Friday, April 17, 2009

नजारों से नजरिये तक







इंदौर के चित्रकार-कहानीकार प्रभु जोशी के नए चित्रों को देखकर यह सहज ही कहा जा सकता है कि लैंडस्केप के प्रति उनका फेसिनेशन बरकरार है। विषयों की विविधता और रंग बहुलता के बावजूद उनके नए काम इसलिए सौंदर्यपूर्ण हैं क्योंकि इनमें उनकी पुरानी मनोहारी रंग-योजना और रंगों को बरतने की जादुई तरकीब का कमाल देखा जा सकता है। इस बार उन्होंने वाटर कलर्स का साथ छोड़कर मिक्स मीडिया में काम किए हैं। उनकी इस 12 वीं एकल नुमाइश का बुधवार को उद्घाटन किया ख्यात पत्रकार-चित्रकार-फिल्ममेकर प्रीतीश नंदी ने। इसमें उनके 14 शामिल हैं जो उन्होंने कैनवास पर मिक्स मीडिया में बनाए हैं।
उनके नए चित्रों की दो-तीन खासियतें तुरंत ध्यान खींचती हैं। पहली तो यही कि पहले वे सिर्फ खूबसूरत प्राकृतिक नजारों के चित्रकार थे जिसमें प्रकृति की कोई छटा अपने दिलकश अंदाज के साथ प्रकट होती थी लेकिन इस बार के चित्र उनके नजरिये का पता भी देते हैं। इस बार उनके चित्रों में खंडित समय, स्मृति की पगडंडी पर बचपन के दिन और स्मृति भंग की परछाइयां साफ देखी जा सकती हैं। मिसाल के तौर पर उनके एक चित्र में खूबसूरत लैंडस्केप के बीच एक मस्तिष्क है। और उस मस्तिष्क में भी रंगों के कई टुकड़े हैं जो वस्तुतः समय के ही टुकड़े हैं। वे कहते भी हैं कि मेरे ये चार चित्र नवगीतकार स्वर्गीय नईम को ट्रिब्यूट हैं। हम एक खंडित समय में ही रह रहे हैं जहां स्मृतियां हैं स्मृति भंग है और स्मृति का लोप भी है।
उनके एक चित्र में स्मृतियों का धुंधला स्मरण है जहां बचपन के कपड़े सूख रहे हैं यानी वे स्मृति की पगडंडी से गुजरते हुए अपने अतीत की स्मृतियों को रूपाकारों में जीवंत कर रहे हैं। यह भूलने के विरूद्ध याद रखने की रंग-यात्रा भी है। इसी तरह उनके अन्य चित्रों में स्मृतियों की अवसादपूर्ण मौजूदगी भी महसूस की जा सकती है जिसमें जंगलों के कटने का एक दृश्य है और जंगलों के कटने का एक अर्थ स्मृतियों का धराशायी होना भी है। इस पीड़ाजनक अनुभव को वे अपने सिद्ध कला-कौशल से रचते हैं। इसके अलावा उन्होंने कालिदास रचित कुमार संभव को ध्यान में रखते हुए शिव के जो चित्र रचे हैं। एक चित्र में बहुत ही खूबसूरती से उन्होंने शिव के त्रिशूल, कमर से उतारी गई छाल, पार्वती की साड़ी और माथे से हटाकर एक तरफ रखा गया चंद्रमा चित्रित किया है तो दूसरे चित्र में शिव की पगथलियों के सामने पार्वती की पगथलियां बनाई हैं। एक प्रीतीशनंदी का व्यक्तिचित्र भी उन्होने बनाया है जिसमें आंख हरी, सिर लाल और होंठ गुलाबी बनाए हैं।
लेकिन विषय वैविध्य होने के बावजूद इन तमाम चित्रों को देखकर बाआसानी कहा जा सकता है कि ये एक ही चित्रकार की कृतियां हैं। इसका कारण है कि उन्होने इसमें अपनी पुरानी रंग योजना, तकनीक और रंगों के वापरने के अपने चिरपरिचित ढंग को बरकरार रखा है। यानी उन्होंने एक्रिलिक और आइल कलर को पानी पानी कर दिया है इसी कारण उनके इन नए चित्रों में वह रंगों की तरलता और सहज बहाव और उस पर असाधारण नियंत्रण देखा जा सकता है। यह उनकी लंबी रियाज का ही प्रतिफल है कि उनके चित्रों का कुल प्रभाव लगभग जादुई है और दर्शाता है कि अपने मीडियम पर उनका नियंत्रण अंसदिग्ध है। इसके अलावा कहीं कही बहाव को तोड़ते उनके सायास टेक्सचर और कम्पोजिशंस के साथ लैंडस्केप के पर्सपेक्टिव खासे आकर्षित करते हैं। वे कहते हैं मैंने इसमें कहींकहीं इंक का भी इस्तेमाल किया है। वे कहते हैं कि तमाम दुःखद स्मृतियों और पीडा़दायी अनुभवों के बावजूद कला से सौंदर्य को बाहर नहीं किया जा सकता है। सौंदर्य उसका मूलतत्व है लिहाजा ये चित्र अवसादपूर्ण होकर भी सुंदर हैं।
इसलिए इनमें खंडित समय और स्मृति भंग के चित्र के साथ ही बहती नदी, कोहरे में लिपटे पहाड़ और अपने में ही मगन पेड़ और खुला आसमान दिल लुभाते हैं।

