Friday, January 30, 2009

इनका गीत सुनो, जिंदगी का फलसफा समझो




दिल्ली की द मिंट आर्ट गैलरी में इंदौर के फोटोग्राफर आशीष दुबे की फोटो प्रदर्शनी
हम किसी से अलग-थलग नहीं है बल्कि इसी कायनात का अभिन्न हिस्सा हैं। सही-गलत की दुनिया के पार यह वह इलाका है जहां पवित्र शांति की लय में आत्मा का मधुर संगीत गूंजता है। यही वह आध्यात्मिक उजाला है जिसमें अनंत से मिलन का एक दुर्लभ क्षण किसी फूल की मानिंद खिल कर अपनी खूशबू फैलाता है। यही असल यथार्थ है और यही जिंदगी का फलसफा। कायनात की लय से लय मिलाते हुए धड़कते रहना। अलग होकर भी एकाकार होना। इंदौर के फोटोग्राफर आशीष दुबे के फोटो की प्रदर्शनी सॉन्ग अॉफ द रीड का यही मर्म है। उनकी फोटो प्रदर्शनी दिल्ली की द मिंट आर्ट गैलरी में आयोजित है जो पांच फरवरी तक जारी रहेगी। इसमें शहर के सिरपुर तालाब में उगी घास-फूस के 13 फोटो शामिल हैं जिनके आर्काइवल पेपर पर प्रिट लिए गए हैं। उनके ये फोटो जीवन के अनसुने संगीत को सुनने की और उसकी चित्रमय अभिव्यक्ति है। ये अपनी कलात्मकता में इतने समृद्ध हैं कि किसी एक रंगीय चित्रकारी का आनंद भी देते हैं। इनमें पानी और हवा की लय में नाचती-गाती-झूमती घासों का गीत सुना जा सकता है।
उन्होंने शहर के सिरपुर तालाब को अपनी अंदरूनी निगाह से देखा और उसके उन अनसुने-अनदेखे हिस्सों को अपनी कला का विषय बना लिया। उन्होंने इस तालाब के किनारे और पानी में उगी घास-फूस को किसी गहरे एकांत क्षण में देखा और किसी कौंध की तरह उनके सामने यह उद्घाटित हुआ कि इसमें जिंदगी का गहरा मर्म छिपा है। वे कहते हैं-जैसे ही मैंने इन घास-फूस और कुश को देखा तो लगा ये मुझसे कुछ कहना चाहती हैं। धीरे-धीरे मेरी उनसे आत्मीयता बढ़ी और फिर संवाद शुरू हुआ। ये क्या कहना चाहती हैं, यह जानने-समझने की कोशिश की। महसूस किया। उसी दौरान मैंने सूफी शायर जलालुद्दीन रूमी की कविता सॉन्ग अॉफ द रीड पढ़ी और तब यह बेहतर जान सका कि इनका दर्शन क्या है. अर्थ क्या है। बस फिर मैंने इसी विषय को एकाग्र कर फोटो खींचे। इसमें से एक फोटो अंतरराष्ट्रीय पत्रिका नेशनल जियोग्राफिक के जून 2008 के अंक में छपा। वे इस पत्रिका के यूअर शॉट कॉलम में छपने वाले पहले भारतीय हैं।
गुजराती विज्ञान महाविद्यालय इंदौर में भौतिक शास्त्र के सहायक प्राध्यापक श्री दुबे सन् 1985 से शौकिया फोटोग्राफी कर रहे हैं और इसके पहले वे महेश्वर, धाराजी, अोंकारेश्वर के अलावा तरह तरह के फूलों की तस्वीरें खींच चुके हैं। कॉलेज में भी वे अपने फोटोज का एक स्लाइड शो कर चुके हैं। वे कहते हैं दिल्ली की इस प्रदर्शनी के लिए हमने ध्रुपद संगीत का उपयोग किया ताकि जो लोग ये फोटोज देखने आ रहे हैं वे हांफती-दोड़ती जिंदगी से दूर अपनी लय में आएं और फिर इन फोटो की लय से लय मिलाते हुए इन्हें देखे। मकसद यही था कि इस तरह संगीत के जरिये भी मेरे फोटोज का मर्म वे ज्यादा बेहतर तरीके से महसूस कर सकें। वे इसी दौरान दलाई लामा से मिलकर अभिभूत हैं और उनकी विनम्रता और लोगों के प्रति गहन संवदेनशीलता उन्हें छूती है।

Thursday, January 29, 2009

समय के आगे मनुष्य कितना असहाय है




महान स्पेनिश चित्रकार सल्वाडोर डाली पर चित्रकार विकास भट्टाचार्य की टिप्पणी


एक बड़ा चित्रकार अपने समय और समाज के तमाम रूपों, विद्रूपताअों और विडंबनाअों और साथ ही अपनी भीतरी दुनिया, स्वप्न, आकांक्षा और विशाद को कितने कलात्मक कौशल से चित्रित करता है इसकी एक नायाब मिसाल हैं स्पैनिश चित्रकार सल्वाडोर डाली। इंदौर के युवा कवि और बांग्ला अनुवादक उत्पल बैनर्जी ने बंगाल के ही बड़े चित्रकार विकास भट्टाचार्य द्वारा डाली पर लिखे लेख का अनुवाद किया है। बतौर बानगी उसके कुछ अंश आपके लिए प्रस्तुत हैं।




डाली का जो पक्ष मुझे अच्छा लगता है, वह यह कि वे बहुत ही स्पष्टवादी थे, समय-समय पर इसके लिए वे बहुत रूढ़ भी हो जाते थे। अपने मंतव्यों को प्रकट करते हुए उन्होंने कभी भी निगाहें नहीं चुराईं। मुझे लगता है कि डाली शायद कुछ ज्यादा ही अ‍सहिष्णु थे। उनकी स्पष्टवादिता ने उनकी लोकप्रियता को बहुत ज्यादा क्षति पहुँचाई थी। डाली की सिर्फ स्पष्टवादिता ने ही नहीं, उनकी अकारण चौंकाने की वृत्ति की वजह से भी उन्हें कई आलोचकों का शिकार होना पड़ा था। डाली पिकासो की व्यावसायिक मानसिकता की कड़ी निंदा किया करते थे, वे पिकासो को दक्ष कलाकार के रूप में स्वीकार नहीं करते थे। हालाँकि कालांतर में, दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि डाली खुद भी उसी व्यावसायिक मानसिकता के शिकार हो गए थे। जीवन के उत्तरार्द्ध में डाली की यह अकारण शोर मचाने की वृत्ति का मैंने कभी भी समर्थन नहीं किया, बल्कि मैंने घृणा ही की है।पचास या साठ के दशक में जब मैंने चित्र बनाने की शुरुआत की, तब निरंतर अध्यावसाय ही मेरा सहारा था। चित्रविद्या की चर्चा मुझे कभी भी केवल भावात्मक चर्चा नहीं लगी, अभ्यास और लगातार अभ्यास को मैं बहुत जरूरी मानता हूँ। मैंने सुना है कि डाली भी अपने विद्यार्थियों से कहा करते थे कि पहले के द‍क्ष कलाकारों के कार्यों को देखकर सीखना चाहिए, उन्होंने अध्‍यावसाय को कभी नहीं छोड़ा था। डाली ने चौंकाकर नाम कमाने की कितनी भी कोशिश क्यों न की हो लेकिन चित्र बनाने में उन्होंने निष्ठा में किसी भी तरह की कंजूसी नहीं की थी। उन्होंने दुनिया के सामने जिस तरह से अपने जगत को अभिव्यक्त किया है, उसमें बहुत सचाई थी। उनकी स्पष्टवादिता ही उनका आकर्षण थी।आंदोलन में भाषा की तलाश करते-करते मैंने डाली को एक वक्त अपने पास महसूस किया था, अपने पड़ोस में पाया था कॉलेज के दिनों में ही, जो उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया है। उत्तर कलकत्ता के घर-द्वार, तथाकथित जमींदार की कोठी के तमाम अनाचार मेरे मन में विद्रोह जगाते थे। मैंने जब चित्र बनाने की शुरुआत की तब मैंने इन लोगों पर व्यंग्य किए थे और यही वजह रही कि मेरे चित्र कभी भी सुंदर-सुंदर नहीं रहे। मैं फूल, लता, पत्तियाँ आदि को लेकर कभी भी चित्र नहीं बना सका, राजा-रानी वगैरह मेरे पास व्यंग्य के विषय के रूप में आए थे। डाली के चित्रों में इस तरह के तमाम व्यंग्य मिलते हैं। कभी राजनीति को लेकर, तो कभी मनुष्य के मन के दराजों को खोल-खोलकर नंगी सचाइयों को दिखाते वक्त। डाली ने मनुष्य के अवचेतन मन के दरवाजे को खोलकर अंदर घुसने की कोशिश की थी, वह जगह उन्हें कभी भी सुंदर महसूस नहीं हुई। मनुष्य की कामना-वासना, हिंसा, धर्म के नाम पर गुंडागर्दी आदि को लेकर उन्होंने बार-बार चित्र बनाए। ये तमाम चित्र मुझे प्रतिवाद के साथ-साथ बहुत अस्वीकृतिवाचक भी महसूस हुए हैं।डाली ने बहुत सारे चित्रों में नारकीय दृश्य दिखाए हैं, जिनमें मनुष्य के मन की वीभत्स पशु प्रवृत्तियों ने वीभत्स रूप धारण किए हैं। जीवन की घड़ी पिघल रही है। लोग कहेंगे कि डाली ने समय पर व्यंग्य किया है, असल में डाली ने कहना चाहा था कि समय के आगे मनुष्य कितना असहाय है।


