Monday, September 29, 2008

अब वे अपने विश्व में रहते हैं





अखिलेश चित्रकार हैं। युवा और चर्चित। भोपाल में रहते हैं। इंदौर के ललित कला सस्थान से डिग्री हासिल करने के बाद दस साल तक लगातार काले रंग में अमूर्त शैली में काम करते रहे। भारतीय समकालीन चित्रकला में अपनी एक खास अवधारणा रूप अध्यात्म के कारण खासे चर्चित और विवादित। देश-विदेश में अब तक उनकी कई एकल और समूह प्रदर्शनियां हो चुकी हैं। कुछ युवा और वरिष्ठ चित्रकारों की समूह प्रदर्शनियां क्यूरेट कर चुके हैं। गाहे-बगाहे सूजा से लेकर रजा और हुसैन पर लिखते रहे हैं। विश्वविख्यात चित्रकार मार्क शागाल की जीवनी का अनुवाद किया है। अभी कुछ दिनों पहले ही अखिलेशजी से फोन पर बात हुई। पता चला वे दुबई में कुछ दिन एमएफ हुसैन के साथ रहकर आए हैं। मैंने उनसे आग्रह किया, कुछ लिखें। लिहाजा उन्होंने यह लिख कर भेजा। मैं इसे अपने ब्लॉग पर देते हुए अखिलेशजी के प्रति गहरा आभार प्रकट करता हूं। साथ ही अखिलेशजी द्वारा खींचे गए हुसैन के कुछ फोटो भी दे रहा हूं जो बताते हैं कि हुसैन में कितनी रचनात्मक भूख है। अच्छी खबर यह भी है कि हुसैन साहब के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक राहतभरी बात कही है। लीजिए पढि़ए अखिलेशजी का लेख-


अब वे अपने विश्व में रहते हैं

दुबई में बाबा से मिलना हुआ। पांच वर्षों के अतंराल के बाद मिलना। सुखद अनुभव था। मैंने जब भोपाल के बारे में उनसे बात की तब उन्होंने कई बातों का पिटारा खोल लिया। भोपाल का वैश्विक रूप दिखाई देने लगा। हुसैन साहब के लिए समय का प्रचलित रूप कोई मायने नहीं रखता न ही देश की सीमाअों का अस्तित्व बचा। अब वे अपने विश्व में रहते हैं जहां सब कुछ उनका अपना है। वे समय-सीमाअों को पार कर जाते हैं। वे देश की भौगोलिकता के बाहर रहते हैं। भोपाल की मेरी शुरुआती स्मृति भोपाल स्टेट की है। भोपाल की बेगमों का दम और राजकाज शुरू से आकर्षित करता रहा है। हुसैन कहते हैं। भोपाल के तांगे, तंग गलियां, पटियेबाजी आदि सभी दुर्लभ हैं।

"मैं लैंडस्केप करने जाया करता था। भोपाल भी गया। घुमक्कड़ स्वभाव था। यहां-वहां भटका करता था। एक बार सोलेगांवकर के साथ अकंलेश्वर चला गया। दिन भर चित्र बनाते रहे, अब रात को क्या करें? मंदिर में जाकर सो गए। सुबह पुजारी ने जगाया। नहा-धोकर आरती की, प्रसाद खाया फिर चले।"

"लोहियाजी के कहने पर रामायण पेंट की। सात-आठ साल बद्री विशाल पित्ती के घर रहा। हैदराबाद में बनारस से पंडित बुलाए गए। वे रोज रामायण पढ़कर सुनाते। रोज सुबह नहाकर पंडित के सामने बैठता, वे घंटे दो घंटे रामायण पढ़ते और उसको सुनकर दिन भर चित्र बनाता। बड़े-बड़े कैनवास और ढेरों चित्र बनाए। सब रखे हैं।"

