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Monday, June 1, 2009

शब्द का संग छूटा तो रंगों ने थाम लिया


वे कविता लिखती हैं लेकिन मन इन दिनों पेंटिंग्स में रमा हुआ है। शब्द का संग छूटता लग रहा है। ऐसे में रंगों ने उनका हाथ थाम लिया है। वे उम्र के उस पड़ाव पर हैं जहां अकसर लोग थककर खामोश हो जाते हैं लेकिन वे रंगों के साथ हमकदम हैं। बिना थके, बिना रूके वे लगातार चित्र बना रही हैं। ये हैं कवयित्री और चित्रकार चम्पा वैद। वे 78 पार हैं लेकिन रंगों में उनकी रचनात्मकता का यौवन झलकता है। हैरतअंगेज यह है कि 77 की उम्र में उन्होंने पेंटिंग्स बनाना शुरू किया। वे अपने 21 चित्रों के साथ पिछले दिनों देवलालीकर कला वीथिका, इंदौर में कला और कविता प्रेमियों से रूबरू थीं। उन्होंने अपनी कविताएं भी पढीं। फ्रांस आलियांस और फाइन आर्ट कॉलेज का यह मिला जुला कार्यक्रम था।
77 उम्र में चित्रकारी करने के सवाल पर श्रीमती वैद कहती हैं-मुझे खुद नहीं पता कि यह चमत्कार कैसे घटित हुआ। मैं बीमार थी और कविता भी नहीं लिख पा रही थी। बेचैनी थी। एक दिन अचानक पेंसिल उठाई और चित्र बनाया। वह बन गया। बस कहीं से सोता फूट निकला और मैं बहती चली गई। फिर एकाएक रंग आ गए, कागज आ गए, हाथों ने कलम की जगह कूची थाम ली। और इस तरह चित्र बनते चले गए। ऐसा लगा कि मन के भीतर कहीं बहुत गहरे कुछ भरा पड़ा था, रूका पड़ा था। दिन थोड़े बचे हैं और बहुत सारा अभिव्यक्त करना है। तो जो भीतर भरा पड़ा था, उसे एकाएक रास्ता मिल गया, रंगों के जरिये, आकारों के जरिये।
इसके बाद वे रूकी नहीं और यही कारण है कि उनके चित्रों की दो समूह प्रदर्शनियां हो चुकी हैं और यह दूसरी एकल प्रदर्शनी थी-स्क्रिप्ट्स। उनकी तीसरी एकल नुमाइश डान आफ द डस्क शीर्षक से तीन जून से इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित है जिनमें उनके 25 काम प्रदर्शित होंगे। उनके इन चित्रों का चयन किया है कला समीक्षक वर्षा दास और पत्रकार अोम थानवी ने। इंदौर की देवलालीकर कला वीथिका में उनके कैनवास और पेपर पर एक्रिलिक से बने चित्र हुए। वे कहती हैं कि मुझे पेंटिंग्स से गहरा लगाव था लेकिन सोचा नहीं था कि चित्र भी बनाने लगूंगी। महसूस होता है जैसी सरस्वती ही यह सब संभव कर रही हैं। अपर्णा कौर, माधवी पारेख और अर्पिता सिंह की चित्रकारी को पसंद करने वाली श्रीमती वैद कहती हैं कि मैं खुश हूं कि मेरे सपनों में रंग और इमेजेस आते हैं और मैं चित्र बना रही हूं लगातार। खुशी यह भी है कि कला प्रेमी और कला पारखी कहते हैं कि इन पर किसी का प्रभाव भी नहीं। लेकिन दुःख इस बात का है कि शब्दों का साथ छूटता जा रहा है। मैं कविता नहीं लिख पा रही। लिखती भी हूं तो वह रचनात्मक संतोष नहीं मिलता जो रंगों के साथ होने से मिल रहा है। मैं जिस इंटेसिटी से कविताएं लिखती थी वह अब नहीं हो रहा है। अब तो मन रंगों में डूबा है।