Wednesday, January 28, 2009

खुशी से आई एक खुश खबर







दिल्ली में होने वाले चैरिटी अॉक्शन में इंदौर के तीन चित्रकार शामिल
यह शहर के कला-जगत की एक और खुश खबर है कि खुशी द्वारा किए जाने वाले चैरिटी अॉक्शन इंडिया अॉन कैनवास में शहर के तीन चित्रकारों के चित्र शामिल हैं। ये तीन अमूर्त चित्रकार हैं अनीस नियाजी, राजेश शर्मा और विशाल जोशी। प्रदेश के दो अन्य चित्रकार अखिलेश और मनीष पुष्कले भी इसमें शामिल हैं। यह आक्शन 6 फरवरी को दिल्ली में होगा जिसमें देश के नामी-गिरामी कलाकारों के साथ इन तीनों कलाकारों के चित्रों की बोली लगेगी। इसमें कुल 92 चित्रकार हैं जिसमें फ्रांसिस न्यूटन सूजा, तैयब मेहता, रामकुमार, अंजलि इला मेनन, परेश मैटी जैसे ख्यात चित्रकार शामिल हैं। इसका एक प्रिव्यू 31 जनवरी को दिल्ली में होगा। इस मौके पर देश की तमाम मशहूर हस्तियां मौजूद होंगी। जाहिर है देश के कला-जगत में शहर के रंग अपना जलवा बिखेर रहे हैं। इसी आक्शन को अप्रैल में दुबई में किया जाएगा। इस आक्शन के लिए आनलाइन बोली भी लगाई जा सकेगी।
अनीस नियाजी इस खबर से बेहद खुश हैं। वे कहते हैं मैंने डीएलएफ के शिव सिंह के साथ एक ही कैनवास पर अमूर्त चित्रकारी की है और हमारी इस अमूर्त जुगलबंदी में दोनों कलाकारों को खूब आनंद आया। हम दोनों ही चूंकि अमूर्त चित्रकारी में प्रयोगात्मक हैं इसलिए हमारी आसान संगति रही। हमने 48 बाय 50 के कैनवास पर एक्रिलिक रंगों में काम किया है और इसकी शुरुआती बोली पांच लाख रुपए है। जबकि चित्रकार राजेश शर्मा कहते हैं कि यह आक्शन कला और मकसद का मिला-जुला अभियान जैसा है क्योंकि इससे जो राशि हासिल होगी वह खुशी (किनशिप फार ह्यूमेनिटेरियन, सोशल एंड होलिस्टिक इंटरवेंशन इन इंडिया) द्वारा ग्रामीण और शहरी गरीबों के सामाजिक-शैक्षिक-आर्थिक उत्थान के कामों में लगाई जाएगी। मैंने 60 बाय 60 इंच के कैनवास पर पीले रंग से अपनी भावनाअों को अभिव्यक्त किया है। इस चित्र की शुरूआती बोली दो लाख रूपए है।
विशाल कहते हैं कि मैंने 68 बाय 45 इंच के कैनवास पर रोज शीर्षक से चित्र बनाया है। मेरे लिए गुलाब के आकार से ज्यादा मायने रखती है उसकी फीलिंग यानी खुशबू। उसकी आंतरिक सौंदर्य। इसलिए मैंने गुलाब की बाहरी सुंदरता और चमक के साथ ही उसकी खूशबू को रचने की कोशिश की है क्योंति अंततः गुलाब की आत्मा उसकी खुशबू में ही बसती है। इसके लिए मैंने लाल के साथ गोल्डन रंग का कल्पनाशील इस्तेमाल किया है। इसकी शुरुआती बोली एक लाख पिचहत्तर हजार रुपए है।
पेंटिंग्स ः क्रमशः राजेश शर्मा, अनीस नियाजी और विशाल जोशी

Thursday, January 22, 2009

कैनवास के कारोबार का काला कारनामा!