हुसैन ९३ वर्ष के हो गए हैं। भारतीय समकालीन चित्रकला के भीष्म पितामह-स्वामीनाथन अक्सर हुसैन को इसी पदवी से नवाजते थे। हुसैन के चेहरे पर वही तेज। वहीं गंभीरता और वही रौनक थी। हुसैन की चपलता वैसी ही है। चित्र बनाते वक्त उन्हें देखना एक पूरी सदी को चित्र बनाते हुए देखने जैसा है। हुसैन के हम उम्र इस दुनिया में नहीं हैं और संभवतः जो हैं भी वे निष्क्रिय हैं। हुसैन आज भी अनेक युवा चित्रकारों से ज्यादा चित्र बनाते हैं। बेचने के लिए नहीं बल्कि अपनी रचनात्मक ऊर्जा को सहेजते-संवारते हुए। हुसैन के चार स्टूडियो हैं। वे उन सभी जगह ले गए और हर स्टूडियो अलग-अलग विषयों पर काम कर रहे हैं। एक तरफ भारतीय संस्कृति पर केंद्रित संग्रहालय के लिए चित्र बना रहे हैं, दूसरी तरफ भारतीय सिनेमा के इतिहास को चित्रित कर रहे हैं। घोड़ों पर वे एक चित्र श्ृखला बना रहे हैं और कतर की महारानी के संग्रहालय के लिए ९९ चित्र बना रहे हैं। ये सब श्ृखलाएं वे एक साथ बना रहे हैं। वे अपनी यायावरी में रचनात्मक हैं। उनका एक जगह पर न होना भी उनके सृजन का स्रोत है। "शाम को आप चलिएगा। मेरे दोस्त हैं, वे डॉक्टर हैं, डेंटिस्ट हैं, उनकी पत्नी का जन्मदिन है, बस मुबारकबाद देकर लौट आएंगे। मैं आपको ले चलता हूं, रवि रेस्त्रां में वहीं खाना खाएंगे फिर शाम को फिल्म देखेंगे।"

हुसैन ने आवाज लगाई। हसन को एक कैनवास और रंग निकालने के लिए कहा। वे चित्र बनाने लगे। शाम की तैयारी। लगभग आधे घंटे में चित्र तैयार हो गया।। फिर हम लोग चल पड़े। उनके डॉक्टर के घर पहुंचे, उन्होंने चित्र डॉक्टर और उनकी पत्नी को दिखलाया, फिर उसे जन्मदिन का तोहफा है कहकर भेंट कर दिया। अवाक् रह गईं डॉक्टर साहब की पत्नी। फिर वे खुशी से रोने लगी। हम लोग लगभग आधे घंटे वहां बैठे, चाय पी, कुछ बातें की। उनका रोना चलता रहा। वे अपनी खुशी को अंत तक संभाल नहीं पाईं। हुसैन की सहजता और चित्र की ताकत उनके आंसुअों में झलक रही थी। वे बार-बार कुछ कहना चाहती रहीं, किंतु उनका रूंधा गला साथ न दे सका। हुसैन अपनी उदारता के लिए प्रसिद्ध हैं। वे कभी भी कहीं भी चित्र बनाने में सक्षम हैं और इन चित्रों को मित्रों में बांटने में झिझकते नहीं।

"मैंने आपबीती को फिर से लिखना शुरू किया है। वे किताब पंद्रह साल पहले लिखी थी ओर इन पंद्रह सालों में बहुत कुछ बदला है। इन सब बातों को लिखना चाहिए। मैंने शुरू कर दिया है। आपको सुनाता हूं।" हुसैन ने अपनी डायरी से इस हफ्ते लिखा अध्याय निकाला और सुनाने लगे। हुसैन के लिखने में छंद है। वे रदीफ –काफिए को सहज ही बिठाते हैं। उनके लिखने में रस है और उनके पढ़ने में रिदम। ९३ वर्ष की उम्र में उनकी स्मृति साफ है। वे हर लम्हे को ठीक तरह से सुनाते हैं। याददाश्त में दरार नहीं है। उन्हें याद है कि मैं उनसे पांच साल बाद मिल रहा हूं। और उन्होंने इन पांच सालों में मैंने क्या किया, यह जानने में देर नहीं की। वे कुछ भी भूले नहीं। और उन्हें सब कुछ याद नहीं।