Wednesday, April 8, 2009

पलाश-सेमल के फूल और रंगात्मक प्रतिरोध






उनके चित्रों में वे सेमल और पलाश के चटख फूल रूपायित हो रहे हैं जो उन्होंने अपने बचपन में कभी गांव में देखे थे। ये फूल उनके कैनवास पर बोल्ड स्ट्रोक्स और गहरे रंगों में खिलकर लोगों को आकर्षित कर रहे हैं। यही नहीं उन्होंने बांग्ला लेखिका तस्लीमा नसरीन के पक्ष में अपने रंगात्मक प्रतिरोध को अभिव्यक्ति दी है। अपने गहरे रंगों के कैनवास लेकर मनोज कचंगल फिर प्रस्तुत हैं। फाइन आर्ट कॉलेज इंदौर के स्टूडेंट रहे युवा चित्रकार मनोज के नए चित्रों की एकल नुमाइश चैन्नई में 11 से 17 अप्रैल तक आयोजित होगी। अप्पाराव गैलरीज में होने वाली इस प्रदर्शनी में एक्रिलिक में बनाए उनके 14 काम प्रदर्शित होंगे। उल्लेखनीय है कि उन पर एक बड़ी किताब डोअर्स आफ परसेप्शन भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से छपकर आई है। इसका संपादन देश की ख्यात कला समीक्षक रत्नोत्तमा सेनगुप्ता ने किया है। इसी शीर्षक से उन पर एक डाक्युमेंट्री फिल्म भी बन चुकी है जिसे प्रेवश भारद्वाज ने निर्दैशित किया है और विषय विशेषज्ञ के रूप में ख्यात कवि-कला समीक्षक विनोद भारद्वाज ने योग दिया है।
मनोज ने फाइन आर्ट कॉलेज इंदौर से 2001 में बीएफ किया और 2003 में एमएफए किया। वे कुछ सालों तक इंदौर में ही चित्रकारी करते रहे और पिछले पांच-छह सालों से नोएडा में बस गए हैं। वे पहले क्षैतिज ब्रश स्ट्रोक्स लगाकर अपने कैनवास पर सुंदर भू-दृश्य रचते थे। अक्सर हलके रंगों को पतला करते हुए वे परत-दर-परत इस्तेमाल करते थे। यानी एक्रिलिक रंगों को वे लगभग वाटर कलर्स की तरह वापरते थे और एक के ऊपर एक सतहें रचते हुए उन्हें टोनल इफेक्ट्स देते थे। कैनवास के नीचे की सतह को अक्सर गहरे रंगों और फिर हल्के रंगों के साथ ऊपर बढ़ते हुए जमीन-आसमान एक कर देते हैं। और इस तरह तैयार होते थे उनके खूबसूरत लैंडस्केप। अब उनमें बदलाव आया है और अब रंगों की क्षैतिज सतह पर उनके बोल्ड स्ट्रोक्स या रंगों के बड़े बड़े पैचेस दिखाई देते हैं।
वे कहते हैं कि बचपन में मुझे पलाश के चटख रंग खींचते थे। मैंने उन्हें देखते कभी अघाया नहीं। वे मेरे अवचेतन में कहीं गहरे बसे हुए थे। अब वही पलाश और सेमल के फूल मेरे कैनवास पर कलानुभव में रूपांतरित हो रहे हैं। इंदौर में चित्रकारी की बारिकियां सीखते हुए मैंने मांडू और आसपास की जगहों के लैंडस्केप किए हैं और प्रकृति मुझे मोहित करती है। मांडू को लेकर तो मैंने एक पूरी सिरीज ही की थी- सिम्फनी आफ रूइंस। इसे लेकर मैंने बनारस में एकल नुमाइश की थी जिसे सराहा गया था। इसके बाद मैंने रंगों को धीरे-धीरे जानना शुरू किया, उनकी एकदूसरे के साथ संगति को समझा और फिर मैंने एक और सिरीज की-सिम्फनी आफ कलर्स। तो चटख रंगों की इस यात्रा में मेरा यह पड़ाव है जिसमें मैंने पूरी ताकत के साथ लाल-नीले-पीले रंगों का कल्पनाशील इस्तेमाल किया है। मैं वान गाग के रंगों और रंग लगाने के उनके तरीकों से बेहत प्रभावित रहा हूं। मैंने अपने नए चित्रों में रंगों को लगाने का नया ढंग सीखा है। उन्होंने तो बांग्ला लेखिका तस्लीमा नसरीन को भारत में पनाह नहीं देने के विरोध में भी पेंटिग की है। वे कहते हैं इस घटना से मैं इतना विचलित था कि मैंने लाल रंगों के बोल्ड स्ट्रोक्स से इसका रंगात्मक प्रतिरोध किया। मेरे ये चित्र इस नई प्रदर्शनी में शामिल हैं।
रजा पुरस्कार प्राप्त मनोज कहते हैं कि मुझ पर किताब छपना और डाक्युमेंट्री फिल्म बनना एक तरह से ईश्वर की कृपा है। इससे मुझे हिम्मत मिली है कि मैं और बेहतर काम कर सकूं। डाक्युमेंट्री की कुछ शूटिंग इंदौर के फाइन आर्ट कॉलेज, छावनी, रेलवे स्टेशन, मांडू में हुई है। कुछ हिस्सा दिल्ली और कोलकाता की आर्ट गैलरीज में शूट किया गया है जहां मेरी एक्जीबिशन थी। इसके अलावा मेरे स्टुडियो में मुझे काम करते हुए और बातचीत करते हुए दिखाया गया है।
किताब डोअर्स आफ परसेप्शन में मनोज का इंटरव्यू, देश के नामचीन समीक्षकों की समीक्षाएं, उनके बचपन से लेकर अब तक के चुनिंदा फोटो, उनके शुरूआती से लेकर नए काम शामिल किए गए हैं। इसमें उनकी डाक्युमेंट्री के बार में एक संक्षिप्त राइट अप है।
उनका मानना है कि मंदी आने से कलाकारों को कोई फर्क नहीं पड़ा। फर्क पड़ा है तो उन गैलरियों को जो मुनाफा कमाने के लिए धड़ाधड़ खुल गई थीं। फर्क पड़ा है तो उन कलाकारों को जो सिर्फ पैसा कमाने के लिए कला के इलाके में आए थे। जो अच्छे कलाकार हैं वे पहले भी बिक रहे थे और मंदी के इस दौर में भी बिक रहे हैं। लेकिन मंदी से अब कला बाजार भी थोड़ा साफ होगा और यह नए सिरे से उभरेगा। और यह भी कि अब असल कलाकार ही टिक सकेंगे।
इमेजेस
१. मनोज की किताब का कवर
२. मनोज का एक पुराना लैंडस्केप
३. मनोज का नया लैंडस्केप
४. मनोज का एक और नया लैंडस्केप
५. मनोज, गैरी बेनेट के साथ जिन्होंने एक आक्शन में मनोज की पेंटिंग खरीदी थी।

