Saturday, March 28, 2009

ख्वाब बुन लो ज़रा, गीत सुन लो ज़रा!!




ख्वाब जिंदगी को खूबसूरत बनाते हैं, गीत जिंदगी को मधुर। इसी वजह से जिंदगी जीने लायक बनती है। कुछ दुःख और संताप कम होते हैं। इस तरह वह कुछ सरस-सहज बनती है और कुछ मायने हासिल करती है। इंदौर की चित्रकार दंपत्ति आलोक शर्मा और मधु शर्मा अपने चित्रों में यही करते हैं। आलोक चित्रों में ख्वाब बुनते हैं और ख्वाबों में यादों के तागों से बंधे अपने बचपन के सुहाने दिन याद करते हैं। मधु प्रकृति में धड़कती हर चीज से बतियाती हैं और उनके सामूहिक गीत को चित्रित करती हैं। एक-दूसरे का हाथ थामे ये जिंदगी को ज्यादा सरस और सहज बनाने की राह पर हैं। सपनों पर आधारित इन दोनों के चित्रों की नुमाइश मुंबई की जहांगीर आर्ट गैलरी में एक अप्रैल से शुरू हो रही है। 7 अप्रैल तक जारी रहने वाली इस नुमाइश में आलोक के आइल में बनाए 18 और मधु के 16 चित्र शामिल हैं।
इनके घर पर चित्रों के बीच बातचीत करते हुए मधु कहती हैं कि हम कभी अकेले नहीं होते। इस कायनात की हर चीज हमसे बात करती है। जैसे हम धड़कते या महसूस करते हैं ठीक वैसे ही प्रकृति की हर चीज। पेड़, पौधे, नदी, सारे जीव-जंतु यानी पूरी प्रकृति में स्त्रीत्व और मातृत्व है। ये सब मिलकर हमारे जीवन को सुंदर बनाते हैं, उसके गीत को ज्यादा मधुर बनाते हैं। मैं प्रकृति के इसी मातृत्व भाव को, इसके मधुर गीतों को चित्रित करती हूं। सबकी अपनी भाषा और भाव हैं। गीत हैं। मैं इन्हें ध्यान से सुनती हूं और अपने को अकेला नहीं पाती।
मधु के चित्रों में पूरी प्रकृति का मानवीयकरण अपने अनोखे रूप में हुआ है। इसमें एक लय है। यही लय वह रूप बनती है जिसमें प्रकृति का समवेत गान है। वहां भेड़-बकरी या पेड़ मानवीय रूप धरते हैं। ये कभी बांसुरी बजाते या नृत्यरत दिखाई देते हैं। जैसे जिंदगी के नृत्य-संगीत में शामिल हों। और मधु यह सब अपने कैनवास पर इस तरह संभव करती हैं कि रूपाकारों के वैशिष्ट्य में और सार्थक रंग योजना में ये सपने जैसे लगते हैं। और इन्हें इतनी कलात्मक संवेदना के साथ चित्रित किया गया है कि इनमें कोई भेद नहीं रह जाता। सब एक जीवंत रूप में धड़कते हैं।
वे कहती हैं मेरी मिट्टी प्रकृति के इसी मर्म से बनती है। मैं प्रकृति की उर्वरा शक्ति, उसकी भावप्रवणता और उसके उदात्त भाव को रचती हूं। मैं इनसे बतियाती हूं और ये मुझे अपना प्रेम खुले हाथों से बांटते हैं। यही प्रेम मेरे चित्रों में अभिव्यक्त हुआ है।
आलोक ने स्टोरी रिटोल्ड, दे आर स्टील अराउंड मी और ड्रीम सेलर सीरीज के तहत चित्र बनाए हैं। ड्रीम सीरीज में वे अपने भोले और कोमल रूपाकारों में बचपन की स्मृति को जीवंत करते हैं। इन चित्रों में एक आदमी धागों से बंधी कुछ मछलियों लिए है औऱ एक भोली युवती अपने हाथ में फ्लावर पॉट लिए उसे निहार रही है। भाव यह है कि वह यादों में कहीं खोई है। जाहिर है मछलियों के जरिये वह व्यक्ति उसे उन ख्वाबों में ले जाता हैं जहां बचपन और तक की दुनिया की तमाम यादें हैं। वे इनमें नीले रंगों का प्रमुखता से कल्पनाशील इस्तेमाल कर एक सपनीली दुनिया का अहसास कराते हैं। चूंकि इन ख्वाबों में बचपन की यादें है लिहाजा सभी रूपाकार निश्छल चित्रित हैं। वे कहते हैं मैंने यहां मछलियों को स्मृति के धागों से बंधा चित्रित किया है। हमारे जीवन में यह होता है कि जब भी हम कभी कोई गुब्बारा, कागज से बनी चकरी, मछली या खरगोश या कोई खास तरह की गंध महसूस करते-देखते हैं तो हम अपने बचपन में लौट जाते हैं। ये यादें हमें ज्यादा संवेदनशील और मानवीय बनाती हैं। फिर मैं यह भी चित्रित करना चाहता था कि हमारे भीतर कहीं न कहीं बचपन हमेशा जिंदा रहता है। बस, वह किसी खास मौके, खास मनःस्थिति या प्रसंग में अचानक बाहर आ जाता है। हम हमेशा हमारे भीतर अपने बचपन को बचाए रखते हैं। बचपन के यही ख्वाब हमें बेहतर इंसान बनाए रखते हैं।
जाहिर है इन चित्रों के जरिये हम एक बार फिर ख्वाब बुनने लगते हैं और जिंदगी के गीत सुनने लगते हैं।