"शाहीन के उद्घाटन के लिए भोपाल आया था। स्वामीनाथन बढि़या आदमी थे। उन्हें पश्चिमी कला का का आतंकवादी रवैया पसंद नहीं था। वे इन सबको नहीं मानते थे। मैं कहा करता था इन सब बातों को लिख डालो स्वामी। मगर वे नहीं लिखते थे। कौन पढ़ेगा यह सब। स्वामीनाथन ने भारत भवन बनाया। बहुत अच्छा किया था। आदिवासी कला आधुनिक कला सब एक साथ लाए। स्वामीनाथन ने क्या कुछ लिखा है इन सब पर?"

"शाहीन के उद्घाटन पर उनका तेवर भी देखने वाला था। वो अचानक हवा का तेज चलना और बारिश होना। यह सब स्वामी के कारण ही हुआ। रियासत नाम का एक अखबार निकलता था उन दिनों। अंग्रेज निकालते थे। उस अखबार में भोपाल स्टेट की खबर भी छपी थी। तब से भोपाल मेरे जेहन में बसा हुआ है। भोपाल की बेगमों के द्वारा किए गए कार्यों का ब्यौरा भी छपा था। और सभी रियासतों के बारे में छापते थे।

मैंने यह नियम बनाया है कि हर शुक्रवार हमारे परिवार के जो भी सदसय यहां हैं वे सब इकट्ठे होते हैं एक रेस्त्रां में सुबह के नाश्ते के लिए। वहां मैं अपनी आपबीती का एक अंश पढ़कर सुनाता हूं। सब लोग आते हैं। खूब मजा रहता है। सारे लोग इकट्ठे एक साथ बैठते हैं, सुनते हैं..."

हुसैन के मुंबई के घर में शुक्रवार के दिन दाल बनती है। यहां वे सबको इकट्ठा कर बाते करते हैं। हुसैन के जीवन का हर क्षण उन्होंने अपनी मर्जी से जीया। रचनात्मकता और सृजन से भरा हुआ।

उनकी योजना इंस्टालेशन करने की है, जिसमें वे संसार की महंगी कारों का इस्तेमाल करेंगे। हुसैन अभी भी ऊर्जावान, नए विचारों से अोतप्रोत और किसी शुरूआत के उत्सुक हैं, प्रस्तुत हैं। उनकी रचनात्मक प्रतिभा मे अभी काल का स्पर्श नहीं हुआ है। वे स्फूर्त हैं। सक्रिय हैं। सृजनरत हैं और सफल हैं।

