा प्रेम-पत्रों का क्या किया जाए। एक ने कहा इनकी नाव बनाकर बारिश के पानी में छोड़ा जा सकता है। हम सभी दोस्तों ने ऐसा ही किया और प्रेम-पत्रों की नाव पानी में तैर रही थी। फिर हमने तेजी से एक ट्रक को आते देखा जो हलका-सा चर्ररर करता हुआ निकल गया। हमने देखा ट्रक के पहियों पर हमारे प्रेम-पत्र चिपके थे। हम सब दोस्त भागते ट्रक की आवाज़ सुनते रहे और पहियों के साथ घूमते हुए अपने प्रेम-पत्र देखते रहे।
बारिश अब भी हो रही थी और उसमें हम भीग रहे थे....
(इस कहानी का एक और टुकड़ा जल्द ही)


पेंटिंग-रवींद्र व्यास

Saturday, November 1, 2008

बारिश की आवाज़


बारिश की कई आवाज़ें मेरी स्मृति में बजती रहती हैं। नदी और झरने की नहीं, सिर्फ बारिश की आवाज़। और बारिशों की इतनी आवाज़ें थीं कि जब बारिश नहीं हो रही होती है तब भी मुझे बारिश की आवाज़ सुनाई देती रहती है। जैसे ही मां हम भाई-बहनों को आवाज़ लगाती, मुझे लगता मां की आवाज़ के पीछे बारिश हो रही है। हम मां के पास दौड़ते हुए जाते। पहले मां हमारे सिर पर धीरे से हाथ फेरती, फिर चूमती और हमारी इधर-उधर पड़ी कॉपी-किताबों को अपने आंचल में से ऐसे निकालकर देतीं जैसे कॉपी-किताबें खरगोश के बच्चे हों। फिर कहती-बेटा अपनी कॉपी-किताबें संभाल कर रखा करो।
मां बहुत धीरे बोलती थी। इतना धीरे कि कान देकर सुनना पड़ता था। पहली बार में तो हमें सुनाई ही नहीं देता था कि मां क्या कह रही हैं। हम क्या मां क्या मां करते तो बड़ी मुश्किल से वह दुबारा अपनी बात कहती। लेकिन दुबारा वह कहती तो वह इतनी टूटी-फूटी होती कि हम समझ ही नहीं पाते। मुझे लगता मां की यह आवाज़ बारिश के कई परदों को पार करती हुई, लड़खड़ाती हम तक आ रही है। छप छप करती हुई।
बारिश में पिता के घर आने की आवाज भी अजीब थी। पिता को पैदल चलने की आदत थी। घनघोर बारिश में भी वे टेम्पो या रिक्शा में नहीं बैठते। वे जब घर आते तो उनके जूतों में पानी भरा होता और चलने पर उन जूतों से पचर-पचर की आवाज़ें आतीं। वे जूते निकालते तो बारिश के गंदले पानी की छोटी-सी धार की आवाज होती।
मां पहले से ही पंछा लेकर बैठी रहती। पिता सिर पोंछते तो बल्ब की पीली रोशनी में उनके सफेद बाल सुनहरी लगते और कनपटी पर पानी की बूंदें थोड़ी देर ठहरी रहतीं और फिर एक साथ इकट्ठा होकर फिसल जातीं।
घर में आते ही पिता पहले छत को देखते। छत पर बौछारों की आवाज के साथ बिल्ली की म्याऊं की लंबी आवाज सुनाई देती। छत के बाद पिता की आंखें घर की दीवारों पर फिसलने लगतीं। दीवारों में जहां सीलन आती वहां विचित्र आकृतियां उभर आतीं। हम भाई-बहन उन आकृतियों में शेर, हाथी, घोड़े, भालू, ढूंढ़ लेते। कई बार लगता दीवारों से बहुत धीमा शोर उठ रहा है। लगता, कोई चीख रहा है, चिल्ला रहा है। कभी कभी हमें घोड़ों के टापों की आवाज आती और दीवारों पर उभरी आकृतियों में लगता तलवार लिए लोग चीख-चिल्ला रहे हैं।
बारिश में कभी ऐसा भी होता कि दीवार पर एक बड़ी मानव मुखाकृति बन जाती। गौर से देखने पर भी पता नहीं लगता कि यह आकृति आदमी की है या औरत की। कभी-कभार हम भाई-बहन बहुत करीब से उसे देखते। वह मुखाकृति कभी हमें मां की लगती, कभी पिता की। रात मे कई बार हम भाई-बहन पीली रोशनी में इस काली-भूरी और कभी बदरंग दिखाई देती मुखाकृति को देख डर जाते। कई बार ऐसा होता कि रात में हड़बड़ाकर हम उठ बैठते और रोने लगते। मां हमें अपनी छाती से चिपटा लेती। हम धड़क-धड़क की आवाज सुनते। मां के छाती से चिपटा लेने के बावजूद हमारा डर कम नहीं होता।
पिता हमें धीरे-धीरे थपकियां देने लगते-थप् थप् थप्...
थपकियों के बीच हमें मां के गिलास भरने की आवाज सुनाई देती और फिर मां हमें धीरे से उठाकर कहती-ले पानी पी ले एक घूंट। मैं उठता और गट गट पानी पी जाता। नींद आने के ठीक पहले मुझे ऐसा लगता कोई सिसकियां ले रहा है। जोर-जोर से सांस लेने की आवाज आती। आंखें बंद किए मैं डरता रहता।
मुझे लगता दीवार पर बनी मुखाकृति रो रही है...

(लघु पत्रिका आवेग में प्रकाशित मेरी कहानी बारिश की आवाज का एक टुकड़ा। बहुत जल्द ही आप इस कहानी के दो और टुकड़े पढ़ पाएंगे। )
पेंटिंग - रवींद्र व्यास

Friday, October 24, 2008

तब से वह अपने पीले हाथों को सबसे छिपाए फिरती है


वह इससे बेखबर थी।
न तारीख पता, न वार, न ये पता था कि दिन था या शाम। या अपने में ही गहराती कोई रात। धूप थी कि छांव। वह सोयी थी या जागी। जीवन में थी या स्वप्न में।
पता नहीं, कोई एक खयाल कब उसके पास आकर हौले से बैठ गया। पहली नजर में उसने ध्यान नहीं दिया। जब दोबारा वह खयाल अपनी जगह से उठकर उसके आसपास मंडराने लगा तो उसने महूसस किया कि इसमें कुछ झीनापन है जिसके पार देखा जा सकता है। रोज के इतने काम थे कि वह इस झीनेपन में ठीक से देख नहीं पाई। फिर इस झीनेपन पर कुछ रंग आने लगे। फिर खुशबू। उसे लगा इस रंगो-बू को समझने की कोशिश करे। वह समझती इसके पहले ही यह झीनापन एक तितली में बदल गया।
पहले एक तितली।
फिर दूसरी।
फिर तीसरी।
फिर तीसवीं।
उसे लगा वह तितलियों से घिरी है। उसके चारों तरफ तितलियां ही तितलियां मंडरा रही हैं। खूब सारी तितलियां। रंगबिरंगी। इन्हीं तितलियों में गुम उसे लगा वह किसी दूसरे संसार की प्राणी है। वह उन तितलियों के रंगों में गुम थी। वह जमीन पर ही थी लेकिन अपने कदमों को रखते हुए वह चलती तो उसे लगता वह एक फूल से दूसरे फूल पर हौले-हौले कदम रख रही है।
वह इतनी खुश थी कि वह हमेशा अपनी आंखें बंद रखती। उसे लगता उसके चेहरे पर भी तितलियां उतर रही हैं। वह अपने चेहरे पर धीरे से हाथ फेरती। उसे लगता उसके हाथों में कुछ धड़क रहा है। वह धीरे-धीरे अपनी ही धड़कनों को सुनते हुए हाथ खोलती और पाती कि उसके दोनों हथेलियां एक बड़े फूल की पीली पंखुरियों में बदल गए हैं। उसके हाथों में पीला रंग महक रहा है, जैसे किसी ने बड़े प्यार से गीत गाते हुए हल्दी लगाई हो। उसे लगा यह कोई जादू है। उसे जादू में यकीन था।
उसने पीला रंग देखा। वह खुश रंग था। लेकिन उसने सोचा उसके हाथ पीले देखकर लोग सवाल करेंगे। उसने सोचा पानी से हाथ धो ले तो यह रंग छूट जाएगा। लेकिन उसने देखा पानी में रगड़-रगड़कर हाथ धोने के बाद भी पीला रंग छूट नहीं रहा। फिर उसने साबुन लगाकर हाथ धोए। वहां अब भी पीला चमक रहा था। उसने कपड़े के साबुन से हाथ धोए। वहां पीला रंग ही दमक रहा था। उसने सोचा कैरोसिन ट्राई किया जाए। फिर सोचा मि्टटी।
लेकिन उसके हाथ हमेशा के लिए पीले हो चुके थे।
तब से वह अपने पीले हाथों को सबसे छिपाए फिरती है।
(पेंटिंग ः रवींद्र व्यास)

