कुमार अंबुज की कविता
न वह पेड़ बचता है और न वैसी रात फिर आती है
न ओंठ रहते हैं और न पंखुरियां
रूपकों और उपमाओं के अर्थ ध्वनित नहीं हो सकते
बारिश जा चुकी है और ये सर्दियां हैं जिनसे सामना है
जीवन में रोज ऐसा होता है कि कृतज्ञता ज्ञापित
कर सकने के क्षण में हम सिर्फ अचंभित रह जाते हैं
और फिर वक्त निकल जाता है
बाद में जिन्हें तुम धन्यवाद देना चाहते हो
तो पाते हो कि वे आदमी और जगहें ध्वस्त हो चुकी हैं
या इतनी बदल गई हैं कि उन्हें धन्यवाद देना
किसी अजनबी से कुछ कहना होगा
लेकिन इससे हमारे भीतर बसा आभार
और उसका वजन कम नहीं हो जाता
एक निगाह, एक हाथ और एक शब्द ने
यहां तक जीवित चले आने में हर एक की मदद की है
और इतने अचरज हमारे साथ हैं कि दुनिया में स्वाद है
धन्यवाद न दे सकने की कसक भी चली आती है
जो किसी मौसम में या टूटी नींद में घेर लेती है
जिन्हें तुम धन्यवाद देना चाहते हो
कई बार उन्हें खोजना भी मुश्किल है
और जो सामने हैं उनके बरक्स तुम
फिर अचकचाए या सकुचाए खड़े रहते हो
हालांकि कई चीजें तुम्हारी भाषा नहीं समझतीं
पतझड़, झरने, चाय की दुकान और अस्पताल की बेंच
लेकिन उनसे तुम्हारा बर्ताव ही बताएगा कि तुम
आखिर क्या चाहते हो
शायद इसलिए ही कभी सोच-समझकर या अनायास ही
लोग उनके कंधों पर सिर रख देते हैं
(नईदुनिया दिल्ली के साथ प्रकाशित होने वाली साप्ताहिक पत्रिका संडे नईदुनिया के 17 मई के अंक में प्रकाशित कविता)
Showing posts with label कविता. Show all posts
Showing posts with label कविता. Show all posts
Friday, May 22, 2009
Thursday, April 9, 2009
यहां पानी चांदनी की तरह चमकता है

कुमार अंबुज की कविता
आंधियां चलती हैं और मेरी रेत के ढूह
उड़कर मीलों दूर फिर से बन जाते हैं
यह मेरी अनश्वरता है
यह दिन की चट्टान है जिस पर मैं बैठता हूं
प्रतीक्षा और अंधकार। उम्मीद और पश्चाताप
वासना और दिसंबर। वसंत और धुआं
मैं हर एक के साथ कुछ देर रहता हूं
तारों की तरह टूटते हैं प्रतिज्ञाअों के शब्द
अंतरिक्ष में गुम होते हुए उनकी चमकभर दिखती है।
चंद्रमा को मैं प्रकट करता हूं किसी ब्लैक होल में से
और इस तरह अपने को संसार में से गुजारता हूं
इस संसार में मेरे पास प्रेमजन्य यह शरीर है अलौकिक
इसी में रोज खिलते हैं फूल और यहीं झर जाते हैं
बहती है नीली नदियां और वाष्पित होती हैं
जो मिलती हैं समुद्रों में
गिरती हैं फिर बारिश के साथ
यहीं है उतना निर्जन जो जरूरी है सृष्टि के लिए
इसी में कोलाहल है, संगीत है और बिजलियां
पुकार है और चुप्पियां
यहीं है वे पत्थर जिन पर काई जमा होती है
यहीं घेर लेती हैं खुशियां
और एक दिन बुखार में बदल जाती हैं
यह सूर्यास्त की तस्वीर है
देखने वाला इसे सूर्योदय की भी समझ सकता है
प्रेम के वर्तुल हैं सब तरफ
इनका कोई पहला और आखिरी सिरा नहीं
जहां से थाम लो वही शुरूआत
जहां छोड़ दो वहीं अंत
रेत की रात के अछोर आकाश में ये तारे
चुंबनों की तरह टिमटिमाते हैं
और आकाशगंगा मादक मद्धिम चीख की तरह
इस छोर से उस छोर तक फैली है
रात के अंतिम पहर में यह किस पक्षी की व्याकुलता है
किस कीड़े की किर्र किर्र चीं चट
हर कोई इसी जनम में अपना प्रेम चाहता है
कई बार तो बिल्कुल अभी, ठीक इसी क्षण