अपने खूबसूरत रंगों से दुनिया को रोशन करती कला की दुनिया की यह एक काली खबर है। यह कला जगत के उजले रंगों पर कालिख है। 20 जनवरी को नईदुनिया के पहले पेज पर विशेष खबर पढ़कर इंदौर का चित्रकार-जगत स्तब्ध है। वे मशहूर चित्रकार सैयद हैदर रजा के साथ हुई धोखाधड़ी से तो व्यथित हैं ही, इस बात से भी दुःखी हैं कि इसमें इंदौर के एक चित्रकार परवेज अहमद का नाम भी सामने आया है। नईदुनिया ने 20 जनवरी को भाषा सिंह की विशेष खबर छापी थी-अपनों से ही ठगे गए मशहूर चित्रकार रजा। इसी खबर को लेकर इंदौर के अधिकांश चित्रकारों का मानना है कि यह दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक है। कुछ ने इनके कारणों का जानने की कोशिश की है और कुछ सवाल उठाते हैं कि आज व्यापार का दर्शन ही कला का दर्शन हो गया है।
वरिष्ठ चित्रकार श्रेणिक जैन का कहना है कि इस तरह के फ्राड लंबे समय से चल रहे हैं। इसके पहले भी एमएफ हुसैन के चित्रों की नकल कर बेचने की कोशिशें हुईं हैं। एक तरफ तो कुछ लोगों ने रजा साहब की नजदीकियों का गलत फायदा उठाया है और दूसरी तरफ यह जानकार और दुःख हुआ कि इसमें हमारे शहर का चित्रकार शामिल है। चित्रकार-मूर्तिकार संतोष जड़िया इसके कारणों की पड़ताल करते हुए कहते हैं कि दिल्ली में हजारों चित्रकार हैं और सबकी पेंटिंग्स तो अच्छी कीमतों में नहीं बिकतीं। इसलिए कुछ चित्रकार मशहूर पेंटिंग्स की नकल करने के धंधे में लगे हुए हैं। वे कहते हैं - दिल्ली में इस तरह की नकल का काम बड़े स्तर पर होता रहा है। वहां नकली पेंटिंग्स का अच्छा-खासा धंधा होता है लेकिन जो गलत है, वह गलत है। इसके खिलाफ तो कार्रवाई होना चाहिए। जबकि वरिष्ठ चित्रकार मिर्जा ईस्माइल बेग का मानना है कि यह सब बाजार की ताकत है और दुर्भाग्यपूर्ण है।
ख्यात चित्रकार ईश्वरी रावल कहते हैं कि यह तो एक खूबसूरत छतनार के पेड़ को जड़ से काटने की कोशिश है। उनकी पेंटिंग्स की नकल करना धोखाधड़ी है और इसकी जितनी निंदा की जाए कम है। वे सुझाव देते हैं कि यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि भविष्य में किसी चित्रकार के साथ इस तरह की धोखाधड़ी न हो। अमूर्त चित्रकार हरेंद्र शाह भी इस खबर को पढ़कर हैरान और दुःखी हैं। उनका मानना है कि रजा जैसे नामी -गिरामी चित्रकार की कलाकृतियों के साथ यह हरकत शर्मनाक है। और इसमें इंदौर के चित्रकार का नाम आना तो इंदौर के समूचे कला जगत के लिए आघात है। चित्रकार सुशीला बोदड़े तो इतनी दुःखी हैं कि कहती हैं चोर चोरी से जाए हेराफेरी से न जाए। रजा साहब के साथ हुई धोखाधड़ी की तो जांच होना चाहिए ताकि किसी और चित्रकार के साथ फिर कभी धोखाधड़ी न हो। जबकि चित्रकार अनीस नियाजी का कहना था कि इस पूरे मामले में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी।
बाजार में सिग्नेचर बिकती है
समकालीन भारतीय चित्रकारों का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नाम है और उनकी कलाकृतियों की कीमतें करोड़ों में आंकी जा रही हैं। एमएफ हुसैन से लेकर एचएस रजा और तैयब मेहता से लेकर रामकुमार की कलाकृतियां लाखों डॉलर्स में बिक रही हैं। जाहिर है कला के फलते-फूलते बाजार में इनकी सिग्नेचर बिकती है। यही कारण है कि इन कलाकारों की कलाकृतियों की नकलें होती हैं। भोपाल में बस चुके इंदौर के चित्रकार अखिलेश कहते हैं कि इस ताजा मामले में इंदौर के चित्रकार ने तो नाम डुबाया ही है लेकिन इसमें गैलरी भी उतनी ही जिम्मेदार है क्योंकि उसने इतने बडे चित्रकार की उन पेंटिंग्स की असलियत पर कोई सवाल नहीं खड़े किए या पूरी तहकीकात नहीं की कि ये असल में रजा कि पेंटिंग्स है या नहीं। यह गैलरी पहले भी विवादों में रही है और यह सबसे पुरानी गैलरी है जिसने यह काम किया है। यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है।
व्यापार का दर्शन ही कला का दर्शन
ख्यात चित्रकार प्रभु जोशी इस मामले को दूसरी निगाह से देखते हैं। उनका कहना है कि आज व्यापार का दर्शन ही कला का दर्शन हो गया है। इस मामले में निर्णायक सच तो कलाकार ही बताएगा और इतिहास की छलनी आखिरकार सच को भी छान देगी। आज कला का रिश्ता रसिक समाज से नहीं रह गया है। अब तो उसका रिश्ता व्यावसायिक सांस्थानिकता से विकसित हो चुका है। ऐसे में इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी और सुर्खियां बनती रहेंगी। वे कहते हैं- आज बहस या विचार कला और उसके मूल्यों पर नहीं, इस बात पर होती है कि कौन-सा कलाकार कहां और कितनी ऊंची कीमत पर बिका है और उसे किस गैलरी ने बेचा है और किस ने उसे खरीदा है। जब कला के केंद्र में इस तरह की बातें होंगी तो फिर कला गौण होकर उसका बाजार ही हावी होगा।
कलाकृतियां रजिस्टर्ड हों
इंदौर की रिफ्लेक्शंस आर्ट गैलरी के संचालक सुमित रावत भी इस खबर से स्तब्ध हैं। वे कहते हैं यह दुःखद घटना है लेकिन इसके साथ ही वे एक व्यावहारिक सुझाव भी देते हैं। उनका कहना है कि इस तरह की धोखाधड़ी को रोकने के लिए एक ऐसी अॉटोनॉमस बॉडी गठित की जाना चाहिए जो कलाकृतियों को बेचने-खरीदने के कामकाज को व्यवस्थित और विश्वसनीय बना सके। इसमें होना यह चाहिए कि हर युवा या वरिष्ठ कलाकार अपनी कलाकृति को रजिस्टर्ड करवाए और अपनी कलाकृति की इमेज के साथ उसके बारे में तमाम जानकारियां दें जिसमें साइज, मीडियम, कीमत आदि की जानकारी हो। इससे चित्रकार, कला प्रेमी या खरीदार और गैलरी सबका फायदा है और किसी भी तरह की धोखाधड़ी को रोका जा सकेगा।
रजा के नकली चित्रों की प्रदर्शनी में मेरी कोई भूमिका नहीं
इंदौर के चित्रकार परवेज एहमद का कहना है कि दिल्ली की धूमिमल आर्ट गैलरी में मशहूर चित्रकार सैयद हैदर रजा के नकली चित्रों की प्रदर्शनी में उनकी कोई भूमिका नहीं है। उन्हें इसकी खबर तक नहीं है कि रजा के ये तथाकथित चित्र कहां से और किन लोगों से इकट्ठा किए गए थे। इस विवाद में उनका नाम आने से वे दुःखी हैं। उल्लेखनीय है कि शनिवार को जब इस प्रदर्शनी का उद्घाटन करने चित्रकार रजा आए तो उन्होंने प्रदर्शित चित्रों को देखकर कहा कि ये चित्र उनके नहीं हैं। इस मौके पर विवाद हुआ और रजा की आपत्ति पर गैलरी के संचालक को यह प्रदर्शनी घंटेभर में तुरंत हटा देना पड़ी। दिल्ली से बुधवार को ही लौटे श्री एहमद ने नईदुनिया को बताया कि मैं तीस सालों से रजा साहब को जानता हूं और वे भी मुझे बेहतर जानते हैं। उन्होंने 2007 और 2008 में इसी गैलरी में हुई मेरी प्रदर्शनी के लिए कैटलॉग लिखा था। उनका कहना है कि रजा के भांजे जेडएच जाफरी को उन्होंने गैलरी की संचालक से 2007 मिलवाया था। उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि इस प्रदर्शनी की योजना कब बनी और कैसे बनी। वे कहते हैं कि मुझे इस बात का भी पता नहीं कि रजा के भांजे जाफरी ने ये चित्र कहां से एकत्रित किए। वे यह भी कहते हैं कि गैलरी की संचालन उमा रवि जैन खुद यह स्वीकार करती हैं कि ये सब चित्र श्री जाफरी ने उपलब्ध कराए। इसमें मैं कहीं से कहीं तक नहीं हूं। वे यह भी कहते हैं कि गैलरी की संचालक ने घोषित किया था कि प्रदर्शनी में प्रदर्शित चित्र बिक्री के लिए नहीं हैं। शनिवार को इस प्रदर्शनी के उद्घाटन के लिए श्री जाफरी ही रजा साहब को लेकर आए थे। श्री एहमद कहते हैं कि सोमवार को भी मैं गैलरी गया पत्रकारों को इस विवाद के मद्देनजर वस्तुस्थिति बता सकूं। वे यह भी कहते हैं कि मुझे तो इस प्रदर्शनी के बारे में तब पता चला जब गैलरी से मुझे कार्ड मिला। रजा साहब मेरे तब से प्रशंसक है जब 78-79 में इंदौर में फाइन आर्ट कालेज की वार्षिक प्रदर्शनी का उद्घाटन करने वे आए थे। इसमें मेरी एक पेटिंग को उन्होंने सराहा था। मुझे तो यह समझ ही नहीं आ रहा है कि इसमें मेरा नाम क्यों और कैसे उछाला गया।
(सैयद हैदर रजा की पेंटिंग गूगल से साभार)

