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Monday, February 2, 2009

वसंत जो पृथ्वी की आंख है


जब सरकारी अफसर हरे-भरे दरख्तों को भू-माफियों की जेबों के हवाले कर रहे हों और बहुराष्ट्रीय कंपनियां नदियों-झरनों को बोतल में बंद कर रही हों, जब हंसी की गेंदों को उछालते हुए बच्चे घरों से निकलते हों और दोपहर को उनके घरों से मां का विलाप सुनाई देता हो, गुनगुनाते हुए और अपनी चुन्नी को संभालते हुए लड़की कॉलेज के लिए निकलती है और शाम को उसके पिता थाने में एफआईआर दर्ज करवाते हों, उजड़ते खेतों में किसान आत्महत्या करते हों और उनकी विधवा पत्नी को मुख्यमंत्री मुआवजा बांटता फिरे ऐसे में वसंत तुम्हारा क्या करूं? तुम्हारी आहट मेरे दरवाजे से ज्यादा मेरे मन को खटखटाती है और मैं जब अपने समय के हाहाकार को सुनता अंधेरे में धंसने लगता हूं तो कहीं से एक झरने की आवाज मेरा हाथ थामकर मुझे गुनगुनी धूप में ला खड़ा कर देती है। इस धूप में हरी घास के बीच तुम्हारे पीले फूलों की हंसी फैली हुई है और उनकी महक से मैं बावला होकर नाचते पेड का गीत गुनगुनाता हूं।
पृथ्वी के साथ जुड़े खून के इतिहास को/ पोंछते हुए अब मैं बसंत कहना चाहता हूं/ बसंत जो पृथ्वी की आंख है/ जिससे वह सपने देखती है/ मैं पृथ्वी का देखा हुआ सपना कहना चाहता हूं/ यही सपना मुझमें कविताएं उगाता है।
हां, बसंत तुम्हारे रंग खिले हैं। फूल खिले हैं। और ये जो हवा चली है, तुम्हारी अपलक आंख में उस सपने को बार बार जन्म देती है जिसमें प्रेम हमेशा एक पीले फूल की तरह खिलता है। बसंत मुझे तुम्हारा सबसे सुंदर पीला फूल दे दो। मैं उसे प्रेम करने वाली स्त्री के जुड़े में टांक सकूं जो इस वक्त तुम्हारे रंगों से लिपटी महक रही है। उसकी स्मृति में अपने प्रेमी का चेहरा शांत नदी में किसी चंद्रमा की तरह ठहरा हुआ है।
प्रेम करती हुई औरत के बाद भी अगर कोई दुनिया है /तो उस वक्त वह मेरी नहीं है /उस इलाके में मैं सांस तक नहीं ले सकता /जिसमें औरत की गंध वर्जित है /सचमुच मैं भाग जाता चंद्रमा से फूल और कविता से /नहीं सोचता कभी कोई भी बात जुल्म और ज्यादती के बारे में /अगर नहीं होती प्रेम करने वाली औरतें इस पृथ्वी पर।
प्रेम करती स्त्रियां ही इस पृथ्वी को सुंदर बनाती हैं और वसंत को हमेशा कुछ नये मायने देती है और जिंदगी को अपनी खुशबू से हमेशा महकाए रखती हैं। इस बसंत पर यही शुभकामनाएं देना चाहता हूं कि वे हरे भरे पेड़ बचे रहें और अपने एक पैर पर नाचते हुए तुम्हारे गीत गाते रहे हैं। पेड़ बचे रहेंगे तो पूरी दुनिया बची रहेगी और बची रहेगी फल, फूल और आड़ मिलने की संभावनाएं।
पेड़ पहाड़ों पर/ बबर शेर की तरह/ शान से खड़े रहते हैं/और आदमी की मौजदूगी /उन्हें और भी बड़ा पेड़ बनाती है/ फिर भी आदमी बौना नहीं लगे/ इसलिए पेड़ अपनी टहनियों को झुका देते हैं/और बच्चों को फल /स्त्रियों को फूल /और चाहने पर प्रेम के लिए छांह के अलावा थोड़ी सी आड़ भी देते हैं।
बसंत आते रहो, पेड़ नाचते रहो। ताकि बच्चों को फल, स्त्रियों को फूल और प्रेमियों को चाहने पर प्रेम के लिए छांह और थोड़ी सी आड़ मिल सके।
(कविता की पंक्तियां ख्यात कवि चंद्रकांत देवताले के कविता संग्रह जहां थोड़ा सा सूर्योदय होगा से साभार)
पेंटिंग ः रवीन्द्र व्यास