Friday, April 10, 2009

ठीक आदमजात-सा बेखौफ़ दिखना चाहता हूँ


क्या हिंदी समाज में एक कवि के जाने का कोई कुछ मतलब बचा रह गया है? जब किसी कविता संग्रह की तीन सौ प्रतियों का एडिशन पाँच सालों में पूरा नहीं बिकता हो तब किसी कवि का लगातार रचते रहना, उसका बीमार हो जाना या यकायक चले जाना इस समाज के लिए क्या मायने रखता है, ऐसे समय में जब कविता समाज की चिंता करती हुई हरदम उससे मुखातिब और रूबरू है और समाज उसकी तरफ से पीठ किए बैठा हो तब कवि की मृत्यु को इस समाज में किस तरह लिया जा रहा होगा इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।
नईम साहब चले गए। पहले वे चुप हुए, फिर शांत हो गए। यह एक ट्रेजेडी है। एक तरफ वे समाज में हर पाखंड और आडंबर के खिलाफ लड़ते रहे वहीं कविता के स्तर पर एक लगभग जानलेवा आत्मसंघर्ष भी करते रहे। हिंदी में कई आलोचक आज भी गीत और नवगीत के नाम पर नाक-भौंह सिकोड़ते हैं। इन्हीं आलोचकों के दबाव में हिंदी के कई गीतकारों ने अपनी लीक छोड़कर नई कविता की शरण ली थी। शायद गिरिजाकुमार माथुर इसके एक उदाहरण हो सकते हैं लेकिन नईम अपने नवगीतों पर डटे रहे। आखिर तक। यह नईम साहब के ही बूते और साहस की बात थी कि वे अपनी कविता में यह कह सके कि-
शामिल कभी न हो पाया मैं
उत्सव की मादक रुनझुन में
जानबूझ कर हुआ नहीं मैं
परम्परित सावन फागुन में
क्या कहिएगा मेरे इस खूसठ स्वभाव को?
यह उनकी कविता का ही स्वभाव नहीं था कि वे किसी उत्सव की मादक रुन-झुन में शामिल नहीं हुए बल्कि यह उनके व्यक्तित्व की ही खासियत थी जिसे उन्होंने अपना खूसठ स्वभाव कहा है। वे न कविता में, न जीवन में सच कहने से कभी चूके। कितना भी बड़ा फन्ने खां हो, वे उसके मुंह पर, सबके बीच सच कहने की ताकत रखते थे। जाहिर है यह उसी के लिए संभव हो सकता है जो निजी राग-द्वेष से ऊपर उठकर, निस्वार्थ और निडर होकर रहता आया हो।
उनके गीतों से गुजरकर यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता था कि एक तरफ वे मन के साफ निर्मल जल में जीवन के अर्थ को और मर्म को देखने की चाहत रखते थे और यह भी कि जीवन के कटु यथार्थ को अभिव्यक्त करने के लिए वे अपने को भी दाँव पर लगा सकते थे। वे अपने जीवन को, अपने समय को साधने की काव्यगत चेष्टाएँ करते रहे। अपने एक गीत में वे लिखते हैं-
भूत प्रेतों को नहीं, केवल समय को साधना है।
बंधु! मेरी यही पूजा-अर्चना, आराधना है।
शब्द व्याकुल हैं
समय के मंत्र होने के लिए
और यह भाषा
व्यवस्था तंत्र होने के लिए।
हो सकें तो हों हृदय से, ये हमारी कामना है।

वे सचमुच दिल से यह कामना करते रहे कि उनके शब्द समय के मंत्र बन जाएँ और यह सच है कि उनके शब्द मंत्र बनने की कोशिश करते रहे क्योंकि उनके गीतों में हमारे समय की विद्रूपताएँ और विडंबनाएँ तो गूँजती रहीं साथ ही जीवन के उत्साह-उमंग भी गूँजते रहे। जो उनके संपर्क में आए और जिन्होंने उन्हें पढ़ा है वह सहज इस बात पर विश्वास कर सकता है कि उनके लिखने-कहने और जीने में कोई फाँक नहीं थी। उनकी इन पंक्तियों पर गौर कीजिए-

लिखते कटते हाथ हमारे
किंतु जबाँ पर आँच न आती।
लिखने कहने में अंतर है
कैसे हैं ये सखा संगाती

क्या यह कहने की जरूरत है कि उन्होंने अपनी कविता में जहाँ एक ओर अपने हृदय को बानी दी है वहीं अपने समय की सचाई को कहने के लिए तीखे व्यंग्य का सहारा भी लिया। इसीलिए उन्होंने लिखा कि-

अपने हर अस्वस्थ समय को
मौसम के मत्थे मढ़ देते
निपट झूठ को सत्यकथा सा
सरेआम हम तुम मढ़ लेते
तनिक नहीं हमको तमीज हँसने रोने का
स्वांग बखूबी कर लेते भोले होने का
जिनकी मिलती पीठें खाली
बिला इजाजत हम चढ़ लेते


उनकी नजर समय की विडंबना पर कितनी अचूक थी, इसे व्यक्त करने की भाषा उतनी ही मारक थी इसका अंदाजा इस कविता से लगाया जा सकता है कि

हम तुम
कोशिश ही करते रह गए जनम भर
लेकिन वो
जाने,क्यूँ, कैसे
रातों,रात महान हो गए,

लेकिन वे जीवन के गीत भी गाते थे। वे जीवन में मिलनेवाली शंख और सीपियों को बटोरना भी चाहते थे। वे चाहते थे कि हम खुली हवा और पानी से सीखें कि जीवन क्या है। वे चाहते थे हम प्रकृति की भाषा को पढ़ें और साथ साथ पानी उछालें। वह पानी जो भाव से बना है। वह पानी जो जीवन से बना है। वह पानी जो आँसुओं से बना है। यही नहीं, वे जीवन के स्वीकार की, जीवन के स्वागत की कविता भी करते थे और चाहते थे कि हमारे दिन भी नदी और ताल के दिन बन जाएँ-
आओ हम पतवार फेंककर
कुछ दिन हो लें नदी ताल के
नाव किनारे के खजूर से बाँध
बटोरें शंख-सीपियाँ
खुली हवा, पानी से सीखें
शर्मो-हया की नई रीतियाँ

बाचें प्रकृति पुरूष की भाषा
साथ-साथ पानी उछाल के
लिख डालें फिर नए सिरे से
रंगे हुए पन्नों को धोकर
निजी दायरों से बाहर हो
रागहीन रागों में खोकर
आमंत्रण स्वीकारें उठकर
धूप-छाँव-सी हरी डाल के

नमस्कार पक्के घाटॊं को
नमस्कार तट के वृक्षों को

पोंछ-पोंछ डालें जिस्मों से
चिपक गए नागर कक्षों को
हो न सके यदि लगातार
तब जी लें सुख हम अंतराल के