Saturday, September 20, 2008

सातवीं सीढ़ी और पीले फूल


अजगर को समर्पित करते हुए...
वे कॉलेज के चमकीले दिन थे और हमेशा की तरह वह सीढ़ियां गिनते हुए चढ़ रहा था। जब वह सातवीं सीढ़ी पर था, एक लड़की उसके पास से बहुत तेजी से उतरी। बेफिक्र और बेपरवाह। उसकी पीली चुन्नी उसे छूते हुए निकल गई। वह उसी सीढ़ी पर थोड़ी देर के लिए खड़ा रह गया, अवाक्। उसने महसूस किया, उसके सीने के बाईं अोर कहीं उस चुन्नी का पीला रंग छूट गया है जो धडकनों के साथ मिलकर छोटे-छोटे पीले फूलों में खिल गया है। उसने एक गहरी सांस ली और पाया कि सांसों में खुशबू बसी है। उस लड़के को पहली बार यकीन हुआ कि दुनिया में जादू भी होते हैं।
उसे ध्यान आया कि वह उस लड़की का चेहरा नहीं देख पाया। यही सोचकर वह पलटा तो उसने देखा वहां एक खाली और सूना गलियारा है और सन्नाटा पसरा हुआ है। सातवीं सीढ़ी पर खड़ा होकर वह सोचने लगा कि उसी लड़की के साथ सात जनम की कसमें खाएगा, सात फेरे लेगा और कभी भी उससे सात समंदर दूर नहीं जाएगा।
उसके दिन बदल गए। उसकी शामें बदल गईं। उसकी रातें बदल गईं। उसकी करवटें औऱ सलवटें बदल गईं। उसकी धड़कनें और सांसें बदल गईं। फिर उसकी आदतें बदल गईं। वह एक नई और अजीब-सी आदत का शिकार हो गया। वह उसके पास से गुजरने वाली हर लड़की को बहुत ध्यान से देखता। और उस लड़की को तो वह बहुत ही ध्यान से देखता जिसने पीली चुन्नी डाल रखी हो। जब भी कोई लड़की उसके पास से गुजरती वह रुककर गहरी सांस लेने लगता। इस आदत की वजह से कई बार कई लड़कियां उसे संदेह की निगाह से देखतीं। कुछ बिचकतीं, कुछ सहमतीं। कुछ रास्ता बदल लेतीं।
मौसम बदलते हैं। रिमझिम बारिश होती है, गुलाबी ठंड पड़ती है और बसंत आता है और पीले फूल खिलते हैं।
फिर एक दिन ऐसा आता है कि वह उसकी क्लास की ही एक लड़की की शादी में अपने दोस्तों के साथ जाता है और लडकी को शादी की बधाई देते हुए हाथ मिलाता है तो सीने के बाईं अोर एक पीला रंग और पीला होकर चमकने लगता है और धड़कनों के साथ घुममिल कर छोटे-छोटे पीले फूलों में खिल गया जाता है। वह उस लड़की के पास थोड़ी देर खड़ा रहता है, फोटो खींचवाता हुआ। गहरी सांस लेता है, तो पाता है कि उसकी सांसों में खुशबू बसी है और वह अपने कॉलेज की उसी सातवीं सीढ़ी पर खड़ा है, अवाक्, जहां एक लड़की की चुन्नी का पीला रंग उसके दिल पर छूट गया था।
चारों तरफ चहल-पहल है, लोग एक-दूसरे से हंसते-खिलखिलाते मिल रहे हैं, संगीत बज रहा है लेकिन वह लड़का अब भी सातवीं सीढ़ी पर खड़ा होकर फिर से सोचना चाहता है कि वह उसी लड़की के साथ सात जनमों की कसमें खाएगा, सात फेरे लेगा और उससे कभी भी सात समंदर दूर नहीं जाएगा...

Wednesday, September 17, 2008

समय के आंगन में उड़ती एक तितली



मर्लिन मुनरो को याद करते हुए...

हॉलीवुड एक ऐसी जगह है जहां चुंबन के लिए आपको हजारों डॉलर्स मिल जाएंगे लेकिन आत्मा के लिए सिर्फ पचास सेंट्स।

जानती हूं, मैं कैलेंडर पर ही जिंदा रहूंगी, समय में कभी नहीं।-मर्लिन मुनरो

बरसों पहले इंदौर के एक टॉकीज के चुभते पटियों पर बैठकर मैंने मर्लिन मुनरो की फिल्म देखी थी औऱ मेरा यकीन करिये की उसकी जान लेवा अदाअों और बला की खूबसूरती को टकटकी बांधे देखते हुए मैं किसी बादल पर सवार था। मैं जब अंदर से अपने को टटोलता हूं तो पाता हूं कि खूबसूरती हमेशा वासना नहीं जगाती बल्कि वह आपमें बुनियादी बदलाव करती है जो किसी भी सौंदर्यबोध को समझने-बूझने की तमीज भी पैदा करती है और उसको मांजती भी चलती है। ईश्वर मुझे अलौकिकता से बचाए, मैंने अपने सौंदर्यबोध के लिए अप्सराअों की तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखा है। उनसे ज्यादा सुंदर, हंसती-खिलखिलाती, रोती-तड़पती स्त्रियां मुझे इसी जीवन में अपने आसपास ही नसीब हुई हैं। वह चाहे फिल्म में हो, कविता में हो, कहानी-उपन्यासों में हो या फिर मेरे अपने ही आंगन में अपनी महक से मुझे बावला करती हुई...ये स्त्रियां हमेशा मुझे बुरी नजरों से बचाए रखती हैं और मुझे इस काबिल बनाती हैं कि स्त्री से प्रेम कर सकूं।