Tuesday, October 21, 2008

बाहर फैलते पतझड़ से बेखबर


उसे पता नहीं था कि वह कब से वहीं खड़ी रह गई है, जहां वह उसे छोड़कर चला गया था।
वह पतझड़ के मौसम में खड़ी थी और उसके हाथों में जो छुअन बाकी रह गई थी वह उसके अंदर एक भरे-पूरे वसंत में खिलकर महक रही थी। इसी महकते वसंत की लचकती शाख पर वह अपने प्रेम का अधखिला फूल देख रही थी। वह उसके खिलने की आहट को सुनने के लिए बेताब थी। पतझड़ का कब से एक अटका पत्ता झरता हुआ उसके पैरों के पास आकर ठहर जाता है।
वापसी की राह को तकती उसकी आंखों में अब भी हरापन बाकी बचा था।
उसे अहसास नहीं था कि इसी हरेपन की रगड़ से उसके भीतर कुछ छिल जाएगा, छिन जाएगा, जिसकी जलन देर तक बनी रहेगी...
वह अब भी वहीं खड़ी है।
अपने वसंत के साथ, अधखिले फूल की आहट को सुनने को बेताब।
बाहर फैलते पतझड़ से बेखबर...
(जैक वैट्रीआनो की पेंटिंग- रोज़)

Friday, October 10, 2008

यह जो हरा है


भोपाल की सरल आर्ट गैलरी (न्यू मार्केट, मालवीय नगर) में मेरे चित्रों की पहली एकल नुमाइश ११ अक्टूबर से १७ अक्टूबर तक होगी। यह जो हरा है शीर्षक वाली इस प्रदर्शनी का उद्घाटन ख्यात चित्रकार श्री अखिलेश ११ अक्टूबर को शाम साढ़े छह बजे करेंगे। इसमें मेरी चालीस पेंटिंग्स होंगी। इसमें आइल और एक्रिलिक में बने चित्र शामिल हैं। मैं आप सभी को आमंत्रित करता हूं। इसके पहले मैं तीन समूह प्रदर्शनियों में अपने चित्र प्रदर्शित कर चुका हूं और दो नेशनल आर्ट कैम्प में भागीदारी। इस प्रदर्शनी के बाद १ से छह दिसंबर को मेरे चित्रों की एकल नुमाइश जयपुर के जवाहर कला केंद्र सुदर्शन में होगी।

Wednesday, October 8, 2008

एक दिन मां बिना कुछ कहे कहीं चली गई

सुबह जब उठे तो हमें किसी ने नहीं देखा।
फिर एक पेड़ हिला, उस पर चिडि़या बैठी, एक फूल झरा।
एक गाय आई, एक कुत्ता।
इनको भी किसी ने नहीं देखा।
रात की रोटी दूसरे दिन दोपहर तक सूखती रही।
बिल्ली दूध पीकर चली गई।

मैं बारिश में भीगता हूं।
छींकता हूं।
मुझे भी कोई नहीं देखता।
मैंने मां को ढूंढ़ा।
वह जहां सोयी थी वहां बच्चे अकेले हैं।

और हमारे सिरहाने ठंडे पानी की मटकी रखी हुई थी।

Monday, October 6, 2008

कोंपलों की उदास आँखों में आँसुओं की नमी


अपनी कोई महीन बात को कहने के लिए गुलज़ार अक्सर कुदरत का कोई हसीन दृश्य चुनते हैं। कोई दिलकश दृश्य खींचते हैं, बनाते हैं। कोई एक दृश्य जिसमें पहाड़ है, कोहरा है, दरिया है या पेड़ या फिर धुँध में लिपटा कोई ख़ूबसूरत नजारा। उनकी नज्म किसी बिम्ब या दृश्य से शुरू होती है। इसमें रमने का भाव है। मुग्ध होने का भाव है, लेकिन यह सब शुरुआत में है। बाद की किन्हीं पंक्तियों में स्मृति से भीगी कोई मानीखेज़ बात हौले से आकर उस दृश्य में एक दूसरी जान फूँक देती है। यह बहुत सहज-सरल ढंग से होता है।

बाद की पंक्तियों में आई कोई बात उस दृश्य से हमारा एक नया संबंध बनाती है। इसमें उनकी संवेदना थरथराती है। हमारी संवेदनाओं को थरथराती हुई। और हम एक बार फिर अपने देखे हुए किसी दृश्य या बिम्ब से नए सिरे से परिचित होते हैं। यह परिचय ज्यादा आत्मीय होता है। ज्यादा गीला। हमें भी भीतर से गीला करता हुआ। हमारी ही अपनी नमी से फिर से नए ढंग से पहचान करता हुआ। यह लगभग चुपचाप ढंग से होता है। ओस के बेआवाज गिरने की तरह, हौले से तितली के बैठने की तरह, आँसू के चुपचाप टपकने की तरह। मौसम उनकी ऐसी ही नज्म है। इसकी शुरुआती पाँच पंक्तियाँ ये हैं जो एक दृश्य खींचती हैं-

बर्फ पिघलेगी जब पहाड़ों से

और वादी से कोहरा सिमटेगा

बीज अँगड़ाई लेके जागेंगे

अपनी अलसाई आँखें खोलेंगे

सब्ज़ा बह निकलेगा ढलानों पर।

यह अतीत में देखे गए दृश्यों का भविष्य में फिर से घटित होने का एक कवियोचित पूर्वानुमान है। यह किसी दृश्य पर फिसलती लेकिन एक सचेत निगाह है कि एक ठंडे और महीनों कोहरे से लिपटे होने के बाद मौसम के करवट लेने का एक नैसर्गिक चक्र है। लगभग सूचनात्मक ढंग से लेकिन इस सूचना में एक खास गुलजारीय अंदाज है। अंदाज देखिए कि बीज अँगड़ाई लेके जागेंगे, अपनी अलसाई आँखें खोलेंगे, सब्ज़ा बह निकलेगा ढलानों पर। इसमें अँगड़ाई लेकर जागने का एक अंदाज है। अलसाई आँखें खोलने की बारीक सूचना है।

और फिर पूरे दृश्य पर एक मखमली, ताजा-ताजा सब्ज़ा है। वह भी बहता हुआ। बहता हुआ, वह भी ढलानों से। यानी एक गतिमान दृश्य है जो अपनी ताजगी, हरेपन और कोमल रोशनी में पूरी तरह खुलता है। विस्तारित होता हुआ। ढलान पर। लयात्मक। तो यह एक दृश्य है। अपने टटकेपन में मन मोहता हुआ। लेकिन रुकिए। इसके बाद जो पंक्तियाँ शुरू होती हैं वे बताती हैं कि ढलानों से बहते इस सब्जे़ में आप भी बह मत जाइए। खो मत जाइए। इन बहारों को गौर से देखने की बात है। गुलज़ार फरमाते हैं-

गौर से देखना बहारों में

पिछले मौसम के भी निशाँ होंगे।

यह एक सचेत निगाह है। होशमंद, जो कहती है कि उन निशाँ को देखो जो पिछले मौसम के हैं। और ये निशाँ क्या हैं? ये गुलज़ार बताते हैं-अपनी उसी नाजुक निगाह से।

कोंपलों की उदास आँखों में

आँसुओं की नमी बची होगी।

ये किसी दुःख को, किसी आँसू को देखने की खास निगाह है। अमूमन कोपलों में ताजापन, हरेपन की कोई उम्मीद, आशा की कोई किरण देखी जाती है। यहाँ इसके ठीक उलट है। यहाँ कोपलों की आँख है। ये आँखें उदास हैं। आँखों में आँसू हैं। और ये पिछले मौसम के निशाँ हैं।

यानी पिछले मौसम में कुछ ऐसा हुआ है जिसके कारण इस करवट लेते और नए होते मौसम में भी बीते की नमी, आँसू की नमी बची रह गई है। जाहिर है इसमें दृश्य को देखने का एक सिलसिला है।