वे शायद हमेशा से ही अपनी कविता में प्यार लिखना चाहते थे और बेखौफ दिखना चाहते थेः

लिख सकूँ तो?
प्यार लिखना चाहता हूँ,
ठीक आदमजात सा
बेखौफ़ दिखना चाहता हूँ।

अब वह गीतकार हमारे बीच नहीं हैं। जो आदमजात सा बेखौफ दिखना चाहता था और हमें भी ठीक उसी तरह होने के लिए प्रेरित करता था।
(प्रो. अब्दुल नईम खान यानी नईम साहब को आज उनकी कर्मभूमि देवास में दफनाया गया। गुरुवार को शाम पांच बजकर चालीस मिनट पर उन्होंने इंदौर के बाम्बे हॉस्पिटल में आखिरी सांस ली। 9 जनवरी को उन्हें ब्रेन हेमरेज होने पर इंदौर के विशेष हॉस्पिटल में भर्ती किया गया था। इसकी सूचना मुझे कथाकार-चित्रकार प्रभु जोशी से मिली थी और उसी दिन रात को हम दोनों उनसे मिलने गए थे लेकिन वे अचेत थे। पथराई आंखें और लिख सकूं तो उनके नवगीत संग्रह प्रकाशित हैं। उन्होंने कुछ समय तक काष्ठ कला भी की। एक पत्रिका जरूरत निकाली थी। मैं उनसे कई बार मिला। देवास में उनके घर, इंदौर और भोपाल के कई कार्यक्रमों में। मेरे पिता की मृत्यु पर उन्होंने मुझे एक लंबा खत लिखा था। वह अब भी मेरे पास है। जिन लोगों को उनका थोड़ा-बहुत स्नेह मिला, उनमें मैं भी हूं। हरा कोना उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करता है। )

Thursday, April 9, 2009

यहां पानी चांदनी की तरह चमकता है


कुमार अंबुज की कविता

आंधियां चलती हैं और मेरी रेत के ढूह
उड़कर मीलों दूर फिर से बन जाते हैं
यह मेरी अनश्वरता है

यह दिन की चट्टान है जिस पर मैं बैठता हूं
प्रतीक्षा और अंधकार। उम्मीद और पश्चाताप
वासना और दिसंबर। वसंत और धुआं
मैं हर एक के साथ कुछ देर रहता हूं

तारों की तरह टूटते हैं प्रतिज्ञाअों के शब्द
अंतरिक्ष में गुम होते हुए उनकी चमकभर दिखती है।
चंद्रमा को मैं प्रकट करता हूं किसी ब्लैक होल में से
और इस तरह अपने को संसार में से गुजारता हूं

इस संसार में मेरे पास प्रेमजन्य यह शरीर है अलौकिक
इसी में रोज खिलते हैं फूल और यहीं झर जाते हैं
बहती है नीली नदियां और वाष्पित होती हैं
जो मिलती हैं समुद्रों में
गिरती हैं फिर बारिश के साथ
यहीं है उतना निर्जन जो जरूरी है सृष्टि के लिए
इसी में कोलाहल है, संगीत है और बिजलियां
पुकार है और चुप्पियां
यहीं है वे पत्थर जिन पर काई जमा होती है
यहीं घेर लेती हैं खुशियां
और एक दिन बुखार में बदल जाती हैं

यह सूर्यास्त की तस्वीर है
देखने वाला इसे सूर्योदय की भी समझ सकता है
प्रेम के वर्तुल हैं सब तरफ
इनका कोई पहला और आखिरी सिरा नहीं
जहां से थाम लो वही शुरूआत
जहां छोड़ दो वहीं अंत
रेत की रात के अछोर आकाश में ये तारे
चुंबनों की तरह टिमटिमाते हैं
और आकाशगंगा मादक मद्धिम चीख की तरह
इस छोर से उस छोर तक फैली है

रात के अंतिम पहर में यह किस पक्षी की व्याकुलता है
किस कीड़े की किर्र किर्र चीं चट
हर कोई इसी जनम में अपना प्रेम चाहता है
कई बार तो बिल्कुल अभी, ठीक इसी क्षण
आविष्कृत हैं इसीलिए सारी चेष्टाएं, संकेत और भाषाएं

चारों तरफ चंचल हवा है वानस्पतिक गंध से भरी
प्रेम की स्मृति में ठहरा पानी चांदनी की तरह चमकता है
और प्यास का वर्तमान पसरा है क्षितिज तक
तारों को देखते हुए याद आता है कि जो छूट गया
जो दूर है, अलभ्य है जो, वह भी प्रेम है
दूरी चीजों को नक्षत्रों में बदल देती है।


(...और पेंटिंग रवीन्द्र व्यास की है। )

