Thursday, May 28, 2009

रोज घर से निकलो, रोज घर पहुंच जाओ बच्चो !


यह एक छोटा-सा अनुभव है, जो मैं आपको बताने जा रहा हूं लेकिन इसके पीछे जो दहशत है वह शायद कई सालों की है। और मुझे लगता है शायद मेरी मां इस दहशत से रोज-ब-रोज गुजरती थी।
मेरे बेटे मनस्वी, जिसे हम मनु कहते हैं, ने जिद की कि वह अब साइकिल से स्कूल जाएगा। अब तक वह अॉटो से जाया करता था।
मैं जब भी घर से निकलता हूं तो मां मुझे ऐसे देखती है कि अब मैं कभी वापस घर नहीं लौटूंगा। शहर में न दंगा-फसाद हुआ है और न ही कोई भूकंप आया हुआ है। न बाढ़ आई है और न ही कोई आगजनी हुई है। फिर भी जब मैं घर से निकलता हूं तो मां मुझे ऐसे देखती है कि मैं अब वापस घर नहीं लौटूंगा। घर से निकलते हुए मैं अपनी पीठ के पीछे मां के धम्म से बैठने की आवाज सुनता हूं।
जब मां को पता लगा कि उनका पोता साइकिल से स्कूल जाएगा तो उसने साफ इनकार कर दिया कि नहीं, वह आटो से ही जाएगा भले ही इसके लिए उसे अपनी पेंशन से पैसे देना पड़ें।
तो मंगलवार यानी छह मई को मनु साइकिल से स्कूल के लिए सुबह ठीक छह बजकर 55 मिनट पर घर से निकल गया। पता नहीं मैं किस दहशत में था, चुपचाप अपनी बाइक से बेटे के पीछे-पीछे चलने लगा। उसका स्कूल, घर से लगभग पांच-छह किलोमीटर दूर है। स्कूल के पास पहुंचने पर बेटे की साइकिल की चेन उतर गई। मैंने अपनी बाइक रोकी और उसकी चेन चढ़ाई और स्कूल तक उसके साथ-साथ गया। उसने मुझे अपने पीछे आते हुए देख लिया था । उसने मुझसे कुछ कहा नहीं, लेकिन उसका चेहरा बता रहा था कि इस तरह मेरा उसके पीछे-पीछे आना नागवार गुजरा है।
ठीक एक बजकर 15 मिनट पर मनु के स्कूल की छुट्टी हो जाती है। 12 बजकर 50 मिनट पर मेरे आफिस में पत्नी का फोन आता है। मैं अपने बेटे के साथ आने के लिए स्कूल रवाना हो जाता हूं और धीरे-धीरे उसके साथ घर लौटता हूं।
घर से स्कूल के रास्ते में तीन चौराहे पड़ते हैं और इनमें से इंदौर के दो चौराहों बाम्बे हॉस्पिटल और सत्य सांई स्कूल वाले चौराहे पर जबरदस्त ट्रेफिक होता है। इंदौर के अखबारों में रोज ही, कहीं न कहीं, सड़क दुर्घटना की खबरें छपती रहती हैं जिनमें बच्चे और युवा असमय मारे जाते हैं। और कौन सा ऐसा अखबार होगा जिनमें इस तरह की खबरें नहीं छप रही होंगी।
दूसरे दिन यानी सात मई को मनु ने जिद की कि मैं उसके पीछे न आऊं। मैं नहीं गया। वह सुबह ठीक छह बजकर 55 मिनट पर निकल गया। मैं साढ़े दस बजे अपने आफिस आ गया। कामकाज के बीच में रह=रह कर मैं एक दहशत में भर जाता था। समय जैसे धीरे-धीरे रेंग रहा हो। मैंने नोट किया था कि मनु को स्कूल से घर पहुंचने में कम से कम पच्चीस मिनट लगते हैं। मैंने एक बजकर चालीस मिनट पर घर फोन किया। पहली घंटी गई तो मैंने महसूस किया कि मेरी धड़कन सामान्य से कुछ तेज है। फिर दूसरी और तीसरी घंटी गई। मेरी धड़कन अचानक तेज हो गई थी। कितनी सारी काली खबरें दिमाग में शोर मचाने लगीं। कई तरह की आशंकाओं ने एकाएक घेर लिया। चौथी घंटी पर उधर मां की आवाज थी। उसकी दादी ने बताया मनु घर आ चुका है।
दोस्तो, मैं नहीं जानता ईश्वर है कि नहीं, लेकिन मैं हमेशा प्रार्थना करता रहूंगा उन तमाम बच्चों के लिए जो किसी भी काम से, किसी भी कारण अपने घर से निकलते हैं कि वे वापस अपने घर लौट आएं।
मैं अपनी मां को याद करता हूं जो मेरे घर से निकलने पर मुझे ऐसे देखती थी कि मैं अब कभी घर वापस नहीं लौटूंगा।
घर लौटो बच्चो,, घर लौट जाओ!!