एक दृश्य को माज़ी में देखे गए दृश्य से जोड़ना है। यह जोड़ना संवेदना से जोड़ना भी है। माज़ी से जोड़ना भी है। मानी से जोड़ना भी है। इस तरह गुलज़ार कुदरत के किसी दृश्य को सिर्फ दृश्यभर की तरह नहीं देखते। वे अपनी निगाह से उसे एक मानी देते हैं। तब यह देखा गया या देखे जाने वाला या देखा जा रहा दृश्य ज्यादा मानीखेज़ हो जाता है। इसलिए गुलज़ार दृश्य को मानी देते हैं। ये मानी हमारे जीवन को मानीखेज़ बनाते हैं। और मौसम में छिपे पुराने मौसम के निशाँ से हमारी नई पहचान कराते हैं। ये ज्यादा आत्मीय है। इस तरह गुलज़ार के इस मौसम को देखते-महसूस करते हमें अपने ही भीतर के मौसम की नमी का अहसास होता है।यही अहसास हमें अधिक मानवीय बनाता है। यानी जो हो चुका उसकी एक भीगी-सी याद बनी रहती है। नए को देखने में पुराना भी छिपा रहता है। जो नए को ज्यादा नया बनाता है। यही हमारे जीवन का भीगा मौसम है। बाहर का उतना नहीं, जितना भीतर का।

आओ इस मौसम को फिर निहारें और अपने भीतर के मौसम में किसी पगडंडी पर, किसी पहाड़ पर, किसी कोंपल के करीब जाकर कुछ धड़कता महसूस करें। उस भीतरी मौसम में कुछ देर गहरी साँसे लें और अपनी नमी को फिर से हासिल कर लें।

(वेबदुनिया के लिए लिखे जा रहे कॉलम की एक कड़ी।)

गुलज़ार की नज्मों पर मेरी कुछ और पेंटिंग्स यहां देखें-


Friday, October 3, 2008

अपना शहर एक असमाप्त खोज है


समकालीन हिंदी कविता के महत्वपूर्ण कवि कुमार अंबुज भी ब्लॉगर बन गए हैं। आज ही उन्होंने अपनी एक बेहतरीन पोस्ट डाली है। यह उनके गद्य का एक टुकड़ा है, शहर को देखने की उनकी अपनी नितांत नाजुक निगाह और शैली। इसे पढ़कर यह सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि यह एक कवि का गद्य है। मैं उनके प्रति गहरा आभार प्रकट करता हूं कि इसे अपने ब्लॉग पर लगाने की उन्होंने अनुमति दी। तो लीजिए पढ़िए कुमार अंबुज का गद्य।