Wednesday, April 8, 2009

पलाश-सेमल के फूल और रंगात्मक प्रतिरोध






उनके चित्रों में वे सेमल और पलाश के चटख फूल रूपायित हो रहे हैं जो उन्होंने अपने बचपन में कभी गांव में देखे थे। ये फूल उनके कैनवास पर बोल्ड स्ट्रोक्स और गहरे रंगों में खिलकर लोगों को आकर्षित कर रहे हैं। यही नहीं उन्होंने बांग्ला लेखिका तस्लीमा नसरीन के पक्ष में अपने रंगात्मक प्रतिरोध को अभिव्यक्ति दी है। अपने गहरे रंगों के कैनवास लेकर मनोज कचंगल फिर प्रस्तुत हैं। फाइन आर्ट कॉलेज इंदौर के स्टूडेंट रहे युवा चित्रकार मनोज के नए चित्रों की एकल नुमाइश चैन्नई में 11 से 17 अप्रैल तक आयोजित होगी। अप्पाराव गैलरीज में होने वाली इस प्रदर्शनी में एक्रिलिक में बनाए उनके 14 काम प्रदर्शित होंगे। उल्लेखनीय है कि उन पर एक बड़ी किताब डोअर्स आफ परसेप्शन भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से छपकर आई है। इसका संपादन देश की ख्यात कला समीक्षक रत्नोत्तमा सेनगुप्ता ने किया है। इसी शीर्षक से उन पर एक डाक्युमेंट्री फिल्म भी बन चुकी है जिसे प्रेवश भारद्वाज ने निर्दैशित किया है और विषय विशेषज्ञ के रूप में ख्यात कवि-कला समीक्षक विनोद भारद्वाज ने योग दिया है।
मनोज ने फाइन आर्ट कॉलेज इंदौर से 2001 में बीएफ किया और 2003 में एमएफए किया। वे कुछ सालों तक इंदौर में ही चित्रकारी करते रहे और पिछले पांच-छह सालों से नोएडा में बस गए हैं। वे पहले क्षैतिज ब्रश स्ट्रोक्स लगाकर अपने कैनवास पर सुंदर भू-दृश्य रचते थे। अक्सर हलके रंगों को पतला करते हुए वे परत-दर-परत इस्तेमाल करते थे। यानी एक्रिलिक रंगों को वे लगभग वाटर कलर्स की तरह वापरते थे और एक के ऊपर एक सतहें रचते हुए उन्हें टोनल इफेक्ट्स देते थे। कैनवास के नीचे की सतह को अक्सर गहरे रंगों और फिर हल्के रंगों के साथ ऊपर बढ़ते हुए जमीन-आसमान एक कर देते हैं। और इस तरह तैयार होते थे उनके खूबसूरत लैंडस्केप। अब उनमें बदलाव आया है और अब रंगों की क्षैतिज सतह पर उनके बोल्ड स्ट्रोक्स या रंगों के बड़े बड़े पैचेस दिखाई देते हैं।
वे कहते हैं कि बचपन में मुझे पलाश के चटख रंग खींचते थे। मैंने उन्हें देखते कभी अघाया नहीं। वे मेरे अवचेतन में कहीं गहरे बसे हुए थे। अब वही पलाश और सेमल के फूल मेरे कैनवास पर कलानुभव में रूपांतरित हो रहे हैं। इंदौर में चित्रकारी की बारिकियां सीखते हुए मैंने मांडू और आसपास की जगहों के लैंडस्केप किए हैं और प्रकृति मुझे मोहित करती है। मांडू को लेकर तो मैंने एक पूरी सिरीज ही की थी- सिम्फनी आफ रूइंस। इसे लेकर मैंने बनारस में एकल नुमाइश की थी जिसे सराहा गया था। इसके बाद मैंने रंगों को धीरे-धीरे जानना शुरू किया, उनकी एकदूसरे के साथ संगति को समझा और फिर मैंने एक और सिरीज की-सिम्फनी आफ कलर्स। तो चटख रंगों की इस यात्रा में मेरा यह पड़ाव है जिसमें मैंने पूरी ताकत के साथ लाल-नीले-पीले रंगों का कल्पनाशील इस्तेमाल किया है। मैं वान गाग के रंगों और रंग लगाने के उनके तरीकों से बेहत प्रभावित रहा हूं। मैंने अपने नए चित्रों में रंगों को लगाने का नया ढंग सीखा है। उन्होंने तो बांग्ला लेखिका तस्लीमा नसरीन को भारत में पनाह नहीं देने के विरोध में भी पेंटिग की है। वे कहते हैं इस घटना से मैं इतना विचलित था कि मैंने लाल रंगों के बोल्ड स्ट्रोक्स से इसका रंगात्मक प्रतिरोध किया। मेरे ये चित्र इस नई प्रदर्शनी में शामिल हैं।
रजा पुरस्कार प्राप्त मनोज कहते हैं कि मुझ पर किताब छपना और डाक्युमेंट्री फिल्म बनना एक तरह से ईश्वर की कृपा है। इससे मुझे हिम्मत मिली है कि मैं और बेहतर काम कर सकूं। डाक्युमेंट्री की कुछ शूटिंग इंदौर के फाइन आर्ट कॉलेज, छावनी, रेलवे स्टेशन, मांडू में हुई है। कुछ हिस्सा दिल्ली और कोलकाता की आर्ट गैलरीज में शूट किया गया है जहां मेरी एक्जीबिशन थी। इसके अलावा मेरे स्टुडियो में मुझे काम करते हुए और बातचीत करते हुए दिखाया गया है।
किताब डोअर्स आफ परसेप्शन में मनोज का इंटरव्यू, देश के नामचीन समीक्षकों की समीक्षाएं, उनके बचपन से लेकर अब तक के चुनिंदा फोटो, उनके शुरूआती से लेकर नए काम शामिल किए गए हैं। इसमें उनकी डाक्युमेंट्री के बार में एक संक्षिप्त राइट अप है।
उनका मानना है कि मंदी आने से कलाकारों को कोई फर्क नहीं पड़ा। फर्क पड़ा है तो उन गैलरियों को जो मुनाफा कमाने के लिए धड़ाधड़ खुल गई थीं। फर्क पड़ा है तो उन कलाकारों को जो सिर्फ पैसा कमाने के लिए कला के इलाके में आए थे। जो अच्छे कलाकार हैं वे पहले भी बिक रहे थे और मंदी के इस दौर में भी बिक रहे हैं। लेकिन मंदी से अब कला बाजार भी थोड़ा साफ होगा और यह नए सिरे से उभरेगा। और यह भी कि अब असल कलाकार ही टिक सकेंगे।
इमेजेस
१. मनोज की किताब का कवर
२. मनोज का एक पुराना लैंडस्केप
३. मनोज का नया लैंडस्केप
४. मनोज का एक और नया लैंडस्केप
५. मनोज, गैरी बेनेट के साथ जिन्होंने एक आक्शन में मनोज की पेंटिंग खरीदी थी।