इमेजः

स्पेन के मशहूर चित्रकार डिएगो रिवेरा की पेंटिंग

Saturday, May 23, 2009

आंगन नहीं, धूप नहीं, खिलखिलाने की आवाजें नहीं


हमारे घर में आंगन था।
आंगन में धूप आती थी। सूरज दिखाई देता था।
अब घर के ठीक सामने तीन-चार बिल्डिंगें बन जाने से सूरज बारह बजे के पहले दिखाई ही नहीं देता। अब धूप की जगह आंगन में बिल्डिंग की परछाइयां दिखाई देती हैं।
पहले पिता सूर्य नमस्कार करते थे, अब करते तो लगता बिल्डिंगों को नमस्कार कर रहे हैं।
मां पहले मूंग की बड़ी और कई तरह के पापड़ बनाया करती थीं लेकिन अब बड़ी और पापड़ सुखाने के लिए आंगन में धूप नहीं आती।
भाभी या जीजी सिर से नहाती तो बाल सुखाने आंगन में आ जाया करती थीं।
अब न धूप आती है, न भाभी और जीजी बाल सुखाने इस आंगन में दिखाई देती हैं।
पूरे मोहल्ले में हमारा ही घर ऐसा था जिसमें आंगन था। मोहल्ले में धीरे-धीरे पुराने मकान टूट रहे थे, नए बनते जा रहे थे। उनके आंगन गायब हो गए। ज्यादा कमरे बनने से आंगन सिमटते जा रहे थे। अधिकांश घरों में प्यारा-सा छोटा-सा आंगन तक नहीं दिखाई देता। आंगनों में जो कमरे बन गए थे, उनमें एक ही परिवार के लोग अलग अलग रहने लगे थे। उन सब की अलग अलग दुनिया थी। उनके फ्रीज अलग थे, उनके टीवी अलग थे, उनकी कुर्सियां और सोफे अलग थे।
हमारे घर में जो आंगन था, वहां धूप आती तो घर के सारे लोग धूप सेंकते। पिता अपनी कुर्सी पर चाय की चुस्कियां लेते अखबार पढ़ते। फिर सरसों के तेल की मालिश करते। मैं अकसर सरसों के तेल से पिता के हाथ-पैरों की मालिश करता। फिर वे हमारे हाथ पैरों पर तेल लगा कर हलके हाथ से मालिश करते। कहते मालिश करा करो, बदन बनाओ। मां कपड़े सुखाती या पापड़ और बड़ी। उसी आंगन में हम सब बैठकर बासी रोटी से बना पुस्कारा खाते (रोटी को चूरकर हरी मिर्च -प्याज से बघार कर )।
पिता को किताबें पढ़ने का इतना शौक था कि वे बाहरी के कमरे में प्लग लगाकर एक लंबे वायर को आंगन तक ले आते और लैम्प जलाकर पढ़ते।
उस आंगन में पास खड़े पीपल और नीम के पेड़ से पिपलियां और निम्बोलियां गिरती रहती थी। हम इन पिपलियों को खाते थे। वे मीठी लगती थीं। उनका स्वाद हम अब तक भूले नहीं हैं। बसंत में हम कोयल की कूक सुनते। उसकी नकल करते। कई पक्षियों का कलरव सुनते। उन्हें उड़ते और बैठते देखते। शाम को लौटते देखते। हमारे आंगन में, हमारी कुर्सियों, हमारे कपड़ों पर बीट गिरती। हमारे आंगने में उनके पंख गिरते। हम हथेलियों में ले उन्हें उडा़ते। वे इतने हल्के, इतने कोमल होते की जरा सी फूंक से हवा में लहराने लगते। सुबह की कोमल धूप में वे पंख और कोमल दिखाई देते। सफेद, चमकीले। गर्मियों की शाम हमारे बिस्तर आंगन में लगते। हम तारों भरी रातों को निहारते सोते थे। मां हमें तारे बताती। खूब चमकीला तारा बताती। वे हमें तारों से बनी आकृतियां बताती- कभी धनुष, कभी हल। हम घटते-बढ़ते चंद्रमा को देखते। हम दूज का, तीज का और पूर्णिमा का चंद्रमा निहारते। बड़ी बहनें हमें कभी लोरियां और कभी कहानियां सुनाया करती थीं। कई बार पड़ोस के बच्चे हमारे साथ आकर मां से कहानियां सुनते। सुनते- सुनते हमारे साथ ही सो जाते। उनकी माएं उन्हें कभी ढ़ूंढ़ने नहीं आती। उन्हें पता होता कि वे हमारे साथ ही सोये होंगे।
आंगन में छोटे छोटे पौधे थे। गेंदा, चमेली, नींबू, केले। बहने उन्हें बराबर पानी देती। वे कभी सूखे नहीं। मुरझाए नहीं। कभी कभी आंगन में लाल-काली चीटियां हो जातीं। लाल चीटियों के काटने से हमें ददोड़े (लाल चकत्ते) हो जाते। मैं आटा डालती।
बहनें फुगड़ियां खेलती, लंगड़ी खेलतीं, पांचे खेलती। हम सब के खिलखिलाने से यह आंगन गूंजता था। मां हमारी इस खिलखिलाहट में शामिल होती थी। पिता यह सब देखते हुए मुदित रहते। उनका एक भरा-पूरा परिवार था। हंसता-गाता संसार था। हम उनके पंछी थे, हमारी चहचहाहट से उनका आंगन गूंजता था।
हमारा आंगन बहुत बड़ा था। सामान बहुत कम था। हमारे खेलने के लिए खूब जगह थी। हम गिरते तो घुटने छिल जाते थे। बहने गोद में उठा लिया करती थीं। मां हल्दी का फोहा लगाती। रात में हल्दी के साथ ही गरम दूध पिलाती। पिता चुपचाप अपने सीने से लगाए हमें थपकियां देते सुला लेते थे।
उस आंगन में हमें हमारे जीवन की सबसे मीठी नींद आती थीं।
अब न मां है, न पिता। कभी बहनें आती हैं, कभी -कभार भाभियां-काकियां भी आती हैं। बच्चे भी हैं। उनके दोस्त भी हैं। सुख-सुविधाओं का सामान भी है।
बस आंगन नहीं है, धूप नहीं है, धूप में बैठकर सबके खिलखिलाने की आवाजें नहीं हैं।

Friday, May 22, 2009

जिन्हें तुम धन्यवाद देना चाहते हो

कुमार अंबुज की कविता

न वह पेड़ बचता है और न वैसी रात फिर आती है
न ओंठ रहते हैं और न पंखुरियां
रूपकों और उपमाओं के अर्थ ध्वनित नहीं हो सकते
बारिश जा चुकी है और ये सर्दियां हैं जिनसे सामना है

जीवन में रोज ऐसा होता है कि कृतज्ञता ज्ञापित
कर सकने के क्षण में हम सिर्फ अचंभित रह जाते हैं
और फिर वक्त निकल जाता है

बाद में जिन्हें तुम धन्यवाद देना चाहते हो
तो पाते हो कि वे आदमी और जगहें ध्वस्त हो चुकी हैं
या इतनी बदल गई हैं कि उन्हें धन्यवाद देना
किसी अजनबी से कुछ कहना होगा

लेकिन इससे हमारे भीतर बसा आभार
और उसका वजन कम नहीं हो जाता
एक निगाह, एक हाथ और एक शब्द ने
यहां तक जीवित चले आने में हर एक की मदद की है
और इतने अचरज हमारे साथ हैं कि दुनिया में स्वाद है

धन्यवाद न दे सकने की कसक भी चली आती है
जो किसी मौसम में या टूटी नींद में घेर लेती है
जिन्हें तुम धन्यवाद देना चाहते हो
कई बार उन्हें खोजना भी मुश्किल है
और जो सामने हैं उनके बरक्स तुम
फिर अचकचाए या सकुचाए खड़े रहते हो

हालांकि कई चीजें तुम्हारी भाषा नहीं समझतीं
पतझड़, झरने, चाय की दुकान और अस्पताल की बेंच
लेकिन उनसे तुम्हारा बर्ताव ही बताएगा कि तुम
आखिर क्या चाहते हो

शायद इसलिए ही कभी सोच-समझकर या अनायास ही
लोग उनके कंधों पर सिर रख देते हैं


(नईदुनिया दिल्ली के साथ प्रकाशित होने वाली साप्ताहिक पत्रिका संडे नईदुनिया के 17 मई के अंक में प्रकाशित कविता)