बड़े शहरों का आकर्षण विचित्र है। वे लोगों को उस तरह अपनी तरफ खींचते हैं जैसे आलपिनों को कोई बड़ा चुंबक। उनकी परिधि और प्रभाव क्षेत्र में आनेवाले तमाम गांव-कस्बे उनमें धीरे-धीरे समा जाते हैं। आसपास एक निर्वात-सा बनता है, जिसे शहर अपनी परछाइयों से, अपने वैभव से और अपने कूड़े से भरता जाता है।विस्थापन की यह एक अबाध, अनवरत् प्रक्रिया है। इसे रोकना कठिन लगता है क्योंकि यही अब हमारे देश में विकास की अवधारणा का मॉडल है। कभी-कभी खुद से ही पूछता हूं कि क्या मनुष्य जीवन कुल पचास-साठ महानगरों में सीमित हो सकता है? या फिर छोटे-बड़े-मंझोले कुल तीन-चार सौ शहरों में। बाकी जगहों पर जीवन के सिर्फ अवशेष रहेंगे। उठते-गिरते, आसमान की तरफ देखते, अभिशप्त जीवन के उदाहरण। या वे जिजीविषा से भर उठेंगे और अपने होने को फिर साबित करेंगे?
जो भी हो, लेकिन अपना गांव कस्बा या शहर छोड़ देना, उसे अपने लिए एक स्थायी इतिहास बना देना सदैव ही सबसे मुश्किल काम है। और इसका कोई बहुत बड़ा, व्यावहारिक बुदिध से लबरेज, लाभ-हानिवाला कारण बताना लगभग नामुमकिन है। याद करें, `नसीम´ फिल्म में बूढ़े दादाजी, इस सवाल पर कि हम भी पाकिस्तान क्यों नहीं चले गये, अपनी पोती से कहते हैं कि `तुम्हारी दादी को यह सामने लगा नीम का पेड बहुत पसंद था, इसलिए।´ अब इस कारण को समझना बेहद आसान भी है और अत्यंत मुश्किल भी। इन्हीं वजहों से साहित्य में विस्थापन को लेकर, अपनी जगह-जमीन को लेकर महान रचनाएं संभव होती रही हैं।
दरअसल, शहर और आप, दोनों साथ-साथ विकसित होते हैं। पल्लवित होते हैं और एक साथ टूटते-फूटते हैं। कभी शहर में फूल खिलते हैं, नये पत्ते आते हैं तो आपके भीतर भी वे सब दर्ज होते हैं और जब आपके भीतर फुलवारी खिलती है तो आप देखते हैं कि शहर में भी जगह-जगह गुलमोहर फूल गया है। जब भी आप उदास होते हैं, अवसाद या दुख में होते हैं तो शहर अपनी किसी पुलिया के साथ, किसी पुराने पेड़ की छाया और उसके विशाल तने के साथ, अपने मैदान में ढलती शाम के आत्मीय अंधेरे के साथ आपके लिए उपस्थित हो जाता है। जैसे आप शहर के हर उस कोने-किनारे को जानते हैं, उन जलप्रपातों, कंदराओं और आ¡चल को जानते हैं जहा¡ जाकर एकदम किलकारी भर सकते हैं या सुबक सकते हैं। और जानते हैं कि यह शहर आपकी किसी मूर्खता, भावुकता और तकलीफ को इस तरह जगजाहिर नहीं होने देगा कि आपको शर्मिंदगी हो। यह अपना शहर है, यह आपको उबार लेगा। और मौका आने पर आज भी अपने कंधे पर बैठा लेगा। शहर की ठोकरों के निशान आपके माथे और आत्मा पर कुछ कम नहीं हैं लेकिन कुछ रसायन हैं जो तब ही बनते हैं जब आप अपने शहर में होते हैं। भीतर कुछ धातुएं हैं, घंटियां हैं, जिनका संगीत शहर में होने से ही फूटता है। जब आप अपने शहर में नहीं हैं तब भी एक तरह का संगीत, एक सिम्फनी बजती रहती है, लेकिन उसका राग कुछ अलग होता है।
आप जानते हैं कि काफी हद तक ये सब रूमानियत और भावुकता से भरी बातें हैं। यथार्थ का धरातल रोजी-रोटी है। कस्बों और छोटे शहरों का अनियोजित विकास, टूटी सड़कें, फूटी नालियां, तंग गलियां, धूल, गंदगी, जाहिली-काहिली हमारे सामने वास्तविकता के बड़े हिस्से की तरह प्रकट है। लेकिन यह भी सच्चाई है कि हर आदमी को जैसे अपना एक शरीर मिलता है, वैसे ही उसे अपना एक शहर मिलता है। जीवन में सिर्फ एक बार। लेकिन चाहते हुये भी आप हमेशा अपने शरीर में वास नहीं कर सकते। दूसरी देहों में भी आपको रहना पड़ता है। यह कायांतरण जीवन की विडंबना है, लेकिन है। इस कायांतरण में आपको तिलचट्टे की देह मिल सकती है या मुमकिन है कि आपको किसी सुंदर पक्षी या चीते की देह मिल जाये। लेकिन फिर आप हमेशा ही अपने शरीर की खोज करते हैं कि आपका पुनर्वास हो सके। आपकी हर ऊंची उड़ान, हर अकल्पनीय छलांग या वेदनापूर्वक घिसटने की नियति, त्रासदी या उल्लास जैसे अपनी उस देह को फिर से पा लेने की ही कोई कोशिश है। हर दूसरा शहर, हर दूसरा शरीर जैसे कोई अस्थायी राहत-शिविर है। सराय है। तम्बू है।
दूसरे शरीर में रहते हुये, चाहे वह कितना ही सुंदर, सुगंधित, सामथ्र्यवान क्यों न हो, एक परायेपन, अचकचाहट और प्रवासी होने का बोध बना रहता है। जैसे आप निष्कासन पर हैं। और अपनी देह कितनी ही कुरूप हो, धूल-धक्कड़ से भरी हो, चुंबनों या घावों से लबरेज हो और उसमें कितनी ही मुश्किलें बन गयी हों मगर आपको लगता है कि यहा¡ आप अजनबी नहीं हैं। आश्वस्त है कि आप इस शरीर के सारे रास्ते जान सकते हैं। सारी गलियां, धमनियां, सारे चौराहे, घाटियां, खाइयां और गूमड़। उन स्पंदनों, संवेगों और तरंगों के साथ सहज रह सकते हैं जो आपकी देह में से उठती हैं। चूंकि शरीर की तरह, शहर-गांव भी एक ही बार आपको प्राप्त होता है इसलिए छूट गये शहर से आपकी मुक्ति संभव नहीं। वह आपका था, आपका है। आप उससे दूर हैं लेकिन वह आपका है। वह नष्ट हो रहा है तब भी और उठान पर है तब भी। दोनों स्थितियों में वह आपको व्यग्र बनाता है।
जग जाहिर है कि बड़े शहरों की मुश्किलें भी बड़ी हैं। अपरिचित भीड़ से उपजा अवसाद, दो सौ परिवारों के बीच में रहने से पैदा अकेलापन, प्रदूषण के तमाम प्रकार, अनियंत्रित जनसमूह, पार्किंग, ट्रैफिकजाम, भागमभाग, थकान और यांत्रिकता। यह सूची बहुत लंबी हो सकती है। लेकिन यहीं रोशनियां हैं, आधुनिकता है, नयी आवाजें और तसवीरें हैं। वे एकांतिक क्षण संभव हैं जब अपरिचय भी वरदान है, सभ्यता के अनेक स्तर हैं, जीवंत उठापटक है और वे चबूतरे, वे रोशनदान भी हैं जहां से आप दूर तक देख सकते हैं। हर शहर, अपने आकार और संपन्नता के अनुपात में उतना ही बड़ा एक चुंबक है। वह लोहे को ही नहीं, हर उस चीज को खींचता है, जो उसके करीब से गुजरती है। मैं भी पिछले वर्षों से इसकी गिरत में हूं। बीसियों बार अपने शहर गुना का मकान बेचकर, यहां भोपाल में छोटा-सा घर लेने के उपक्रम में फंसता हूं। लेकिन ठीक उस वक्त जब सब चीजें निर्णय में जाना चाहती हैं, मैं उस खेल को जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे बिगाड़ देता हूं। अब यह खेल जैसा ही कुछ हो गया है। जैसे मैं बड़े शहरों से मुक्त होना चाहता हूं। उन्हें परास्त कर देना चाहता हूं। उनके रूप, लावण्य, गरिमा और गर्व को आहत करना चाहता हूं। उनके गुरुत्वाकर्षण के खिलाफ जाकर अपनी गुम पृथ्वी पर लौट आना चाहता हूं। यह एक जटिल खोज है, जटिल लड़ाई है। इसके अनेक मोर्चे हैं, अनगिन पहलू। मैं कभी कंदरा में छिपता हूं, कभी मैदान में आकर लड़ता हूं। लगता है कि एक दिन अपनी काया को वापस पा लू¡गा। कभी लगता है कि अब वह अलभ्य है।
और यदि कभी आपको अपना शहर वापस मिलता है, भले ही थोड़े-से वक्त के लिए, तो आप देखकर विस्मित और अवाक् हो सकते हैं कि यह वह शहर नहीं जिसे आपने खो दिया था। इस तरह अपने शहर को आप एक बार फिर खो देते हैं, और फिर से अपने खो गये शहर को खोजने की यात्रा शुरू होती है। अब हम उन चिन्हों, उन सितारों, मैदानों और सूर्यास्तों को, उन कोनों-किनारों, रास्तों और पुलियों को फिर से खोजते हैं। उस उमंग, उत्साह, उत्ताप और आनंद को छू लेना चाहते हैं जो भीतर बसा और धंसा रह गया था। लगता है जैसे यह खोज अपनी किशोरावस्था की, युवा दिनों की, वनस्पतियों, तालाबों, गलियों और उन मित्रों की खोज भी है जो दरअसल बीत गये हैं और ऐसी जगह जाकर फंस गये हैं कि उनकी वापसी संभव नहीं। कई बार तो अपने शहर में रहते हुये भी आप उसे खो देते हैं और बेसाख्ता आपके मुंह से निकलता है- `अब यह शहर वैसा नहीं रहा।´ इस तरह हम अपनी ही देह, अपनी ही उम्र के गुजर जाने की सूचना भी चस्पा करते हैं।
कभी-कभी अपने शहर की अब तक अदेखी गली या किसी नयी बन रही जगह को देखकर लगता है कि अरे, इतने वर्ष हो गये, इस तरफ तो आना ही नहीं हुआ। सड़क के भीतर कुछ ध¡सकर उग आये बांस के झरमुट, शांत चट्टान या अब तक अलक्षित किसी टूटी दीवार को देखकर भी ऐसा ही भाव आता है कि अभी इस शहर के कई रंग हैं, कई रूप, जिन्हें देखना हमेशा शेष रहेगा। तकलीफें, उम्मीदें और जिज्ञासाएं आपका पीछा नहीं छोड़तीं। यह एक बहुआयामी अन्वेषण है। एक अनवरत खोज।
लेकिन हर उस शहर का, जिसमें आप फिलहाल रहते हैं और जो भले आपका न हो, एक सौंदर्य होता ही है। उसके स्थापत्य का, उसकी ह¡सी का, उसकी रातों का और उसकी सुबहों का एक मायाजाल होता है। कुछ दिन साथ रहने से उपजा आपसी प्रेम होता है। इनका सामना आप हर बार अपने कस्बे की गंध से, स्मृतियों से और छबियों से करते हैं। लेकिन ये कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं हैं। आप हर बार निहत्थे हैं। चीजें आपको लुभाती चली जाती हैं। और यह देखकर, यह जानकर कि आखिर हर बड़ा शहर अपने आप में एक `शेल्टर हाऊस´ है, आप एक बार फिर शरणार्थी होने का अनुभव करते हैं।
तब यह जीवन जैसे अपने शरीर और अपने शहर को वापस पा लेने की, पुनर्वास की आकांक्षा की, एक अशांत और आशावान दिनचर्या से भर जाता है।

Monday, September 29, 2008

अब वे अपने विश्व में रहते हैं





अखिलेश चित्रकार हैं। युवा और चर्चित। भोपाल में रहते हैं। इंदौर के ललित कला सस्थान से डिग्री हासिल करने के बाद दस साल तक लगातार काले रंग में अमूर्त शैली में काम करते रहे। भारतीय समकालीन चित्रकला में अपनी एक खास अवधारणा रूप अध्यात्म के कारण खासे चर्चित और विवादित। देश-विदेश में अब तक उनकी कई एकल और समूह प्रदर्शनियां हो चुकी हैं। कुछ युवा और वरिष्ठ चित्रकारों की समूह प्रदर्शनियां क्यूरेट कर चुके हैं। गाहे-बगाहे सूजा से लेकर रजा और हुसैन पर लिखते रहे हैं। विश्वविख्यात चित्रकार मार्क शागाल की जीवनी का अनुवाद किया है। अभी कुछ दिनों पहले ही अखिलेशजी से फोन पर बात हुई। पता चला वे दुबई में कुछ दिन एमएफ हुसैन के साथ रहकर आए हैं। मैंने उनसे आग्रह किया, कुछ लिखें। लिहाजा उन्होंने यह लिख कर भेजा। मैं इसे अपने ब्लॉग पर देते हुए अखिलेशजी के प्रति गहरा आभार प्रकट करता हूं। साथ ही अखिलेशजी द्वारा खींचे गए हुसैन के कुछ फोटो भी दे रहा हूं जो बताते हैं कि हुसैन में कितनी रचनात्मक भूख है। अच्छी खबर यह भी है कि हुसैन साहब के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक राहतभरी बात कही है। लीजिए पढि़ए अखिलेशजी का लेख-


अब वे अपने विश्व में रहते हैं

दुबई में बाबा से मिलना हुआ। पांच वर्षों के अतंराल के बाद मिलना। सुखद अनुभव था। मैंने जब भोपाल के बारे में उनसे बात की तब उन्होंने कई बातों का पिटारा खोल लिया। भोपाल का वैश्विक रूप दिखाई देने लगा। हुसैन साहब के लिए समय का प्रचलित रूप कोई मायने नहीं रखता न ही देश की सीमाअों का अस्तित्व बचा। अब वे अपने विश्व में रहते हैं जहां सब कुछ उनका अपना है। वे समय-सीमाअों को पार कर जाते हैं। वे देश की भौगोलिकता के बाहर रहते हैं। भोपाल की मेरी शुरुआती स्मृति भोपाल स्टेट की है। भोपाल की बेगमों का दम और राजकाज शुरू से आकर्षित करता रहा है। हुसैन कहते हैं। भोपाल के तांगे, तंग गलियां, पटियेबाजी आदि सभी दुर्लभ हैं।