और मर्लिन भी एक स्त्री थी। हॉलीवुड में उसके जलवों के अनेक किस्से हैं। उसके प्रेम और दुःख के भी अनेक किस्से हैं। अपने १६ साल के करियर में उसने २९ प्रमुख फिल्मों में काम किया, मॉडलिंग की, गायन किया और दौलत और शोहरत हासिल की। अजगर ने ठीक ही लिखा है कि बहुत कम लोग ऐसे होंगे जिन्हें मर्लिन से, उसकी तस्वीरों से, उसकी अदाओं से कभी न कभी प्यार न हुआ होगा। बहुत कम औरतें होंगी जिनके अंदर एक मर्लिन मुनरो नहीं छिपी होगी। उससे बचना कितना मुश्किल है लेकिन मर्लिन ऐसी स्त्री भी है जिस पर चुंबन के लिए तो डॉलर्स की बारिश होती रही लेकिन प्रेम पाने के लिए उसकी आत्मा हमेशा जिदंगी के जलते बियाबान में भटकती रही...इसीलिए तो एक जून १९२६ को लॉस एंजिल्स के एक जनरल हॉस्पिटल मैं पैदा हुई यह किलकारी ४ अगस्त १९६४ को अपने बिस्तर पर निर्वस्त्र अौंधे मुंह पड़ी मिलती है। अपनी एक साथ चमकीली औऱ अंधेरी भरी दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कहती हुई...एक जून १९२६ से लेकर ४ अगस्त १९६४ का जो दरमियानी समय है। वह एक अंतहीन कहानी है दोस्तों। इसमें सबकुछ है-नाखुश बचपन, अंदर से तोड़ देने वाला संघर्ष, फिर कामयाबी, चकाचौंध, किसी के लिए भी ईर्षा पैदा करने वाली लोकप्रियता, तीन शादियां औऱ कुछ प्रेम के किस्से। रिश्तों की टूटन और प्रेम की प्यास। फिर अंतहीन अवसादभरी काली रातें। और अंत में एक न खत्म होने वाली कहानी। उसके मरने के इतने सालों बाद भी यह अब तक रहस्य ही है कि उसने आत्महत्या की थी या उसकी हत्या की गई।

अपने कॉलेज के दिनों में मैंने एक मैग्जीन से मर्लिन के कैलेंडर का फोटो काटकर बहुत दिनों तक संभाल कर रखा था। अब वह कहीं खो गया है या फिर घर में टपकते बारिश के पानी में मेरी बहुत सारी किताबों के साथ गलकर सड़ चुका है जिसे रद्दी के साथ बाद में फेंक दिया गया था। कई बार सोचता हूं, कम से कम मेरे लिए तो मर्लिन एक तितली है जो कैलेंडर से बाहर निकलकर समय के आंगन में उड़ रही है। वे हमेशा समय में रहेंगी। आप जब जीवन की आपाधापी से हांफते हुए किसी पेड़ से थोड़ी देर के लिए पीठ टिकाएंगे तो पाएंगे कि आपके जेहन में भी उस तितली के पांव के निशान अोस की बूंदों की तरह चमक रहे हैं...