Thursday, May 21, 2009

रात, चंद्रमा, स्त्री और एक किताब ने बचा लिया


दुनिया में हमेशा से कुछ ऐसी चीजें रही हैं, जिसके कारण लोग आत्महत्या करने को विवश हो जाते हैं। और दुनिया में हमेशा से ऐसी चीजें भी रही हैं जो लोगों को आत्महत्या करने से रोक लेती हैं और उन्हें फिर से जीवन में खींचकर यह अहसास कराती हैं कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। यह जीवन अपनी तमाम क्रूरताओं के बावजूद सुंदर है। फूल उतने ही चटख रंगों में खिलते हुए हमें खूबसूरती का अहसास बखूबी करा रहे हैं, कि अब भी इस जीवन में महक बरकरार है।

मुझे नहीं पता कि दुनिया का हर व्यक्ति अपने जीवन में कभी न कभी आत्महत्या करने का सोचता है या नहीं लेकिन मैं अपने जीवन में एकबारगी इस अनुभव से गुजरा हूं कि अब यह जीवन लीला समाप्त कर लेना चाहिए। शायद ऐसे पल आते हैं जब लगता है कि जीवन की हरीतिमा सूख चुकी है और उसकी जगह काला-भूरा उजाड़ फैल रहा है जिसमें सांस लेना दूभर होता जा रहा है। लेकिन यकीन करिये मुझे कुछ चीजों ने आत्महत्या करने से बचा लिया और मैं जीवन में वापस लौट आया, उसकी सुंदरता को महसूस करता हुआ, उसके फूलों को निहारता हुआ, महकता हुआ...

यदि मेरे जीवन में रात, चंद्रमा, स्त्रियां और किताबें नहीं होती तो मैं कब का खत्म हो चुका था। मुझे एक शांत और गहराती रात ने, मुझे उस खूबसूरत घटते-बढ़ते चंद्रमा ने, मुझे स्त्रियों ने और अंततः मुझे किताबों ने आत्महत्या करने से बचा लिया...

मैं यदि अपनी किसी प्रिय किताब के पास भी बैठा होता हूं तो मुझे लगता है कि दूर कहीं एक लोरी की आवाज सुनाई दे रही है जो घने जंगलों के बीच से आ रही है। इस लोरी की आवाज जहां से आ रही है वहां एक नदी के बहने की आवाज भी आ रही है। और मैं जब इस आवाज पर जरा ज्यादा ध्यान देता हूं तो मुझे लगता है इसमें एक शीतलता है जिसमें मेरे हर ताप को और हर त्रास को हर लेने की ताकत है। अपनी प्रिय किताब के पास बैठने से कभी कभी लोरी की जो यह आवाज सुनाई देती है उसमें हलका उजाला है जो सबसे घने अंधेरे को रेशम की चादर में बदल देता है। इस आवाज के आने के पहले जो अंधेरा गाढ़ा होकर अपने वजन से मेरा गला दबाने की कोशिश कर रहा था वह हलका होकर एक ताजी हवा को अंदर आने देने वाले झरोखे में बदल जाता है।

किताबें मेरे लिए हमेशा एक झरोखा खोलती हैं। मुझे उसमें अपने हिस्से की गहराती रात दिखाई देती है जिसमें उगते तारे मुझे कभी अकेला नहीं होने देते हैं। किताब के इस झरोखे में मुझे अपना वह चांद दिखाई देता है जिसकी चांदनी के तार मुझे कायनात के उस संगीत में ले जाते हैं जहां मैं अपने ही भीतर गूंजती कोई विरल धुन सुनता हूं। किताब के इस झरोखे से मुझे वह हरापन दिखाई देता है जो मुझे जीवन में फिर से लौट आने का आमंत्रण देता है।

यह किताबों के कारण ही संभव है। आज इस वक्त, मैं जीवन में हूं, तो किताबों के कारण। आज मैं किसी रात मे, चांदनी भरी रात में किसी स्त्री के पास हूं, तो किताबों के कारण। आज मैं इसी चांदनी भरी रात में किसी स्त्री को प्रेम करने के काबिल हूं, तो किताब की वजह से। और आज मैं किसी स्त्री के आंसू का स्वाद जानता हूं, तो किताबों के कारण ही।
ये रात, ये चंद्रमा, ये स्त्री और किताबें नहीं होती तो पता नहीं मैं कहां होता?
मुझे हमेशा एक रात ने बचा लिया।
मुझे हमेशा एक चंद्रमा ने बचा लिया।
मुझे हमेशा एक स्त्री ने बचा लिया।
और मुझे हमेशा एक किताब ने बचा लिया....