"मैं लैंडस्केप करने जाया करता था। भोपाल भी गया। घुमक्कड़ स्वभाव था। यहां-वहां भटका करता था। एक बार सोलेगांवकर के साथ अकंलेश्वर चला गया। दिन भर चित्र बनाते रहे, अब रात को क्या करें? मंदिर में जाकर सो गए। सुबह पुजारी ने जगाया। नहा-धोकर आरती की, प्रसाद खाया फिर चले।"

"लोहियाजी के कहने पर रामायण पेंट की। सात-आठ साल बद्री विशाल पित्ती के घर रहा। हैदराबाद में बनारस से पंडित बुलाए गए। वे रोज रामायण पढ़कर सुनाते। रोज सुबह नहाकर पंडित के सामने बैठता, वे घंटे दो घंटे रामायण पढ़ते और उसको सुनकर दिन भर चित्र बनाता। बड़े-बड़े कैनवास और ढेरों चित्र बनाए। सब रखे हैं।"

हुसैन ९३ वर्ष के हो गए हैं। भारतीय समकालीन चित्रकला के भीष्म पितामह-स्वामीनाथन अक्सर हुसैन को इसी पदवी से नवाजते थे। हुसैन के चेहरे पर वही तेज। वहीं गंभीरता और वही रौनक थी। हुसैन की चपलता वैसी ही है। चित्र बनाते वक्त उन्हें देखना एक पूरी सदी को चित्र बनाते हुए देखने जैसा है। हुसैन के हम उम्र इस दुनिया में नहीं हैं और संभवतः जो हैं भी वे निष्क्रिय हैं। हुसैन आज भी अनेक युवा चित्रकारों से ज्यादा चित्र बनाते हैं। बेचने के लिए नहीं बल्कि अपनी रचनात्मक ऊर्जा को सहेजते-संवारते हुए। हुसैन के चार स्टूडियो हैं। वे उन सभी जगह ले गए और हर स्टूडियो अलग-अलग विषयों पर काम कर रहे हैं। एक तरफ भारतीय संस्कृति पर केंद्रित संग्रहालय के लिए चित्र बना रहे हैं, दूसरी तरफ भारतीय सिनेमा के इतिहास को चित्रित कर रहे हैं। घोड़ों पर वे एक चित्र श्ृखला बना रहे हैं और कतर की महारानी के संग्रहालय के लिए ९९ चित्र बना रहे हैं। ये सब श्ृखलाएं वे एक साथ बना रहे हैं। वे अपनी यायावरी में रचनात्मक हैं। उनका एक जगह पर न होना भी उनके सृजन का स्रोत है। "शाम को आप चलिएगा। मेरे दोस्त हैं, वे डॉक्टर हैं, डेंटिस्ट हैं, उनकी पत्नी का जन्मदिन है, बस मुबारकबाद देकर लौट आएंगे। मैं आपको ले चलता हूं, रवि रेस्त्रां में वहीं खाना खाएंगे फिर शाम को फिल्म देखेंगे।"

हुसैन ने आवाज लगाई। हसन को एक कैनवास और रंग निकालने के लिए कहा। वे चित्र बनाने लगे। शाम की तैयारी। लगभग आधे घंटे में चित्र तैयार हो गया।। फिर हम लोग चल पड़े। उनके डॉक्टर के घर पहुंचे, उन्होंने चित्र डॉक्टर और उनकी पत्नी को दिखलाया, फिर उसे जन्मदिन का तोहफा है कहकर भेंट कर दिया। अवाक् रह गईं डॉक्टर साहब की पत्नी। फिर वे खुशी से रोने लगी। हम लोग लगभग आधे घंटे वहां बैठे, चाय पी, कुछ बातें की। उनका रोना चलता रहा। वे अपनी खुशी को अंत तक संभाल नहीं पाईं। हुसैन की सहजता और चित्र की ताकत उनके आंसुअों में झलक रही थी। वे बार-बार कुछ कहना चाहती रहीं, किंतु उनका रूंधा गला साथ न दे सका। हुसैन अपनी उदारता के लिए प्रसिद्ध हैं। वे कभी भी कहीं भी चित्र बनाने में सक्षम हैं और इन चित्रों को मित्रों में बांटने में झिझकते नहीं।

"मैंने आपबीती को फिर से लिखना शुरू किया है। वे किताब पंद्रह साल पहले लिखी थी ओर इन पंद्रह सालों में बहुत कुछ बदला है। इन सब बातों को लिखना चाहिए। मैंने शुरू कर दिया है। आपको सुनाता हूं।" हुसैन ने अपनी डायरी से इस हफ्ते लिखा अध्याय निकाला और सुनाने लगे। हुसैन के लिखने में छंद है। वे रदीफ –काफिए को सहज ही बिठाते हैं। उनके लिखने में रस है और उनके पढ़ने में रिदम। ९३ वर्ष की उम्र में उनकी स्मृति साफ है। वे हर लम्हे को ठीक तरह से सुनाते हैं। याददाश्त में दरार नहीं है। उन्हें याद है कि मैं उनसे पांच साल बाद मिल रहा हूं। और उन्होंने इन पांच सालों में मैंने क्या किया, यह जानने में देर नहीं की। वे कुछ भी भूले नहीं। और उन्हें सब कुछ याद नहीं।

"शाहीन के उद्घाटन के लिए भोपाल आया था। स्वामीनाथन बढि़या आदमी थे। उन्हें पश्चिमी कला का का आतंकवादी रवैया पसंद नहीं था। वे इन सबको नहीं मानते थे। मैं कहा करता था इन सब बातों को लिख डालो स्वामी। मगर वे नहीं लिखते थे। कौन पढ़ेगा यह सब। स्वामीनाथन ने भारत भवन बनाया। बहुत अच्छा किया था। आदिवासी कला आधुनिक कला सब एक साथ लाए। स्वामीनाथन ने क्या कुछ लिखा है इन सब पर?"

"शाहीन के उद्घाटन पर उनका तेवर भी देखने वाला था। वो अचानक हवा का तेज चलना और बारिश होना। यह सब स्वामी के कारण ही हुआ। रियासत नाम का एक अखबार निकलता था उन दिनों। अंग्रेज निकालते थे। उस अखबार में भोपाल स्टेट की खबर भी छपी थी। तब से भोपाल मेरे जेहन में बसा हुआ है। भोपाल की बेगमों के द्वारा किए गए कार्यों का ब्यौरा भी छपा था। और सभी रियासतों के बारे में छापते थे।

मैंने यह नियम बनाया है कि हर शुक्रवार हमारे परिवार के जो भी सदसय यहां हैं वे सब इकट्ठे होते हैं एक रेस्त्रां में सुबह के नाश्ते के लिए। वहां मैं अपनी आपबीती का एक अंश पढ़कर सुनाता हूं। सब लोग आते हैं। खूब मजा रहता है। सारे लोग इकट्ठे एक साथ बैठते हैं, सुनते हैं..."

हुसैन के मुंबई के घर में शुक्रवार के दिन दाल बनती है। यहां वे सबको इकट्ठा कर बाते करते हैं। हुसैन के जीवन का हर क्षण उन्होंने अपनी मर्जी से जीया। रचनात्मकता और सृजन से भरा हुआ।

उनकी योजना इंस्टालेशन करने की है, जिसमें वे संसार की महंगी कारों का इस्तेमाल करेंगे। हुसैन अभी भी ऊर्जावान, नए विचारों से अोतप्रोत और किसी शुरूआत के उत्सुक हैं, प्रस्तुत हैं। उनकी रचनात्मक प्रतिभा मे अभी काल का स्पर्श नहीं हुआ है। वे स्फूर्त हैं। सक्रिय हैं। सृजनरत हैं और सफल हैं।