Monday, April 6, 2009

बूंदें, पंखुड़ियां, रोटी और चुंबन



यह सचमुच जीवन की यात्रा है। अपने भ्रम और यथार्थ के साथ। भौतिकता और आध्यात्मिकता के साथ। प्रेम और भक्ति के साथ। भूख और प्यास के साथ। यहां आपको पानी की बूंदें, पंखुड़ियां, रोटी, प्रेम और चुंबन दिख जाएंगे। सुख-दुःख के जुड़वां चेहरे मिल जाएंगे लेकिन ये इतनी तल्लीनता और कलात्मक कौशल से रचे गए हैं कि आप गैलरी से बाहर निकलते हैं तो वे बूंदें, रोटी और चुंबन आपके साथ-साथ चले आते हैं। वे आपकी स्मृति में ठहर जाते हैं, धड़कते हैं और एकबारगी फिर हमें ये याद दिलाते हैं कि हमारी जिंदगी में इनके होने का कितना गहरा मतलब है।
यह सब देखा और महसूस किया जा सकता है दिल्ली के चित्रकार विजेंदर शर्मा की प्रदर्शनी जर्नी आफ लाइफ में। शनिवार को इंदौर में उनकी प्रदर्शनी शुरू हुई। पहली ही नजर में ये पेंटिंग्स जता देती हैं कि चित्रकार की यथार्थपरक शैली में काम करने की रियाज कितनी तगड़ी है। यही नहीं, ये पेंटिंग्स इस बात की भी गवाही देती हैं इन्हें किसी ध्यानस्थ अवस्था में बनाया गया है। यानी इसमें कलाकार की एकाग्रता, अपने माध्यम पर अचूक नियंत्रण और अपने सोच को अनुकूल आकृतियों और रंगों में ढालने की अद्भुत क्षमता के दर्शन भी होते हैं। चाहे पुजारी की भीगी धोती की सलवटें हो, पीठ और हाथों से फिसलती पानी की बूंदें हों, पंखुड़ियां या फिर चाहे सिंकी हुई रोटी हो या चुंबनरत जोड़ा इन्हें इस तरह रचा गया है कि ये चौंका देने की हद तक सच्ची लगती हैं। जाहिर है, वे सधी रेखाअों, अचूक आंतरिक दृष्टि, कल्पनाशील दिमाग और संवेदनशील रंगों से एक ऐसी दुनिया को रचते हैं जो एक साथ यथार्थ और भ्रम का अहसास कराती हैं। रोटी और लव शीर्षक की पेंटिंग उन्होंने प्रेम को प्रतीकात्मक ढंग से चित्रित किया है लेकिन रोटी को ठोस ढंग से। रोटी इतनी वास्तविक जान पड़ती है कि तंदूर से निकालकर अभी-अभी टांगी गई है। उसका आकर और आग के स्पर्श और आंच से बने सिंकने के निशान बताते हैं कि इस कलाकार में रचने का स्तुत्य धैर्य है। इसी तरह वर्शीपर शीर्षक पेंटिंग में भी पानी की बूंदों, पंखुड़ियों और सलवटों पर किया गया काम ध्यान खींचता है। लव इज अवर रिलीजन पेंटिंग अपने मैसेज की वजह से ज्यादा सार्थक है।
अन्य माध्यमों में भी उनकी कितनी तगड़ी रियाज है इसका उदाहरण है वाटर कलरटेम्परा में बनाया एमएफ हुसैन का चित्र। यह इतनी खूबी से बना है कि इसमें हुसैन के माथे की सलवटें, चेहरे की झुर्रियां और चांदी की तरह चमकते सफेद बाल एक किसी बेहतरीन फोटो की माफिक लगते हैं। वे इसे बेचना नहीं चाहते क्योंकि वे मानते हैं कि ऐसे चित्र बार बार नहीं बनाए जा सकते। इसी तरह उनके अधिकांश श्वेतश्याम ड्राइंग भी इसलिए खूबसूरत हैं कि ये अपनी मांसलता, ऐंद्रिकता और रोचक विषयों के कारण खासे आकर्षित करते हैं। इनमें मिस्टीरियस बैलेंस कमाल का जिसमें असंतुलित चट्टानो पर एक खास मुद्रा में निर्वस्त्र स्त्री बैठी हुई है। यह अपने टोन और टेक्सचर में भी दर्शनीय बन पड़ी है।
यह प्रदर्शनी 12 अप्रेल तक रोज दोपहर 12 से रात आठ बजे तक निहारी जा सकती है।
पुरस्कृत हो चुकी है बिग बैंग
गैलरी में सबसे ज्यादा आकर्षित करती है विजेंदर की पेंटिंग बिग बैंग। इसे नईदिल्ली में आल इंडिया फाइन आर्ट्स एंड क्राफ्ट्स सोसायटी (आईफैक्स) द्वारा 5 से 30 मार्च तक आयोजित प्रदर्शनी में पहला पुरस्कार हासिल हुआ है। वस्तुत यह उस विचार पर आधारित है जब विज्ञान की दुनिया में एक घटना हुई थी जिसमें छोटे से पार्टिकल्स के टकराने से बड़ा भारी विस्फोट हुआ था। इसे बिग बैंग नाम दिया गया था। एक कलाकार किसी घटना को कितने मार्मिक और अलहदा निगाह से देखता है इसकी खूबसूरत मिसाल है बिग बैंग। इसी को आधार बनाकर विजेंदर ने दो गतिमय चेहरे बनाएं जो एकदूसरे का चुंबन ले रहे हैं। इनमें आवेग है, एक तड़प है, ये चेहरे एक गीले कपड़े से लिपटे हैं (जाहिर है यह एक भीगे अहसास का प्रतीक) और दुनिया का सबसे कोमल स्पर्श है है जिससे दूसरी तमाम बातें किसी विस्फोट से कम नहीं होतीं। उसे दुनिया के सबसे सुंदर फूल खिलते हैं, झरने खिलखिला उठते हैं और दूध की पवित्र नदी बहती है और यह धरती किलकारियो से गूंज उठती है। इसमें स्त्री का चेहरा और उसके हिस्से का कैनवास रोशनी से भरा है यानी चुंबन से स्त्री की दुनिया एक पवित्र रोशनी से भर गई है। जाहिर है यह अपनी कल्पना, कान्सेप्ट और रूपाकार के कारण अद्भत है। इस पेंटिंग को पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम आजाद खूब सराहा था।

रूप और रंगों में खिलता राग विजेंदर शर्मा की चित्रकारी चैनदारी की चित्रकारी है। यानी इसमें एक इत्मीनान है। रंगों और रेखाअों के बरताव में। विषय के साथ लगाव में। अपनी कल्पना को किसी बिम्ब या प्रतीक में ढालने में। यानी वे यदि कोई पीठ बना रहे हैं या गेंदे का फूल बना रहे हैं तो महसूस होता है कि कैनवास और चित्रकार के बीच एक रागात्मक संबंध बन रहा है। जैसे रंग को लगाने में चित्रकार एक आलाप ले रहा है। कोई जल्दबाजी नहीं, बल्कि रचने का धैर्य। लगता है जैसे उनके रूप और रंग में कोई राग खिल रहा है। नईदुनिया से बातचीत करते हुए वे कहते हैं कि मैं कैनवास चित्रित करते हुए संगीत सुनता हूं। इससे एक लय बनती है, ध्यान लगता है। और मैं फिर सब भूलकर रंगों में खो जाता हूं। तब कोई हड़बड़ी नहीं होती। बस मैं और मेरा कैनवास होता है।
वे कहते है बाहरी जीवन के साथ कलाकार की एक कलात्मक आंतरिक यात्रा जारी रहती है। वह बाहरी और भीतरी दुनिया से प्रभावित होकर अपने रूपाकार हासिल करता है। लेकिन खाली कैनवास के सामने मैं बिलकुल खाली होकर जाता हूं। मैं खाली कैनवास को निहारता हूं और उसमें फिर धीरे-धीरे मेरी कल्पना आकर लेती है। इसमें जीवन का भ्रम और यथार्थ एक साथ आते हैं। हमारे यहां तो जीवन को मिथ्या कहा गया है, माया कहा गया है। तो मैं जीवन के यथार्थ और भ्रम को चित्रित करने की कोशिश करता हूं।
मेरा ऐसा मानना है कि यदि ईश्वर ने यह दुनिया रचकर माया पैदा की है तो एक कलाकार भी माया चित्रित कर सकता है क्योंकि एक कलाकार भी आखिर ईश्वर का ही तो अंश है। लिहाजा मेरी चित्रकारी में आपको यथार्थ के साथ इस माया या भ्रम का भान होगा। अमूर्त और आकृतिमूलक चित्रकारी को लेकर होने वाली बहसों पर वे कहते हैं कि यह एक नकली बहस है। सब अपने अपने माध्यमों और शैली में चित्रकारी करते हैं। ये कुछ लोग हैं जो व्यर्थ की बहस कर अपना मजमा लगाना चाहते हैं। मैंने खुद अमूर्त शैली में काम किया है। और मैं मार्क राथको और सोहन कादरी जैसे अमूर्च चित्रकारों के काम को बेहद पसंद करता हूं। इन कलाकारों की एक बेहद साफ आंतरिक दृष्टि है, अपने माध्यम पर असंदिग्ध नियंत्रण है। और है एक स्थायित्व। इसीलिए ये जो बहस है वह नकली लड़ाई है।
उनका मानना है कि फिगरेटिव पेंटिंग करने में साधना की जरूरत होती है। डिटेल्स पर काम करना बहुत धैर्य मांगता है। कलात्मक कौशल चाहिए। मैने एक पेटिंग की थी सिक्रेट आफ लाइफ। ये इतनी रिअलि्स्टिक थी कि डॉ. कलाम ने इसमें बनी नॉट को खोलने की कोशिश की थी और चकित रह गए थे। पेंटिंग में यह कौशल हासिल करना आसानी से संभव नहीं है।

