Wednesday, February 25, 2009

पत्‍थर की नींद में नदी का विन्‍यास...


नीरज अहिरवार भोपाल में रहते हैं। शिल्पकार हैं। भारत भवन के सिरेमिक सेक्शन में कार्यरत हैं। हाल ही में भोपाल की 'आलियां फ्रांस्‍वां' में उनकी कृतियों की नुमाइश हुई। यह २१ फरवरी से २३ फरवरी तक रही। यह उनकी दूसरी एकल नुमाइश थी। इस पर मेरे मित्र सुशोभित सक्तावत ने एक टिप्पणी भेजी है। उसे साभार यहां दे रहा हूं।
गोया हर पत्‍थर की नींद उसकी नदी हो, और उसमें अपने ही अप्राप्‍त विन्‍यास के स्‍वप्‍न... लहरिल और लयपूर्ण सम्‍मोहन-सा रचते हुए. नीरज अहिरवार के काम के बारे में एकदम पहले-पहल यही बात लक्ष्‍य की जा सकती है. वो अपने स्‍पेस को 'वाइब्रेट' करता है...अपने माध्‍यम की नई संभावनाएं टटोलता हुआ जब वह किसी पदार्थ के नए आयाम अन्‍वेषित कर रहा होता है, तब भी यह लय अक्षुण्‍ण रहती है... एक गहरी आस्तित्विक लय से सम्‍पृक्‍त. तब नीरज और उसका काम अनिवार्य सम्‍वादी हो जाते हैं... उसमें 'डायलॉग' है और वो ख़ासा 'डायनेमिक' है...एक सम्‍वाद की लय...एक तरह का अन्‍य-सम्‍वादी किंतु आत्‍म-विन्‍यस्‍त उद्यम, जो पत्‍थरों की तराश पर पानी के अदृश्‍य हस्‍ताक्षर देखता-दिखाता है.
लेकिन प्रश्‍न उठता है कि सम्‍वाद की यह लय आती किधर से है... नीरज की शिल्‍पकृतियां किस भीतरी स्रोत से प्रतिकृत होती हैं? इसका उत्‍तर हमें स्‍वयं नीरज की विश्‍व-दृष्टि में तलाशना होगा. नीरज की नज़र में यह विश्‍व असमान आकारों का एक ऐसा समुच्‍चय है, जो समान प्रारब्‍ध को प्राप्‍त करता है. आरंभ और अंत इसके दो छोर हैं, जो उसे संतुलित करते हैं, और मध्‍य में है एक गहरी आस्तित्विक लय, जिसे वो 'जैविक चेतना' कहता है. गति जिसकी देह है...स्‍पंदन जिसका स्‍वरूप... और तब हर रूपाकार एक संकेत होता है, उस संभावना को लक्ष्‍य करता हुआ, जो स्‍वयं उसके भीतर सोई हुई होती है. यह अकारण नहीं कि नीरज की कृतियां ख़ुद अपने भीतर से 'उगती' हुई-सी लगती हैं. यह 'ऑर्गेर्निक स्‍कल्‍पटिंग' है... पत्‍थर का मांसल स्‍वप्‍न! नीरज सैंडस्‍टोन और सिरैमिक में काम करता है (उसके मुताबिक़ मार्बल ख़ासा 'ग्‍लेज्‍़ड' और 'पॉलिश्‍ड' माध्‍यम है). क्‍ले में भी उसने काम किया है, और बहुत थोड़ा-सा मेटल में. लेकिन वुड पर काम करने से वह कतराता है. वुड उसे चैलेंज नहीं करता. यहां भी उसकी जीवन-दृष्टि उसकी कला-चेतना बनती है. नीरज का सोचना है कि दरख्‍़त अपने आपमें एक जीवंत 'फ़ॉर्म' है (दरअसल, उसके ख़ुद के तमाम 'फ़ॉर्म' दरख्‍़तों से ही आते हैं), और उसे 'कार्व' करना ज्‍़यादती होगी. हां, उसे 'इंस्‍टॉल' ज़रूर किया जा सकता है, बिना उसकी जैविक लय में दख़ल दिए.
संगतराश गरचे लायक़ हो, तो मीडियम उसके हाथ में मोम की मानिंद पिघलता है. नीरज का काम भी इसी की गवाही देता है. उसके सिरैमिक के तमाम कामों में एक तरह का 'ऑर्गेनिज्‍़म' और मांसलता है. एक छोर पर माध्‍यम की सघन उपस्थिति, तो दूसरे छोर पर उसका गझिन अंतर्संगुम्‍फन. अपनी ड्राइंग्‍स में वह वस्‍तु-जगत के 'बीजत्‍व' को लक्ष्‍य करता है- उसके 'अंकुरण' और स्‍फुरण को. यहां भी- शैली वही है, और दृष्टि भी. लेकिन उसका श्रेष्‍ठ काम सैंडस्‍टोन पर है. वह आकृतिमूलक पर भी सधे हाथों से काम कर सकता है (उज्‍जैन की कालिदास अकादमी में उसकी 'शकुंतला' इसका जीवंत साक्ष्‍य है.), लेकिन यहां उसने अपना अमूर्तन का काम ही प्रदर्शित किया है. (ये अलग बात है कि बक़ौल नीरज- 'देखा जाए तो सभी आकार अमूर्तन ही हैं'). आकृतियों को, उनकी सघन अवस्थितियों को अतिक्रांत करता, और इसके बावजूद आकृतियों के नए-भीतरी आयाम सृजित-अन्‍वेषित करता अमूर्तन. इतना डायनेमिक काम, कि एक तरह से वो कला में हर तरह के जड़वाद का प्रत्‍याख्‍यान करता है और रूपाकार मात्र की स्‍वायत्‍तता की प्रतिष्‍ठा करता है. यह अकारण नहीं कि नीरज ने अपनी नुमाइश का शीर्षक भी 'फ़ॉर्म' ही चुना है... उसके लिए आकार मात्र ही आत्‍यंतिक है. मिजाज़ से बेतरतीब नीरज यह भलीभांति जानता है कि अमूर्तन में भी एक अनुपात होता है, और उस अनुपात को कभी नज़र से ओझल नहीं होने देता. उसकी कला की एक और ख़ासियत उसमें वैपरीत्‍यों का सहअस्तित्‍व है, जहां वह कोमलता और कठोरता, गतिकी और स्थिरता, टैक्‍सचर और फिनिशिंग, प्रारब्‍ध और मुक्ति- सभी को एक साथ लेकर आता है. उसके काम में डिटेल्‍स भी काफ़ी हैं, तो रिलीफ़ का समतलपन भी.
शनिवार से सोमवार तक अरेरा कॉलोनी स्थित 'आलियां फ्रांस्‍वां' की 'बे-मंशाई' दूधिया दीर्घाओं में नीरज की इन्‍हीं शिल्‍प और चित्रकृतियों का प्रदर्शन हुआ. नीरज की दूसरी सोलो एग्जिबिशन. रूपाकार की नामहीन-शीर्षकहीन स्‍वायत्‍तता में विश्‍वास रखने वाला नीरज ख़ुद यह पसंद करता है कि लोग उसकी शिल्‍पकृतियों को छूकर देखें और उनकी लय महसूस करें. वो कहता है कि स्‍कल्‍पचर मेरे लिए बाहर से ज्‍़यादा भीतर की चीज़ है. वह सामूहिक स्‍मृतियों की भी बात करता है, पत्‍थर जिनके प्रागैतिहासिक प्रतीक हैं. 'पत्‍थर जीवन की तरह हैं' -वह कहता है- 'उसमें रीटेक नहीं होता. आप पत्‍थर में कुछ जोड़ नहीं सकते, बस उस पर काम करते हुए उसका वॉल्‍यूमभर बढ़ा सकते हैं.' नीरज को स्‍कल्‍पचर्स की दैहिकता अपील करती है, उसके अनुसार चित्रों के मुक़ाबले यह अधिक ठोस और सार्वभौमिक संकेत-भाषा है. दरअसल, हर फ़ॉर्म की एक भीतरी भाषा होती है और हर माध्‍यम की भी, संगतराश को बस उसे सुनना होता है. नीरज के यहां ऐसे ही बोलते हुए, बहते हुए और उगते हुए रूपाकारों का समूचा संसार है.