Saturday, September 20, 2008

सातवीं सीढ़ी और पीले फूल


अजगर को समर्पित करते हुए...
वे कॉलेज के चमकीले दिन थे और हमेशा की तरह वह सीढ़ियां गिनते हुए चढ़ रहा था। जब वह सातवीं सीढ़ी पर था, एक लड़की उसके पास से बहुत तेजी से उतरी। बेफिक्र और बेपरवाह। उसकी पीली चुन्नी उसे छूते हुए निकल गई। वह उसी सीढ़ी पर थोड़ी देर के लिए खड़ा रह गया, अवाक्। उसने महसूस किया, उसके सीने के बाईं अोर कहीं उस चुन्नी का पीला रंग छूट गया है जो धडकनों के साथ मिलकर छोटे-छोटे पीले फूलों में खिल गया है। उसने एक गहरी सांस ली और पाया कि सांसों में खुशबू बसी है। उस लड़के को पहली बार यकीन हुआ कि दुनिया में जादू भी होते हैं।
उसे ध्यान आया कि वह उस लड़की का चेहरा नहीं देख पाया। यही सोचकर वह पलटा तो उसने देखा वहां एक खाली और सूना गलियारा है और सन्नाटा पसरा हुआ है। सातवीं सीढ़ी पर खड़ा होकर वह सोचने लगा कि उसी लड़की के साथ सात जनम की कसमें खाएगा, सात फेरे लेगा और कभी भी उससे सात समंदर दूर नहीं जाएगा।
उसके दिन बदल गए। उसकी शामें बदल गईं। उसकी रातें बदल गईं। उसकी करवटें औऱ सलवटें बदल गईं। उसकी धड़कनें और सांसें बदल गईं। फिर उसकी आदतें बदल गईं। वह एक नई और अजीब-सी आदत का शिकार हो गया। वह उसके पास से गुजरने वाली हर लड़की को बहुत ध्यान से देखता। और उस लड़की को तो वह बहुत ही ध्यान से देखता जिसने पीली चुन्नी डाल रखी हो। जब भी कोई लड़की उसके पास से गुजरती वह रुककर गहरी सांस लेने लगता। इस आदत की वजह से कई बार कई लड़कियां उसे संदेह की निगाह से देखतीं। कुछ बिचकतीं, कुछ सहमतीं। कुछ रास्ता बदल लेतीं।
मौसम बदलते हैं। रिमझिम बारिश होती है, गुलाबी ठंड पड़ती है और बसंत आता है और पीले फूल खिलते हैं।
फिर एक दिन ऐसा आता है कि वह उसकी क्लास की ही एक लड़की की शादी में अपने दोस्तों के साथ जाता है और लडकी को शादी की बधाई देते हुए हाथ मिलाता है तो सीने के बाईं अोर एक पीला रंग और पीला होकर चमकने लगता है और धड़कनों के साथ घुममिल कर छोटे-छोटे पीले फूलों में खिल गया जाता है। वह उस लड़की के पास थोड़ी देर खड़ा रहता है, फोटो खींचवाता हुआ। गहरी सांस लेता है, तो पाता है कि उसकी सांसों में खुशबू बसी है और वह अपने कॉलेज की उसी सातवीं सीढ़ी पर खड़ा है, अवाक्, जहां एक लड़की की चुन्नी का पीला रंग उसके दिल पर छूट गया था।
चारों तरफ चहल-पहल है, लोग एक-दूसरे से हंसते-खिलखिलाते मिल रहे हैं, संगीत बज रहा है लेकिन वह लड़का अब भी सातवीं सीढ़ी पर खड़ा होकर फिर से सोचना चाहता है कि वह उसी लड़की के साथ सात जनमों की कसमें खाएगा, सात फेरे लेगा और उससे कभी भी सात समंदर दूर नहीं जाएगा...

Wednesday, September 17, 2008

समय के आंगन में उड़ती एक तितली



मर्लिन मुनरो को याद करते हुए...

हॉलीवुड एक ऐसी जगह है जहां चुंबन के लिए आपको हजारों डॉलर्स मिल जाएंगे लेकिन आत्मा के लिए सिर्फ पचास सेंट्स।

जानती हूं, मैं कैलेंडर पर ही जिंदा रहूंगी, समय में कभी नहीं।-मर्लिन मुनरो

बरसों पहले इंदौर के एक टॉकीज के चुभते पटियों पर बैठकर मैंने मर्लिन मुनरो की फिल्म देखी थी औऱ मेरा यकीन करिये की उसकी जान लेवा अदाअों और बला की खूबसूरती को टकटकी बांधे देखते हुए मैं किसी बादल पर सवार था। मैं जब अंदर से अपने को टटोलता हूं तो पाता हूं कि खूबसूरती हमेशा वासना नहीं जगाती बल्कि वह आपमें बुनियादी बदलाव करती है जो किसी भी सौंदर्यबोध को समझने-बूझने की तमीज भी पैदा करती है और उसको मांजती भी चलती है। ईश्वर मुझे अलौकिकता से बचाए, मैंने अपने सौंदर्यबोध के लिए अप्सराअों की तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखा है। उनसे ज्यादा सुंदर, हंसती-खिलखिलाती, रोती-तड़पती स्त्रियां मुझे इसी जीवन में अपने आसपास ही नसीब हुई हैं। वह चाहे फिल्म में हो, कविता में हो, कहानी-उपन्यासों में हो या फिर मेरे अपने ही आंगन में अपनी महक से मुझे बावला करती हुई...ये स्त्रियां हमेशा मुझे बुरी नजरों से बचाए रखती हैं और मुझे इस काबिल बनाती हैं कि स्त्री से प्रेम कर सकूं।

और मर्लिन भी एक स्त्री थी। हॉलीवुड में उसके जलवों के अनेक किस्से हैं। उसके प्रेम और दुःख के भी अनेक किस्से हैं। अपने १६ साल के करियर में उसने २९ प्रमुख फिल्मों में काम किया, मॉडलिंग की, गायन किया और दौलत और शोहरत हासिल की। अजगर ने ठीक ही लिखा है कि बहुत कम लोग ऐसे होंगे जिन्हें मर्लिन से, उसकी तस्वीरों से, उसकी अदाओं से कभी न कभी प्यार न हुआ होगा। बहुत कम औरतें होंगी जिनके अंदर एक मर्लिन मुनरो नहीं छिपी होगी। उससे बचना कितना मुश्किल है लेकिन मर्लिन ऐसी स्त्री भी है जिस पर चुंबन के लिए तो डॉलर्स की बारिश होती रही लेकिन प्रेम पाने के लिए उसकी आत्मा हमेशा जिदंगी के जलते बियाबान में भटकती रही...इसीलिए तो एक जून १९२६ को लॉस एंजिल्स के एक जनरल हॉस्पिटल मैं पैदा हुई यह किलकारी ४ अगस्त १९६४ को अपने बिस्तर पर निर्वस्त्र अौंधे मुंह पड़ी मिलती है। अपनी एक साथ चमकीली औऱ अंधेरी भरी दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कहती हुई...एक जून १९२६ से लेकर ४ अगस्त १९६४ का जो दरमियानी समय है। वह एक अंतहीन कहानी है दोस्तों। इसमें सबकुछ है-नाखुश बचपन, अंदर से तोड़ देने वाला संघर्ष, फिर कामयाबी, चकाचौंध, किसी के लिए भी ईर्षा पैदा करने वाली लोकप्रियता, तीन शादियां औऱ कुछ प्रेम के किस्से। रिश्तों की टूटन और प्रेम की प्यास। फिर अंतहीन अवसादभरी काली रातें। और अंत में एक न खत्म होने वाली कहानी। उसके मरने के इतने सालों बाद भी यह अब तक रहस्य ही है कि उसने आत्महत्या की थी या उसकी हत्या की गई।

अपने कॉलेज के दिनों में मैंने एक मैग्जीन से मर्लिन के कैलेंडर का फोटो काटकर बहुत दिनों तक संभाल कर रखा था। अब वह कहीं खो गया है या फिर घर में टपकते बारिश के पानी में मेरी बहुत सारी किताबों के साथ गलकर सड़ चुका है जिसे रद्दी के साथ बाद में फेंक दिया गया था। कई बार सोचता हूं, कम से कम मेरे लिए तो मर्लिन एक तितली है जो कैलेंडर से बाहर निकलकर समय के आंगन में उड़ रही है। वे हमेशा समय में रहेंगी। आप जब जीवन की आपाधापी से हांफते हुए किसी पेड़ से थोड़ी देर के लिए पीठ टिकाएंगे तो पाएंगे कि आपके जेहन में भी उस तितली के पांव के निशान अोस की बूंदों की तरह चमक रहे हैं...