आविष्कृत हैं इसीलिए सारी चेष्टाएं, संकेत और भाषाएं
चारों तरफ चंचल हवा है वानस्पतिक गंध से भरी
प्रेम की स्मृति में ठहरा पानी चांदनी की तरह चमकता है
और प्यास का वर्तमान पसरा है क्षितिज तक
तारों को देखते हुए याद आता है कि जो छूट गया
जो दूर है, अलभ्य है जो, वह भी प्रेम है
दूरी चीजों को नक्षत्रों में बदल देती है।
(...और पेंटिंग रवीन्द्र व्यास की है। )
Saturday, February 14, 2009
तारे, फूल, चंद्रमा, पेड़

असँख्य तारे हैं
जिनमें तुम्हारी आँखों की चमक है
और चंद्रमा भी
जो तुम्हारी अँगूठी की तरह
रात की अँगुली में जगमग है
और अधखिले फूल भी हैं इतने
जो तुम्हारी जुल्फों में खिल जाने के लिए बेताब हैं
और इतने नक्षत्र हैं
जिनके दुपट्टों में तुम्हारे ख्वाब
गुलाबी रोशनी की तरह तैर रहे हैं
और मुहूर्त भी
जिसमें तुम मुझे
अपने पास आने के लिए पुकार सको
वह पेड़ शरमाते हुए कितना हरा हो गया है
जिसके पीछे छिपते हुए
तुमने मुझे छुआ।
(पेंटिंग ः रवीन्द्र व्यास )
Monday, February 2, 2009
वसंत जो पृथ्वी की आंख है

जब सरकारी अफसर हरे-भरे दरख्तों को भू-माफियों की जेबों के हवाले कर रहे हों और बहुराष्ट्रीय कंपनियां नदियों-झरनों को बोतल में बंद कर रही हों, जब हंसी की गेंदों को उछालते हुए बच्चे घरों से निकलते हों और दोपहर को उनके घरों से मां का विलाप सुनाई देता हो, गुनगुनाते हुए और अपनी चुन्नी को संभालते हुए लड़की कॉलेज के लिए निकलती है और शाम को उसके पिता थाने में एफआईआर दर्ज करवाते हों, उजड़ते खेतों में किसान आत्महत्या करते हों और उनकी विधवा पत्नी को मुख्यमंत्री मुआवजा बांटता फिरे ऐसे में वसंत तुम्हारा क्या करूं? तुम्हारी आहट मेरे दरवाजे से ज्यादा मेरे मन को खटखटाती है और मैं जब अपने समय के हाहाकार को सुनता अंधेरे में धंसने लगता हूं तो कहीं से एक झरने की आवाज मेरा हाथ थामकर मुझे गुनगुनी धूप में ला खड़ा कर देती है। इस धूप में हरी घास के बीच तुम्हारे पीले फूलों की हंसी फैली हुई है और उनकी महक से मैं बावला होकर नाचते पेड का गीत गुनगुनाता हूं।
पृथ्वी के साथ जुड़े खून के इतिहास को/ पोंछते हुए अब मैं बसंत कहना चाहता हूं/ बसंत जो पृथ्वी की आंख है/ जिससे वह सपने देखती है/ मैं पृथ्वी का देखा हुआ सपना कहना चाहता हूं/ यही सपना मुझमें कविताएं उगाता है।
हां, बसंत तुम्हारे रंग खिले हैं। फूल खिले हैं। और ये जो हवा चली है, तुम्हारी अपलक आंख में उस सपने को बार बार जन्म देती है जिसमें प्रेम हमेशा एक पीले फूल की तरह खिलता है। बसंत मुझे तुम्हारा सबसे सुंदर पीला फूल दे दो। मैं उसे प्रेम करने वाली स्त्री के जुड़े में टांक सकूं जो इस वक्त तुम्हारे रंगों से लिपटी महक रही है। उसकी स्मृति में अपने प्रेमी का चेहरा शांत नदी में किसी चंद्रमा की तरह ठहरा हुआ है।
प्रेम करती हुई औरत के बाद भी अगर कोई दुनिया है /तो उस वक्त वह मेरी नहीं है /उस इलाके में मैं सांस तक नहीं ले सकता /जिसमें औरत की गंध वर्जित है /सचमुच मैं भाग जाता चंद्रमा से फूल और कविता से /नहीं सोचता कभी कोई भी बात जुल्म और ज्यादती के बारे में /अगर नहीं होती प्रेम करने वाली औरतें इस पृथ्वी पर।