Wednesday, May 20, 2009

पत्ता-पत्ता, जीवन का हर राग गाता रफ्ता-रफ्ता




वहां कैनवास पर पत्ते ही पत्ते हैं। झरते हुए, कभी एक साथ और कभी छितराए हुए। हरे-पीले, नारंगी-नीले, काले-भूरे। उजाले में आकर नाचते हुए, उदास हो कर अंधेरे में डूबते हुए। लगता है जैसे हरे-पीले पत्ते जीवन का राग गाते हुए स्वागत कर रहे हों, नारंगी-नीले वसंत के हर्ष में नाच रहे हों। काले-भूरे जैसे बिछड़ने के दुःख में, विषाद में विलाप कर रहे हों। ध्यान से देखो तो लगेगा ये कैनवास से निकलकर आपको घेर लेते हैं और अपने उड़ने में, भटकाव में, एक लय में जीवन के गहरे आशय बता रहे हों। जैसे कह रहे हों यही जीवन है जिसमें उत्साह के साथ निराशा है, दुख के साथ सुख है और अंततः वसंत के साथ पतझर भी है। जाहिर है ये कैनवास जीवन के स्वागत के, बिछोह के और हर स्पंदन के रूप हैं, प्रतीक हैं। रफ्ता-रफ्ता जीवन के हर राग को गाते हुए।
ये नए कैनवास रचे हैं इंदौर के युवा चित्रकार राजीव वायंगणकर ने। उनके इन चित्रों की एकल नुमाइश मुंबई के आर्टिस्ट सेंटर में 25 से 31 मई को लगने जा रही है। इसमें वे 30 नए चित्रों को प्रदर्शित करेंगे। उन्होंने इसका शीर्षक दिया है- पत्ता पत्ता।
उनके घर पर ताजा चित्रों को देखते हुए महसूस हुआ कि ये चित्र गहरे दार्शनिक आशयों के चित्र हैं। इन पत्तों में जीवन का मर्म प्रकट हो रहा है। लेकिन इन पत्तों को रचने में राजीव की कोई हड़बड़ाहट नहीं देखी जा सकती बल्कि एक इत्मीनान है, धीरज है। जैसे वे जीवन के आशयों को जानकर उन्हें अनुकूल रूपाकारों में ढाल रहे हैं। इसलिए उनके पत्तों में स्पंदन है, कम्पन्न है। वे एक सोची समझी रंग योजना में इस तरह प्रकट होते हैं कि अपने साथ उन आशयों को लपेटे हुए लिए आते हैं जिन्हें चित्रकार अभिव्यक्त करना चाहता है। इसीलिए राजीव कहते हैं कि इससे पहले मैं अपने को टुकड़ों में अभिव्यक्त कर रहा था अब लगता है मैंने अपने आपको सही दिशा और सही भाव भूमि पर अभिव्यक्त किया है। मैं अब इस जीवन-जगत को, इसके रहस्यों और आशयों को गहराई से समझ रहा हूं।
राजीव अपने कैनवास पर प्रकाश और छाया का सुंदर खेल रचते हैं। उनके इस हलके-गहरे प्रकाश में पत्ते अपने आकारों में रूपायित होकर कभी उजाले में पास आते लगते हैं तो गहरे रंगों में दूर जाते हुए तिरोहित होते लगते हैं। लेकिन इसके पहले उनकी थरथराहट कैनवास पर छूट जाती है और इस तरह उड़ते और दूर जाते हुए पत्ते कैनवास को अपने आशयों से अर्थवान बना देते हैं। इसी से कैनवास धड़कने लगता है। कहने की जरूरत नहीं कि पत्ते पृथ्वी की जीवंतता है। उनमें जीवन के उत्सव-उल्लास के रंग हैं लेकिन मृत्यु निश्चित है इसलिए राजीव इन उत्सव मनाते पत्तों के बीच कहीं कही मृत्यु के प्रतीक काले-भूरे पत्तों को सायास और सावधानीपूर्वक रचते हैं। इस जीवन और मृत्यु के बीच ही उनके पत्ते उड़ते रहते हैं और आपकी स्मृति में गिरते हैं। वे आपको छूते हैं. आपको घेरते हैं, और बिना आवाज किए चुपचाप आपको जीवन का मर्म समझा जाते हैं। हालांकि राजीव बिल्व पत्र की महिमा बताते हुए इन कैनवास पर एक ही श्लोक लिखते हैं जिसका अर्थ यह है कि इस पत्ते को शिव को अर्पित करने से तीन जन्मों के पापों से मुक्त हुआ जा सकता है। वे श्लोक को अपने हर कैनवास पर इस तरह से लिखते हैं कि वह भी पेंटिंग का अभिन्न हिस्सा हो जाता है , उसकी लय में लय मिलाता अपनी सार्थकता हासिल करता है।
राजीव ने पत्तों को इतनी संवेदनशीलता से रचा है कि उनकी बनावट और टोनल इफेक्ट आकर्षित करते हैं। फिर वे टेक्स्चर को लेकर काम करते हैं, रंगों की पतली गहरी सतहें बनाते हैं, और इस तरह से आंखों की संवेदना को जगाते हैं। रंगों के साथ उनका बरताव चैनदारी और कल्पनाशीलता का है। इस तरह वे कभी शाम, कभी सुबह, कभी अंधेरे, कभी उजाले में झरते पत्तों को चित्रित करने मे कामयाब हुए हैं। टेक्स्चर उनका अलंकार है। इससे वे कैनवास को सजाते हैं। ये कैनवास पत्ता टूटा डाली से पवन ले गई उडा़व जैसी काव्य पंक्ति के रूप हैं। जीवन चक्र को ज्यादा कल्पनाशील ढंग से अभिव्यक्त करते हुए। राजीव के इन कैनवास को देखना जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव और रहस्यों को देखना-समझना है। इसमें जीवन के कई मूड्स हैं।

Monday, May 18, 2009

जिसके कंधे पर सिर रखकर रो सकें


किताबों पर लिखी जा रही श्रृंखला की दूसरी कड़ी

वह कुर्सी अब भी है। उसका एक हत्था ढीला हो चुका है। उसका रंग उड़ चुका है। अब वह ज्यादा कत्थई-भूरी दिखती है। वह सागौन की अच्छी लकड़ी से बनी कुर्सी है। सुबह की गुनगुनी धूप में या किसी ठिठुरती रात में हमारे घर की जर्जर पीली रोशनी में पिता इसी कुर्सी पर बैठकर अपनी मनपसंद किताबें पढ़ते रहते।
कभी गीता या रामचरित मानस का कोई गुटका, प्रेमचंद का गोदान या निर्मला, दिनकर के संस्कृति के चार अध्याय या फिर मुक्तिबोध का चाँद का मुँह टेढ़ा है। वे मराठी बहुत अच्छी बोलते थे और मराठी नाटकों में उन्होंने कई भूमिकाएँ अदा कीं।
वे मराठी साहित्य प्रेमी भी थे। मुझे उनसे जो लकड़ी की हरी पेटी मिली थी, उसमें इन बहुत सारी किताबों के साथ ही मराठी के नाटककार रामगणेश गडकरी के नाटक भी थे।
मैं अक्सर उन्हें उन किताबों में डूबा देखता था और सोचता था कि आखिर किताबों में ऐसा क्या है। एक दिन ऐसा नहीं जाता कि पिता किसी किताब को लिए बैठे न हों।
जैसे अपने जीवन में सब लोग अपने प्रिय जनों को हमेशा हमेशा के लिए खो देते हैं, ठीक उसी तरह मेरे पिता ने भी अपने प्रियजनों को बारी-बारी से खोया। जैसे कि मैंने उन्हें खो दिया। हमेशा के लिए। पिता के जाने के बाद मैंने माँ को पढ़ते हुए देखा। अब मैंने अपनी माँ को भी खो दिया है।
मैं भी किताबें पढ़ता हूँ और मुझे किताबें पढ़ता हुआ देख मेरा बेटा मुझे देखता है।
पहले पिता के पास किताबों को रखने के लिए कोई रैक नहीं थी। वे अपनी किताबें एक लकड़ी की पेटी में रखते थे।

फिर मैंने किताबें खरीदना शुरू कीं तो उन्हें सस्ती लकड़ी के एक रैक में रखता था। अब नए घर में दो-तीन आलमारियाँ हैं जिनमें मेरी किताबें भरी हैं। इनमें वे किताबें भी हैं जो मेरे पिता से मुझे मिली थीं।

मैं उन घरों में जाकर सिहर जाता हूँ जहाँ किताबों के लिए कोई कोना नहीं देखता ।
हमारे घर गोदामों में तब्दील हो चुके हैं। उनमें सुख-सुविधा के तमाम साधन हैं लेकिन कई घरों में देखता हूँ कि वहाँ किताबों के लिए कोई कोना नहीं है।

