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Saturday, May 16, 2009

किताब, देह, स्त्री और सुजाताजी की प्रतिक्रिया

मेरी पोस्ट पर चिट्ठा चर्चा में सुजाताजी ने अपनी विनम्र असहमति जताई है। हरा कोना चिट्ठा चर्चा और सुजाताजी के प्रति आभार प्रकट करते हुए उस असहमति को यहां अविकल प्रस्तुत कर रहा है।

स्त्री देह का रहस्य एक सोशल कंस्ट्रक्ट है
मैं जब भी अपनी किसी प्रिय किताब को छूता हूं तो लगता है, एक स्त्री को छू रहा हूं। एक स्त्री की तरह किताब भी अपने सारे रहस्य एक बार में नहीं खोलती। पूरे दुःख में, पूरे सुख में, सारी ऋतुओं में, उसे बार-बार छूकर और पढ़कर ही सही अर्थों में हासिल किया जा सकता है। और तब वह अपने रहस्यों के अर्थ खोलती है। धीरे धीरे। एक विलंबित लय में।
एक देह में रूके समय को बहने के लिए और एक किताब में रूके समय को बहने के लिए एक प्रेमिल निगाह और प्रेमिल स्पर्श चाहिए होता है।
जब रवींद्र व्यास यह लिख रहे थे तो शायद उनके अनजाने ही इस धारणा को बल मिल रहा था कि स्त्री सदा पुरुष के लिए एक रहस्य रहती है।क्या वाकई इतना रूमानी होना सही है कि हम रहस्य -स्त्री देह -स्पर्श- किताब को एक साथ एक रूमानियत से देखने लगें! लगभग वही बात कि स्त्री का चरित्र तो ईश्वर भी नही जान सकता।क्या वाकई?मै सोचती हूँ कि क्या किताब के पास जाना किसी स्त्री के लिए भी किसी पुरुष के पास जाने जैसा होता होगा? क्या कभी ऐसा होता होगा?शायद आप बता पाएँ ! मेरे लिए कम से कम ऐसा नही।
मेरे लिए शायद यह ऐसा हो जैसा कि किसी कार्टून सीरियल मे एलियंस आते हैं रियल दुनिया मे जिन्हे हीरो अपने हथियारों और प्रयासों से किसी दूसरे डायमेंशन मे भेज देता है।किताब की दुनिया ऐसे ही किसी दूसरे डायमेंशन मे भेज देती है।
किताब को पढना कैसा है, सबके लिए अलग अलग हो सकता है इसका जवाब।
लेकिन फिलहाल मै इस पोस्ट को पढकर विचलित हूँ।रवीन्द्र ने जो लिखा वह आपने पढा।जो नही लिखा उसे मैने पढा। रहस्य को स्त्री देह के साथ जोड़कर महसूस करना और रूमानियत मे खो जाना व्यतीत क्यों नही होता? क्या रहस्य है ? कितना ही खुलापन है ,मीडिया है,विज्ञापन हैं,अंतर्जाल है जो ज्ञान के भंडार के साथ प्रस्तुत है , क्या जानना है? क्या रहस्य है?कम से कम वह स्त्री देह तो नही ही है।पहले स्कूल की किताब मे नवीं कक्षा मे कुछ समझ आता था कुछ नही।जिज्ञासा दोनो ओर थी।लेकिन क्या अब भी ?
जब जब हम स्त्रीके साथ इस रहस्य को जोड़ते हैं तो हमारे किशोर इस मूल्य के साथ बड़े होते हैं कि स्त्री रहस्य है इसलिए उससे डील करना आसान नही है। इसलिए वे उसके पास जाने से पहले अपने अस्त्र शस्त्र और योजनाएँ बना कर जाते हैं।मुक्त हो कर सहज भाव से नही।यदि आपको बताया जाए कि आप किसी तिलिस्म के दरवाज़े पर खड़े हैं तो स्वाभाविक ही होगा कि आपकी मन:स्थिति जूझने , लड़ने, विजयी होने , जीतने या भय के कारण उतपन्न असुरक्षा और अभिमान की होगी।एक ग्रंथि ! एक ऐसी ग्रंथि जो इस दुनिया मे स्त्री को कभी पुरुश के लिए और पुरुष को स्त्री के लिए सहज नही होने देती।
ऐसे मे जेंडर समानता की उम्मीद एक मुश्किल बात लगती है।कुछ रहस्य नही है।देह तो बिलकुल नही।इसे स्वीकार करना होगा। मन की बात है तो मन तो पुरुष का भी उतना ही रहस्य है।मन है ही रहस्य लोक ! मनोविज्ञान खुद मानता है इस बात को ।
स्त्री देह को रहस्यमयी मानना एक सोशल कंस्ट्रक्ट है।किसी भी अन्य सामाजिक संरचना की तरह इसकी भी सीमाएँ , खामियाँ,षडयंत्र , प्रयोजन , मकसद हैं।इन मूल्यों को आत्मसात करने वाली किशोरी अपनी वर्जिनिटी के खोने से किस तरह त्रस्त होकर आत्महत्या पर मजबूर होती है यह हम सुनते देखते हाए हैं?रहस्य है ? तो रह्स्य खुलने पर सब खत्म !!! है न !!
शब्द जो जाल बिछाते हैं उनसे उबरना स्त्री विमर्श के लिए बेहद ज़रूरी है।फिर बहुत सम्भव है कि यह शब्द जाल अजाने मे ही किन्ही जड़ीभूत संस्कारों के कारण प्रकट हुआ हो।
निश्चित ही रवीन्द्र का यह आलेख , बल्कि अधिकांश आलेख उत्तम होते हैं।लेकिन यहाँ उनसे मेरी विनम्र असमति है।पुस्तक प्रेम बढाने के लिए आप पुस्तक मे स्त्री देह का उपमान दें यह मौलिक भले ही हो लेकिन मासूम नही है।एकतरफा है।एकांगी है।स्त्री की नज़र से भी इसे देखें!