Tuesday, February 24, 2009

'हेरोइक्‍स' पर हावी होता 'हेल'


आस्कर की वजह से स्लमडॉग मिलिनेयर एक बार फिर सुर्खियों में है। यह टिप्पणी मेरे मित्र और युवा कवि-अनुवादक सुशोभित सक्तावत ने भेजी है। आप उन्हें हरा कोना पर पहले भी पढ़ चुके हैं। सुशोभित ने इस फिल्म को एक अलहदा ढंग से पढ़ने की कोशिश की है। मैं उनके प्रति आभार मानते हुए उनकी यह टिप्पणी दे रहा हूं।
('स्‍लमडॉग मिलेनिएर' पर फ़र्स्‍ट हैंड रिएक्‍शंस, जो निहायत पर्सनल भी हो सकते हैं...)
डिकेंस से लेकर दॉस्‍तोएव्‍स्‍की तक और फ़ेलिनी से लेकर सत्‍यजीत रे तक इसे आज़मा चुके हैं... नॉवल, ड्रामा और सिनेमा की वह ड्रमैटिक डिवाइस, जिसमें एक ऐसा 'हेल' रचने की कोशिश की जाती है, जिसमें से एक 'परफ़ेक्‍ट अंडरडॉग हेरोइक्‍स' उभरकर सामने आ सके, जो के 'ग्रैंड' या 'फैंटास्टिक' और अप्रत्‍याशित रूप से रोमांचक हो और ऑडियंस को 'पोएटिक जस्टिस' की राहत दे सके। 'स्‍लमडॉग मिलेनिएर' इसी डिवाइस को पकड़ती है, लेकिन उसके पार नहीं जा पाती, और उसमें देशकाल का 'स्‍ट्रेस' उतने कंविक्‍शन के साथ कथानक में शिफ़्ट नहीं होता. नतीजन, पोएटिक जस्टिस स्‍खलित होता है, और आप थोड़े रोमांचित, लेकिन ज्‍़यादह खिन्‍न, सिनेमा हॉल के अंधेरे से लौटते हैं. 'स्‍लमडॉग' का देशकाल ख़ुद उस पर भारी पड़ा है. फिल्‍म का अंत फ़ंतासी में होता है. आप एक समूचा हेल कैप्‍चर करने के बाद फ़ंतासी में पनाह नहीं ले सकते. तब फिल्‍म अपने पहले हाफ़ के नारकीय भूगोल में धंस जाती है, जिसे उसके दूसरे हाफ़ की हेरोइक्‍स सांत्‍वना नहीं दे पाती. 'स्‍लमडॉग' में कैमरा ऐसी जगहों पर घुसा है, जहां से दृश्‍य माध्‍यम की साहसिकता शुरू होती है. मैंने हमेशा सोचा है कि विज़ुअल मीडियम की मारक क्षमता अगरचे ज्‍़यादह है, तो इसी के साथ उसके लिहाज़ भी बढ़ते हैं. तब स्क्रिप्‍ट में लिखा हुआ स्‍लम और स्‍क्रीन पर उघाड़ा गया स्‍लम एक ही चीज़ें नहीं हो सकतीं. 'स्‍लमडॉग' में कैमरा अतिक्रांत करता है, इसे भी ज्‍़यादह वो 'पेनिट्रेट' करता है, और तब वो 'ऑफ़ेंसिव' लगता है. कोई अचरज नहीं कि हिंदुस्‍तान में अवाम का बड़ा हिस्‍सा 'स्‍लमडॉग' के इस ऑफ़ेंस से तिलमिलाया हआ है. ये आइनेदारी अप्रत्‍याशित थी. 'स्‍लमडॉग' में वितृष्‍णा है और जुगुप्‍सा का बड़ा-सा हाशिया, जो के मंशाई लग सकता है. और अगर कॉन्‍सेप्‍चुअली भी बात करें तो फिल्‍म के अंत में जमाल का लतिका को पा जाना जितना रोमांचित करता है, इस फिल्‍म का स्‍ट्रेस, ख़ुद अपने कॉन्‍सेप्‍ट के खिलाफ़, उस पूरे परिवेश पर जाकर गिरता है, जिसमें लतिकाएँ जमालों को नहीं मिलतीं, जिसमें हेरोइक्‍स के लिए, और फ़ंतासियों के लिए ज्‍़यादह गुंजाइशें नहीं होतीं. तब 'स्‍लमडॉग' उस स्‍लम के उस समूचे स्‍पेस को एक तरह से 'रिडिकल' करती है. इस फिल्‍म को जीवेषणा का जयगान भी बताया जा रहा है, तब यह नज़रियों का फ़र्क हो सकता है. हिंदुस्‍तान