मैं चाहता हूँ कि मैं अपने पिता की वह कुर्सी हमेशा-हमेशा के लिए सड़ने से बचा लूँ जिस पर बैठकर वे किताबें पढ़ते थे। मैं चाहता हूँ मेरे बाद मेरा बेटा यह कुर्सी हमेशा-हमेशा के लिए बचा ले ताकि वह इस पर बैठकर कोई किताब पढ़ सके। और मेरे जाने से जो खालीपन उसके जीवन में पैदा होगा वह किताबों की खूबसूरत दुनिया से थोड़ा भर ले।
जैसे मैं अपने माता-पिता के जाने के बाद पैदा हुआ खालीपन किताबों से भरने की कोशिश करता हूँ।

युवा कहानीकार जयशंकर ने कितनी मार्मिक बात कही है-मुझे लगता रहा था कि अपने प्रियजनों के चले जाने के बाद जैसा खालीपन जीवन में उतरता चला जाता है, उसे किताबों से भी थोड़ा बहुत भरा जा सकता है। वहाँ किताबें हमारे आत्मीयजनों में बदल जाती हैं। वे हमारी मित्र हो जाती हैं और अपने कन्धों पर हमारा सर रख लेती हैं कि हम कुछ देर तसल्ली के साथ रो सकें। सांत्वना पा सकें। अपने जीने को सह सकें, अपने जीवन को समझ सकें।
मैं चाहता हूँ हर घर में कोई ऐसी किताब हो जिसके कंधे पर हम अपना सिर रखकर रो सकें। सांत्वना पा सकें। अपने जीने को सह सकें, अपने जीवन को समझ सकें।

Saturday, May 16, 2009

मोनालिसा! हम आ रहे हैं!!



वे बरसों से सभी को अपनी ओर खींच रही हैं। विशेषकर चित्रकारों को। उनका चेहरा अलौकिक है, मुस्कान चिर रहस्यमयी। चेहरे और आंखों के भाव इतने विरल और तरल हैं कि हजारों अर्थ निकाले जाते हैं। उनके प्रति मोह अंतहीन है। यही कारण है, सब उनकी ओर खींचे चले जाते हैं। वे मानालिसा हैं। इटली के महान चित्रकार-शिल्पकार लियोनार्दो दा विची की कालजयी कलाकृति। शहर के तीन कलाकार मोनालिसा की असल पेंटिंग को निहारना चाहते हैं। ये हैं ईश्वरी रावल, बीआर बोदड़े और सुशीला बोदड़े। ये तीनों कलाकार 15 मई को विदेश यात्रा पर नौ कलाकारों के साथ जा रहे थे। इसमें पुणे के छह कलाकार शामिल हैं। लेकिन स्वाइन फ्लू के कारण इन्होंने अपनी यात्रा फिलहाल स्थगित कर दी है। हालात ठीक होते ही वे यह यात्रा करेंगे।
दल का इरादा है कि घूमें भी और दुनिया की मशूहर आर्ट गैलरीज, संग्रहालय और पेंटिंग्स देखने का मौका न चूकें। यह दल अपनी सत्रह दिवसीय यात्रा में लंदन, पेरिस, रोम, फ्लोरेंस, वेटिकन सिटी, लुक्रेन(स्विट्जरलैंड ), इन्सप्रक(आस्ट्रिया), ब्रूसेल्स, एम्सटर्डम की सैर करेगा। इस दौरान ये कलाकार न केवल मशहूर आर्ट गैलरीज में विश्वविख्यात पेंटिंग्स को देखेंगे बल्कि चाहते हैं कि वहां मौजूद समकालीन कलाकारों से बातचीत भी हो सके।
वरिष्ठ चित्रकार ईश्वरी रावल बताते हैं कि मैं मोनालिसा को न केवल निहारना चाहता हूं बल्कि मैं उनके हाथों की बनावट का भी अध्ययन करना चाहता हूं क्योंकि कुछ शोधों का निष्कर्ष है कि मोनालिसा की अंगुलियां सूजी हुई हैं जो किसी बीमारी के लक्षण हैं। मोनालिसा पिछले पांच सौ सालों से कला इतिहास के केंद्र में हैं और उनसे लिपटे रहस्य अब तक बरकरार है। इस पेंटिंग को लेकर कई अध्ययन हुए हैं और सिद्धांत प्रतिपादित किए गए हैं। आज भी मोनालिसा को लेकर अध्ययन जारी हैं। जाहिर है यह लियोनार्दो दा विंची की अद्भुत कल्पना की कालजयी कृति है। यह पेंटिंग पेरिस के लुव्र संग्रहालय में है। श्री रावल बताते हैं कि मैं इसके अलावा लंदन की नेशनल गैलरी में अतियथार्थवादी महान चित्रकार सल्वाडोर डाली की अमर चित्रकृति मेटामार्फासिस आफ नैरसिसस देखने की भी गहरी उत्सुकता है और साथ ही ज्यां ओनार फ्रेगनार्ड के बनाए बच्चों के चित्र भी देखना चाहता हूं। इसके अलावा जॉन कॉन्स्टेबल द्वारा बनाया गया अपनी पत्नी का व्यक्तिचित्र मारिया बिकनेल देखूंगा।
वरिष्ठ चित्रकार बीआर बोदडे कहते हैं कि हम इस विदेश को यात्रा यादगार बनाने के लिए दुनिया के यादगार पेंटिंग्स देखने का मौका नहीं चूकना चाहते हैं। किसी भी चित्रकार के लिए यह दुर्लभ और अनूठा अनुभव हो सकता है कि वह दुनिया के दिग्गज चित्रकारों की मशहूर पेंटिंग्स के सामने खड़ा हो। हम जिन गैलरीज और संग्रहालयों में जाएंगे उनमें पाब्लो पिकासो से लेकर वान गॉग, गोया से लेकर रेम्ब्रां तक की पेंटिंग्स देख सकेंगे। संभव हुआ तो समकालीन चित्रकारों से संवाद करेंगे। वे कहते हैं कि मोनालिसा पेंटिंग्स के बारे में इतना सुन औऱ पढ़ रखा है कि उसकी असल पेंटिंग देखने की तमन्ना बरसों से मन में संजो रखी थी। उसे देखने के लिए मैं आतुर हूं और चाहता हूं कि उसके सामने ज्यादा से ज्यादा वक्त बिता सकूं। चित्रकार सुशीला बोदड़े तो रोमांचित हैं कि वे जल्द ही मोनालिसा की असल पेंटिंग को देख सकेंगी। वे कहती हैं मैंने आज से लगभग बास साल पहले मोनालिसा का एक बहुत ही खूबसूरत कैलेंडर देखा था। उनकी मोहक मुस्कान देखकर मैं मोहित हो गई थी। सोचा करती थी कि वह स्त्री कितनी खूबसूरत होगी जिसके चारों ओर अब भी रहस्य लिपटा है। इतनी रेअर पेंटिंग को देखना इस जीवन का सचमुच बहुत ही अनूठा अनुभव होगा। मैं रोमांचित हूं।