Wednesday, March 18, 2009

मालवा के रंगों से सराबोर होता गुलाबी शहर -2











इमेजेसः
१। मीरा गुप्ता की पेंटिंग
२। मुकुंद केतकर का मूर्तिशिल्प
३। मीरा गुप्ता
४। मनीष रत्नपारखे का अमूर्त चित्र
५. मनीष रत्नपारखे
इसके पहले वाली पोस्ट में लगी इमेजेस क्रमशः
१। मुकुंद केतकर
२। रूपेश का बुल
३। रूपेश शर्मा
४। शभनम का अमूर्त चित्र
५. शबनम शाह

मालवा के रंगों से सराबोर होता गुलाबी शहर
















तो गुलाबी शहर इन दिनों मालवा के रंगों से सराबोर है। लगभग महिनेभर में जयपुर में इंदौर के कलाकारों की यह चौथी प्रदर्शनी है। प्रदर्शनियों की इस ताजा कड़ी में शामिल हैं वरिष्ट चित्रकार मीरा गुप्ता, मनीष रत्नपारखे, शबनम शाह, मूर्तिकार मुकुंद केतकर तथा रूपेश शर्मा। यह प्रदर्शनी 24 मार्च तक जारी रहेगी। कूची के कलाकारों की हौसला अफजाई के लिए सुरों के जादूगर उस्ताद अहमद हुसैन-मोहम्मद हुसैन 22 मार्च को मौजूद होंगे।
वरिष्ठ चित्रकार मीरा गुप्ता एक बार फिर से अपने पारंपरिक कामों के जरिये मौजूद होंगी। उनके चित्रों में स्त्रियों की दुनिया का सुख-दुःख, उल्लास-उमंग बहुत ही सुंदर रूपाकारों में जीवंत हो उठा है। उनके इन कामों उनके धैर्य और संयम की झलक साफ देखी जा सकती है। वे पूरी तन्मयता से न केवल रंगों की चमकीली आभा पैदा करती हैं बल्कि आकृतियों को भी सधी लेकिन कोमल रेखाअो से अलंकृत करती हैं। उनके चित्रों को देखना ठेठ भारतीय सौंदर्य को महसूस करना है। मनीष रत्नपारखे अपने पांच अमूर्त चित्रों में अपनी स्मृतियों के प्रतिबिम्ब प्रस्तुत कर रहे हैं। उनके कैनवास पर छोटे-छोटे गोलाकार और लाल-नीले रंगों एकदूसरे से इंटरएक्ट करते हैं और इस तरह दो रूपों के बीच खूबसूरत स्पेस को क्रिएट करते हैं। ये रिपीटेटिव पैटर्न उन्हें रूपाकारों का एक खास मुहावरा देता है जो उनकी पहचान बनाता है। वे कहते हैं इन कैनवास पर इंदौर में उन दुकानों में देखे प्लास्टिक के अलग अलग साइज में मिलने वाले डिब्बे और ढक्कनों की स्मृतियां हैं। वे गोल आकार और रंग मेरी स्मृतियों में ही रच-बस गए हैं जो इनमें अनायास आ गए हैं। शबनम एक बार फिर काले रंगों में अलग अलग रूपों की विविधताएं खोजती लगती हैं। वे काले और सफेद रंगों की कई टोन्स वाली सतहें रचती हैं और इनसे बने अनंत में फॉर्म कीसी नक्षत्र की भांति बहते-डूबते लगते हैं। वे इस तरह से कुछ पैटर्न भी बनाती हैं जिनमें एक लय को पकड़ा जा सकता है।
मूर्तिकार मुकुंद केतकर अपने पुराने काम को नए आयाम देते दिखाई देते हैं। एक बार फिर वे अपने बचपन की स्मृतियों को इस निर्दोषता और भोलेपन से ढालते हैं कि हमारी समृतियां भी बरबस ही जीवंत हो जाती हैं। उनके ये मूर्तिशिल्प बचपन की दुनिया मे जाने का बंद दरवाजा खोल देते हैं और हम पाते हैं कि हम अपने ही आंगन या पड़ोंस में खेल-कूद रहे हैं। जाहिर है उनकी अंगुलियां अपनी सामग्री में बचपन को धड़कता आकार देती हैं। जबकि रूपेश शर्मा ने अपनी बुल सीरीज के तहत एक आक्रामकता और शक्ति को अभिव्यक्त किया है। उनके ये काम बताते हैं कि वे एक बल को अपने आकारों में जीवंत करने की कोशिश कर रहे हैं। वे कहते हैं -मैने कुछ काम मार्बल में भी किए हैं चूंकि मुझे बुल का बल लुभाता रहा है लिहाजा मैंने इसे ही रूपायित किया है।