में अवाम का एक बड़ा तबक़ा इस फिल्‍म को लेकर पसोपेश में है कि इस पर नाज़ करे, या इस पर शर्मिंदा हो. कई लोग तो इसे 'नेशनल डिसग्रेस' की तरह भी देख रहे हैं और उनके ऐतराज़ पूरी तरह बेज़ा नहीं हैं. निश्चित ही, 'स्‍लमडॉग' झुग्गियों, चकलों, यतीमगाहों और गैंगवारी के अड्डों के बेपर्दा डिटेल्‍स के साथ विचलित करती है. एक दृश्‍य में कम्‍युनल कमेंट भी है, जिससे मेजोरिटी आहत हो सकती है. कहा जा सकता है कि अगर समूचा हिंदुस्‍तान स्‍लम नहीं है, यह बात सच है, तो यह बात भी उतनी ही सच है कि हिंदुस्‍तान में स्‍लम हैं. वो वहां है- आप आंखें मूंद सकते हैं या नाक दबा सकते हैं, लेकिन उससे फ़र्क नहीं पड़ेगा. हालांकि मेरे लिए यह जानना ख़ासा दिलचस्‍प होगा कि अगर कोई भारतीय यह फिल्‍म बनाता, तब किस तरह के रिएक्‍शंस सामने आते. अभी तक तो इस पर काफ़ी मिश्रित प्रतिक्रियाएँ आई हैं, और अंतिम रूप से कुछ भी तय नहीं किया जा पा रहा है. बहरहाल, 'स्‍लमडॉग' में राहत के लम्‍हे भी हैं, और कई जगह तो यह निहायत लिरिकल हो जाती है. फिल्‍म की सबसे लिरिकल चीज़ है लतिका का चेहरा, जबके वो रेलवे प्‍लेटफ़ॉर्म पर 'स्‍पॉट' होती है. यह शॉट बार-बार दुहराया गया है. वहां लतिका के चेहरे पर एक उमगता-सा उजास है- प्रणय के आतुर विस्‍मय को एक्‍सप्रेस करता हुआ, और जो उस तमाम मॉर्बिड मौसम को एक लिरिकल रिलीफ़ बख्‍़शता है. डैनी बॉयल ने फिल्‍म की गति तेज़ रखी है, और माध्‍यम पर अपनी पकड़ का परिचय दिया है. फिल्‍म में इंटरकटिंग है, फ़्लैशबैक्‍स हैं, यानी तगड़े होमवर्क के बाद एडिटिंग टेबल पर किया गया ख़ासा पुख्‍़ता काम. स्‍लम के ऐसे कंविंसिंग दृश्‍य स्‍क्रीन पर कभी नहीं आए थे. यह उन लोगों की विज़ुअल रिसर्च की ताक़त भी दिखाता है, और उन्‍होंने स्‍लम के समूचे आंबियांस को, उसकी नब्‍ज़ को पकड़ा है. फिल्‍म का दूसरा हाफ़ ड्रमैटिक है, कहा जाए तो ज्‍़यादह फिल्‍मी, और वहां पर फिल्‍म सेट होती है, और इसी के चलते, उसमें अपने पहले हाफ़ की तुलना में फांक भी पड़ती है. रहमान ने फिल्‍म के लिए कमाल का साउंडट्रैक रचा है, जो फ्रेम-दर-फ्रेम उसके संगसाथ क़दमताल करता है. 'जय हो' तो जयगान है ही, 'गैंग्‍स्‍टा ब्‍ल्‍यूज़', 'एस्‍केप', 'रॉयट', 'साया' और 'लिक्विड डैंस' भी पूरी फिल्‍म के लिए ध्‍वनियों का अनुकूल-समांतर संसार गढ़ते हैं. लेकिन फिल्‍म की रूह है 'ड्रीम्‍स ऑन फ़ायर', जो के जमाल और लतिका के प्रणय की प्रत्‍याशाओं का संगीत है. 'स्‍लमडॉग' के बाद, सब कुछ भूल चुकने के बाद, महज़ रागात्‍मक त्‍वरा का वह संगीत ही याद रह जाता है. तब हमें लगता है के इंटेंसिटी का वह संगीत ही शायद इस फिल्‍म (और दुनिया-जहान) पर छाए हुए सिनिसिज्‍़म को (सिनिसिज्‍़म तक को!) औदात्‍य बख्‍़श सकता है. 'स्‍लमडॉग' के बाद थियेटर के अंधेरे से शायद हम इतनी राहत से ज्‍़यादा और कुछ लेकर नहीं लौट सकते.
(इमेज ः गूगल से साभार)