इमेजेसः
१. मोनालिसा
२. डाली की मेटामार्फिसिस आफ नैरसिसस

किताब, देह, स्त्री और सुजाताजी की प्रतिक्रिया

मेरी पोस्ट पर चिट्ठा चर्चा में सुजाताजी ने अपनी विनम्र असहमति जताई है। हरा कोना चिट्ठा चर्चा और सुजाताजी के प्रति आभार प्रकट करते हुए उस असहमति को यहां अविकल प्रस्तुत कर रहा है।

स्त्री देह का रहस्य एक सोशल कंस्ट्रक्ट है
मैं जब भी अपनी किसी प्रिय किताब को छूता हूं तो लगता है, एक स्त्री को छू रहा हूं। एक स्त्री की तरह किताब भी अपने सारे रहस्य एक बार में नहीं खोलती। पूरे दुःख में, पूरे सुख में, सारी ऋतुओं में, उसे बार-बार छूकर और पढ़कर ही सही अर्थों में हासिल किया जा सकता है। और तब वह अपने रहस्यों के अर्थ खोलती है। धीरे धीरे। एक विलंबित लय में।
एक देह में रूके समय को बहने के लिए और एक किताब में रूके समय को बहने के लिए एक प्रेमिल निगाह और प्रेमिल स्पर्श चाहिए होता है।
जब रवींद्र व्यास यह लिख रहे थे तो शायद उनके अनजाने ही इस धारणा को बल मिल रहा था कि स्त्री सदा पुरुष के लिए एक रहस्य रहती है।क्या वाकई इतना रूमानी होना सही है कि हम रहस्य -स्त्री देह -स्पर्श- किताब को एक साथ एक रूमानियत से देखने लगें! लगभग वही बात कि स्त्री का चरित्र तो ईश्वर भी नही जान सकता।क्या वाकई?मै सोचती हूँ कि क्या किताब के पास जाना किसी स्त्री के लिए भी किसी पुरुष के पास जाने जैसा होता होगा? क्या कभी ऐसा होता होगा?शायद आप बता पाएँ ! मेरे लिए कम से कम ऐसा नही।
मेरे लिए शायद यह ऐसा हो जैसा कि किसी कार्टून सीरियल मे एलियंस आते हैं रियल दुनिया मे जिन्हे हीरो अपने हथियारों और प्रयासों से किसी दूसरे डायमेंशन मे भेज देता है।किताब की दुनिया ऐसे ही किसी दूसरे डायमेंशन मे भेज देती है।
किताब को पढना कैसा है, सबके लिए अलग अलग हो सकता है इसका जवाब।
लेकिन फिलहाल मै इस पोस्ट को पढकर विचलित हूँ।रवीन्द्र ने जो लिखा वह आपने पढा।जो नही लिखा उसे मैने पढा। रहस्य को स्त्री देह के साथ जोड़कर महसूस करना और रूमानियत मे खो जाना व्यतीत क्यों नही होता? क्या रहस्य है ? कितना ही खुलापन है ,मीडिया है,विज्ञापन हैं,अंतर्जाल है जो ज्ञान के भंडार के साथ प्रस्तुत है , क्या जानना है? क्या रहस्य है?कम से कम वह स्त्री देह तो नही ही है।पहले स्कूल की किताब मे नवीं कक्षा मे कुछ समझ आता था कुछ नही।जिज्ञासा दोनो ओर थी।लेकिन क्या अब भी ?
जब जब हम स्त्रीके साथ इस रहस्य को जोड़ते हैं तो हमारे किशोर इस मूल्य के साथ बड़े होते हैं कि स्त्री रहस्य है इसलिए उससे डील करना आसान नही है। इसलिए वे उसके पास जाने से पहले अपने अस्त्र शस्त्र और योजनाएँ बना कर जाते हैं।मुक्त हो कर सहज भाव से नही।यदि आपको बताया जाए कि आप किसी तिलिस्म के दरवाज़े पर खड़े हैं तो स्वाभाविक ही होगा कि आपकी मन:स्थिति जूझने , लड़ने, विजयी होने , जीतने या भय के कारण उतपन्न असुरक्षा और अभिमान की होगी।एक ग्रंथि ! एक ऐसी ग्रंथि जो इस दुनिया मे स्त्री को कभी पुरुश के लिए और पुरुष को स्त्री के लिए सहज नही होने देती।
ऐसे मे जेंडर समानता की उम्मीद एक मुश्किल बात लगती है।कुछ रहस्य नही है।देह तो बिलकुल नही।इसे स्वीकार करना होगा। मन की बात है तो मन तो पुरुष का भी उतना ही रहस्य है।मन है ही रहस्य लोक ! मनोविज्ञान खुद मानता है इस बात को ।
स्त्री देह को रहस्यमयी मानना एक सोशल कंस्ट्रक्ट है।किसी भी अन्य सामाजिक संरचना की तरह इसकी भी सीमाएँ , खामियाँ,षडयंत्र , प्रयोजन , मकसद हैं।इन मूल्यों को आत्मसात करने वाली किशोरी अपनी वर्जिनिटी के खोने से किस तरह त्रस्त होकर आत्महत्या पर मजबूर होती है यह हम सुनते देखते हाए हैं?रहस्य है ? तो रह्स्य खुलने पर सब खत्म !!! है न !!
शब्द जो जाल बिछाते हैं उनसे उबरना स्त्री विमर्श के लिए बेहद ज़रूरी है।फिर बहुत सम्भव है कि यह शब्द जाल अजाने मे ही किन्ही जड़ीभूत संस्कारों के कारण प्रकट हुआ हो।
निश्चित ही रवीन्द्र का यह आलेख , बल्कि अधिकांश आलेख उत्तम होते हैं।लेकिन यहाँ उनसे मेरी विनम्र असमति है।पुस्तक प्रेम बढाने के लिए आप पुस्तक मे स्त्री देह का उपमान दें यह मौलिक भले ही हो लेकिन मासूम नही है।एकतरफा है।एकांगी है।स्त्री की नज़र से भी इसे देखें!

