Tuesday, August 26, 2008

रोती हुई मां रोते बच्चे को दूध पिला रही है


मैं गहरी नींद में था, स्वप्न देखता हुआ। उसमें किसी स्त्री के रोने की दबी दबी-सी आवाज थी। बीच-बीच में वह रूदन हिचकी में बदल जाता। टूटती सांसों के बीच रूदन की आवाज गूंजती थी। उसी रूदन से लिपटी हुई एक छोटे बच्चे के रोने की आवाज भी थी। यह रोना इस कदर घुला-मिला था कि लगता कोई एक ही गले से रो रहा है।
जैसे नाभि-नाल का रिश्ता हो।
मुझे उसका चेहरा ठीक से याद नहीं, बस उसके रोने की आवाज याद है। एक बदरंग होती दीवार से पीठ टिकाए वह स्त्री रो रही थी और उसके पास कोई नहीं था।
एक कमरा था जो बहुत सारी अड़ंग-बड़ंग चीजों से भरा था और उसमें एक कोने में बमुश्किल एक स्त्री के बैठने की जगह निकली थी। वहीं, वह रो रही थी।
वह लगातार रो रही थी। उस रोने की आवाज के पीछे अचानक मुझे मां की आवाज सुनाई दी। मैंने ध्यान से सुनने की कोशिश की।
मां मुझे पुकार रही थी।
मां की आवाज इतनी धीमी और टूटी हुई थी कि मुझे लगा वह मुझे बहुत दूर से पुकार रही है।
मुझे लगा कोई मुझे झिंझोड़ रहा है और मेरी नींद टूट गई।
मैंने आंखें खोली तो पाया मां मुझे आवाज देकर जगा रही है। मैंने मां का चेहरा देखा। उसके चेहरे पर अलग-अलग गतियों से आंसू बह रह थे। एक के पीछे एक। दूसरे में मिलकर चुपचाप गिरते हुए।
मुझे लगा मैं स्वप्न ही देख रहा हूं। जो स्त्री कमरे के कोने में पीठ टिकाए अकेली रो रही थी उसका चेहरा धुंधला था।
मैंने आँखें मलीं और मां को फिर से देखा।
मां रो रही थी। कह रही थी मोहिनी ने आत्महत्या कर ली।
घर के पिछवाड़े कुछ स्त्रियों के रोने की आवाज आ रही थी। मैं उठा और मुंह धोने के लिए जैसे ही आंगन में आया, मेरी नजर नीम के पेड़ पर गई। नीले कच्च आसमान में नीम धूप में चमक रहा था। हवा चलती तो एक लय में बंधी सरसराहट के बीच कुछ पत्तियां टूटकर गिरने लगतीं। रोने की आवाज सरसराहट में अजीब तरह से मिलकर उन टूटती पत्तियों के साथ चुपचाप गिर रही थी। रोने की आवाज बिलकुल पेड़ की पत्तियों से छनकर आ रही थी।
एक पल के लिए मुझे लगा कि स्त्रियां पेड़ में बैठी रो रही हैं।
हवा में पेड़ हिलता तो रूदन टूटता हुआ लगता, जैसे बीच में कोई सांस ले रहा है।
पेड़ से पत्तियों का झरना और रोना जारी था।
अचानक मुझे बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी। मैंने देखा मोहिनी की बड़ी बहन अपने बच्चे को गोद में लिए बैठी है। उसकी आंखे लाल और सूजी हुई हैं। बच्चा पूरी ताकत से रो रहा था। उसे भूख लगी थी। बच्चे की मुट्ठियां तनी हुई थीं और रोने से उसका चेहरा लाल हो चुका था। वह मुंह खुला रखे और सिर हिलाते हुए मां का स्तन ढूंढ़ रहा था। उसकी मां ने एक पांव हिलाते हुए दूध पिलाना शुरू किया। बच्चा भूखा था, तुरंत चुप होकर मुंह लगाकर, हिलाने लगा।
स्त्रियों का रोना फिर शुरू हो गया है। दूर शहर से कोई आया है। एक स्त्री ट्रेन की तरह धड़धड़ाती हुई आती है और मोहिनी का मां की गोद में सिर पटक कर रोने लगती है। दूसरी स्त्रियां भी रोने लगती हैं। घर में कानाफूसी का दौर जारी है...बाहर हलचल बढ़ गई है। कोई कहता है जल्दी ले चलो भई। स्त्रियों के रोने की आवाज तेज हो गई है। इन आवाजों में अब बच्चे के रोने की आवाज भी शामिल है।
बच्चे की मां के रोने से बच्चे के मुंह से स्तन छूट गया है। वह रोने लगता है तो मां अपना घुटना हिलाते हुए, रोते हुए उसे फिर से दूध पिलाने लगती है।
हम बाहर आ चुके हैं। शवयात्रा शुरू हो चुकी है, स्त्रियों के रोने की आवाजें पीछे-पीछे चली आई हैं। मैं मुड़कर देखता हूं। बहुत सारी रोती हुई स्त्रियों के बीच मुझे वह स्त्री भी दिखती है जिसकी गोद में बच्चा आसपास होती हचलचों को अजीब नजरों से देख रहा है। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा है कि हो क्या रहा है।
बच्चा अपनी रोती मां का चेहरा देखता है और खुद भी रोने लगता है।
सब कुछ निपट चुका।
मैं घर पर हूं। मां ने नहलाने के लिए पानी गरम कर दिया है। अब मैं रसोई घर में हूं।
मुझे भूख लग रही है। मां गरम-गरम रोटियां उतार रही है।
मां गरम रोटी पर घी चुपड़कर थाली में रख रही है। मैं उसका चेहरा देखता हूं। मां की आंख में आंसू हैं। मैं चौंक पड़ता हूं।
मां का चेहरा और उस स्त्री का चेहरा एक जैसा है जो रोते हुए अपना घुटना हिलाते, रोते बच्चे को दूध पिला रही थी।
पेंटिंगः गुस्ताव क्लिम्ट