Thursday, February 19, 2009

मेरे चित्रों की प्रदर्शनी 21 फरवरी से जयपुर में


जयपुर में मेरे चित्रों की प्रदर्शनी 21 फरवरी से शुरू हो रही है। यह जवाहर कला केंद्र की सुरेख कला दीर्घा में आयोजित होगी। इस प्रदर्शनी का उद्घाटन करेंगे 21 फरवरी को शाम छह बजे हिंदी के ख्यात कवि ऋतुराज जी। 27 फरवरी तक जारी रहने वाली इस प्रदर्शनी में मेरी 35 पेंटिंग्स प्रदर्शित होंगी। ये सभी लैंडस्केप हैं और इस बार हरे रंग के अलावा इसमें लाल, नीले और पीले रंगों में बनी कुछ नई पेंटिंग्स भी शामिल हैं। मैं हरा कोना के जरिये आप सभी को इसमें आमंत्रित करता हूं।

Tuesday, February 17, 2009

अनूठे अध्याय का अभूतपूर्व आरंभ


यह इंदौर के एक अनूठे कलात्मक अध्याय का अभूतपूर्व आरंभ होगा जब शासकीय ललित कला संस्थान की देवलालीकर कला वीथिका कलाकारों, कला प्रेमियों और शहरवासियों के लिए खोल दी जाएगी। इस मौके पर शहर के 80 चित्रकारों के चित्रों की नुमाइश होगी। इसे नाम दिया गया है आरंभ। इसमें नाचती-गाती, सशक्त रेखाएं होंगी, धड़कते और लयात्मक आकार होंगे और मोहित करते तरह- तरह के रूप होंगे। और होंगे अपने चटखपन में प्रफुल्लित और कभी अपनी धूसरता में उदास रंग। यानी रूपों, रंगों और आकारों की एक समूची मूर्त-अमूर्त दुनिया होगी जिसमें शहर के कलाकारों की तूलिका से निकले तमाम तरल रंग ताजगी का अहसास कराएंगे। यही नहीं, कुछ मूर्तिशिल्प भी नुमाया होंगे। आज इसका उद्गाटन करेंगे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान। समय तय हुआ है शाम सात बजे। शासकीय ललित कला संस्थान और लोक संस्कृति मंच की यह साझा कोशिश कलाकारों के कई रूप, रंग और आकार संजो लाई है। इसे 23 फरवरी तक दोपहर 4 बजे से रात 8 बजे तक निहारा जा सकता है।
निश्चित ही यह शहर का ऐसा बड़ा कला-आयोजन है जिसमें कल्पना, रंग संगति, संतुलित संयोजन, अभिनव प्रयोगशीलता को मूर्त-अमूर्त में देखा-महसूस किया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि इस प्रदर्शनी का उद्घाटन 28 जनवरी को होना था लेकिन पूर्व राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन का 27 जनवरी को निधन हो जाने से इसे स्थगित कर दिया गया था।
वीथिका के लोकार्पण के साथ ही कलागुरु डीडी देवलालीकर की कांस्य प्रतिमा का अनावरण भी किया जाएगा। ढाई फुट की इस मूर्ति को बनाया है कला संस्थान के प्राचार्य, मूर्तिकार-चित्रकार शशिकांत मुंडी ने। कला वीथिका के आरंभ अवसर के लिए वे कहते हैं कि यह सचमुच संस्थान और शहर के कला जगत के लिए गौरव का क्षण होगा जब यह लोकार्पण होगा। इससे कलाकारों और कला के लिए नए रास्ते खुलेंगे और ऐसा रचनात्मक मौहाल बनेगा जिसमें तमाम शैलियों में काम करने वाले विभिन्न कलाकारों को अभिव्यक्ति के लिए मंच मिलेगा। वे यहां न केवल एक दूसरे से संवाद कर सकेंगे बल्कि रचनात्मक गतिविधियों में योग दे सकेंगे। वीथिका संचालन समिति के समन्वयक शंकर लालवानी कहते हैं कि विरासत को संजोये बगैर संस्कृति और संस्कार की बात करना निरर्थक है। लिहाजा हमने इस कला वीथिका को खत्म होने से बचाने और नया रूप रंग देने का बीड़ा उठाया। आज तमाम लोगों औऱ कलाकारों के सहयोग से इसे हम नया रूप-रंग देने में कामयाब हुए हैं। कोशिश रहेगी कि यहां लगातार रचनात्मक गतिविधियां जारी रह सकें।
इस प्रदर्शनी में शहर के सबसे वरिष्ठ चित्रकारों में श्रेणिक जैन, मिर्जा इस्माइल बेग से लेकर मीरा गुप्ता शामिल हैं। श्रेणिक जैन अपने मनोहारी लैंड स्केप के लिए ख्यात हैं जबकि मीरा गुप्ता अपने सधे पारंपरिक काम के साथ मौजूद हैं। ईश्वरी रावल अपने मालवी रंगों में अपने अमूर्त चित्र के साथ, बीआर बोदड़े अपनी अमूर्त शैली में प्रयोगशीलता के साथ तो प्रभु जोशी जलरंगों में अपनी दक्षता के साथ मौजूद हैं। हरेंद्र शाह, रमेश खेर से लेकर राजेश पाटिल, विशाल जोशी और मोहित भाटिया, शबनम, रवीन्द्र व्यास ने अपनी कल्पना को काले, भूरे, लाल और हरे रंग में चित्रित किया है। सुशीला बोदड़े और मधु शर्मा ने स्त्री के संसार की अंतरंग छवियां चित्रित की हैं तो प्रदीप कनिक और आलोक शर्मा ने आकृतिमूलकता में अपने रंग बिखेरे हैं। ख्यात मूर्तिकार संतोष जड़िया, शशिकांत मुंडी, खांडेराव पंवार, देवीलाल पाटीदार, प्रकाश पाटीदार और मुदिता भंडारी ने अपने भिन्न माध्यमों में सुघड़ आकार गढ़े हैं। कुल मिलाकर श्री जैन से लेकर युवतम कलाकार गरिमा पंड्या और सारंग क्षीरसागर जैसे कलाकारों के चित्र देखे जा सकेंगे। इसमें सभी कलाकार और कलाकार प्रेमी आमंत्रित हैं।
(पेंटिंग ः बीआर बोदड़े)