Friday, May 15, 2009

किताब के पास जाना, एक स्त्री के पास जाना है


क्या किताब के पास जाना एक स्त्री देह के पास जाने जैसा है। यह बहुत ही रोमांचक और उत्तेजित करने वाला अनुभव है।
स्त्री की तरह ही किताबों में सदियों की करवटें सोयी रहती हैं। एक प्रेमिल निगाह और आत्मीय स्पर्श पाकर वे करवटें अपनी तमाम बेचैनियों के साथ अपना चेहरा आपकी ओर करती हैं। लगभग पत्थर हो चुकी उसकी आंखें आपको एक नाउम्मीदी से टकटकी लगाए देख रही होती हैं। वह विरल व्यक्ति होगा जो स्त्रियों के पास जाते हुए उसकी आत्मा पर पड़ी सदियों की खरोंचों पर धीरे धीरे अपनी अंगुलियां फेरता है और पाता है कि उसकी समूची देह वह प्रेमिल स्पर्श पाकर एक लय में कांप रही है।
उन खरोंचों में मवाद है। वहां सूख चुकी मृत चमड़ी की महिन परतें हैं। लेकिन उसके नीचे अब तक सदियों में मिले असंख्य घाव हैं। वे अब तक ताजा हैं, अपने हरेपन में छिपते हुए। जैसे वे सदियों पुराने नहीं, बस कल रात के ही हों। और उंगली फिराते हुए कोई सूखी चमड़ी की परत उखड़ती है और वहां बिना किसी चीख या आह के घाव उघड़ जाते हैं और रक्त की सहसा उछल आई बूंद में बदल जाते हैं। बस यहीं और यहीं एक देह भी और इस तरह एक किताब भी यह महसूस करती है कि यही है वह स्पर्श जिसने मुझे ऐसे छुआ है कि इसके पहले कभी किसी ने नहीं छुआ था। और उसकी आत्मा के चंद्रमा से सदियों से जो सफेद, महिन बुरादा झर रहा था वह अचानक एक दूधिया उजाले में अपनी पूरी पवित्रता के साथ झिलमिलाने लगता है।
एक देह इसी पवित्रता में अपना कायांतरण इस तरह करती है कि सदियों से चट्टान के नीचे दबे बीज अंगड़ाई लेकर हरेपन के अनंत में अपनी नीली-पीली कोमलता में खुलते-खिलते हुए चमकने लगते हैं।
किताब के पास जाना एक स्त्री के पास जाना है। वह आपके स्पर्श करने के कौशल पर निर्भर करता है कि उसी देह को आप कैसे एक नई देह में बदलते हैं। यदि इस स्पर्श में यांत्रिकता और रोजमर्रा का उतावलापन है तो हो सकता है आप वही देह पाएंगे जो आपको लगभग निर्जीव-सा अनुभव देगी। तब शायद आप उस दुःख के आईने में नहीं झांक पाएंगे जिनमें दुनिया के झिलमिलाते अक्स हैं।
किताब एक स्त्री की आत्मा का घर है
जिसमें देह का रोना सुनाई देता है
रोना एक स्वप्न है
जिसमें बहुत सारी हिचकियां रहती हैं
हिचकियां एक चादर है
जिसके रेशों में दुःख का रंग है
दुःख एक आईना है
आईने में दुनिया के अक्स हैं।
किताब के पास जाना सचमुच एक स्त्री के पास जाना है। वहां अपने अकेलेपन में, अपनी ही धुरी पर घूमती पृथ्वी की आवाज एक आलाप की तरह सुनाई देती है। वहां अमावस्या और पूर्णिमा के बीच एक बेचैन चीख की आवाजाही है जिसका कोई ठोर नहीं। कोई ओर नहीं, कोई छोर नहीं। वह अनंत में अंतहीन है।
जब आप किसी किताब को छूते हैं, वह एक स्त्री को छूने जैसा ही है। आप उसे छूएंगे तो वहां आपको उजाड़ का धूसर और भूरापन भी मिलेगा और बसंत का नीला और पीलापन भी। वहां आपको बारिश की विलंबित लय भी मिलेगी और सूखे का चारों ओर गूंजता सन्नाटा भी। वहां रक्त को जमा देने वाली शीत ऋतु भी मिलेगी तो आपको ग्रीष्म का वह ताप भी मिलेगा जो आपकी आत्मा में पैठ चुकी प्राचीन सीलन को सूखाकर उड़ा देगा।
मैं जब भी अपनी किसी प्रिय किताब को छूता हूं तो लगता है, एक स्त्री को छू रहा हूं। एक स्त्री की तरह किताब भी अपने सारे रहस्य एक बार में नहीं खोलती। पूरे दुःख में, पूरे सुख में, सारी ऋतुओं में, उसे बार-बार छूकर और पढ़कर ही सही अर्थों में हासिल किया जा सकता है। और तब वह अपने रहस्यों के अर्थ खोलती है। धीरे धीरे। एक विलंबित लय में।
एक देह में रूके समय को बहने के लिए और एक किताब में रूके समय को बहने के लिए एक प्रेमिल निगाह और प्रेमिल स्पर्श चाहिए होता है।

इमेज ः
परेश मैती का जलरंग

Monday, May 11, 2009

पेंटिग्स कौन खरीदेगा?


हरा कोना पर मंदी के मद्देनजर एक पोस्ट लगाई गई थी-कौन बिकेगा, कौन नहीं। ख्यात कार्टूनिस्ट अभिषेक ने उसी पोस्ट के मद्देनजर यह कार्टून खासतौर पर हरा कोना के लिए भेजा है। हरा कोना उनके प्रति गहरा आभार प्रकट करते हुए यह कार्टून यहां प्रकाशित कर रहा है।

Saturday, May 9, 2009

कौन बिकेगा, कौन नहीं?