Saturday, August 16, 2008

बारिश में विदा


बारिश में विदा

आज सुबह से बारिश विलंबित खयाल में थी। कभी द्रुत भी लेकिन देर तक विलंबित।
बादल एक लय में तैर रहे हैं। पानी से भरे हुए। जहां मन होता है, बसरते हैं।
पेड़ एक पैर पर खड़े होकर नाचते हैं। एक पेड़ किसी खयाल में खड़ा भीग रहा है। चुपचाप। लगता है, किसी इंतजार में है। कोई उसे छोड़कर चला गया है।
उसकी स्मृति में पंखों की फड़फड़ाहट है।
पेड़ के सीने में एक लड़की की हिचकियां हैं जो कभी उससे पीठ टिकाए बैठी थी। पेड़ ने एक बजुर्ग के हांफने की आवाज को थाम रखा है। वह धीरे-धीरे हिलता हुए हवा करता था ताकि उसके नीचे खड़े आदमी का पसीना सूख सके। उसके पीछे हमेशा कोई न कोई छिप जाता था।
वह पेड़ अपने बदन पर किसी अंगुलियों के पोरों से लिखे नाम को अब भी तितली की तरह महसूस करता है। उसकी पत्तियों पर उन प्रेमियों की फुसफुसहट पानी की बूंदों की तरह अब भी ताजा हैं जो पहाड पर दौड़कर चढ़े और कुछ देर के लिए अोझल हो गए थे। वे लौटे तो उन्होंने पहाड़ को अपने चेहरे के साथ नदी की देह पर हिलते हुए देखा था। नदी का वह हरा पानी अब भी हिल रहा है।
वह पेड़ अब भी अपने में कुछ फूल छिपाए बैठा है। वह जानता है एक बूढ़ी आएगी और उसकी डाल को नीचा कर कुछ फूल अपनी झोली में ले जाएगी।
वह बूढ़ी विदा ले चुकी है और बारिश में उस पेड़ के फूल टूटकर झरते रहते हैं। वह झरते हुए फूलों को देखकर इस बात से बेखबर है कि वह बूढ़ी अब कभी उसके पास नहीं लौटेगी। ध्यान से सुनें तो आपको इस पेड़ के सुबकने की आवाज भी सुनाई देगी।
अब वह बहुत सारी स्मृतियों को धारे बारिश में खड़ा है। चुपचाप। भीगता हुआ।
बहुत सारे लोग उससे विदा ले चुके हैं। वह अकेला खड़ा है।
ये बारिश पीछा नहीं छोड़ती। बारिश में बारिश कभी अकेली नहीं आती। दूसरी बारिशों की बारिश भी साथ लेकर आती है। किसी न किसी बारिश में कोई न कोई उससे विदा लेता रहा है। वह भी बारिश का कोई एक दिन था, जब कोई उससे विदा ले चुका था।
वह भी एक दिन इसी मौसम में सबसे विदा लेगा। वह ऐसा सोचता है तो एक डाली कांपने लगती है। नदी की देह पर पहाड़ कांपता है। पहाड़ के सीने में वे पत्थर कांपते हैं, जिसमें हरी नदी का संगीत अब भी गुनगुनाता है।
जब अंतिम विदा की बेला आएगी
तब बारिश हो रही होगी
बारिश उसके सिरहाने टहलने आएगी और
उसे अविचल पड़ा देख कुछ देर थमेगी
दूर जाकर उस पहाड़ के पीछे गुम होना चाहेगी
लेकिन अचानक पलटकर तेज बरसती हुई
उसी पेड़ में छिपने की कोशिश करेगी
उस झुरमुट में अब भी कुछ सफेद फूल होंगे
बारिश की मार झेलते हुए
उस बूढ़ी की प्रतीक्षा में भीगते हुए चुपचाप।