Saturday, February 14, 2009

तारे, फूल, चंद्रमा, पेड़


असँख्य तारे हैं
जिनमें तुम्हारी आँखों की चमक है
और चंद्रमा भी
जो तुम्हारी अँगूठी की तरह
रात की अँगुली में जगमग है

और अधखिले फूल भी हैं इतने
जो तुम्हारी जुल्फों में खिल जाने के लिए बेताब हैं
और इतने नक्षत्र हैं
जिनके दुपट्टों में तुम्हारे ख्वाब
गुलाबी रोशनी की तरह तैर रहे हैं

और मुहूर्त भी
जिसमें तुम मुझे
अपने पास आने के लिए पुकार सको

वह पेड़ शरमाते हुए कितना हरा हो गया है
जिसके पीछे छिपते हुए
तुमने मुझे छुआ।
(पेंटिंग ः रवीन्द्र व्यास )

Tuesday, February 10, 2009

उसके बाएं स्तन पर खरोंच का निशान


उसके होठों पर सूख चुकी पपड़ी पर खून का धब्बा है
उसके बाएं स्तन पर खरोंच का निशान
दाईं जांघ पर रगड़ का
एक फूल है लगातार जलता हुआ
लगातार उठते हुए धुंए से
उसकी आत्मा की दीवार का रंग बदल चुका है
अब उस पर उसकी रसोईघर की दीवार का रंग चढ़ चुका है
उसका दाहिना हाथ अथाह अंधेरे में लटका हुआ है अकेला
थाम लेने की अंतहीन इच्छा में स्थिर
उसके चेहरे का हरा निशान धुंधला चुका है
जो हमेशा के लिए गहरा गया है उसकी आत्मा के एक कोने में

पीली तितलियां हैं उसकी आंखों की पुतलियों में
एक पीला फूल है आत्मा के सरोवर में
कभी वहां धूप आती है तो सरोवर के सांवले होते पानी में
और पीला होकर चमकने लगता है फूल
(पेंटिंग ः मिथुन दत्ता)

Saturday, February 7, 2009

उम्मीद कई जटिल रंगों से बनी होती है


कहते हैं हरे से उम्मीद बंधती है। वह भी उसी एक हरी बिंदी से उम्मीद बांधने लगा। उसका सारा खून दिल से होकर किन्हीं उद्दाम लहरों की तरह उस हरी बिंदी तक पहुंचता। शायद एक खास जगह थी, शायद एक खास समय जब वहां से खड़े होकर उसे हरी बिंदी चमकती दिखाई देती। उसकी सारी चेतना वहीं एकाग्र होती। उसका समूचा अस्तित्व उस एक हरी बिंदी में सिमटता लगता।
जब हरी बिंदी दिखाई नहीं देती तो उसे लगता, इस धरती पर उसका कोई वजूद नहीं। उसके लिए हरी बिंदी होने का मतलब उसका अपना होना था।
एक दिन देखते-देखते ही अचानक हरी बिंदी अचानक बुझ गई। उसे लगा जैसे एकाएक उसके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई है और अंधेरा छा गया है। वह एक काले पानी की गहराई में डूब रहा है।
बस। इसके बाद उसके दिन-रात बदल गए।
फिर वह जहां जाता, उसे हरी बिंदी दिखाई देती। दाढ़ी बनाते हुए आईने पर...नहाते समय हिलते हुए पानी की सतह पर, किसी की आंखों में झांकते हुए उसकी भूरी पुतली पर...लिखते हुए किसी कागज पर, सोते हुए किसी तकिए पर...नींद में किसी स्वप्न की तरह...
उसके लिए उम्मीद एक हरे रंग से बनी थी...
एक दिन यही उम्मीद एक इतने दिलकश हरेपन में बदल गई कि वह अचानक उस अोर हाथ बढ़ा बैठा। उस हरेपन के पीछे कुछ ऐसा छिपा था जिसने अपना फन उठाकर कुछ फूंक दिया और उसे लगा कि अब वह सब कुछ गंवा बैठा है। उसे मालूम था, वह फन उसी की इच्छा का प्रतिरूप है। उसी की इच्छा ने उसे फूंका है।
वह नया साल था। उसकी मुबारक बात तक कूबुल नहीं की गई...
उसे लगा उम्मीद सिर्फ हरे रंग से नहीं बंधती। उम्मीद सिर्फ हरे रंग से नहीं बनती। उम्मीद कई जटिल रंगों से बनी होती है...
यह उसकी जिंदगी में जटिल रंगों को समझने की शुरुआत थी...