प्रेम करती स्त्रियां ही इस पृथ्वी को सुंदर बनाती हैं और वसंत को हमेशा कुछ नये मायने देती है और जिंदगी को अपनी खुशबू से हमेशा महकाए रखती हैं। इस बसंत पर यही शुभकामनाएं देना चाहता हूं कि वे हरे भरे पेड़ बचे रहें और अपने एक पैर पर नाचते हुए तुम्हारे गीत गाते रहे हैं। पेड़ बचे रहेंगे तो पूरी दुनिया बची रहेगी और बची रहेगी फल, फूल और आड़ मिलने की संभावनाएं।
पेड़ पहाड़ों पर/ बबर शेर की तरह/ शान से खड़े रहते हैं/और आदमी की मौजदूगी /उन्हें और भी बड़ा पेड़ बनाती है/ फिर भी आदमी बौना नहीं लगे/ इसलिए पेड़ अपनी टहनियों को झुका देते हैं/और बच्चों को फल /स्त्रियों को फूल /और चाहने पर प्रेम के लिए छांह के अलावा थोड़ी सी आड़ भी देते हैं।
बसंत आते रहो, पेड़ नाचते रहो। ताकि बच्चों को फल, स्त्रियों को फूल और प्रेमियों को चाहने पर प्रेम के लिए छांह और थोड़ी सी आड़ मिल सके।
(कविता की पंक्तियां ख्यात कवि चंद्रकांत देवताले के कविता संग्रह जहां थोड़ा सा सूर्योदय होगा से साभार)
पृथ्वी के साथ जुड़े खून के इतिहास को/ पोंछते हुए अब मैं बसंत कहना चाहता हूं/ बसंत जो पृथ्वी की आंख है/ जिससे वह सपने देखती है/ मैं पृथ्वी का देखा हुआ सपना कहना चाहता हूं/ यही सपना मुझमें कविताएं उगाता है।
हां, बसंत तुम्हारे रंग खिले हैं। फूल खिले हैं। और ये जो हवा चली है, तुम्हारी अपलक आंख में उस सपने को बार बार जन्म देती है जिसमें प्रेम हमेशा एक पीले फूल की तरह खिलता है। बसंत मुझे तुम्हारा सबसे सुंदर पीला फूल दे दो। मैं उसे प्रेम करने वाली स्त्री के जुड़े में टांक सकूं जो इस वक्त तुम्हारे रंगों से लिपटी महक रही है। उसकी स्मृति में अपने प्रेमी का चेहरा शांत नदी में किसी चंद्रमा की तरह ठहरा हुआ है।
प्रेम करती हुई औरत के बाद भी अगर कोई दुनिया है /तो उस वक्त वह मेरी नहीं है /उस इलाके में मैं सांस तक नहीं ले सकता /जिसमें औरत की गंध वर्जित है /सचमुच मैं भाग जाता चंद्रमा से फूल और कविता से /नहीं सोचता कभी कोई भी बात जुल्म और ज्यादती के बारे में /अगर नहीं होती प्रेम करने वाली औरतें इस पृथ्वी पर।
प्रेम करती स्त्रियां ही इस पृथ्वी को सुंदर बनाती हैं और वसंत को हमेशा कुछ नये मायने देती है और जिंदगी को अपनी खुशबू से हमेशा महकाए रखती हैं। इस बसंत पर यही शुभकामनाएं देना चाहता हूं कि वे हरे भरे पेड़ बचे रहें और अपने एक पैर पर नाचते हुए तुम्हारे गीत गाते रहे हैं। पेड़ बचे रहेंगे तो पूरी दुनिया बची रहेगी और बची रहेगी फल, फूल और आड़ मिलने की संभावनाएं।
पेड़ पहाड़ों पर/ बबर शेर की तरह/ शान से खड़े रहते हैं/और आदमी की मौजदूगी /उन्हें और भी बड़ा पेड़ बनाती है/ फिर भी आदमी बौना नहीं लगे/ इसलिए पेड़ अपनी टहनियों को झुका देते हैं/और बच्चों को फल /स्त्रियों को फूल /और चाहने पर प्रेम के लिए छांह के अलावा थोड़ी सी आड़ भी देते हैं।
बसंत आते रहो, पेड़ नाचते रहो। ताकि बच्चों को फल, स्त्रियों को फूल और प्रेमियों को चाहने पर प्रेम के लिए छांह और थोड़ी सी आड़ मिल सके।
(कविता की पंक्तियां ख्यात कवि चंद्रकांत देवताले के कविता संग्रह जहां थोड़ा सा सूर्योदय होगा से साभार)
पेंटिंग ः रवीन्द्र व्यास
Subscribe to:
Posts (Atom)