Wednesday, January 21, 2009

रंगों में दिखाई देते ऊर्जा के ताकतवर रूप


वे अपने कैनवास पर लाल-पीले-हरे रंगों के बड़े-बड़े ब्रश स्ट्रोक्स लगाते हैं। फिर उसी में कोई हलका या गहरा रंग लगाते हैं। ये स्ट्रोक्स पहले के मुकाबले छोटे-छोटे होते हैं। और फिर किसी एक रंग के छोटे-छोटे रेले बहते हुए दिखाई देते हैं। रंगों के ये रेले अक्सर उनके कैनवास के नीचे, कभी दाएं, कभी बाएं दिखाई देते हैं। ये सब मिलकर स्पेस बनाते हैं। उनके रंगों के छोटे छोटे स्ट्रोक्स मुख्य रंग के साथ कोरस गाते हुए लगते हैं। उनके कैनवास पर फोर्स दिखाई देता है और एक बहाव भी। जाहिर है ये उनकी भीतरी ऊर्जा के ताकतवर रूपांतरण हैं। उनके चित्रों की यह खासियत पहली नजर में ही दिखाई देती है।
ये हैं 32 वर्षीय विनम्र और संकोची चित्रकार विद्यासागर। प्रचार-प्रसार से दूर रहना उनका सहज गुण लगता है। वे उप्र के बलिया में जन्मे, इलाहाबाद में फाइन आर्ट की डिग्री हासिल की और पिछले कुछ सालों से दिल्ली में रहकर चित्रकारी कर रहे हैं। वे एक आर्ट कैम्प में जाने से पहले मांडव घूमने आए थे, इंदौर में रूके तो उनसे बातचीत की। दिल्ली में 9 से14 दिसंबर तक उनके चित्रों की एकल नुमाइश हुई और अब 9 से 15 मार्च को मुंबई में होने वाली एकल नुमाइश की तैयारी में संलग्न है।
वे कहते हैं जिंदगी में ऐसा होता है कि जो हम देखते हैं वह असल में होता नहीं है, और जो असल में होता है वह दिखाई नहीं देता। तो मेरे चित्र इसी न दिखाई देने वाली जगहों को रंगों में दिखाने की सहज स्फूर्त चेष्टाएं हैं। हम सब में एक ऊर्जा होती है। वह तरह-तरह से बाहर आकर दिखाई देती है। तो जो बाहर आता है वह तो दिखाई देता है लेकिन वह भीतर की किस जगह से आता है, वह कई बार दिखाई नहीं देता। मेरी ऊर्जा रंगों और रूपों में इन्हीं जगहों को रूपांतरित करती है। इसलिए मैंने अपने चित्रों को शीर्षक दिया-एक्सटेंशन आफ हिडन स्पेस।
वे बताते हैं कि उनका बचपन गांव में बीता। उन्होंने खेतों में हल-बक्खर से बनते-मिटते रूप और आकार देखे। गांव का हरापन और आसमान का नीलापन गहरे महसूस किया। लोगों से मिले प्रेम, सुख और दुख ने उन्हें बनाया। इसलिए वे कहते हैं कि मैं जो रचता हूं वह मेरा अपना ही नहीं है, उसमें मेरे कुटुम्ब का भी योग है। मेरे पिता-मां, मेरी नानी-दादी, जाने-पहचाने लोगों का भी योग है। क्योंकि मेरी भीतरी दुनिया इन सबसे बनी है। इसलिए यदि मैं अपनी भीतरी दुनिया संचालित किसी भाव को चित्रित करने की कोशिश करता हूं तो इसमें उन लोगों के रंग भी शामिल होते हैं। जीवन के रंग। मुझे लगता है कि इस जीवन से, इस दुनिया से रंगीन क्या हो सकता है। ये दुनिया ही रंग -रंगीली है। इसमें कई रंग छिपे हैं, बस वह निगाह चाहिए जो उन रंगों को देख सके। विद्यासागर ने इलाहाबाद के ख्यात कवि जगदीश गुप्त की प्रेरणा से कला और कविता के अंतर्संबंधों पर शोध भी किया। जब इस बारे में उनसे पूछा गया तो उनका कहना था कि हिंदी में कई बड़े कवियों की कविताअों में इतने ताकतवर बिम्ब, रंग और छवियां हैं कि वे चित्रकारी के लिए आपकी प्रेरणाएं बन सकती हैं। कई कवियों ने जैसे भवभूति से लेकर निराला तक ने कई ऐसी कविताएं लिखी हैं जो चित्रमय हैं। तो इस विषय ने मुझे खासा आकर्षित किया और मैंने इस पर शोध कर दिया। और फिर कविता का मामला तो ऐसा है कि वह कहीं न कहीं, किसी न किसी स्तर पर आपके मन को छूती है। चित्रकारी यह काम अपने रंगों और रूपों से करती है।

रहस्य में लिपटी लिपियों के चित्रलेख

वे अपने चित्रों में कुछ अक्षर लिखते हैं, इसलिए कहते हैं कि मेरे ये चित्र, चित्रलेख हैं। वे रंगों की हलकी-गहरी परतों के बीच अक्षरों की रेखाएं खींचते हैं। एक के नीचे एक फैली अक्षरों की इन रेखाअों पर कोई आकार हवा में या पानी में तैरता महूसूस होता है। ये आकार अपने में प्रकाशमान होने के साथ ही अपने आसपास फैले प्रकाश में अवस्थित हैं। रहस्य के कोहरे में लिपटे हुए। ऐसा लगता है कि ये आपको पढ़ने का एक मौन बुलावा दे रहे हैं। ये अक्षर उन लिपियों के हैं जिन्हें अभी जानना बाकी है, पढ़ना बाकी है। इनमें शायद कोई अर्थ छिपा है। इनमें शायद कोई मर्म छिपा है। ये शायद आदि-अक्षर के चित्र हैं। इन चित्रों को जरा गौर से देखें तो लगता है जैसे किसी सघन एकांत में की गई प्रार्थनाअों के बिखरे अक्षर हैं। ये चित्र, इंदौर के ही चित्रकार राजेश पाटिल के हैं। चैन्नई की अप्पाराव गैलरी में उनकी एकल नुमाइश हाल ही में संपन्न हुई। उनके चित्रों की अब तक सात एकल नुमाइश हो चुकी हैं और वे देश की तमाम गैलरीज के साथ अमेरिका के अटलांटा, कैरोलिना, वाशिंगटन, सैन डिएगो, मैडिसन और इंग्लैंड, कनाडा, पौलेंड, जर्मनी, आस्ट्रेलिया और फ्रांस में हुई समूह प्रदर्शनियों में शिरकत कर चुके हैं।
उनके चित्रों का एक सिरा जहां प्राचीन लिपियों के रहस्य से जुड़ता है तो दूसरा सिरा मिनिएचर की परंपरा से। उनके चित्रों में रंगों के अनंत में आकार की नृत्यरत मुद्राएं हैं। वे कहते हैं मैं अपने से यह बार-बार पूछता हूं कि रंग और आकार क्या संगीत या ध्वनि में रूपांतरित हो सकते हैं। उनके घर पर अपने चित्रों को दिखाते हुए वे कहते हैं कि मैं अक्षर में निहित ध्वनि और प्रकाश को रूपांतरित करने की कोशिश में हूं। आप गौरे से देखें तो सौंदर्य, प्रकाश और ध्वनि को देख-महसूस कर सकते हैं।
उनके चित्रों में कोई एक रंग की प्रमुखता है। उसी रंग की अलग अलग टोन्स की परते हैं। वे कहते हैं मुझे गहरे रंग पसंद हैं। हरा, पीला या कत्थई। मैं कम से कम रंगों के जरिये रंगों को जानना-समझना चाहता हूं। मैं किसी एक रंग की परत पर परत बनाता हूं। इनमें आकार आकर इनकी एकरसता को खत्म करते हैं। ये आकार अक्षर हैं। इस तरह से चित्र की एक अनायास भाषा बनती और दीखने लगती है।
लेकिन मैं इन्हें किसी वाद में नहीं बांधना चाहता क्योंकि ये हवा, पानी और धूप की तरह हैं। ये घटित होते हैं। मैं इन्हें चित्रित करने की कोशिश नहीं करता। जब तक मेरे दिमाग में यह बात रहेगी कि मैं चित्र बना रहा हूं तब तक मैं चित्र नहीं बना सकता। इस तरह तो दिमाग अडंगा पैदा करता है। चित्र तो बनेगा ही तब, जब मैं अपने को भूल जाऊं। जब तक मैं खाली नहीं हो जाऊंगा तब तक चित्र नहीं घटेगा। चित्र का जन्म खुद को भूलने से पैदा होता है। मैं अपने को भूलकर चित्र बनाता हूं।
यदि आप अपने चित्रों को चित्र लेख कहते हैं तो क्या लिखते हैं? वे कहते हैं मैं अपने चित्रों में अपनी स्व-अनुभूति लिखता हूं। मैं चित्रों में अपना प्रेम और अपनी घृणा लिखता हूं। मैं शायद मौन को, प्रार्थना को, शांति को या किसी रहस्यमय में लिपटी लिपि को लिखना चाहता हूं। से मैं मानता हूं कि प्रेम का लोप होना आकार का लोप होना है। आकार का लोप होना और आकार का लोप होना अमूर्त होना है। और इसके लिए अमूर्त भी नाकाफी शब्द है। मैं तो एक ऐसी निर्दोष आंख हासिल करना चाहता हूं जिसके जरिये चित्र को संपूर्ण रच सकूं। इसके लिए अपने प्रति, अपने रंगों के प्रति, अपने चित्र में आ रहे आकारों के प्रति सजग होना जरूरी है। मूर्त-अमूर्त के विभाजन पर वे कहते हैं कि कला में किसी भी तरह का विभाजन नहीं होता। आधुनिक समाज ने हमारी स्वाभाविक वृत्तियों को विकृत कर दिया है और यही कारण है कि हम हर चीज का विभाजन करते हैं।