Tuesday, September 16, 2008

तिल नहीं, एक छाला है

इस वक्त वह रसोईघर में खड़ी-खड़ी
खिड़की से देख रही है बारिश
आप उसकी गुनगुनाहट को सुन नहीं सकते
बारिश उसमें शामिल होकर
उसे एक मीठे झरने में बदल रही है
हरे पत्तों के बीच जो पक्षी दुबका बैठा है
वह उसे टुकुर टुकुर देखता

वह अब धीरे-धीरे हंस रही है
और उसके गाल पर जो तिल है
तिल नहीं,
राई का दाना है
जो बघार करते वक्त उड़कर गाल पर आ बैठा था
उसके रूख़सार पर जो तिल की तरह दिखाई देता है
दरअसल उसके पीछे एक छाला है

Tuesday, September 9, 2008

वैन गॉग का एक खत


गुलजार


तारपीन तेल में कुछ घोली हुई धूप की डलियां
मैंने कैनवास में बिखेरी थीं मगर
क्या करूं लोगों को उस धूप में रंग दिखते ही नहीं!


मुझसे कहता था थियो चर्च की सर्विस कर लूं
और उस गिरजे की खिदमत में गुजारूं
मैं शबोरोज जहां-
रात को साया समझते हैं सभी,
दिन को सराबों का सफर!
उनको माद्दे की हकीकत तो नजर आती नहीं
मेरी तस्वीरों को कहते हैं, तखय्युल है
ये सब वाहमा हैं!


मेरे कैनवास पे बने पेड़ की तफसील तो देखो
मेरी तखलीक खुदाबंद के उस पेड़ से
कुछ कम तो नहीं है!
उसने तो बीज को एक हुक्म दिया था शायद,
पेड़ उस बीज की ही कोख में था,
और नुमायां भी हुआ
जब कोई टहनी झुकी, पत्ता गिरा, रंग अगर जर्द हुआ
उस मुसव्विर ने कहीं दखल दिया था,
जो हुआ, सो हुआ-


मैंने हर शाख पे, पत्तों के रंग-रूप पे मेहनत की है,
उस हकीकत को बयां करने में
जो हुस्ने हकीकत है असल में


उन दरख्तों का ये संभला हुआ कद तो देखो
कैसे खुद्दार हैं ये पेड़, मगर कोई भी मगरूर नहीं
इनको शेरों की तरह किया मैंने किया है मौजूं!
देखों तांबे की तरह कैसे दहकते हैं खिजां के पत्ते,


कोयला खदानों में झौंके हुए मजदूरों की शक्लें
लालटेनें हैं, जो शब देर तलक जलतीं रहीं
आलुअों पर जो गुजर करते हैं कुछ लोग-पोटेटो ईटर्स
एक बत्ती के तले, एक ही हाले में बंधे लगते हैं सारे!


मैंने देखा था हवा खेतों से जब भाग रही थी
अपने कैनवास पे उसे रोक लिया-
रोलां वह चिट्ठीरसां
और वो स्कूल में पढ़ता लड़का
जर्द खातुन पड़ोसन थी मेरी-
फानी लोगों को तगय्यर से बचा कर उन्हें
कैनवास पे तवारीख की उम्रें दी हैं!


सालहा साल ये तस्वीरें बनाई मैंने
मेरे नक्काद मगर बोल नहीं-
उनकी खामोशी खटकती थी मेरे कानों में,
उस पे तस्वीर बनाते हुए इक कव्वे की वह चीख-पुकार
कव्वा खिड़की पे नहीं, सीधा मेरे कान पे आ बैठता था,
कान ही काट दिया है मैंने!


मेरे पैलेट पे रखी धूप तो अब सूख चुकी है,
तारपीन तेल में जो घोला था सूरज मैंने,
आसमां उसका बिछाने के लिए-
चंद बालिश्त का कैनवास भी मेरे पास नहीं है!


मैं यहां रेमी में हूं
सेंटरेमी के दवाखाने में थोड़ी-सी
मरम्मत के लिए भर्ती हुआ हूं!
उनका कहना है कई पुर्जे मेरे जहन के अब ठीक नहीं हैं-
मुझे लगता है वो पहले से सवातेज हैं अब!
(गॉग की ख्यात पेंटिंग Tree and Man (in front of the Asylum of Saint-Paul, St. Rémy )