Saturday, March 14, 2009

फलसफे में फनां तीन फनकारों की फनकारी











इंदौर (मध्यप्रदेश) के एक ख्यात फोटोग्राफर हैं प्रवीण रावत। कहते हैं- ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है और मैं अपनी फोटोग्राफी के जरिये उसी सृष्टि की नकल करने का कलात्मक दुस्साहस करता हूं। मैं उसकी सृष्टि की सुंदर प्रकृति का संयोजन बदल कर अपनी कलात्मक सृष्टि पैदा करता हूं। शहर के ही दूसरे ख्यात फोटोग्राफर उपेंद्र उपाध्याय कहते हैं ईश्वर ही सत्य है और प्रकाश उसकी छाया। मैं उसी छाया के साथ खेलते हुए अपनी फोटोग्राफी करता हूं। जबकि इन्ही के साथी और उज्जैन के चित्रकार अक्षय आमेरिया कहते हैं-मैं अपनी चित्रकारी में एक अंतर्यात्रा करते रहता हूं और अपने को ही पा जाने की प्रतीक्षा करता हूं। यह मेरी खोज नहीं, एक अनवरत यात्रा है जिसमें मुझको मेरी ही यात्रा के पड़ाव और झलक दिखाई देती हैं।
जाहिर है इन तीनों कलाकारों में यह समानता है कि वे अपने एक खास फलसफे के साथ अपने काम को लेकर प्रस्तुत हो रहे हैं। ये एक साथ इकट्ठा हुए और तय किया कि तीनों मिलकर अपने-अपने काम प्रदर्शित करेंगे। हासिल ये हुआ कि इन तीनों की मिली-जुली प्रदर्शनी मुंबई की जहांगीर आर्ट गैलरी में 18 से 24 मार्च तक लगेगी। इनमें श्री रावत के 35 फोटोग्राफ्स, श्री आमेरिया के 15 अमूर्त चित्र और श्री उपाध्याय के 40 रंगीन फोटोग्राफ्स शामिल हैं। ये अपने फलसफे की फनकारी में फनां होकर फन दिखाने को तैयार हैं।
एक ऐसे समय में जब दुनिया चारों अोर से तमाम रंगों की चकाचौंध से अचंभित है तब किसी फोटोग्राफर का काले-सफेद रंग में काम करना साहसिक भी है और आंखों को राहत देने वाला भी क्योंकि यहां रंगों का हमला नहीं बल्कि काले रंग की आत्मा में प्रेम से झांक कर उसी से एक इंद्रधनुष रचने की प्रबल इच्छा भी है। इंद्रधनुष भी नहीं बल्कि प्रवीणधनुष। क्योंकि इस धनुष में प्रवीण के काले की ही अलग अलग अप्रतिम छटाएं हैं। उनके खींचे चित्रों में काले-सफेद की एक ऐसी आत्मीय दुनिया है जिसमें पांचे खेलती ग्रामीण लड़कियां, गोबर से अोटला लीपती या पानी भरने जाती महिलाएं हैं लेकिन ये सब उस सादगीभरे ग्रामीण सौंदर्य में जीवंत हैं जो बहधा अनदेखा किया जाता रहा है। वे कहते हैं मैं विरोधाभास की विविधताअों (कॉन्ट्रास्ट वैरिएशंस) के जरिए अलग अलग विषयों को शेप, लाइन, लाइट और टेक्स्चर से अभिव्यक्त करता हूं क्योंकि ये ही तत्व मिलकर किसी फोटो को दर्शनीय बनाते हैं। एक बार काले रंग को समझने पर वह काला नहीं रहता और फिर हमें उसके विभिन्न शेड्स समझ में आने लगते हैं। मेरे चित्र काले के विभिन्न जीवंत और कलात्मक शेड्स ही हैं।