Monday, October 6, 2008

कोंपलों की उदास आँखों में आँसुओं की नमी


अपनी कोई महीन बात को कहने के लिए गुलज़ार अक्सर कुदरत का कोई हसीन दृश्य चुनते हैं। कोई दिलकश दृश्य खींचते हैं, बनाते हैं। कोई एक दृश्य जिसमें पहाड़ है, कोहरा है, दरिया है या पेड़ या फिर धुँध में लिपटा कोई ख़ूबसूरत नजारा। उनकी नज्म किसी बिम्ब या दृश्य से शुरू होती है। इसमें रमने का भाव है। मुग्ध होने का भाव है, लेकिन यह सब शुरुआत में है। बाद की किन्हीं पंक्तियों में स्मृति से भीगी कोई मानीखेज़ बात हौले से आकर उस दृश्य में एक दूसरी जान फूँक देती है। यह बहुत सहज-सरल ढंग से होता है।

बाद की पंक्तियों में आई कोई बात उस दृश्य से हमारा एक नया संबंध बनाती है। इसमें उनकी संवेदना थरथराती है। हमारी संवेदनाओं को थरथराती हुई। और हम एक बार फिर अपने देखे हुए किसी दृश्य या बिम्ब से नए सिरे से परिचित होते हैं। यह परिचय ज्यादा आत्मीय होता है। ज्यादा गीला। हमें भी भीतर से गीला करता हुआ। हमारी ही अपनी नमी से फिर से नए ढंग से पहचान करता हुआ। यह लगभग चुपचाप ढंग से होता है। ओस के बेआवाज गिरने की तरह, हौले से तितली के बैठने की तरह, आँसू के चुपचाप टपकने की तरह। मौसम उनकी ऐसी ही नज्म है। इसकी शुरुआती पाँच पंक्तियाँ ये हैं जो एक दृश्य खींचती हैं-