Tuesday, January 13, 2009

हसीन हसरतों के हवेली ड्रीम्स !











फोटो और पेंटिंग के मेल से बनी अनोखी कलाकृतियों की प्रदर्शनी मुंबई में 14 जनवरी से
हर फनकार हरदम यह हसीन हसरत रखता है कि वह कुछ ऐसा करे कि लोग उसके फन को देख हैरत में पड़ जाएं। अपने फन के माहिर दो फनकारों ने कुछ ऐसा ही किया है। अपनी इन हसरतों को हवा देने के लिए उन्होंने हवेली हैवन को चुना। हवेली-हैवन यानी राजस्थान का शेखावटी इलाका जो अपनी खूबसूरत और बेजोड़ हवेलियों के लिए मशहूर है। समय की मार के बावजूद इन हवेलियों की नाजुक-रंगीन बनावट मारू है। आज भी हजारों देशी-विदेशी इनके रूप पर मर मिटते हैं। तो किसी समय इंदौर में रहकर चित्रकारी करने वाले युवा चित्रकार सफदर शामी और मुंबई के फोटोजर्नलिस्ट प्रदीप चंद्रा ने मिलकर अनोखी कलाकृतियों को जन्म दिया और इन्हें पुकारा-हवेली ड्रीम्स। इसके लिए श्री चंद्रा ने हवेलियों के दरवाजों की बनावट को ध्यान में रखते हुए फोटो खींचे और सफदर ने इन फोटो को कहीं कहीं से कल्पनाशील ढंग से फाड़कर अपने रंगों से इन्हें स्वप्नवत बना दिया। इन्हीं 22 कलाकृतियों को 14 से 29 जनवरी तक मुंबई की ख्यात आर्ट एंड सोल गैलरी में प्रदर्शित किया जाएगा। आज जब पेंटिंग में प्रयोग के नाम पर मानसिक खुराफातों को भी अंजाम दिया जा रहा हो तब ये कलाकृतियां अपनी प्रयोगधर्मिता में रचनात्मक भूख के कल्पनाशील साक्ष्य हैं। इनमें हवेलियों के खूबसूरत स्थापत्य की उठान भी देखी जा सकती है और संवेदनशील रंगों की उड़ान भी। यानी एक ही कैनवास पर दो भिन्न माध्यमों में काम करने वाले दो कलाकारों का अद्भुत काम। अब ये न पूरी तरह से फोटो हैं, न पेंटिंग और न ही कोलाज। ये इन सबकी खूबियों से बनी एक नई विधा है जिसका आस्वाद भी नया है।
इन 22 कलाकृतियों में हवेली के दरवाजे हैं, उनके ऊपर या आसपास बनी डिजाइनें हैं, खिड़कियां है, कभी बंद, कभी खुले -अधखुले दरवाजें हैं। कभी एक साथ तीन चार दरवाजें हैं तो सीढि़यां भी हैं। दरवाजों पर बनी डिजाइनें, लकड़ी के बारीक काम और आलिये हैं। इनमें कहीं लालटेन हैं और कहीं ढोलक लटकी हुई हैं। और ये सब सोचे-समझे और सचेत ढंग से लगाए मनोहारी रंगों में चमक-दमक रही हैं। इनमें नीले, पीले, हरे और मैरून रंगों का इस्तेमाल इस तरह से किया गया है कि वे अपने टोन और टेक्स्चर में एक नई चित्रभाषा गढ़ते हुए लगते हैं। फोटो और पेंटिंग के मेल से बनी ये कलाकृतियां देखो तो लगता है ये अपने आकारों और रंगों के खूबसूरत अंधेरे -उजाले में खोई सांसे ले रही हैं। जैसे अपने बीते समय की हसीन दास्ता को आपके सामने बयां करने लगेंगी। इनकी कम्पोजिशंस इतनी उम्दा है और रंगों का रचाव इतना अच्छा है कि ये किसी अमूर्त चित्र का मजा भी देते हैं। मिसाल के तौर पर हवेली के एक ग्रे-चमकीले दरवाजे के ऊपर-नीचे और दाएं-बाएं की दीवारों की जगह रंगों का कल्पनाशील इस्तेमाल देखा जा सकता है। कहीं ढोलक लटकी है और लगता है कि बस अभी हवेली में मंगल गान गूंजने ही वाले हैं।
श्री चंद्रा मुंबई के ख्यात फोटोजर्नलिस्ट हैं और लगभग साढ़े तीन दशकों से विभिन्न पत्र-पत्रिकाअों के लिए फोटो खींचते रहे हैं। हवेली ड्रीम्स उनका तीसरा बड़ा कलात्मक काम है। वे कहते हैं मैं जब राजस्थान गया तो मुझे शेखावटी इलाके की हवेलियां ने खासा आकर्षित किया। खासतौर पर इन हवेलियों के दरवाजों की बनावट, उनकी दीवारें, खिड़कियां और उन पर किया गया रंग-रोगन और खास पैटर्न की डिजाइनें। कम्पोजिशंस का ध्यान रखते हुए मैंने उन दरवाजों के फोटो लिए और उनके जेरॉक्स कराकर सफदर को दिखाए। उसने इन पर अपनी कूची से काम और हमने ये काम आर्ट एंड सोल की मालिक तराना खूबचंदानी को दिखाए। उन्हें ये खासे पसंद आए। फिर मैंने हवेली के दरवाजों के 22 फोटो सफदर को आर्काइवल पेपर पर प्रिंट कराकर दिए क्योंकि इन कागजों की जिंदगी दूसरे कागजों के मुकाबले ज्यादा होती है। सफदर कहते हैं कि यह एक चुनौतीभरा काम था क्योंकि इसमें फोटो की आत्मा को आहत किए बिना मुझे अपनी पेंटिंग की आत्मा को इस तरह से जीवंत करना था कि ये दो आत्माएं एक होकर धड़कने लगें। इसलिए पहले तो मैं कुछ दिनों तक प्रदीप के फोटो ही देखता रहा और फिर जहां जहां मुझे अपनी पेंटिंग के लिए स्पेस धडकता हुआ दिखा वहां-वहां मैंने रंगों से खेलना शुरू कर दिया। मैंने प्रदीप के फोटो पर पेंट किया और कहीं कही उनके फोटो को फाड़कर भी पेंट किया। इसमें तेईस इंच गुणित बयालीस इंच से लेकर चालीस इंच गुणित चौरासी इंच की कलाकृतियां शामिल हैं।
बाम्बे हेरिटेज ः यह है सफदर-प्रदीप की होटल ताज!
हवेली ड्रीम्स के पहले प्रदीप चंद्रा और सफदर शामी ने बाम्बे हेरिटेज शीर्षक से मुंबई में एक बड़ा शो किया था। इसके लिए प्रदीप चंद्रा ने मुंबई की धरोहरों के रूप में विख्यात बिल्डिंग्स को चुना। इसमें होटल ताज, गेटवे अॉफ इंडिया, वीटी(जो छत्रपति शिवाजी टर्मिनल हो गया है), हाजी अली, माउंट मेरी चर्च, बीएमसी बिल्डिंग, हायकोर्ट, एलफिंस्टन कॉलेज, सेंट जेवियर कॉलेज, ॉक्रॉफोर्ड मार्केट और ससून लायब्रेरी जैसी खूबसूरत और पुरानी बिल्डिंगें शामिल थीं। श्री चंद्रा ने इनके खास कोण से फोटो लिए ताकि उनकी संपूर्ण खूबसूरती को कैद किया जा सके। फिर उनके बड़े-बड़े प्रिंट्स निकलवाए और चित्रकार सफदर शामी को सौंप दिए। सफदर ने जहां जहां अपनी चित्रकारी की संभावनाएं देखीं वहां वहां से फोटो फाड़कर अपने रंग से उसे एक मुकम्मल पेंटिंग का रूप दे दिया। मिसाल के तौर पर होटल ताज को लीजिए जिसे आतंकवादी हमले में खासा नुकसान हुआ है। श्री चंद्रा के खीचें इस होटल के फोटो में सफदर ने ताज के टोन को ध्यान में रखते हुए आकाश को सुंदर रंगों से आलोकित किया, उसके कुछ गुंबदनुमा संरचना को चमकदार पीले रंग में निखार दिया जैसे वे सुनहरी धूप में चमक रहे हों और आसपास के पेड़ों और हलचलों को जीवंत कर दिया और इस तरह फोटो की लय में लय मिलाते हुए उसे रच दिया। इस तरह से अनूठे ढंग से बाम्बे हेरिटेज का यह कलात्मक दस्तावेज तैयार किया। इस तरह फोटो और पेंटिंग के मेल से लगभग तीस कलाकृतियां तैयार की गई थीं। श्री चंद्रा खुश होकर बताते हैं कि यह पूरी सिरीज हाल ही में बिक चुकी है। आशा है हमारे हवेली ड्रीम्स भी लोगों को पसंद आएंगे।

