Saturday, May 23, 2009

आंगन नहीं, धूप नहीं, खिलखिलाने की आवाजें नहीं


हमारे घर में आंगन था।
आंगन में धूप आती थी। सूरज दिखाई देता था।
अब घर के ठीक सामने तीन-चार बिल्डिंगें बन जाने से सूरज बारह बजे के पहले दिखाई ही नहीं देता। अब धूप की जगह आंगन में बिल्डिंग की परछाइयां दिखाई देती हैं।
पहले पिता सूर्य नमस्कार करते थे, अब करते तो लगता बिल्डिंगों को नमस्कार कर रहे हैं।
मां पहले मूंग की बड़ी और कई तरह के पापड़ बनाया करती थीं लेकिन अब बड़ी और पापड़ सुखाने के लिए आंगन में धूप नहीं आती।
भाभी या जीजी सिर से नहाती तो बाल सुखाने आंगन में आ जाया करती थीं।
अब न धूप आती है, न भाभी और जीजी बाल सुखाने इस आंगन में दिखाई देती हैं।
पूरे मोहल्ले में हमारा ही घर ऐसा था जिसमें आंगन था। मोहल्ले में धीरे-धीरे पुराने मकान टूट रहे थे, नए बनते जा रहे थे। उनके आंगन गायब हो गए। ज्यादा कमरे बनने से आंगन सिमटते जा रहे थे। अधिकांश घरों में प्यारा-सा छोटा-सा आंगन तक नहीं दिखाई देता। आंगनों में जो कमरे बन गए थे, उनमें एक ही परिवार के लोग अलग अलग रहने लगे थे। उन सब की अलग अलग दुनिया थी। उनके फ्रीज अलग थे, उनके टीवी अलग थे, उनकी कुर्सियां और सोफे अलग थे।
हमारे घर में जो आंगन था, वहां धूप आती तो घर के सारे लोग धूप सेंकते। पिता अपनी कुर्सी पर चाय की चुस्कियां लेते अखबार पढ़ते। फिर सरसों के तेल की मालिश करते। मैं अकसर सरसों के तेल से पिता के हाथ-पैरों की मालिश करता। फिर वे हमारे हाथ पैरों पर तेल लगा कर हलके हाथ से मालिश करते। कहते मालिश करा करो, बदन बनाओ। मां कपड़े सुखाती या पापड़ और बड़ी। उसी आंगन में हम सब बैठकर बासी रोटी से बना पुस्कारा खाते (रोटी को चूरकर हरी मिर्च -प्याज से बघार कर )।
पिता को किताबें पढ़ने का इतना शौक था कि वे बाहरी के कमरे में प्लग लगाकर एक लंबे वायर को आंगन तक ले आते और लैम्प जलाकर पढ़ते।
उस आंगन में पास खड़े पीपल और नीम के पेड़ से पिपलियां और निम्बोलियां गिरती रहती थी। हम इन पिपलियों को खाते थे। वे मीठी लगती थीं। उनका स्वाद हम अब तक भूले नहीं हैं। बसंत में हम कोयल की कूक सुनते। उसकी नकल करते। कई पक्षियों का कलरव सुनते। उन्हें उड़ते और बैठते देखते। शाम को लौटते देखते। हमारे आंगन में, हमारी कुर्सियों, हमारे कपड़ों पर बीट गिरती। हमारे आंगने में उनके पंख गिरते। हम हथेलियों में ले उन्हें उडा़ते। वे इतने हल्के, इतने कोमल होते की जरा सी फूंक से हवा में लहराने लगते। सुबह की कोमल धूप में वे पंख और कोमल दिखाई देते। सफेद, चमकीले। गर्मियों की शाम हमारे बिस्तर आंगन में लगते। हम तारों भरी रातों को निहारते सोते थे। मां हमें तारे बताती। खूब चमकीला तारा बताती। वे हमें तारों से बनी आकृतियां बताती- कभी धनुष, कभी हल। हम घटते-बढ़ते चंद्रमा को देखते। हम दूज का, तीज का और पूर्णिमा का चंद्रमा निहारते। बड़ी बहनें हमें कभी लोरियां और कभी कहानियां सुनाया करती थीं। कई बार पड़ोस के बच्चे हमारे साथ आकर मां से कहानियां सुनते। सुनते- सुनते हमारे साथ ही सो जाते। उनकी माएं उन्हें कभी ढ़ूंढ़ने नहीं आती। उन्हें पता होता कि वे हमारे साथ ही सोये होंगे।
आंगन में छोटे छोटे पौधे थे। गेंदा, चमेली, नींबू, केले। बहने उन्हें बराबर पानी देती। वे कभी सूखे नहीं। मुरझाए नहीं। कभी कभी आंगन में लाल-काली चीटियां हो जातीं। लाल चीटियों के काटने से हमें ददोड़े (लाल चकत्ते) हो जाते। मैं आटा डालती।
बहनें फुगड़ियां खेलती, लंगड़ी खेलतीं, पांचे खेलती। हम सब के खिलखिलाने से यह आंगन गूंजता था। मां हमारी इस खिलखिलाहट में शामिल होती थी। पिता यह सब देखते हुए मुदित रहते। उनका एक भरा-पूरा परिवार था। हंसता-गाता संसार था। हम उनके पंछी थे, हमारी चहचहाहट से उनका आंगन गूंजता था।
हमारा आंगन बहुत बड़ा था। सामान बहुत कम था। हमारे खेलने के लिए खूब जगह थी। हम गिरते तो घुटने छिल जाते थे। बहने गोद में उठा लिया करती थीं। मां हल्दी का फोहा लगाती। रात में हल्दी के साथ ही गरम दूध पिलाती। पिता चुपचाप अपने सीने से लगाए हमें थपकियां देते सुला लेते थे।
उस आंगन में हमें हमारे जीवन की सबसे मीठी नींद आती थीं।
अब न मां है, न पिता। कभी बहनें आती हैं, कभी -कभार भाभियां-काकियां भी आती हैं। बच्चे भी हैं। उनके दोस्त भी हैं। सुख-सुविधाओं का सामान भी है।
बस आंगन नहीं है, धूप नहीं है, धूप में बैठकर सबके खिलखिलाने की आवाजें नहीं हैं।