ख्यात फोटोग्राफर उपेंद्र् उपाध्याय के रंगीन फोटो देखकर यह सहज ही कहा जा सकता है कि उनका सारा जोर स्पंदन पर है। वे लाइट और टोनल इफेक्ट के जरिये अपने फोटो में एक खास तरह के पैटर्न को रचते हैं। अक्सर यह पैटर्न लयात्मक होता है। इसी से उनका कोई फोटो प्रकृति की सुंदर छटा को हमारे लिए ऐसे उपलब्ध करता है कि हमारी देखी हुई चीजें ही फिर से नई और अलौकिक जान पड़ती हैं। जल हो, वायु हो, अग्नि, आकाश हो या प्रकृति का कोई हसीन नजारा वे अपने फोटो के जरिये स्पंदन ही पैदा करते हैं। खास विचार संचालित होकर खींचे गए फोटो में वे पंच तत्व का गहरा बोध कराते हैं। वे कहते हैं मैं हमारे इस ब्रम्हांड मैं फैले विजुअल्स मैसेजेस को ही कैद कर लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करता हूं। उदाहरण के लिए यदि मैं निर्मल पारदर्शी जल को दिखाता हूं तो इसका अर्थ है कि जीवन के हर क्षेत्र में हमें पारदर्शिता रखना चाहिए। काम में, रिश्तों में और खुद अपने से भी पारदर्शिता रखना चाहिए। मैं सिर्फ इतना चाहता हूं कि प्रकृति के स्पर्श से मुझमें जो स्पंदन पैदा होता है वह मेरे फोटो को देखने वाले दर्शक को भी महसूस हो। प्रकृति में बिखरे कलर्स आफ लाइफ को बहुत धैर्य के साथ देखने की जरूरत है। उनके चित्रों की दुनिया खास पैटर्न, लय और रंगों से धड़कती दुनिया है।
उज्जैन के चित्रकार अक्षय आमेरिया ने एक्रिलिक रंगों में 15 चित्र बनाए हैं। इन्हें इनरस्केप शीर्षक से एक दूसरे से जोड़ दिया है। वे कहते हैं- पहले के चित्र अंदर से बाहर की यात्रा के थे और ये नए चित्र बाहर से भीतर की यात्रा के साक्ष्य हैं। ये चित्र पहली ही नजर में भौतिक और लौकिक लक्षणों और चिन्हों को तजने का अहसास कराते हैं। ये चित्र बाहरी यथार्थ से नहीं, बल्कि भीतरी यथार्थ से ज्यादा प्रतिकृत होते हैं। ये भीतर की यात्रा में चलने, या फिर ठिठक कर रूकने की और सोचने-समझने की बात करते हैं। यहां अपने से ही एक संवाद है। अपने को ही जानने-बूझने की विधियां हैं। इसीलिए इनमें थोड़ी दूर तक जाती लाइनें और फिर टूटना है। फिर रूककर फिर चलना है। कहीं पड़ाव है और वे इसिलए हैं कि किसी लम्हे में अपने को पाने की उत्फुल्लता है जो कहीं कहीं रंगीन धब्बों में प्रकट होती है और कहीं अपने को ही रचे जाने की प्रतीक्षा का काला-भूरा पत्थर भी है। और यह सब काले-ग्रे के अनंत के विस्तार में है। यानी जिस तरह से एक पत्ती किसी नीरवता में किसी नक्षत्र से बात करती है ठीक उसी तरह अक्षय का स्व अनंत में किसी लम्हें से संवादरत है। जाहिर है यह सब एक शांत क्षण में ही घटित हो सकता था इसलिए यहां रंगों का घमासान नहीं, बल्कि दो रंगों की परस्परता में एक शांत स्पेस जीवंत हो उठती है। इसी में हम अपने को पाते हैं।