रंग
शुन्तारो तानीकावा
उम्मीद कई जटिल रंगों से बनी होती है
धोखा खाए दिल का लाल
न ठहरने वाले दिनों का राख का रंग
नीले के नीलेपन से मिला हुआ
चिड़िया के बच्चे का चोंच का पीला
त्वचा का भूरापन
काले जादू की ऊष्मा के साथ
कीमियागरी के सुनहरे सपने
कई देशों के झंड़ों के साथ
अछूते जंगलों का हरा, और निश्चित ही,
इंद्रधनुष के शरमाए हुए सात रंग,

नाउम्मीदी एक साधारण रंग है
शुद्ध सफेद
(इस जापानी कवि की इस कविता के अनुवादक हैं अशोक पांडे)
पेंटिंग ः रवींद्र व्यास

Thursday, February 5, 2009

अभिनय के असली बादशाह हैं अमिताभ






अड़तीस सालों से अमिताभ बच्चन के फोटो खींच रहे मुंबई के फोटोजर्नलिस्ट प्रदीप चंद्रा से बातचीत
वे 38 सालों से अमिताभ बच्चन के फोटो खींच रहे हैं। उन्होंने इस महानायक की कई छवियों को कैमरे की आंख से खूबसूरत अंदाज से देखा। जबर्दस्त अभिनेता के रूप में, उद्यमी से लेकर एक कांग्रेसी नेता के रूप में, एक मिलनसार शख्सियत के रूप में। उन्होंने अमिताभ को अलग अलग समयों में, अलग अलग मुद्राअों में अपनी तस्वीरों में उतारा। अमिताभ को लेकर प्रदर्शनी की, उनसे दर्जनों साक्षात्कार लिए और किताब लिखी- एबी द लीजेंड। इसमें उनकी फिल्मों की तमाम तरह की तस्वीरें, देश की मशहूर हस्तियों से मिलते हुए तस्वीरें शामिल हैं। कहा जा सकता है कि यह अमिताभ की चित्रमय जीवनी है और प्रदीप उनके फोटो-जीवनीकार। इस महानायक के प्रति उनका आकर्षण जारी है और अभी कुछ दिनों पहले ही उन्होंने अमिताभ की एक तस्वीर ली और मुझे भेजी। ये हैं मुंबई के ख्यात फोटोजर्नलिस्ट प्रदीप चंद्रा।
जब उनसे पूछा गया कि अमिताभ फिर से सुर्खियों में हैं तो क्या वे अमिताभ पर कोई शो करेंगे? उनका जवाब था-मैं किसी बाहरी कारणों के बजाय अपने मन से ज्यादा संचालित होता हैं। मन जो कहता है, करता हूं। फिर मैं अमिताभ के पीछे पड़कर यह नहीं चाहता था कि वे कहने लगें कि क्या मुसीबत पीछे पड़ गई है। लेकिन यह सच है कि उनकी शख्सियत में एक गजब का आकर्षण है। और यह इस उम्र में भी बरकरार है।
वे कहते हैं-अमिताभ अभिनय के असली बादशाह हैं। मेरे खयाल से वे पूरी फिल्म इंडस्ट्री के लिए एक आदर्श हैं क्योंकि उनसे ज्यादा आर्गनाइज्ड अभिनेता मैंने दूसरा नहीं देखा। वे उम्र के इस पड़ाव पर भी बेहद क्रिएटिव हैं और उनमें कड़ा अनुशासन है। वे एक जबर्दस्त अभिनेता होने के साथ बेहतरीन इनसान हैं।
श्री चंद्रा 1970 से अमिताभ की तस्वीरें खींच रहे हैं। यही नहीं, उन्होंने अपनी खींची अमिताभ की तस्वीरों के साथ प्रयोग भी किए। वे कहते हैं-एक आर्ट कैम्प के दौरान कुछ चित्रकारों के साथ काम करते हुए मुझे यह सूझा कि क्यों न अमिताभ के फोटो और चित्रकारी को लेकर कुछ नया काम किया जाए। मैंने अपने चित्रकार मित्र वृंदावन सोलंकी को कहा कि मैं आधे कैनवास पर अमिताभ का फोटो प्रिंट करवा कर दूं तो क्या आधे खाली कैनवास पर वे अमिताभ को पेंट करेंगे? उन्हें यह विचार अच्छा लगा। इस तरह मैंने करीब 18 कैनवास पर अपनी खींची अमिताभ की तस्वीर प्रिंट करवा कर 18 चित्रकारों को कैनवास दिए। इनमें चित्रकार वृंदावन सोलंकी, चरण शर्मा, चिंतन उपाध्याय, प्रीतीश नंदी, बैजू पार्थन, परेश मैटी, जीपी सिंघल, सुभाष अवचट और सफदर शामी शामिल थे। इस तरह इन सब चित्रकारों ने मेरी खींची तस्वीर के साथ ही अपने ढंग से अमिताभ को पेंट किया। फिर हमने बच्चन के 61वें जन्मदिन के उपलक्ष्य में यह यूनिक शो करने की योजना बनाई। अमिताभ से बात की तो उन्होने कहा उनके जन्मदिन पर तो वे नहीं आ सकेंगे लिहाजा उसके दो-तीन दिन बाद की तारीख उन्होंने दी। संयोग से उस दिन करवा चौथ था। इस दिन की एक मजेदार बात याद करते हुए श्री चंद्रा बताते हैं कि जैसे ही अमिताभ मुंबई की जीडब्ल्यू मैरियट में इस शो का उद्घाटन करने आए तो उन्होंने धीरे से मेरे कान में कहा-आज करवा चौथ है। जल्दी छुट्टी दे देना यार। बीवी घर पर बैठी इंतजार करती होगी। वे लगभग एक घंटा शो में रहे और कुछ काम उन्हें बहुत पसंद आए। फिर मैंने अपनी तस्वीरों के आधार पर उन पर एक किताब लिखी-एबी द लीजेंड। इसमें तीन तरह की तस्वीरें हैं। मेरे इंटरव्यू हैं और कुछ खास लोगों के अमिताभ के बारे में विचार हैं। इनमें भावना सौमेया से लेकर शोभा डे और प्रीतीश नंदी शामिल हैं।
श्री चंद्रा की खींची गईं तस्वीरें इंडियन एक्सप्रेस, संडे अॉब्जर्वर, इंडिपेंडेंट, बाम्बे टाइम्स और एशिया वीक में छपती रही हैं। उनके काम को कई मशहूर हस्तियों ने सराहा है और अमिताभ बच्चन, अंबानी, विजय माल्या, शोभा डे, हीरानंदानी और सुभाष घई के व्यक्तिगत संग्रहों में संग्रहित हैं। उन्होंने मुंबई के कमाठीपुरा इलाके के बच्चों की मार्मिक तस्वीरें खींची थी और मुंबई में ही एक शो किया था। प्रतिष्ठित गैलरी ताअो, जहांगीर, वायबी चव्हाण आर्ट गैलरी में उनकी प्रदर्शनियां हो चुकी हैं। वे कहते हैं -अब मैं मशहूर चित्रकार एमएफ हुसैन पर एक बड़ा शो उनके जन्मदिन 17 सिंतबर 2009 में करूंगा। अभी इसकी रूपरेखा तय नहीं है लेकिन होगा यह भी अलग हटकर। मुंबई की आर्ट एंड सोल गैलरी में उनकी प्रदर्शनी हवेली ड्रीम्स हाल ही में खत्म हुई है।
(चित्रः दायीं अोर प्रदीप चंद्रा का खींचा फोटो और उसी कैनवास के आधे हिस्से में चित्रकार सफदर शामी की बनाई अमिताभ की पेंटिंग)