Friday, April 3, 2009

वे दिन पर कुछ बे-मंशाई नोट्स



आज निर्मल-दिवस है। हरा कोना उन्हें याद करते हुए यहां युवा कवि और अनुवादक सुशोभित सक्तावत के निर्मल वर्मा के उपन्यास वे दिन पर कुछ बेमंशाई नोट्स प्रस्तुत कर रहा है। हरा कोना हमेशा की तरह सुशोभित के प्रति आभार व्यक्त करता है।


1.
वे दिन' में इतना भर किया गया है कि कोई एक ऐसा स्‍पेस सजेस्‍ट किया जा सके, जिसमें अलग-अलग किरदारों के समांतर स्‍पेस 'को-एग्जिस्‍ट' करते हों. इस नॉवल का मूल कॉन्‍सेप्‍ट इसके ही एक वाक्‍य में छिपा है- 'एक ख़ास सीमा के बाद कोई किसी की मदद नहीं कर सकता, और तब, हर मदद कमतर होती है.' तब हम प्राग की धुंध में देखते हैं उन किरदारों को, जो एक-दूसरे के प्रति पर्याप्‍त सदाशय, संवेदनशील और जिम्‍मेदार होने के बावजूद एक-दूसरे के लिए कुछ नहीं कर पाते.

2.
यहां इंदी है, जो अपने मुल्‍क़ से हज़ारों मील दूर एक छात्र की हैसियत से प्राग आया है, और वो यह जानता है कि 'एक उम्र के बाद तुम घर लौटकर नहीं जा सकते.' फिर टी.टी. है, एक और अप्रवासी, एक बर्मी. वह अपने मुल्‍क़ को चाहता है, लेकिन वहां लौटने की उसकी भी अब इच्‍छा नहीं. रायना वियना से प्राग घूमने आई है, लेकिन लड़ाई के दिनों और टूटे रिश्‍तों की छाया लगातार उसके अस्तित्‍व पर मंडलाती रहती है. (कुछ चीज़ें हैं, जो लड़ाई के बाद मर जाया करती हैं, और वह उनमें से एक है!) वह अपने पति से अलग है और उसका एक बेटा है. निश्चित ही, वह प्राग में 'गंभीर होने' नहीं आई है, दरअस्‍ल वो एक 'सिस्‍टम' (शायद कोलोन का कॉन्‍सेंट्रेशन कैम्‍प या वियना का घर!) से बाहर निकलकर आती है, और अब उसमें जीवन को लेकर एक तरह का बेपरवाह बिखराव है. वो एक साथ 'फ़्लर्ट' और 'सिनिक' है, एक साथ 'ग्रेव' और 'विविड' (विविड! विविड!!), एक साथ बसंत और पतझर, और चूंकि उसे हासिल नहीं किया जा सकता, इसलिए उसे चाहना एक सुसाइडल डायलेमा ही हो सकता है). इंदी रायना को चाहता है, लेकिन ज़ाहिर है कि वह उसे कभी भी एक और 'सिस्‍टम' में दाखिल होने के लिए राज़ी नहीं कर सकता. यहां पर इन दोनों की दुनियाएं (इन दोनों के 'स्‍पेस'!) ट्रैजिक रूप से इंटरसेक्‍ट कर जाती हैं. फ्रांज़ फिल्‍में बनाता है, लेकिन यहां प्राग में उसका काम कोई समझ नहीं पाता. वह अपने देश जर्मनी लौट जाना चाहता है. मारिया उसके साथ रहती है, लेकिन वह उसके साथ बर्लिन नहीं जा सकती, क्‍योंकि वे दोनों विवाहित नहीं हैं, और ग़ैर-विवाहितों को साथ जाने का वीज़ा नहीं मिलता. ये तमाम किरदार अपनी-अपनी 'जगहों' से बाहर हैं और इन सभी में एक तरह का सर्द उचाटपन है. फिर भी ये किरदार अंतत: अपनी पीड़ाओं को स्‍वीकारते हैं, और इसके लिए वे किसी को दोषी भी नहीं ठहराते, जो उन्‍हें एक शहादत का-सा ग्रेंजर देता है. ये निर्मल वर्मा के वे ही किरदार हैं, जिन्‍हें मदन सोनी ने 'कथा के एकांत में कूटबद्ध देह' लिखा था, जिनके लिए निर्मल वर्मा अपनी कथा के ज़रिये एक ऐसा 'अवकाश' रचते हैं, जहां उनके 'अतीत और यातनाओं के विचित्र संदेश' ग्रहण किए जा सकें, जहां उनकी 'गुप्‍त गवाहियों का गवाह' हुआ जा सके.