इमेजेस-


1. प्रवीण रावत का फोटो जीवनचक्र
2. उपेंद्र उपाध्याय का फोटो जल
3. अक्षय आमेरिया का इनरस्केप
बाएं उपेंद्र उपाध्याय, दाएं प्रवीण रावत और ऊपर अक्षय आमेरिया


Tuesday, March 10, 2009

बचपन की नदी, कछुए और सुंदर दिनों की याद







हम भागते हैं और हांफते हैं। एक हवस में, एक लालच में। जल्द से जल्द सब कुछ हासिल करने की हमारी तमन्ना हमें दौड़ाती है। लेकिन इसी दौड़ के आखिर में हम पाते हैं कि हमने अपनी जिंदगी की खूबसूरती को हमेशा हमेशा के लिए खो दिया है। तब हमारे पास सिर्फ कुछ दुःख, कुछ अवसाद और बहुत सारा अकेलापन बचा रह जाता है। शहर के युवा चित्रकार आलोक शर्मा के चित्रों को देखना अपने को ही दौड़ते-हांफते देखना है। वे अपने चित्रों की नई सीरीज स्टोरी रिटोल्ड में कछुए और खरगोश की एक पुरानी कहनी को चित्रमय अर्थ देते हैं। साथ ही वे एक अन्य सीरीज दे आर स्टील अराउंड में बचपन की स्मृतियों की अोर लौटते हैं और बताते हैं कि ये मूल्यवान यादें ही मनुष्य को मनुष्य बनाए रखती हैं। इसीलिए मनुष्य इन यादों की डोर के सहारे जिंदगी की नदी में भी तैरते रहता है। उन्हें हाल ही में इंदौर में चित्रकार मीरा गुप्ता ने उभरते कलाकार के रूप में सम्मानित किया।
आलोक की दिल्ली में एकल नुमाइश जारी है। उन्होंने कहा-पुरस्कार मिलने के मायने हैं कि एक चित्रकार के रूप में आपके काम को पसंद किया जा रहा है, और यह भी कि आपने कुछ कामयाबी हासिल की है। लगातार चित्र बनाते बनाते ही मैं यह महसूस करता हूं कि हां, अब कुछ मनमाफिक बन रहा है। आठ-दस साल लगातार काम करते हुए एक मुकाम पर लगता है कुछ काबिल बन रहे हैं। मैं अक्सर बचपन में लौटता हूं। मुझे अपने बचपन की नदी, नाव, मछलियां और खरगोश याद आते हैं। पीछे जाना हमेशा अच्छा लगता है। लेकिन मैं पीछे लौटकर पुरानी स्मृतियों और कहानियों आज के दौर के अर्थ देने की कोशिश करता हूं। इन्हें रूपाकारों में ढालना चुनौती होती है लेकिन डूबकर काम करता हूं तो यह मेरे संभव हो जाता है।
आलोक के चित्रों में एक कछुए के ऊपर से आदमी तेजी से उड़ता दिखाया गया है। वह खरगोश है जो सबकुछ हासिल करने की दौड़ में है लेकिन जीतता अंततः कछुआ है। आलोक कहते हैं इस दौड़ में हम अपनी तारों भरी रातें और चमकीले दिन भूल जाते हैं। छोटी छोटी खुशियों को भूल जाते हैं। आलोक ने अपनी एक पेंटिंग में आदमी को नदी में तैरते दिखाया है जिसके आसपास कागज की नावें तैर रही हैं। वे कहते हैं बचपन हमारे जीवन में बार बार लौटता है और बताता है कि हमें अपनी सबसे कोमल स्मतियों को कभी नहीं भूलना चाहिए क्योंकि ये ही हमारे जीवन को नया अर्थ और भाव देती हैं और जीने को कुछ सहने लायक बनाती हैं।
आलोक ने ड्रीम सिरीज भी की है जिसके चित्र अपने खूबसूरत नीले-जामुनी और लाल रंगों और सुंदर आकृतियों के साथ मन को छू जाते हैं। उनकी यह सिरीज सपने की तरह जिंदगी में धड़कते सुंदर दिनों की याद दिलाती हैं। उनकी इन पेंटिंग्स को देखना एक सपने में से गुजरने जैसा विरल अनुभव है। उनकी पेंटिंग्स हमसे ही हमारी एक आत्मीय मुलाकात कराती है और कहती हैं कि कब से तुम अपने से ही नहीं मिले। इन रूपों को देखो, इन रंगों को देखो औऱ अपने दिनों को याद करते हुए अपने को ही पा जाअो। भागना नहीं, रूककर महसूस करना ही जिंदगी का असल मर्म है।

Thursday, March 5, 2009

मीठे पानी की झील में एक शंख !