Monday, January 12, 2009

रहमान-फिनामिना पर एक प्रभाववादी टीप


एआर रहमान को गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड से सम्मानित किया गया है। उन पर मेरे मित्र और युवा कवि-अनुवादक सुशोभित सक्तावत ने यह टिप्पणी लिखी है। एक बिलकुल नई निगाह से उन्होंने रहमान यह बेहतरीन टिप्पणी लिखी है। उनके प्रति गहरा आभार प्रकट करते हुए आप सबके लिए हरा कोना की यह प्रस्तुतिः
मैं रहमान पर वस्‍तुनिष्‍ठ तटस्‍थता के साथ बात नहीं कर सकता... इसीलिए उसका ख्‍़याल करते हुए मैं कॉलरिज के 'विलिंग सस्‍पेंशन ऑफ़ डिसबिलीफ़' को याद रखता हूं, जिसके बिना 'कुब्‍ला ख़ान' और 'एन्‍शेंट मारिनर' सरीखी ज़मीनपारी चीज़ें मुमकिन नहीं हो सकती थीं. कुछ-कुछ यही तौर रहमान का भी है. म्‍यूजिक की बेइंतहाई रेंज वाला रहमान निर्विवाद रूप से अभी हिंदुस्‍तानी सिने संगीत का शाहज़ादा है... एक वर्सेटाइल जीनियस. उसके जैसी वर्सेटिलिटी इसके पहले हमने दादा बर्मन और पंचम में ही देखी थी. ये रहमान ही कर सकता है कि किसी डिस्‍को नंबर के आखिरी हिस्‍से को सरगम से सजा दे, या फिर किसी स्‍टॉक सिचुवेशन के लिए कम्‍पोज़ किए गए भीड़भरे सस्‍टेंड पीस के लिए शीशे और मोम के साज़ जुटा लाए. हमने रहमान के ज़रिये साउंडट्रैक पर बारिश की बूँदें सुनी हैं... और तपते दश्‍तों में भी हम उसके साथ दूर तक चले हैं. अपनी 'वीयर्ड कम्‍पोजिशंस' में वह सर्दीलेपन और सिलगन दोनों को रचना बख़ूबी जानता है. उसमें कुछ-कुछ 'अनकैनी' है... कुछ-कुछ पराभौतिक और लोकोत्‍तर... जिसके सामने व्‍यंजनाएँ मुँह ताकती रह जाती हैं. उसका टैलेंट बहुत ओरिजिनल चीज़ है- इधर से उधर तक जैसा हमने कुछ कभी देखा-सुना न हो. मौसिक़ी के तमाम मैनरिज्‍़म पर उसकी बारीक़ पकड़ है. दूसरे रिदम का वह बादशाह है. ध्‍वनियों के उत्‍सों और स्रोतों तक उसकी पहुंच है, इसलिए चाहे नॉक्‍चर्नल हों, चाहे लयात्‍मक, चाहे इंटेंस, चाहे लाउड और ज़मीनपारी... आवाज़ों के तमाम मौसम गढ़ना उसको आता है. फिर दक्खिनी हिंदुस्‍तानी संगीत से लेकर पश्चिमी क्‍लैसिकल संगीत के ध्‍वनि-रूपों तक उसकी पकड़ है. उसकी बहुतेरी कंपोजिशंस में आपको सिंफ़निक उठान मिल जाएगी. सिंफ़नी- जो के एक 'यूनिवर्सल रुदन' है, सदियों से ठहरा हुआ वजूद की छाती में- रहमान उसे लहराते परदों के सर्दीलेपन के साथ बुनना जानता है और जो हमें चारों तरफ़ से घेर लेती हैं. मेरा यक़ीन है कि वह बहुत ध्‍यान से चीज़ों को सुनता होगा- दुनियाभर की श्रेष्‍ठ और अनुपम चीज़ों को- वग़रना, वो ख़ुद के लिए इतना सघन और समृद्ध संगीत नहीं रच पाता. रहमान में दुनिया-जहान के संगीत-रूपों और ध्‍वन्यिक-प्रविधियों का दुर्लभ संयोजन आया है. सिंफ़नी से लेकर सूफ़ी, फ़ोक से लेकर क्‍लैसिकल और ट्रेंडी से लेकर ट्रिकी तक. वह ख़लाओं से लेकर अनुगूंजों तक एक दर्दमंद और दिलक़श पुल रचता है. उसे आवाज़ों के स्‍थापत्‍य की समझ है और उसे बरतने की तमीज़ भी. वह संगीत के पीछे छुपे वैश्चिक स्रोत तक पहुँचता हुआ राग-विराग रच देता है और ये अपने आपमें एक बहुत बड़ी ताक़त है- एक बहुत बड़ी तख़लीक़ की ताक़त- जो ख़ुदावंद से क़तई कमतर नहीं. उसे परदादारी के राज़ पता हैं. जिंदगी के महीन परदों के पीछे छुपे तिलिस्‍म वो जानता है और यह भी ख्‍़याल है उसे के म्‍यूजिक कुछ नहीं, अगर वो रूह को उधेड़कर रख देने की कीमिया नहीं है. (वो जानता है या नहीं, ये कोई इक़बालिया स्‍टेटमेंट नहीं है, वो बस उस सब को जानता है- बाय टेम्‍परामेंट- उसी तरह जैसे रंग रोशनियों को जानते हैं- वही 'अनकैनी'!) और वह यक़सी सफ़ाई के साथ कातरता या उत्‍साह को रच देता है. उसकी मौसिक़ी कभी-कभी तो ख्‍़याल की इंतेहा तक जाती है. तब, तल्‍लीनता से, मन की किसी उठी हुई हालत में उसे सुनना आपको औदात्‍य के दरवाज़े पर धकेल देता है. रहमान ने अपनी फिल्‍मों के लिए दो-एक बला की नातें भी गाई हैं, (ख़ुद उसकी आवाज़ अपने आपमें एक अजीबो-ग़रीब शै है- उसमें भराव से ज्‍़यादा उठान है और जो हमें अक्‍सर उखाड़ फेंकती है.) और जब वो ऐसा कुछ गाता है तो उसकी आवाज़ उसकी रूह का आइना बन जाया करती है. और तब हम देख सकते हैं कि एक मौसिक़ार के पीछे शायद एक दरवेश छिपा हुआ है... जिसकी रूह उसके सुरों के दरिया में रवां है, और जो हमारी दफ़्तरी दुपहरियों और उनकी सादा गतियों और पस्‍त इशारों को भी अपने बे-मंशाई होनेभर से रोशन औ' मुअत्‍तर कर सकती है.