3.
'वे दिन' की तमाम क्राफ़्टमैनशिप इन किरदारों की अपने स्‍पेस में छटपटाहट और समांतर स्‍पेसों के पारस्‍परिक संवाद की असंभवता को लक्ष्‍य करने में है, जिसे निर्मल वर्मा ने प्राग के कासल, गिरजों, मॉनेस्‍ट्री, वल्‍तावा के पुलों और एम्‍बैंकमेंट के दुहराते हुए, मेलंकलिक मोनोटॅनी-सी गढ़ते डिटेल्‍स के साथ बुना है. हमेशा की तरह निर्मल वर्मा यहां तंद्रिल परिवेश रचते हैं- धुंध से ढंका हुआ, और स्‍वप्निल, जो आपको अवसन्‍न और शिथिल करता है, मेडिटेटिव बनाता है और एक जागे हुए अवसाद में झोंकता है. आप इस किताब को राहत के साथ नहीं पढ़ सकते, (आप उस गाढ़े 'आम्बियांस'- इतने गाढ़े ('डार्क एंड डीप!') कि जहां परिवेश पात्रों को लील जाए!- में 'ईज़ के साथ सांसें नहीं ले सकते), या कह लें यहां एक 'टीसता हुआ सुख' है, होनेभर का एक सूना-सफ़ेद सुख... शायद इसे ही मदन सोनी ने 'एक समझ, एक वापसी और एक पछतावा' कहा है. निर्मल वर्मा की डिस्क्रिप्टिव पॉवर आपको अपने भीतर की बेचैनी और अपनी अदम्‍य चाहना के परिप्रेक्ष्‍य में खोज निकालती है. आप अब पहले से ज्‍़यादा उदास और रिफ़्लेक्टिव, लेकिन पहले से ज्‍़यादा होशमंद, सजग और जिंदगी की विडंबनाओं के प्रति अधिक संवेदनशील हैं... अब आप छोटे सुखों के बरक्‍़स बड़े सुखों और प्रत्‍याशाओं के बरक्‍़स छलनाओं और हालात-किरदारों की सीमाओं को समझते हैं और आखिरकार एक ठंडी नि:श्‍वास छोड़कर रह जाते हैं- 'वे दिन' के बर्फ के फ़ाहों और ठंडे उजालों के ब्‍यौरों के साथ आपकी फितरत का यह सर्दीलापन बारीक़ी के साथ हर सफ़हे पर सजेस्‍ट होता है.

4.
इस नॉवल में भय, अंदेशे, तक़लीफ़, आकांक्षा और सुख की प्रत्‍याशा के इतने शेड्स हैं, कि वह अपने आपमें एक अलग कथा हो सकती है- 'प्रत्‍यक्ष ऐंद्रिय बोध' के स्‍तर पर एक समांतर कथानक. यहां 'जीने का नंगा-बनैला आतंक' है, प्रभाव की तीव्रता के साथ नॉवल के पन्‍नों पर अंकित. जो लोग मौत की शर्त पर एक साथ होते हैं, वे बाद में, जीवन की शर्तों पर उस तरह से साथ नहीं हो सकते... 'वे दिन' में लड़ाई के दिनों की छाया है और लड़ाई ख़त्‍म होने के बाद की मुर्दा ख़ामोशी भी. लड़ाई के आतंक से ज्‍़यादा लड़ाई ख़त्‍म होने के बाद का वह सालता हुआ-सीलनभरा सन्‍नाटा इस नॉवल के किरदारों को ज्‍़यादा तोड़ता है (बक़ौल ब्रेख्‍़त- 'उनकी ख़ामोशी ने मिटा डाला है वह सब कुछ/जो उनकी लड़ाई ने बचा छोड़ा था'). लेकिन, फिर भी, लड़ाई के दिनों का जिक्र यहां एक 'ड्रमैटिक डिवाइसभर' है... नॉवल का एक्‍सेंट उस पर नहीं गिरता, नॉवल का एक्‍सेंट कोल्‍डवार या पीसटाइम पर भी नहीं गिरता (जबके प्राग पर 'बिहाइंड दि आइरन कर्टेन' का लाल लेबल चस्‍पा था!)... यह नॉवल कुछ व्‍यक्तियों के बीच के उस अंधेरे को उभारता है, जो वहां है, जिससे इनकार नहीं किया जा सकता, और एक ही 'स्‍पेस' में होने के बावजूद, जिसे जोड़कर चिपकाया नहीं जा सकता. शायद इसीलिए इस नॉवल के किरदार 'इट वुडंट हेल्‍प' और 'बिकॉज़ दैन इट इज़ जस्‍ट मिज़री' जैसे संवाद दुहराते हैं... किसी ऐसी चीज़ पर 'विश्‍वास' करने की बात करते हैं, जो नहीं है, और यह सोचने की 'कोशिश' करते हैं, कि सब कुछ पहले जैसा ही है. तब 'वे दिन' रागात्‍मकता के परिप्रेक्ष्‍य में मानव-नियति का त्रासद आख्‍यान हो जाता है.

5.
पहली दफ़े पढ़ने पर मुझे 'वे दिन' में कुछ अपरिभाषेय-सा 'मिसिंग' लगा था, अब दूसरी रीडिंग में मुझे समझ आया है कि 'मिसिंग' नॉवल में नहीं, कहीं और है, और 'वे दिन' महज़ उस 'मिसिंग' को व्‍यक्‍त करने की कोशिश करता है. मेरे लिए फिर से 'वे दिन' के पन्‍ने पलटना वैसा ही था, जैसे किसी परिचित देह, या किसी पहचानी जगह पर लौटना. और तब, आपको पता चलता है कि कुछ हिस्‍से ऐसे थे, जो पहले आपके स्‍पर्श से छूट गए थे, और वहाँ आपकी प्रतीक्षा में अनमने-से पड़े थे... कि आप आएँ, और उन लम्‍हों को, उनके नए अर्थों को खोलकर देखें, उनकी बुझी हुई धूप सहलाएँ, और उनकी तक़लीफ़ों को फिर से झेलें. यह ठीक वैसा ही है, जैसे नॉवल में रायना एक बार फिर प्राग देखने आती है, और पाती है कि लोरेंत्‍तो गिरजे का गु़म्‍बद और प्राग के पुल, वे ही हैं, लेकिन फिर भी वे वही नहीं हैं... उनमें अब कुछ ऐसा है, जिसमें विएना की मृत हवा, और कोलोन के कैम्‍प पीछे छूट गए हैं, और अब केवल प्रेतछायाओं-सी उनकी स्‍मृति किसी पतली परछाईं की तरह बची रह गई हैं, और तब, आपको पता चलता है कि उद्घाटित जगहों में भी बहुत कुछ अधखुला छूट जाया करता है, जिन्‍हें उघाड़ने के लिए आपको लौटना पड़ता है. यह लौटना- स्‍मृति और मृत समय में यह वापसी- आगे चलने से कम क़ीमती नहीं होता, जब आप ख़ुद को एक और परत खोलकर फिर से देखते हैं, और पहले से ज्‍़यादा पहचानते हैं. 'वे दिन' में लौटने की यातनामय प्रक्रिया का ये ही नॉस्‍टेल्जिक लेकिन दिलक़श इलहाम है!