14 comments:

Anonymous said...

Excellent post!!

डॉ .अनुराग said...

ऊँची इमारतों से मकान मेरा घिर गया
कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज खा गये
- जावेद अख्तर

Udan Tashtari said...

बहुत जीवंत-बेहतरीन!!

सतीश पंचम said...

लगता है मेरी बात हो रही है। ये अनुभव वह अनुभव हैं जिन्हें समेटते वक्त आँखों के किनारे किनारे एक तिरछे पानी की लकीर बनती है.....शायद ये अनुभव की प्यास है।

बहुत नॉस्टॉल्जिक पोस्ट है ।

शायदा said...

उस आंगन में हमें हमारे जीवन की सबसे मीठी नींद आती थीं।

sachmuch..uske baad kabhee meethi kahan gai..pata hi nahi cahlta..
painting bahut sundar lagi. neend jaisi hi.

इरशाद अली said...

ऐसा लेख पढ़ा ही नही जा सकता है, मैंने तो इसे महसूस किया है बल्कि ये जिये जाने वाला आत्मकथ्य है, शब्द चित्र विधा में तो आप माहिर है और अपनी आपबीती का रंग मिलाकर पोस्ट को कहीं ज्यादा जीवंत बना देते हैं। इतने मनभावन लेखन के लिये बधाई स्वीकारे।

ravindra vyas said...

sabhi ka bahut bahut shukriya!

neera said...

बेहतरीन पोस्ट... समय के साथ - साथ मकान, आँगन, धुप सब कुछ बदल जाता है सिर्फ यादों में रह जाता है

महेन said...

ravindra bhai,
pichhle 13-14 saalon se main yah mehsoos karta raha hun aur us ghar ko yaad karta hun jahan ghar se bhi bada aangan tha. Aapki aisi post mujhe behad pasand aati hai.

ravindra vyas said...

नीराजी शुक्रिया। महेन आप ठीक कह रहे हैं। मुझे अपना पुराना घर बहुत याद आता है। इस तरह की कुछ पोस्ट और लगाऊंगा। शुक्रिया दोस्त।

love verma said...

ravindra ji i vanna mit to u but how u tell mi
i m sushobhit's farind love verma
that is my e mail i d love_verma58@yahoo.com and my blog name is zorba's blog sarch in google blog

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

बेहतरीन पोस्ट, आपके ब्लाग पर आई हूं तो लगता है सारी पोस्ट आज ही पढ़ लूंगी। बहुत खूबसूरत , अब न मां है और न बाबा, न आंगन है न धूप और न बच्चों के खिलखिलाने की आवाजें हैं

Shubham Shubhra said...

ghar ka aangan yaad dila diya... aankhen nam kar deen aapne. shukriya

Sandip Naik said...

मजा आ गया रवि कहा हो यार फेस बुक पर एड करो या लिंक दो तुम्हारी.......
संदीप नाईक देवास..........