Tuesday, September 16, 2008

तिल नहीं, एक छाला है

इस वक्त वह रसोईघर में खड़ी-खड़ी
खिड़की से देख रही है बारिश
आप उसकी गुनगुनाहट को सुन नहीं सकते
बारिश उसमें शामिल होकर
उसे एक मीठे झरने में बदल रही है
हरे पत्तों के बीच जो पक्षी दुबका बैठा है
वह उसे टुकुर टुकुर देखता

वह अब धीरे-धीरे हंस रही है
और उसके गाल पर जो तिल है
तिल नहीं,
राई का दाना है
जो बघार करते वक्त उड़कर गाल पर आ बैठा था
उसके रूख़सार पर जो तिल की तरह दिखाई देता है
दरअसल उसके पीछे एक छाला है

Tuesday, September 9, 2008

वैन गॉग का एक खत


गुलजार


तारपीन तेल में कुछ घोली हुई धूप की डलियां
मैंने कैनवास में बिखेरी थीं मगर
क्या करूं लोगों को उस धूप में रंग दिखते ही नहीं!


मुझसे कहता था थियो चर्च की सर्विस कर लूं
और उस गिरजे की खिदमत में गुजारूं
मैं शबोरोज जहां-
रात को साया समझते हैं सभी,
दिन को सराबों का सफर!
उनको माद्दे की हकीकत तो नजर आती नहीं
मेरी तस्वीरों को कहते हैं, तखय्युल है
ये सब वाहमा हैं!


मेरे कैनवास पे बने पेड़ की तफसील तो देखो
मेरी तखलीक खुदाबंद के उस पेड़ से
कुछ कम तो नहीं है!
उसने तो बीज को एक हुक्म दिया था शायद,
पेड़ उस बीज की ही कोख में था,
और नुमायां भी हुआ
जब कोई टहनी झुकी, पत्ता गिरा, रंग अगर जर्द हुआ
उस मुसव्विर ने कहीं दखल दिया था,
जो हुआ, सो हुआ-


मैंने हर शाख पे, पत्तों के रंग-रूप पे मेहनत की है,
उस हकीकत को बयां करने में
जो हुस्ने हकीकत है असल में


उन दरख्तों का ये संभला हुआ कद तो देखो
कैसे खुद्दार हैं ये पेड़, मगर कोई भी मगरूर नहीं
इनको शेरों की तरह किया मैंने किया है मौजूं!
देखों तांबे की तरह कैसे दहकते हैं खिजां के पत्ते,


कोयला खदानों में झौंके हुए मजदूरों की शक्लें
लालटेनें हैं, जो शब देर तलक जलतीं रहीं
आलुअों पर जो गुजर करते हैं कुछ लोग-पोटेटो ईटर्स
एक बत्ती के तले, एक ही हाले में बंधे लगते हैं सारे!


मैंने देखा था हवा खेतों से जब भाग रही थी
अपने कैनवास पे उसे रोक लिया-
रोलां वह चिट्ठीरसां
और वो स्कूल में पढ़ता लड़का
जर्द खातुन पड़ोसन थी मेरी-
फानी लोगों को तगय्यर से बचा कर उन्हें
कैनवास पे तवारीख की उम्रें दी हैं!


सालहा साल ये तस्वीरें बनाई मैंने
मेरे नक्काद मगर बोल नहीं-
उनकी खामोशी खटकती थी मेरे कानों में,
उस पे तस्वीर बनाते हुए इक कव्वे की वह चीख-पुकार
कव्वा खिड़की पे नहीं, सीधा मेरे कान पे आ बैठता था,
कान ही काट दिया है मैंने!


मेरे पैलेट पे रखी धूप तो अब सूख चुकी है,
तारपीन तेल में जो घोला था सूरज मैंने,
आसमां उसका बिछाने के लिए-
चंद बालिश्त का कैनवास भी मेरे पास नहीं है!


मैं यहां रेमी में हूं
सेंटरेमी के दवाखाने में थोड़ी-सी
मरम्मत के लिए भर्ती हुआ हूं!
उनका कहना है कई पुर्जे मेरे जहन के अब ठीक नहीं हैं-
मुझे लगता है वो पहले से सवातेज हैं अब!
(गॉग की ख्यात पेंटिंग Tree and Man (in front of the Asylum of Saint-Paul, St. Rémy )

Tuesday, August 26, 2008

रोती हुई मां रोते बच्चे को दूध पिला रही है


मैं गहरी नींद में था, स्वप्न देखता हुआ। उसमें किसी स्त्री के रोने की दबी दबी-सी आवाज थी। बीच-बीच में वह रूदन हिचकी में बदल जाता। टूटती सांसों के बीच रूदन की आवाज गूंजती थी। उसी रूदन से लिपटी हुई एक छोटे बच्चे के रोने की आवाज भी थी। यह रोना इस कदर घुला-मिला था कि लगता कोई एक ही गले से रो रहा है।
जैसे नाभि-नाल का रिश्ता हो।
मुझे उसका चेहरा ठीक से याद नहीं, बस उसके रोने की आवाज याद है। एक बदरंग होती दीवार से पीठ टिकाए वह स्त्री रो रही थी और उसके पास कोई नहीं था।
एक कमरा था जो बहुत सारी अड़ंग-बड़ंग चीजों से भरा था और उसमें एक कोने में बमुश्किल एक स्त्री के बैठने की जगह निकली थी। वहीं, वह रो रही थी।
वह लगातार रो रही थी। उस रोने की आवाज के पीछे अचानक मुझे मां की आवाज सुनाई दी। मैंने ध्यान से सुनने की कोशिश की।
मां मुझे पुकार रही थी।
मां की आवाज इतनी धीमी और टूटी हुई थी कि मुझे लगा वह मुझे बहुत दूर से पुकार रही है।
मुझे लगा कोई मुझे झिंझोड़ रहा है और मेरी नींद टूट गई।
मैंने आंखें खोली तो पाया मां मुझे आवाज देकर जगा रही है। मैंने मां का चेहरा देखा। उसके चेहरे पर अलग-अलग गतियों से आंसू बह रह थे। एक के पीछे एक। दूसरे में मिलकर चुपचाप गिरते हुए।
मुझे लगा मैं स्वप्न ही देख रहा हूं। जो स्त्री कमरे के कोने में पीठ टिकाए अकेली रो रही थी उसका चेहरा धुंधला था।
मैंने आँखें मलीं और मां को फिर से देखा।
मां रो रही थी। कह रही थी मोहिनी ने आत्महत्या कर ली।
घर के पिछवाड़े कुछ स्त्रियों के रोने की आवाज आ रही थी। मैं उठा और मुंह धोने के लिए जैसे ही आंगन में आया, मेरी नजर नीम के पेड़ पर गई। नीले कच्च आसमान में नीम धूप में चमक रहा था। हवा चलती तो एक लय में बंधी सरसराहट के बीच कुछ पत्तियां टूटकर गिरने लगतीं। रोने की आवाज सरसराहट में अजीब तरह से मिलकर उन टूटती पत्तियों के साथ चुपचाप गिर रही थी। रोने की आवाज बिलकुल पेड़ की पत्तियों से छनकर आ रही थी।
एक पल के लिए मुझे लगा कि स्त्रियां पेड़ में बैठी रो रही हैं।
हवा में पेड़ हिलता तो रूदन टूटता हुआ लगता, जैसे बीच में कोई सांस ले रहा है।
पेड़ से पत्तियों का झरना और रोना जारी था।
अचानक मुझे बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी। मैंने देखा मोहिनी की बड़ी बहन अपने बच्चे को गोद में लिए बैठी है। उसकी आंखे लाल और सूजी हुई हैं। बच्चा पूरी ताकत से रो रहा था। उसे भूख लगी थी। बच्चे की मुट्ठियां तनी हुई थीं और रोने से उसका चेहरा लाल हो चुका था। वह मुंह खुला रखे और सिर हिलाते हुए मां का स्तन ढूंढ़ रहा था। उसकी मां ने एक पांव हिलाते हुए दूध पिलाना शुरू किया। बच्चा भूखा था, तुरंत चुप होकर मुंह लगाकर, हिलाने लगा।
स्त्रियों का रोना फिर शुरू हो गया है। दूर शहर से कोई आया है। एक स्त्री ट्रेन की तरह धड़धड़ाती हुई आती है और मोहिनी का मां की गोद में सिर पटक कर रोने लगती है। दूसरी स्त्रियां भी रोने लगती हैं। घर में कानाफूसी का दौर जारी है...बाहर हलचल बढ़ गई है। कोई कहता है जल्दी ले चलो भई। स्त्रियों के रोने की आवाज तेज हो गई है। इन आवाजों में अब बच्चे के रोने की आवाज भी शामिल है।
बच्चे की मां के रोने से बच्चे के मुंह से स्तन छूट गया है। वह रोने लगता है तो मां अपना घुटना हिलाते हुए, रोते हुए उसे फिर से दूध पिलाने लगती है।
हम बाहर आ चुके हैं। शवयात्रा शुरू हो चुकी है, स्त्रियों के रोने की आवाजें पीछे-पीछे चली आई हैं। मैं मुड़कर देखता हूं। बहुत सारी रोती हुई स्त्रियों के बीच मुझे वह स्त्री भी दिखती है जिसकी गोद में बच्चा आसपास होती हचलचों को अजीब नजरों से देख रहा है। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा है कि हो क्या रहा है।
बच्चा अपनी रोती मां का चेहरा देखता है और खुद भी रोने लगता है।
सब कुछ निपट चुका।
मैं घर पर हूं। मां ने नहलाने के लिए पानी गरम कर दिया है। अब मैं रसोई घर में हूं।
मुझे भूख लग रही है। मां गरम-गरम रोटियां उतार रही है।
मां गरम रोटी पर घी चुपड़कर थाली में रख रही है। मैं उसका चेहरा देखता हूं। मां की आंख में आंसू हैं। मैं चौंक पड़ता हूं।
मां का चेहरा और उस स्त्री का चेहरा एक जैसा है जो रोते हुए अपना घुटना हिलाते, रोते बच्चे को दूध पिला रही थी।
पेंटिंगः गुस्ताव क्लिम्ट