उसके साथ यह पहली बार हुआ। वह आवाज उसकी आत्मा के चारों कोनों तक गूंज गई। वह आवाज ऐसे दौड़ी जैसे रगों में खून दिल की अोर दौड़ता है।
मोबाइल फोन पर वह एसएमएस आने की आवाज थी।
उसका हाथ बादलों में कौंधती बिजली की तरह मोबाइल तक पहुंचा। उसकी सांस रूकी थी। इस सांस रूकने में उसे यह पहली बार महसूस हुआ कि खून दिल की तरफ नहीं उसके कान की तरफ दौड़ा। उसे लगा कान सुर्ख हो चुके हैं। उसका बांया हाथ अपने आप उठा और बांए कान को छूने लगा।
यह चमत्कार था। वहां कान की जगह एक फूल उगा हुआ था।
उसने झटके से हाथ हटाया, जैसे करंट लगा हो। उसे लगा, वह देर तक कान को पकड़े रखेगा तो फूल या तो मुरझा जाएगा या झर जाएगा।
उसे समझ नहीं आया कि वह क्या करे।
उसकी अंगुलियों में उस फूल की छुअन अब भी एक आलाप ले रही थी।
उसने अपना ध्यान हटाया और मोबाइल की स्क्रीन को देखा-
वन मैसेज रिसीव्ड।
वह थोड़ी देर उसे ही पढ़ता रहा। वह दुनिया का सबसे रोमांचकारी वाक्य पढ़ रहा था। उसने महसूस किया उसके एक एक रोयों के कान एकदम खड़े हो गए हैं।
उसके कानों में धड़ धड़ धड़ धड़ की आवाज थी। उसने अपने सीने के बायीं अोर हाथ रखा। वहां भाप का इंजिन दौड़ रहा था।
उसने अोपन किया। वहां फ्री रिंग टोन का मैसेज था। उसे झल्लाहट हुई।
उसके बाद फिर वह आलाप धीरे धीरे मद्धम पड़ने लगा, धड़ धड़ धड़ धड़ की आवाज दूर जाती लगी।
फिर क्या हुआ कि उसे एक अजीब आदत पड़ गई। वह रात में सोते वक्त भी मोबाइल हाथ में लेकर सोने लगा। इस वजह से उसकी नींद बार बार टूटती भी। वह जाग-जागकर देखता कि कहीं मोबाइल का स्विच अॉफ तो नहीं हो गया।
झपकी की नींद में वह एक मीठे पानी की झील में तैर रहा था। वह न हाथ चला रहा था, न पांव। उसका शरीर एकदम हलका होकर बेआवाज तैर रहा था। उसे लगा उसका मोबाइल किसी खूबसूरत शंख में बदल जाएगा। और वहां कोई मैसेज किसी मोती की तरह खिलेगा।
उसे लगा उसका चेहरा एक उजाले में दिपदिपा रहा है। उसने आंखें खोली।
उसकी अंगुलियों ने मोबाइल को अब भी थाम रखा है...!

(फोटो ः अॉल पोस्टर्सडॉटकॉम से साभार)