Friday, January 9, 2009

कूदती-फांदती कुंवारी कन्या का कल्लोल !


नर्मदा! तुम सुंदर हो, अत्यंत सुंदर, अपने सौंदर्य का थोड़ा-सा प्रसाद मुझे दो ताकि मैं उसे दूसरों तक पहुंचा सकूं। -अमृतलाल वेगड़
धाराजी की धार्मिक धाक है। वहां श्रद्धालु डुबकी लगाने जाते हैं। कहते हैं पुण्य मिलता है। शहर के चित्रकार- फोटोग्राफर पंकज अग्रवाल भी डुबकी लगाने गए थे लेकिन यह कलात्मक डुबकी थी। उन्होंने कैमरा हाथ में लेकर डुबकी लगाई। यानी यहां की सुंदरता में डूबकर तस्वीरें लीं। डुबकी से मिले पुण्य में उन्हें कुछ छवियां मिली, कुछ बिम्ब मिले। कुछ रंग मिले, कुछ आकार। धीमी बहती लयात्मक गतियां और तेज उछलती, चांदी सी चमकती लहरें मिली। धूप में किसी स्त्री की तरह लेटीं और अपनी ही सुंदरता पर प्रसन्न-मुग्ध, आड़ी-खड़ी, रंग-बिरंगी चट्टानें मिलीं। छांव मिली और धूप मिली, उसमें नर्मदा की कूदती-फांदती सुंदरता मिली। उन्होंने अपनी नाजुक निगाह से इन्हें संजो लिया। और नाम दे दिया-अवगाहन यानी डुबकी लगाना। ये धाराजी के कलात्मक व चित्रमय दस्तावेज। अपने इन चित्रों को वे पहली बार प्रदर्शित कर रहे हैं।
उनके लगभग चालीस फोटो की प्रदर्शनी भारत-भवन में 13 से 18 जनवरी तक लगेगी। भारत-भवन के रूपंकर की रूपाभ श्रृंखला की यह ताजा कड़ी है। जाहिर है इस बार वे कूची और कलर्स के साथ नहीं, कैमरे के कमाल के साथ हाजिर हैं। पंकजजी कहते हैं-मैंने अोंकारेश्वर, महेश्वर, धाराजी और मझधार के कई चक्कर लगाए हैं। हमेशा नर्मदा और उसके आसपास बिखरे सौंदर्य से अभिभूत रहा हूं। जब पता लगा कि डेम में धाराजी का सौंदर्य डूब जाएगा तो मैंने इसे कैमरे में कैद कर लिया। नर्मदा चिर कुंवारी है। इसे रेवा भी कहा गया है यानी कूदती-फांदती। पंकजजी ने इस कुदती-फांदती कुंवारी कन्या के कल्लोल के मुग्धकारी फोटो लिए हैं। इसमें नर्मदा चट्टानों पर, उनके बीच से, दर्रे और खोह में से इठलाती-मचलती दिखाई देती है। वह कभी एक कुंड में अंधेरे में काली है तो दूसरे कुंड में कूदती हुई रोशनी में अपने हरेपन में मोहित करती है। कभी किसी झरने में अपनी सफेद पवित्रता में, कभी अपने गुनगुनाते ऐश्वर्य में इन फोटो में वह मन को शीतल करती है।
पंकजजी ने उसकी लय, रंगत और बलखाते अंदाज को संवेदनशील और कल्पनाशील तरीके से कैद किया है। उनके फोटो में वे चट्टानें भी हैं जो इसके प्रवाहमान स्पर्श से सुघड़ आकार हासिल करती हैं। इनकी कभी खुरदुरी और कभी चिकनी सतह पर इस भागती-दौड़ती कन्या के पांवों के खूबसूरत निशान नए नए रूपाकार बनाते हैं और पंकजजी ने इन्हें सूरज की मुलायम रोशनी में एक संतुलित संयोजन में संजो लिया है। वे एक ही फ्रेम में नर्मदा की अल्हड़ता, सुंदरता, खूबसूरत चट्टान, उसकी गोलाइयों, मोड़ों और उन पर बनी अनोखी-अनूठी रेखाअों को एक साथ देख-दिखा पाते हैं। यह उनका कलात्मक धैर्य है। वे कहते हैं कि इस नदी का सौंदर्य उन कुंडों और चट्टानों में भी देखा जा सकता है कि कैसे उसने अपने बहने से उन्हें एक कलाकृति में बदल दिया है। कत्थई, लाल-भूरी और स्लेटी चट्टानों पर नर्मदा की अनेक कलाकृतियां हैं। नर्मदा ने अपनी चट्टानों को लयात्मक आकार दे दिए हैं जैसे ये मूर्तिशिल्प हों। उनके एक चित्र में एक पूरी चट्टान का फोटो इतना सुंदर है कि लगता है कि कोई स्त्री लेटी हुई धूप सेंक रही है। उनके चित्रों में नर्मदा के आईने में आसमान भी झांकता दिखाई दे जाएगा और कोई पत्थर किसी जलीय जीव की तरह। वे कहते हैं कि अब हमारी आंख इन नजारों को नहीं देख पाएगी। इन नजारों में मनोहारी रंग है, पानी के बहाव हैं, चट्टान के रंग और आकार हैं और ये सब मिलकर लयात्मकता का अद्भुत संसार बनाते हैं। पंकजजी कहते हैं कि हम मानते हैं कि ईश्वर प्रकृति है तो क्या हम ईश्वर को ही नहीं मिटा रहे हैं? पंकजजी नर्मदा के सौंदर्य-वैभव का यह चित्रमय प्रसाद लाए हैं। वे मां नर्मदा को प्रणाम करते हैं, हम उनके इस दस्तावेजी और कलात्मक काम के लिए उन्हें सलाम करते हैं।