बर्फ पिघलेगी जब पहाड़ों से

और वादी से कोहरा सिमटेगा

बीज अँगड़ाई लेके जागेंगे

अपनी अलसाई आँखें खोलेंगे

सब्ज़ा बह निकलेगा ढलानों पर।

यह अतीत में देखे गए दृश्यों का भविष्य में फिर से घटित होने का एक कवियोचित पूर्वानुमान है। यह किसी दृश्य पर फिसलती लेकिन एक सचेत निगाह है कि एक ठंडे और महीनों कोहरे से लिपटे होने के बाद मौसम के करवट लेने का एक नैसर्गिक चक्र है। लगभग सूचनात्मक ढंग से लेकिन इस सूचना में एक खास गुलजारीय अंदाज है। अंदाज देखिए कि बीज अँगड़ाई लेके जागेंगे, अपनी अलसाई आँखें खोलेंगे, सब्ज़ा बह निकलेगा ढलानों पर। इसमें अँगड़ाई लेकर जागने का एक अंदाज है। अलसाई आँखें खोलने की बारीक सूचना है।

और फिर पूरे दृश्य पर एक मखमली, ताजा-ताजा सब्ज़ा है। वह भी बहता हुआ। बहता हुआ, वह भी ढलानों से। यानी एक गतिमान दृश्य है जो अपनी ताजगी, हरेपन और कोमल रोशनी में पूरी तरह खुलता है। विस्तारित होता हुआ। ढलान पर। लयात्मक। तो यह एक दृश्य है। अपने टटकेपन में मन मोहता हुआ। लेकिन रुकिए। इसके बाद जो पंक्तियाँ शुरू होती हैं वे बताती हैं कि ढलानों से बहते इस सब्जे़ में आप भी बह मत जाइए। खो मत जाइए। इन बहारों को गौर से देखने की बात है। गुलज़ार फरमाते हैं-

गौर से देखना बहारों में

पिछले मौसम के भी निशाँ होंगे।

यह एक सचेत निगाह है। होशमंद, जो कहती है कि उन निशाँ को देखो जो पिछले मौसम के हैं। और ये निशाँ क्या हैं? ये गुलज़ार बताते हैं-अपनी उसी नाजुक निगाह से।

कोंपलों की उदास आँखों में

आँसुओं की नमी बची होगी।

ये किसी दुःख को, किसी आँसू को देखने की खास निगाह है। अमूमन कोपलों में ताजापन, हरेपन की कोई उम्मीद, आशा की कोई किरण देखी जाती है। यहाँ इसके ठीक उलट है। यहाँ कोपलों की आँख है। ये आँखें उदास हैं। आँखों में आँसू हैं। और ये पिछले मौसम के निशाँ हैं।

यानी पिछले मौसम में कुछ ऐसा हुआ है जिसके कारण इस करवट लेते और नए होते मौसम में भी बीते की नमी, आँसू की नमी बची रह गई है। जाहिर है इसमें दृश्य को देखने का एक सिलसिला है।

एक दृश्य को माज़ी में देखे गए दृश्य से जोड़ना है। यह जोड़ना संवेदना से जोड़ना भी है। माज़ी से जोड़ना भी है। मानी से जोड़ना भी है। इस तरह गुलज़ार कुदरत के किसी दृश्य को सिर्फ दृश्यभर की तरह नहीं देखते। वे अपनी निगाह से उसे एक मानी देते हैं। तब यह देखा गया या देखे जाने वाला या देखा जा रहा दृश्य ज्यादा मानीखेज़ हो जाता है। इसलिए गुलज़ार दृश्य को मानी देते हैं। ये मानी हमारे जीवन को मानीखेज़ बनाते हैं। और मौसम में छिपे पुराने मौसम के निशाँ से हमारी नई पहचान कराते हैं। ये ज्यादा आत्मीय है। इस तरह गुलज़ार के इस मौसम को देखते-महसूस करते हमें अपने ही भीतर के मौसम की नमी का अहसास होता है।यही अहसास हमें अधिक मानवीय बनाता है। यानी जो हो चुका उसकी एक भीगी-सी याद बनी रहती है। नए को देखने में पुराना भी छिपा रहता है। जो नए को ज्यादा नया बनाता है। यही हमारे जीवन का भीगा मौसम है। बाहर का उतना नहीं, जितना भीतर का।

आओ इस मौसम को फिर निहारें और अपने भीतर के मौसम में किसी पगडंडी पर, किसी पहाड़ पर, किसी कोंपल के करीब जाकर कुछ धड़कता महसूस करें। उस भीतरी मौसम में कुछ देर गहरी साँसे लें और अपनी नमी को फिर से हासिल कर लें।

(वेबदुनिया के लिए लिखे जा रहे कॉलम की एक कड़ी।)

गुलज़ार की नज्मों पर मेरी कुछ और पेंटिंग्स यहां देखें-