Wednesday, March 4, 2009

चित्रकार श्रेणिक जैन मीरा कला सम्मान से सम्मानित


यह सचमुच चकाचौंध और बड़बोलेपन से दूर रहने और चुपचाप अपनी कला रचने वाले कला साधक का सम्मान था। और इसके साक्षी थे शहर के तमाम नए-पुराने कलाकार और फाइन आर्ट कॉलेज के छात्र। मौका था देवलालीकर कला वीथिका में मंगलवार की शाम वरिष्ठ चित्रकार श्रेणिक जैन को मीरा सम्मान से सम्मानित किया जाना। चित्रकार मीरा गुप्ता, प्रो. सरोजकुमार और चित्रकार ईश्वरी रावल ने उन्हें शाल-श्रीफल और 51 हजार रूपयों की सम्मान राशि से सम्मानित किया। इस अवसर पर श्री जैन की कला के रूपाकारों-रंगों से रूबरू कराने के लिए उनके 25 चित्रों की नुमाइश भी लगाई गई जो 6 मार्च तक जारी रहेगी। श्री जैन के साथ ही युवा चित्रकार आलोक शर्मा को भी सम्मानित किया गया।
ख्यात चित्रकार ईश्वरी रावल ने ठीक ही कहा कि श्री जैन ने अपने गुरुअों की बातों पर अमल करते हुए खुले धरती और आकाश को अपनी पूरी सुंदरता में मथकर फलक पर फैला दिया।कला में सृजनात्मक को केंद्र में रखकर उन्होंने आधुनिकता और परंपरा में एक स्वस्थ संतुलना साधा और अपनी कला के नए आयाम रचे। रंगों औऱ रूपाकारों की समझ विकसित की। श्री रावल ने श्री जैन पर बहुत ही आत्मीय और संस्मरणात्मक लहजे में उनकी कला यात्रा के महत्वपूर्ण रचनात्मक पड़ावों की बात की और बताया कि एक समय ऐसा भी आया था जब उनके गुरु ख्यात चित्रकार डीजे जोशी उनके साथ चित्र बनाते थे और उन्हें पहचानना मुश्किल होता कि उनके शिष्य का चित्र कौन सा है उनका कौनसा। निश्चिच ही किसी भी शिष्य के लिए यह एक रचनात्मक संतोष और गर्व की बात है। श्री रावल ने उनकी सफलता और रूपाकारों की यात्रा पर रोशनी डालकर उनके रंगों और चटख कर दिया। उन्होंने यह भी कहा कि श्रीमती गुप्ता हिंदुस्तान की शायद पहली महिला चित्रकार हैं जो अपनी निजी पूंजी से शहर के चित्रकारों का सम्मान कर रही हैं।
विशेष अतिथि प्रो. सरोजकुमार ने कहा कि यहां मौजूद तमाम युवा चित्रकारों और कला विद्यार्थियों को यह सीख लेना चाहिए कि कला में कामयाबी का कोई आसान रास्ता नहीं होता। पुरस्कार कबाड़े तो जा सकते हैं लेकिन समय के द्वारा रेखांकित किया जाना ही ऐतिहासिक मूल्यांकन है। आज समय ने श्री जैन की कला को रेखांकित किया है और मैं उनके यहां प्रदर्शित चित्रों को देखकर खो गया हूं। उन्होंने श्री गुप्ता द्वारा पुरस्कार दिए जाने की परंपरा की प्रशंसा की। चित्रकार सुशीला बोदड़े ने श्रीमती गुप्ता का पुष्प गुच्छ से स्वागत किया।
इसके पहले अतिथियों ने सरस्वति के चित्र पर माल्यार्पण किया और दीप जलाकर कार्यक्रम का शुभारंभ किया। चित्रकार बीआर बोदड़े, फोटोग्राफर सुबंधु दुबे, ईश्वरी रावल और शबनम ने श्री जैन का स्वागत किया। संचालन दीपा तनवीर ने किया और आभार माना श्रीमती गुप्ता ने।
वीथिका में प्रदर्शित श्री जैन के चित्रों में नए-पुराने काम शामिल हैं और इन्हें देखकर यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने को प्रयोगधर्मिता से बचाते हुए बहुत ही नैसर्गिक ढंग से सुंदरता को ही अपना सत्य बनाया। उन्होंने एक नई चित्र भाषा गढ़ते हुए सुंदर रूपाकार रचे और अपनी कला के लिए अपने आसपास के इलाकों को आधार बनाया। यही कारण है कि उनके चित्रों में दर्शक जानी-पहचानी जगहें देख पाते हैं।
(पेंटिंग ः श्रेणिक जैन का माइंडस्केप)