Friday, May 15, 2009

किताब के पास जाना, एक स्त्री के पास जाना है


क्या किताब के पास जाना एक स्त्री देह के पास जाने जैसा है। यह बहुत ही रोमांचक और उत्तेजित करने वाला अनुभव है।
स्त्री की तरह ही किताबों में सदियों की करवटें सोयी रहती हैं। एक प्रेमिल निगाह और आत्मीय स्पर्श पाकर वे करवटें अपनी तमाम बेचैनियों के साथ अपना चेहरा आपकी ओर करती हैं। लगभग पत्थर हो चुकी उसकी आंखें आपको एक नाउम्मीदी से टकटकी लगाए देख रही होती हैं। वह विरल व्यक्ति होगा जो स्त्रियों के पास जाते हुए उसकी आत्मा पर पड़ी सदियों की खरोंचों पर धीरे धीरे अपनी अंगुलियां फेरता है और पाता है कि उसकी समूची देह वह प्रेमिल स्पर्श पाकर एक लय में कांप रही है।
उन खरोंचों में मवाद है। वहां सूख चुकी मृत चमड़ी की महिन परतें हैं। लेकिन उसके नीचे अब तक सदियों में मिले असंख्य घाव हैं। वे अब तक ताजा हैं, अपने हरेपन में छिपते हुए। जैसे वे सदियों पुराने नहीं, बस कल रात के ही हों। और उंगली फिराते हुए कोई सूखी चमड़ी की परत उखड़ती है और वहां बिना किसी चीख या आह के घाव उघड़ जाते हैं और रक्त की सहसा उछल आई बूंद में बदल जाते हैं। बस यहीं और यहीं एक देह भी और इस तरह एक किताब भी यह महसूस करती है कि यही है वह स्पर्श जिसने मुझे ऐसे छुआ है कि इसके पहले कभी किसी ने नहीं छुआ था। और उसकी आत्मा के चंद्रमा से सदियों से जो सफेद, महिन बुरादा झर रहा था वह अचानक एक दूधिया उजाले में अपनी पूरी पवित्रता के साथ झिलमिलाने लगता है।
एक देह इसी पवित्रता में अपना कायांतरण इस तरह करती है कि सदियों से चट्टान के नीचे दबे बीज अंगड़ाई लेकर हरेपन के अनंत में अपनी नीली-पीली कोमलता में खुलते-खिलते हुए चमकने लगते हैं।
किताब के पास जाना एक स्त्री के पास जाना है। वह आपके स्पर्श करने के कौशल पर निर्भर करता है कि उसी देह को आप कैसे एक नई देह में बदलते हैं। यदि इस स्पर्श में यांत्रिकता और रोजमर्रा का उतावलापन है तो हो सकता है आप वही देह पाएंगे जो आपको लगभग निर्जीव-सा अनुभव देगी। तब शायद आप उस दुःख के आईने में नहीं झांक पाएंगे जिनमें दुनिया के झिलमिलाते अक्स हैं।
किताब एक स्त्री की आत्मा का घर है
जिसमें देह का रोना सुनाई देता है
रोना एक स्वप्न है
जिसमें बहुत सारी हिचकियां रहती हैं
हिचकियां एक चादर है
जिसके रेशों में दुःख का रंग है
दुःख एक आईना है
आईने में दुनिया के अक्स हैं।
किताब के पास जाना सचमुच एक स्त्री के पास जाना है। वहां अपने अकेलेपन में, अपनी ही धुरी पर घूमती पृथ्वी की आवाज एक आलाप की तरह सुनाई देती है। वहां अमावस्या और पूर्णिमा के बीच एक बेचैन चीख की आवाजाही है जिसका कोई ठोर नहीं। कोई ओर नहीं, कोई छोर नहीं। वह अनंत में अंतहीन है।
जब आप किसी किताब को छूते हैं, वह एक स्त्री को छूने जैसा ही है। आप उसे छूएंगे तो वहां आपको उजाड़ का धूसर और भूरापन भी मिलेगा और बसंत का नीला और पीलापन भी। वहां आपको बारिश की विलंबित लय भी मिलेगी और सूखे का चारों ओर गूंजता सन्नाटा भी। वहां रक्त को जमा देने वाली शीत ऋतु भी मिलेगी तो आपको ग्रीष्म का वह ताप भी मिलेगा जो आपकी आत्मा में पैठ चुकी प्राचीन सीलन को सूखाकर उड़ा देगा।
मैं जब भी अपनी किसी प्रिय किताब को छूता हूं तो लगता है, एक स्त्री को छू रहा हूं। एक स्त्री की तरह किताब भी अपने सारे रहस्य एक बार में नहीं खोलती। पूरे दुःख में, पूरे सुख में, सारी ऋतुओं में, उसे बार-बार छूकर और पढ़कर ही सही अर्थों में हासिल किया जा सकता है। और तब वह अपने रहस्यों के अर्थ खोलती है। धीरे धीरे। एक विलंबित लय में।
एक देह में रूके समय को बहने के लिए और एक किताब में रूके समय को बहने के लिए एक प्रेमिल निगाह और प्रेमिल स्पर्श चाहिए होता है।

इमेज ः
परेश मैती का जलरंग