एक पुरउदास तस्‍वीर के बहाने...

अनुराग कश्यप मेरे प्रिय फिल्मकारों में से एक हैं। कल उनकी फिल्म देव डी. रिलीज हो रही है। इस मौके पर मैं मेरे नए मित्र और युवा कवि-अनुवादक सुशोभित सक्तावत की एक छोटी सी टिप्पणी दे रहा हूं जो उन्होंने बिमल राय की देवदास की एक तस्वीर पर लिखी है। उन्होंने यह टिप्पणी मुझे भेजी और इस ब्लॉग पर लगाने की अनुमति दी, इसके लिए हरा कोना उनका आभारी है।
वह तस्‍वीर स्‍याह है... उस तस्‍वीर के ब्‍यौरे भरे हैं स्‍याह रंगों वाली किसी अकथ वेदना से. फिर उसमें पानी है, जिसमें बादल हैं. पानी में झांकते हुए नहीं, पानी से उभरते हुए बादल... गहरे रंगों वाले, बोझल-मन, जैसे पानी में पीड़ा का पहाड़! पूरा मौसम भरा-भरा है, भारी-भारी है. पूरे परिवेश पर गहरे अवसाद की छांह है. एक कातर अस्तित्‍व या एक कातर नियति. कातरता और दैन्‍य! तस्‍वीर के हर डिटेल- कमीज़ पर पड़ी सलवटों, गोद में धरी बंदूक़, नीचे- तस्‍वीर को बेस देते- दरिया के घाट के एक कोने, नज़ारे की गहरी रंगत, साये सरीखी एक मूर्तिमान आकृति, और वही हांटिंग पानी, वे ही हांटिंग बादल- पर वह कातरता पसरी हुई है. मुझे एक पीठ नज़र आती है, जबकि वे आंखें (वे रेतीली आंखें!) दरिया में कब की गुम चुकी हैं. यह तस्‍वीर मेरे सामने है और मैं सालों से उसे इसी तरह देख रहा हूं. एक गीत की टूटी हुई कडियां मेरी नज़रों के आगे तैर आती हैं- 'ब्‍याकुल जियरा, ब्‍याकुल नैना,एक-एक चुप में, सौ-सौ बैना, रह गए आंसू, लुट गए राग...'. यह विराग है- आर्त्‍तनाद तक पहुंचता शोकगायन. 'मितवा नहीं आए', और तमाम आलम सुई की आंख से होकर गुज़र गया और हर शै ज़र्रे में सिमटकर रह गई. यह असंभव की प्रत्‍याशा है, जो विडंबना की ग़र्त में झोंक देती है. यह लाचारी है अटूट और अंतहीन. कीट्स के संबोधन-गीतों की तरह यहां पूरा मंज़र दु:खपूर्ण पवित्रता में रुका हुआ है. एक अजब-सी हताशा में, जो एक हद के बाद जिंदगी का एक तरीक़ा, एक नज़रिया बन जाती है गोया दर्द हद से गुज़रकर दवा हो गया है, और फिर, उस हद के बाद, उसमें राग-विराग दोनों विगलित होने लगते हैं. आप अपने में 'सेट' कर दिए जाते हैं, अपने बेलौस बिखराव में स्थिर- किंकर्तव्‍यविमूढ़ कुछ-कुछ, काफ़ी हद तक नियत और तय- 'डेस्‍टाइंड' के नियतिपरक मायनों में. ये महज़ एक तस्‍वीर है... ये कुछ स्थिर-से संकेत हैं- कला के, फ़लसफ़े के, और ख्‍़याल के, लेकिन ये यह इलहाम बख्‍़शते हैं के शिक़स्‍त के ज़रिये भी राहतें हासिल होती हैं... के ख्‍़याल में और आर्ट में ज़मीन की ग्रैविटी के क़ायदे उल्‍टे पड़ जाते हैं... और फिर आप ख़ुद के लिए ये फ़ंतासी गढ़ने की कोशिश करते हैं के शायद निजात भी वहीं हो- बेकली के भीतर- अगरचे अफ़सोस मुक़म्‍मल हो... पूरे का पूरा.
(तस्‍वीर - बिमल रॉय की फिल्‍म 'देवदास' (1955) से एक स्टिल. यहीं पर तलत का वो अमर गीत आता है- 'मितवा लागी रे ये कैसी अनबुझ आग'- अंत के बाद भी मैं जिसे बचा लेना चाहूंगा!)