Monday, March 2, 2009

मनोहारी रंगों की स्वप्निल दुनिया




इसके लिए कला ही नहीं, जिगर भी चाहिए कि कोई कलाकार, कला बाजार में नए से नए चलन से प्रभावित हुए बिना अपनी बनाई लीक पर सधे कदमों से निरंतर चलता रहे। और यह भी कि अपनी बरसों पुरानी शैली को बरकरार रखे हुए रचनात्मक भी बना रहे। जाहिर है, यह अपनी शैली में गहरे आत्मविश्वास और आस्था का परिणाम है। यह कलाकार की अपनी कला और रंगों के प्रति निष्ठा की मिसाल है। ये चित्रकार हैं इंदौर के वरिष्ठतम चित्रकार श्रेणिक जैन। तीन मार्च को देवलालीकर कला वीथिका में चित्रकार मीरा गुप्ता उन्हें विशेष अवॉर्ड से सम्मानित करेंगी। इस मौके पर श्री जैन की तीन मार्च से लेकर छह मार्च तक चित्र प्रदर्शनी भी होगी।
श्री जैन के चित्रों की खासियत यह है कि वे पहली ही नजर में सौंदर्यानुभूति जगाते हैं। वे खूबसूरत प्राकृतिक वातावरण के प्रभाव के साथ ही रंगों का नैसर्गिक सौंदर्य रचते हैं। उनकी रंग योजना मनोहारी होती है। कभी नारंगी और पीले, कभी नीले और हरे और कभी कभार चटख लाल के साथ धूसर की लयात्मक रंग संगति मन मोह लेती है। उनका यह कलात्मक धैर्य एक बहुरंगी स्वप्निल दुनिया को चित्रित करता है। लगता है उनका कला-मर्म प्राकृतिक सुंदरता की रंग छटा, नदी-पेड़ों-पहाड़ों-मंदिरों के साथ ही जानवरों और मनुष्य की उपस्थिति से स्पंदित होता है। वे कहते हैं-मैंने रंगों से लगाव एनएस बेंद्रे से सीखा और काम के प्रति लगन डीजे जोशी से। मैं जमाने के साथ बहता नहीं, अपने मन के साथ अपनी उर्वर कला जमीन पर स्थिर रहता हूं। इसी जमीन पर खड़े होकर मैं अपनी कल्पना के रंगों का वितान रचता हूं। पहले बहुत घूमा और लैंडस्केप किए। अब उम्रदराज होने के कारण घूम नहीं पाता और इसीलिए अब माइंडस्केप करता हूं। यानी देखे गए दृश्य और जगहें मेरी स्मृति में बार बार लौटते हैं और एक कला अनुभव में रूपांतरित होते हैं। ये काल्पनिक हैं इसलिए मैं अपने इन चित्रों को अब माइंडस्केप कहता हूं। लेकिन हो सकता है कि ये आपको देखी गई जगहों का एक वास्तविक आभास देतीं भी लगें।
वे पिछले 25 सालों से एक्रिलिक माध्यम में अपने ये विविधवर्णी कैनवास रच रहे हैं। उनके चित्रों की अब तक एक दर्जन एकल नुमाइश हो चुकी हैं, और कई समूह प्रदर्शनियों में शिरकत कर चुके हैं। कुछ नेशनल आर्ट कैम्प में भी हिस्सा ले चुके हैं। वे मप्र के शिखर सम्मान के साथ कई पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं। वे कहते हैं- मैं समकालीन कला के तमाम ट्रेंड्स देखता हूं और उनका आनंद लेता हूं लेकिन उनसे प्रभावित नहीं होता। न इसकी कभी कोशिश की और न कभी करूंगा। मुंबई की जहांगीर आर्ट गैलरी में उनकी पहली प्रदर्शनी में एनएस बेंद्रे ने यह टिप्पणी की थी कि श्री जैन के चित्रों में भारतीय और यूरोपीय चित्रकला की खासियतें भी हैं और वे स्वप्निल ढंग से अपने चित्रों को रचते हुए अपनी मौलिकता आविष्कृत करते हैं। श्री जैन कहते हैं कि एक ही शैली में काम करने से मन अघाया नहीं लेकिन यदि मेरी चित्रकला में कोई बदलाव आया भी तो वह सायास नहीं, स्वतःस्फूर्त ही होगा। मैं आज भी रोज दो-तीन घंटे रियाज करता हूं। मेरा मन अक्सर देहाती या प्राकृतिक वातावरण वाली चित्रकृतियों को बनाने में रमता है। पुरस्कार मिलने पर वे कहते हैं, असल पुरस्कार संतोष देते हैं लेकिन सन् 57 में 26 साल की उम्र् में मुझे एकेडमी आफ फाइन आर्ट कलकत्ता का जो स्वर्ण पदक मिला था वैसा रचनात्मक संतोष मुझे आज तक नहीं मिला।