Saturday, August 16, 2008

बारिश में विदा


बारिश में विदा

आज सुबह से बारिश विलंबित खयाल में थी। कभी द्रुत भी लेकिन देर तक विलंबित।
बादल एक लय में तैर रहे हैं। पानी से भरे हुए। जहां मन होता है, बसरते हैं।
पेड़ एक पैर पर खड़े होकर नाचते हैं। एक पेड़ किसी खयाल में खड़ा भीग रहा है। चुपचाप। लगता है, किसी इंतजार में है। कोई उसे छोड़कर चला गया है।
उसकी स्मृति में पंखों की फड़फड़ाहट है।
पेड़ के सीने में एक लड़की की हिचकियां हैं जो कभी उससे पीठ टिकाए बैठी थी। पेड़ ने एक बजुर्ग के हांफने की आवाज को थाम रखा है। वह धीरे-धीरे हिलता हुए हवा करता था ताकि उसके नीचे खड़े आदमी का पसीना सूख सके। उसके पीछे हमेशा कोई न कोई छिप जाता था।
वह पेड़ अपने बदन पर किसी अंगुलियों के पोरों से लिखे नाम को अब भी तितली की तरह महसूस करता है। उसकी पत्तियों पर उन प्रेमियों की फुसफुसहट पानी की बूंदों की तरह अब भी ताजा हैं जो पहाड पर दौड़कर चढ़े और कुछ देर के लिए अोझल हो गए थे। वे लौटे तो उन्होंने पहाड़ को अपने चेहरे के साथ नदी की देह पर हिलते हुए देखा था। नदी का वह हरा पानी अब भी हिल रहा है।
वह पेड़ अब भी अपने में कुछ फूल छिपाए बैठा है। वह जानता है एक बूढ़ी आएगी और उसकी डाल को नीचा कर कुछ फूल अपनी झोली में ले जाएगी।
वह बूढ़ी विदा ले चुकी है और बारिश में उस पेड़ के फूल टूटकर झरते रहते हैं। वह झरते हुए फूलों को देखकर इस बात से बेखबर है कि वह बूढ़ी अब कभी उसके पास नहीं लौटेगी। ध्यान से सुनें तो आपको इस पेड़ के सुबकने की आवाज भी सुनाई देगी।
अब वह बहुत सारी स्मृतियों को धारे बारिश में खड़ा है। चुपचाप। भीगता हुआ।
बहुत सारे लोग उससे विदा ले चुके हैं। वह अकेला खड़ा है।
ये बारिश पीछा नहीं छोड़ती। बारिश में बारिश कभी अकेली नहीं आती। दूसरी बारिशों की बारिश भी साथ लेकर आती है। किसी न किसी बारिश में कोई न कोई उससे विदा लेता रहा है। वह भी बारिश का कोई एक दिन था, जब कोई उससे विदा ले चुका था।
वह भी एक दिन इसी मौसम में सबसे विदा लेगा। वह ऐसा सोचता है तो एक डाली कांपने लगती है। नदी की देह पर पहाड़ कांपता है। पहाड़ के सीने में वे पत्थर कांपते हैं, जिसमें हरी नदी का संगीत अब भी गुनगुनाता है।
जब अंतिम विदा की बेला आएगी
तब बारिश हो रही होगी
बारिश उसके सिरहाने टहलने आएगी और
उसे अविचल पड़ा देख कुछ देर थमेगी
दूर जाकर उस पहाड़ के पीछे गुम होना चाहेगी
लेकिन अचानक पलटकर तेज बरसती हुई
उसी पेड़ में छिपने की कोशिश करेगी
उस झुरमुट में अब भी कुछ सफेद फूल होंगे
बारिश की मार झेलते हुए
उस बूढ़ी की प्रतीक्षा में भीगते हुए चुपचाप।

Wednesday, July 30, 2008

गृहमंत्री की सफारी, मुख्यमंत्री का बटन

अहमदाबाद के विस्फोटों के बाद एक अस्पताल में उस बच्चे को टीवी पर रोते-कराहते आपने भी देखा होगा। दूसरे दिन कुछ अखबारों में उस बच्चे की फोटो भी छपी है। उसका पूरा बदन जख्मी था। रोता और कराहता हुआ। वह अकेला था। अपनी चीख, रुलाई और कराह से ही अपने दर्द को सहने की ताकत हासिल करता हुआ। वह इतना जख्मी था कि उसके बदन पर सिर्फ और सिर्फ पट्टियों बंधी थीं। उसके चेहरे पर भी जख्म के निशान थे और माथे पर भी पट्टी थी। क्या वह एक गैरजिम्मेदार राजनीति के कारण लहूलुहान हो चुके लोकतंत्र का एक रूपक हो सकता है? क्या उसे अपने ही स्वार्थ में डूबी राजनीति के बीच अकेली होती जाती जनता का प्रतीक माना जा सकता है? और उस उलटी पड़ी चप्पल का क्या अर्थ हो सकता है जो खून से लाल हो चुके बारिश के पानी में पड़ी थी। यह लगातार अकेले और असुरक्षित होते जाते नागरिक की दहशत थी, एक कहानी, एक चीखता बयान या फिर इस हाहाकारी समय पर एक टिप्पणी। और उसे क्या कहेंगे कि एक ठेले पर कुछ घायलों को तेजी से अस्पताल ले जाते कुछ जिम्मेदार युवा भी थे। उन्होंने किसी का इतंजार नहीं किया। बस इक चिंता थी कि इन घायलों को उनकी सांस बंद हो जाने के पहले अस्पताल पहुंचा दिया जाए। और उसके बाद टीवी के जरिये हमारे घरों में भी चीखें गूंज रही थीं।
और उधर? उधर हमारे गृहमंत्री थे। घायलों को देखने जाती सोनिया गांधी के पीछे-पीछे। गृहमंत्रीन थे शफ्फाक, सफेद सफारी में। एकदम सही नाप में सिली हुई। कलाई से लेकर शोल्डर तक। एकमद फिट। टीवी पर आपने भी देखा होगा, इस सफेद सफारी पर ही सफेद चमचम करते जूते भी थे। वे चल रहे थे, बहुत सावधानी से, सतर्क। बारिश के गंदले पानी और कीचड़ से बचते हुए। उनके साथ प्रधानमंत्री, पार्टी अध्यक्ष भी थे। सत्तर कारों का काफिला उनके साथ था। और एक मुख्यमंत्री भी था। सफेद दाढ़ी में दमदम करता एक लाल चेहरा था। पार्टी का दैदीप्यमान चेहरा। अपने राज्य को तेज गति से विकास के रास्ते ले जाता एक मुख्यमंत्री। वे भी घायलों को अस्पताल देखने गए तो कमांडो से घिरे हुए थे। उन्होंने अपने गले का बटन भी लगा रखा था। क्या उनके इस गले के बटन का कोई अर्थ आप निकाल सकते हैं। क्या यह बटन उन्हें अपने गिरेबान में झांकने से रोकता था? यह हमारा लोकतंत्र है। इसमें मंत्रीं सत्तर कारों के काफिले में होते हैं। एक मंत्री कमांडो से घिरा सुरक्षित रहता है। जनता हमेशा अकेली, जख्मी और कराहती हुई...