Wednesday, January 7, 2009

मालवा के गांवों के अभाव का भावपूर्ण चित्रांकन





उनके फोटो किसी महान और भव्य स्थापत्य कला के मोहताज नहीं है। उनके चित्र महंगे पत्थरों और संगमरमर के भी मोहताज नहीं। उनके चित्रों में गारे-मिट्टी-भूसे, लकड़ी, घांस-फूस और कवेलू से बने वे घर और गलियां हैं जो गोबर से लिपे हैं। उनके फोटो में मालवा के गांवों की दीवारें, दरवाजे, खिड़कियां और सीढ़ियां हैं। सुबह की मुलायम धूप है, आसमान है और पूरे फोटो को स्पंदित करती गांव की कोई मानवीय हलचल है। ये सब इतने अनूठे ढंग से संयोजित हैं कि गांव के अभाव का भाव तो दिखाई देता है लेकिन अभाव के इसी भाव का भावपूर्ण चित्रांकन भी है। अपनी सादगी और मार्मिकता में अभाव का यह आत्मीय वैभव है। यह वैभव देखना हो तो प्रवीण रावत के श्वेत-श्याम फोटो देखे जाना चाहिए। वे अपने कैमरे से मालवा के घरों की सुंदरता का चित्रांकन करते हैं। उनके खींचे गए फोटो में घरेलू स्थापत्य मुलायम धूप में अपनी सुंदरता में मोहित करते हैं। ये घरेलू स्थापत्य को गरिमा और सम्मान देना हैं। हाल ही में उन्हें जापान के सबसे बड़े अखबार अशाई शिंबुन द्वारा प्रायोजित और जापान की फोटोग्राफिक सोसायटी द्वारा आयोजित 69वीं अंतरराष्ट्रीय छायाचित्र स्पर्धा में गोल्ड मैडल मिला है। वे उत्साहित हैं और लगातार अपनी कला को निखारने में जुटे हैं।
वे कहते हैं कि मैं मालवा की इसी ग्रामीण और घरेलू स्थापत्य कला को लोगों के सामने लाना चाहता हूं। मेरे अधिकांश फोटो इसी विषय पर एकाग्र हैं। यानी ये जो दीवारें-दरवाजे-खिड़कियां-सीढ़ियां हैं इनकी सुंदरता को देखना-दिखाना चाहता हूं। यह इस तरह से बने हैं कि जितना गारा-मिट्टी उपलब्ध था उतनी सीढ़ियां बन गईं, उतना बड़ा चौबारा बन गया, जितना गोबर था उतनी दीवार लीप दी। इसमें कुछ छूट भी जाता है, वह दीखता भी है लेकिन मैं अपने खास कोण, गति, लाइट का ध्यान रखते हुए उसे इस तरह से संयोजित करता हूं कि उस छूटे हुए में भी सुंदरता के दर्शन हों। यही मेरे लिए ग्रामीण सौंदर्य है। अब यह सुंदरता भी आधुनिकता की हवा में धीरे धीरे खत्म हो रही है।
श्री रावत ने 1979 से फाइन आर्ट कॉलेज इंदौर से डिप्लोमा किया और फोटोग्राफी में दिलचस्पी होने से अपनी रचनात्मकता को इसी माध्यम में खोजा-निखारा। पहला पुरस्कार उन्हें 1990 में फोटोग्राफिक सोसायटी आफ इंडिया का मिला था। इससे उत्साहित होकर वे लगातार काम करते रहे और यही कारण है कि उन्हें अब तक 68 से ज्यादा प्रादेशिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। उनके अब तक 400 से ज्यादा रंगीन और श्वेत-श्याम फोटो प्रकाशित हो चुके हैं। इन दिनों वे मुंबई की जहांगीर आर्ट गैलरी में मार्च में लगने वाले एक ग्रुप शो की तैयारी में व्यस्त हैं। इसमें उनके ताजा फोटो प्रदर्शित होंगे।
वे कहते हैं आंख के पीछे कोई चित्रकार बैठा हो तो गले में लटके कैमरे को ब्रश की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। यह आंख जो फोटो खींचती है उसमें चित्रकारी का मजा भी आता है। किसी भी कलात्मक फोटो के लिए रेखाएं, आकार, टेक्स्चर और कलर्स महत्वपूर्ण होते हैं। बस इन्हीं को अलग अलग कलाकार अपने ढंग से नए तरीके से संयोजित करता है। इसी संयोजन में कला का मर्म छिपा होता है। मैं रोटीग्राफी (खाने-कमाने के लिए की जाने वाली फोटोग्राफी) करता हूं लेकिन रचनात्मक आनंद के लिए मैं लगातार रचनात्मक फोटो खींचने में लगा रहता हूं और फोटो को निखारने के लिए अपने डार्करूम में भी उस पर काम करता हूं ताकि अपेक्षित प्रभाव हासिल कर सकूं। मैं टोन और टेक्स्चर, लाइट और कम्पोजिशंस का ध्यान रखता हूं।
यही कारण है कि फोटोग्राफी में उच्च गुणवत्ता और सृजनात्मकता हासिल करने के लिए अक्टूबर 2008 में उन्हें दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित संस्था द रायल फोटोग्राफिक सोसायटी आफ ग्रेट ब्रिटेन ने सर्टिफिकेट दिया। इसके लिए श्री रावत ने ग्रामीण पर्यावरण पर खींचे अपने श्वेत-श्याम फोटोज का कैटलॉग भेजा था। वे कहते हैं तकनीक एक हद तक ही मदद करती है, असल चीज है आपकी वह आंतरिक आंख को किसी भी फोटो को सुंदर बना देती है। वे कहते हैं, मैं प्रयोग भी करता हूं और अपने लिए नए आयाम खोजने की कोशिश भी।
यदि उनका ब्लैक इज ब्लैक प्रेजेंटेशन देखें तो सहज ही कहा जा सकता है कि आधुनिकता की हवा में नष्ट होती मालवा के घरों की ग्रामीण स्थापत्य कला को वे अपने कैमरे में कैद कर एक तरह से उसका दस्तावेजीकरण कर रहे हैं। हो सकता है आने वाले समय में मालवा की यह सुंदरता उनके खींचे चित्रों में ही देखने को मिले।

Monday, January 5, 2009

काले रंग का हाथ थामकर जादू रचने की कोशिश


एमएफ हुसैन-एनएस बेंद्रे के इस शहर इंदौर में ऐसे बेहतरीन युवा चित्रकार हैं जो अपनी रचनात्मकता को नए आयाम दे रहे हैं। वे कभी आकृतिमूलकता में तो कभी अमूर्तन में अपने लिए रूप और रंग की अनंत संभावनाएं तलाश रहे हैं। उनमें नया रचने की तड़प भी है और इसी लिए प्रयोग करने का साहस भी। यही खासियत इंदौर के चित्रकार जगत को नए- नए रूप देती है, नए-नए आकार देती है। और इसी वजह समकालीन चित्रकला परिदृश्य में शहर के चित्रकारों ने अपनी मौजूदगी का गहरा अहसास कराया है। इन्हीं के बीच एक चित्रकार है जो काले रंग में संभावनाएं तलाशते हुए एक संभावनाशील चित्रकार के रूप में उभरा है। यह चित्रकार हैं-युवा शबनम शाह।
जब तमाम चित्रकार तमाम रंगों से खेलते हुए अपने कैनवास को ज्यादा से ज्यादा रंगीन बनाने में जुटे हैं तब यह चित्रकार काले के हसीन जादू की गिरफ्त में है।
कैलिफोर्निया की प्रतिष्ठित आईकॉन गैलरी में 2008 में उनके चित्रों की एकल नुमाइश हो चुकी है। दिल्ली, मुंबई और इंदौर में समूह प्रदर्शिनयों में उनके चित्र शामिल थे। और अब पांच जनवरी से 17 जनवरी तक चैन्नई में होने वाली एक समूह प्रदर्शनी में उनके चित्र शामिल किए गए हैं। अप्पाराव गैलरी द्वारा आयोजित इस प्रदर्शनी में शबनम के साथ पांच और कलाकार हैं जो काले रंग में काम करते हैं। बीते साल की पैलेट में उनके खाते में कामयाबी के ये बड़े काले बुंदके चमक रहे हैं।
वे कहती हैं कि काले में तमाम रंग छिपे हुए हैं। मेरे लिए काले का मतलब कलरफुल है। इसमें सारी रंगीनियां समाहित हैं। मुझे इस रंग में काम करने में मजा आता है। मैं इसके अलग-अलग शेड्स में अलग-अलग रंगों को ढूंढ़ लेती हूं। मैं इस रंग को कई स्तरों पर एक्सप्लोर करना चाहती हूं। मैं मानती हूं कि काले रंग में अनेक संभावनाएं हैं। मैं इसी रंग के प्यार में हूं। और इसी के जरिये बहुत सारे रूपों को और बहुत सारी वैरिएशंस को बनाने-खोजने में लगी हूं। पहले मैंने अक्षरों को लेकर पेपर पर चित्रकारी की थी। अक्षर भी मेरे लिए आकार हैं। मैं इन आकारों को लेकर लगभग 49 पेंटिंग्स की थी।
शबनम ने पेपर पर खूब काम किया लेकिन अब वे पिछले दो-एक सालों से कैनवास पर काम कर रही हैं। रंग वही उनका प्यारा काला है। उन्होंने श्रावण को लेकर भी कई पेंटिंग्स की हैं। इसमें बारिश के मौसम का असर काले रंगों में फैला हुआ है। इन्हें देखकर सहज ही कहा जा सकता है कि ये मौसम से रूबरू होकर उसका हूबहू रूपांकन नहीं है बल्कि उस मौसम का मन पर जो असर हुआ है उसके इम्प्रैशंस हैं। वे कहती हैं कि इस मौसम का इतना गहरा असर होता है कि मन पर कई भाव बनते-मिटते हैं। मैंने मन में बनने वाले इन्हीं भावों को काले के अलग अगल शेड्स में रचने की कोशिश की है।
कहने दीजिए यह एक साहसिक कलाकार है जो रंगों का रंगीन दामन छोड़कर काले रंग का हाथ थाम चुकी है और अपनी कठिन राह पर जादू रचने की कोशिश कर रही है।