Monday, February 2, 2009

वसंत जो पृथ्वी की आंख है


जब सरकारी अफसर हरे-भरे दरख्तों को भू-माफियों की जेबों के हवाले कर रहे हों और बहुराष्ट्रीय कंपनियां नदियों-झरनों को बोतल में बंद कर रही हों, जब हंसी की गेंदों को उछालते हुए बच्चे घरों से निकलते हों और दोपहर को उनके घरों से मां का विलाप सुनाई देता हो, गुनगुनाते हुए और अपनी चुन्नी को संभालते हुए लड़की कॉलेज के लिए निकलती है और शाम को उसके पिता थाने में एफआईआर दर्ज करवाते हों, उजड़ते खेतों में किसान आत्महत्या करते हों और उनकी विधवा पत्नी को मुख्यमंत्री मुआवजा बांटता फिरे ऐसे में वसंत तुम्हारा क्या करूं? तुम्हारी आहट मेरे दरवाजे से ज्यादा मेरे मन को खटखटाती है और मैं जब अपने समय के हाहाकार को सुनता अंधेरे में धंसने लगता हूं तो कहीं से एक झरने की आवाज मेरा हाथ थामकर मुझे गुनगुनी धूप में ला खड़ा कर देती है। इस धूप में हरी घास के बीच तुम्हारे पीले फूलों की हंसी फैली हुई है और उनकी महक से मैं बावला होकर नाचते पेड का गीत गुनगुनाता हूं।
पृथ्वी के साथ जुड़े खून के इतिहास को/ पोंछते हुए अब मैं बसंत कहना चाहता हूं/ बसंत जो पृथ्वी की आंख है/ जिससे वह सपने देखती है/ मैं पृथ्वी का देखा हुआ सपना कहना चाहता हूं/ यही सपना मुझमें कविताएं उगाता है।
हां, बसंत तुम्हारे रंग खिले हैं। फूल खिले हैं। और ये जो हवा चली है, तुम्हारी अपलक आंख में उस सपने को बार बार जन्म देती है जिसमें प्रेम हमेशा एक पीले फूल की तरह खिलता है। बसंत मुझे तुम्हारा सबसे सुंदर पीला फूल दे दो। मैं उसे प्रेम करने वाली स्त्री के जुड़े में टांक सकूं जो इस वक्त तुम्हारे रंगों से लिपटी महक रही है। उसकी स्मृति में अपने प्रेमी का चेहरा शांत नदी में किसी चंद्रमा की तरह ठहरा हुआ है।
प्रेम करती हुई औरत के बाद भी अगर कोई दुनिया है /तो उस वक्त वह मेरी नहीं है /उस इलाके में मैं सांस तक नहीं ले सकता /जिसमें औरत की गंध वर्जित है /सचमुच मैं भाग जाता चंद्रमा से फूल और कविता से /नहीं सोचता कभी कोई भी बात जुल्म और ज्यादती के बारे में /अगर नहीं होती प्रेम करने वाली औरतें इस पृथ्वी पर।
प्रेम करती स्त्रियां ही इस पृथ्वी को सुंदर बनाती हैं और वसंत को हमेशा कुछ नये मायने देती है और जिंदगी को अपनी खुशबू से हमेशा महकाए रखती हैं। इस बसंत पर यही शुभकामनाएं देना चाहता हूं कि वे हरे भरे पेड़ बचे रहें और अपने एक पैर पर नाचते हुए तुम्हारे गीत गाते रहे हैं। पेड़ बचे रहेंगे तो पूरी दुनिया बची रहेगी और बची रहेगी फल, फूल और आड़ मिलने की संभावनाएं।
पेड़ पहाड़ों पर/ बबर शेर की तरह/ शान से खड़े रहते हैं/और आदमी की मौजदूगी /उन्हें और भी बड़ा पेड़ बनाती है/ फिर भी आदमी बौना नहीं लगे/ इसलिए पेड़ अपनी टहनियों को झुका देते हैं/और बच्चों को फल /स्त्रियों को फूल /और चाहने पर प्रेम के लिए छांह के अलावा थोड़ी सी आड़ भी देते हैं।
बसंत आते रहो, पेड़ नाचते रहो। ताकि बच्चों को फल, स्त्रियों को फूल और प्रेमियों को चाहने पर प्रेम के लिए छांह और थोड़ी सी आड़ मिल सके।
(कविता की पंक्तियां ख्यात कवि चंद्रकांत देवताले के कविता संग्रह जहां थोड़ा सा सूर्योदय होगा से साभार)
पेंटिंग ः रवीन्द्र व्यास