Thursday, April 2, 2009

आकार लेते शहरी दबाव और प्रकृति के उपहार




वहां हर चीज सांस ले रही थी। धीमे-धीमे। अपनी ही लय में। पेड़ों पर अपने चमकीले पंख फैलाए धूप खिली रहती थी, उन पर ठहरते और उड़ते पक्षी। खिलते-झरते फूल। पत्तियां, पत्तियों को हौले-हौले उड़ाती हवाएं। और इन सबके बीच सांस लेते कई तरह के कीट-पतंगे। इतना सुंदर प्राकृतिक वातावरण कि मैंने इसे ही अपने मूर्तिशिल्प का आधार बनाया। मैं जिस पर्यावरण में मंत्रमुग्ध थी, मैंने उसे रचने की एक छोटी-सी कोशिश की। यह कीट-पतंगों का एक घरौंदा था। इसमें झरती पत्तियां थीं, अपनी लय में सरकते कीट-पतंगे थे। एक ऐसा समूचा संसार जो हमारे होने को एक मायने देता है। कुछ इसी तरह की भावनाएं व्यक्त कीं युवा शिल्पकार मुदिता भंडारी ने। वे एक तरफ शहरी दबाव तो दूसरी तरफ प्रकति के उपहार को अपनी कल्पना से जीवंत आकार दे रही हैं।
वे हाल ही में तरूमित्रा (पटना) में ललित कला अकादमी, नईदिल्ली द्वारा आयोजित एक नेशनल कैम्प में शिरकत करके 31 मार्च को इंदौर लौटी हैं। यह कैम्प 20 से 29 मार्च तक था। तरूमित्रा पटना से बाहर एक खूबसूरत पर्यावरणीय संरक्षित इलाका है। मुदिता ने अपना यह मूर्तिशिल्प यहां तीन-चार दिन में बनाया, फिर इस शिल्प को पकाने के लिए भट्टी बनाई और धीमी आंच में अपनी इस कलात्मकता को पक्का लेकिन स्पंदित आकार दिया। अपने घर बातचीत करते हुए मुदिता बताती हैं कि तरुमित्रा ने इतना अच्छा माहौल मिला, इसकी कल्पना नहीं की थी। घना जंगल, चारों तरफ हरियाली और तालाब, जीव-जंतु। हमने वहां बनी झोपडि़यों में काम किया। यहां इतनी संवेदनशीलता है कि झरती पत्तियों तक को नहीं बुहारा जाता क्योंकि इन पत्तियों के नीचे धडकता है कीड़े-मकोड़ों का एक पूरा संसार। ये पत्तियां सूखते हुए, खत्म होते हुए यहीं के लिए खाद बनकर फिर किसी पेड़ से फूटकर हरी होकर चमकने लगती हैं। हालांकि मुदिता पिछले कुछ सालों से शहरी अनुभवों को लेकर लगातार मूर्तिशिल्प बना रही हैं। वे कहती हैं मैं शहर की आपधापी, तनाव और कई तरह के दबावों को गहरे महसूस करती हूं। शहर में कई तरह की स्पेसेस को अपने मूर्तिशिल्प में आकार देती हूं। इसीलिए उनके मूर्तिशिल्प में शहरों के शोर-शराबे के बीच साइलेंट कार्नर्स मिल जाएंगे तो सड़कों का धुमावदार और उलझा हुआ जंगल मिल जाएगा। वे इन आकारों के साथ सिकुड़ते जीवन और खुले आसमान की चाह को खूबसूरती से आकार देती हैं। नो वेयर टु गो मूर्तिशिल्प तो इतना मार्मिक है जिसमें उन्होंने ऐसी स्पेस क्रिएट की है कि लोगों का चलना दुभर हो गया है और ऊपर आदमी को लटका दिखाया गया है। इस तरह वे एक शहरी विडम्बना को खूबी से अभिव्यक्त कर देती हैं। यही नहीं, उनकी वाटर सिरीज में पानी के संस्मरण और स्मृतियां उनकी लय, गति और बिम्ब के साथ जीवंत मिल जाएंगे।
मुदिता ने एमएस यूनिवर्सिटी बड़ौदा से कला की शिक्षा हासिल की और वहीं 2001 से लेकर 2004 तक पढ़ाया भी। वे कहती हैं मैंने पाया की पढ़ाते हुए आप ज्यादा सीखते हैं और युवतर छात्रों से इंटरएक्शन करते हुए आपका दृष्टिकोण भी कुछ साफ होता है। आप एक ताजगी से अपने काम को नए सिरे से जानने-समझने लगते हैं। उन्होंने अपनी शुरूआती कला शिक्षा शांतिनिकेतन में ली, लिहाजा उनके मूर्तिशिल्प में एक रोमेंटिसिज्म और प्रकृति के उदात्त बिम्बों की झलक भी देखी जा सकती है। इसीलिए उनके मूर्तिशिल्प में घटते-बढ़ते चंद्रमा से लेकर पेड़ों को निहारा जा सकता है। वे सिरेमिक माध्यम में सिद्धहस्त हैं।
मुदिता दो एकल प्रदर्शनियां कर चुकी हैं और कुछ समूह प्रदर्शनियों में हिस्सेदारी। वे कई प्रतिष्ठित कैम्प में शामिल हो चुकी हैं और उन्हें कुछ स्कॉलरशिप्स भी हासिल हैं। वे दिल्ली में दिल्ली ब्ल्यू पॉटरी ट्रस्ट और संस्कृति फाउंडेशन द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनी में शिरकत कर चुकी हैं। यह प्रदर्शनी दिल्ली की विजुअल आर्ट
गैलरी, इंडिया हेबीटाट सेंटर में 22 से 27 फरवरी-2009 में लग चुकी हैं। ध्रुव मिस्त्री और हिम्मत शाह जैसे प्रतिष्ठित शिल्पकारों से प्रभावित मुदिता कहती हैं कि समय समय पर मेरे मूर्तिशिल्पों का विषय बदलता रहता है लेकिन पिछले कुछ सालों से मैं शहरी अनुभवों के आधार पर ही मूर्तिशिल्प ज्यादा कर रही हूं। उनमें जगह, समय और उससे जुड़ी भावनाएं अभिव्यक्त होती रहती हैं।