मंदी का असर चारों तरफ है। इसने कला-जगत पर भी असर किया है। पहला असर तो यही है कि इसका बाजार ठंडा पड़ गया है। दूसरा असर ये हुआ है कि अब यह बहस चल पड़ी है कि कला बाजार में आकृतिमूलक (फिगरेटिव) चित्र ज्यादा पसंद किए जाएंगे कि अमूर्त(एब्स्ट्रेक्ट)।
वरिष्ठ चित्रकार बीआर बोदड़े का कहना है कि मंदी का असर कलाकारों पर भी पड़ा है और बड़े महानगरों की बड़ी आर्ट गैलरीज ने अपने शो स्थगित कर दिए हैं। जिन कलाकारों ने दो-तीन साल पहले से बुकिंग कर रखी थी वे ही अपने शो कर रहे हैं और नए शो प्लान नहीं किए जा रहे हैं। वे कहते हैं कि मंदी के पहले कला बाजार में जो बूम आया था उसमें हर तरह का काम बिका लेकिन अब स्थिति ज्यादा साफ होगी क्योंकि अब लोग फिगरेटिव पेंटिंग्स ज्यादा पसंद करेंगे। इसका अब भी मार्केट है और यह लंबे समय तक चलेगा। पैसा कमाने के लिए जो अमूर्त चित्रकार कला में कूद पड़े थे उन्हें निराशा हाथ लगेगी। आकृतिमूलक चित्रकारी करने वाले युवा चित्रकार बृजमोहन आर्य का कहना है कि फिगरेटिव पेंटिंग्स से लोग अपने को ज्यादा सहज तरीके से कनेक्ट कर लेते हैं। इस तरह की पेंटिंग्स उनके अनुभव संसार का हिस्सा ही जान पड़ती है इसलिए वह उन्हें आकर्षित करती है और वे इसे खरीदते हैं।
युवा अमूर्त चित्रकार मोहित भाटिया अपना अलग नजरिया पेश करते हैं। उनका मानना है कि मंदी का दौर अस्थायी है लेकिन महत्वपूर्ण और स्थायी बात यह है कि चित्रकारी बेहतरीन होना चाहिए। वे आकृतिमूलक चित्रकारी और अमूर्त चित्रकारी की बहस को निरर्थक मानते हैं और कहते हैं कि जो अच्छा काम करेगा वह बिकेगा। इसलिए जेनुइन कलाकार कभी भी उपेक्षित नहीं किए जा सकते।
वरिष्ठ चित्रकार ईश्वरी रावल कहते हैं कि यह बाजार तय नहीं कर सकता कि आकृतिमूलक चित्र ज्यादा बिकेंगे कि अमूर्त चित्र। बाजार किसी भी कला का सही मूल्यांकन नहीं कर सकता। खास बात यह है कि कलाकार अपने चित्रों में रमा है कि नहीं। और यह भी कि उसकी चित्रकला पर बाजार का दबाव तो नहीं। आज कई ऐसे अमूर्त चित्रकार हैं जो परंपरा से दीक्षित होकर नहीं आए हैं। उन्होंने सीधे ही अमूर्त चित्रकारी करना शुरू कर दिया है। मैं मानता हूं कि जो अमूर्त चित्रकार यथार्थपरक चित्रकारी से होकर गुजरा है उसके अमूर्त चित्र भी ज्यादा सुंदर होंगे। चूंकि खरीदार को कला की उतनी समझ नहीं होती इसलिए वह कई बार सिर्फ रंगों से ही प्रभावित होकर चित्र खरीद लेता है जबकि यह जरूरी नहीं कि वह चित्र अच्छा हो।
युवा चित्रकार राजीव वायंगणकर का कहना है कि अब जिन लोगों ने चित्रकारी की फैक्टरी लगा रखी थी उसे बंद करने का समय है। कुछ लोगों ने कलाकारों ने चित्रकारी का प्रोडक्शन शूरू कर दिया था और अपने चित्रों का उतना समय नहीं दिया जितने की दरकार थी। कई चित्रकारों ने बाजार की मांग के अनुसार चित्रकारी की है। उनका मानना है कि आकृतिमूलक बनाम अमूर्त चित्रकारी की बहस नकली औऱ बेकार है। वे तर्क देते हैं कि संगीत चाहे शास्त्रीय हो या सुगम, मायने इस बात के हैं कि वह सुर-ताल में है कि नहीं। यही बात चित्रकारी पर भी लागू होती है। यह बात मायने नहीं रखती कि चित्र आकृतिमूलक है या अमूर्त । मायने यह बात रखती है कि उसमें सुर-ताल है कि नहीं।
इमेजेसः
ईश्वरी रावल का अमूर्त चित्र
बृजमोहन आर्य की पेंटिंग संगीतकार

Monday, May 4, 2009

जिंदगी से बेदखल पसीने की गंध


मेरे पिता के पसीने की गंध अब भी मेरे मन में बसी है। वे हमेशा पैदल चलते थे और उन्होंने कभी साइकिल तक नहीं चलाई। उनके बचपन का एक फोटो मैंने अब तक संभाल कर रखा है जिसमें वे तीन पहिए की साइकिल पर बैठे हैं। उन्होंने मुझे बहुत कम गोद में उठाया। संयुक्त परिवार में होने के कारण माँ हमेशा रसोईघर में रहती और मुझे मेरी बड़ी बहनें संभालती।
मुझे याद है, बचपन में खेलते हुए जब मेरे दाहिने पैर के अँगूठे का नाखून उखड़ गया तो पिता ने मुझे गोद में उठाया और सिख मोहल्ले के डॉक्टर सिंह के क्लिनिक ले गए क्योंकि उस दिन शायद डॉक्टर फाटक नहीं थे जो हमारे परिवार के सभी सदस्यों का इलाज करते थे।
मैंने रोते हुए पिता के कंधे पर अपना सिर रखा था और दर्द को सहते हुए मुझे पिता के पसीने की गंध भी आ रही थी। उसमें सरसों के तेल की गंध भी शामिल थी क्योंकि पिता कसरत के पहले मालिश किया करते थे।
हमारा घर बहुत छोटा था। बहनें जब कभी बाहर जाती, मेरी पीठ के पीछे कपड़े बदल लिया करती थीं। मेरी पीठ उनके लिए छोटा-सा कमरा थीं। कई बार जल्दबाजी में वे कपड़े ऐसे पटकती कि वे मेरे सिर पर गिरते थे। उनके पसीने में राई-जीरे से लगे बघार की गंध होती थी। उनके पसीने की गंध मैं भूला नहीं हूँ।
और दुनिया में कौन ऐसा बच्चा होगा जो अपनी माँ के पसीने की गंध को भूल सकता है।
और आज खुशबू का करोड़ों का कारोबार है, जिंदगी से पसीने की गंध को बेदखल करता हुआ। एक विज्ञापन बताता है कि एक खुशबू में इतना आकर्षण, सम्मोहन और ताकत है कि दीवारों में लगी पत्थर की हूरें जिंदा होकर चुपचाप मंत्रमुग्ध-सी उस बाँके युवा के पीछे चल पड़ती हैं जिसने एक खास तरह के ब्रांड की खुशबू लपेट रखी है।
अब तो हर जगह को नकली खुशबूओं ने घेर रखा है। शादी हो या कोई उत्सव, या चाहे फिर कोई-सा प्रसंग नकली खुशबुओं का संसार पसरा पड़ा है। जिसको देखो वह बाजार में सजी नकली खुशबू में नहाया निकलता है। मजाल है जो कहीं से पसीने की गंध आ जाए। और अब तो खुशबूएँ कहाँ नहीं हैं। वे हमारी गोपन जगहों पर भी पसरी पड़ी हैं क्योंकि अब बाजार में कंडोम भी कई तरह की खुशबू में लिपटे मिलते हैं।
मैं जहाँ कहीं, किसी कार्यक्रम में जाता हूँ तो लोग नाना तरह की खुशबू में नहाए मिलते हैं। इन समारोह में कई ऐसे दृश्य भी दिखाई देते हैं जहाँ पिता अपने बच्चों को ढूँढ़ रहे हैं, माँएँ अपने बच्चों को गोद में बैठाकर आईसक्रीम खिला रही हैं या फिर बहनें अपने छोटे भाई का हाथ पकड़कर उसे नूडल्स के स्टॉल की ओर ले जा रही हैं। और ये सब नकली खुशबू में नहाए खाते-पीते खिलखिला रहे हैं।
खुशबू के फैले इस संसार में क्या उस बच्चे को अपने पिता, माँ या बहन के पसीने की गंध की याद रहेगी?