नीरज अहिरवार भोपाल में रहते हैं। शिल्पकार हैं। भारत भवन के सिरेमिक सेक्शन में कार्यरत हैं। हाल ही में भोपाल की 'आलियां फ्रांस्वां' में उनकी कृतियों की नुमाइश हुई। यह २१ फरवरी से २३ फरवरी तक रही। यह उनकी दूसरी एकल नुमाइश थी। इस पर मेरे मित्र सुशोभित सक्तावत ने एक टिप्पणी भेजी है। उसे साभार यहां दे रहा हूं।
गोया हर पत्थर की नींद उसकी नदी हो, और उसमें अपने ही अप्राप्त विन्यास के स्वप्न... लहरिल और लयपूर्ण सम्मोहन-सा रचते हुए. नीरज अहिरवार के काम के बारे में एकदम पहले-पहल यही बात लक्ष्य की जा सकती है. वो अपने स्पेस को 'वाइब्रेट' करता है...अपने माध्यम की नई संभावनाएं टटोलता हुआ जब वह किसी पदार्थ के नए आयाम अन्वेषित कर रहा होता है, तब भी यह लय अक्षुण्ण रहती है... एक गहरी आस्तित्विक लय से सम्पृक्त. तब नीरज और उसका काम अनिवार्य सम्वादी हो जाते हैं... उसमें 'डायलॉग' है और वो ख़ासा 'डायनेमिक' है...एक सम्वाद की लय...एक तरह का अन्य-सम्वादी किंतु आत्म-विन्यस्त उद्यम, जो पत्थरों की तराश पर पानी के अदृश्य हस्ताक्षर देखता-दिखाता है.लेकिन प्रश्न उठता है कि सम्वाद की यह लय आती किधर से है... नीरज की शिल्पकृतियां किस भीतरी स्रोत से प्रतिकृत होती हैं? इसका उत्तर हमें स्वयं नीरज की विश्व-दृष्टि में तलाशना होगा. नीरज की नज़र में यह विश्व असमान आकारों का एक ऐसा समुच्चय है, जो समान प्रारब्ध को प्राप्त करता है. आरंभ और अंत इसके दो छोर हैं, जो उसे संतुलित करते हैं, और मध्य में है एक गहरी आस्तित्विक लय, जिसे वो 'जैविक चेतना' कहता है. गति जिसकी देह है...स्पंदन जिसका स्वरूप... और तब हर रूपाकार एक संकेत होता है, उस संभावना को लक्ष्य करता हुआ, जो स्वयं उसके भीतर सोई हुई होती है. यह अकारण नहीं कि नीरज की कृतियां ख़ुद अपने भीतर से 'उगती' हुई-सी लगती हैं. यह 'ऑर्गेर्निक स्कल्पटिंग' है... पत्थर का मांसल स्वप्न! नीरज सैंडस्टोन और सिरैमिक में काम करता है (उसके मुताबिक़ मार्बल ख़ासा 'ग्लेज़्ड' और 'पॉलिश्ड' माध्यम है). क्ले में भी उसने काम किया है, और बहुत थोड़ा-सा मेटल में. लेकिन वुड पर काम करने से वह कतराता है. वुड उसे चैलेंज नहीं करता. यहां भी उसकी जीवन-दृष्टि उसकी कला-चेतना बनती है. नीरज का सोचना है कि दरख़्त अपने आपमें एक जीवंत 'फ़ॉर्म' है (दरअसल, उसके ख़ुद के तमाम 'फ़ॉर्म' दरख़्तों से ही आते हैं), और उसे 'कार्व' करना ज़्यादती होगी. हां, उसे 'इंस्टॉल' ज़रूर किया जा सकता है, बिना उसकी जैविक लय में दख़ल दिए.
संगतराश गरचे लायक़ हो, तो मीडियम उसके हाथ में मोम की मानिंद पिघलता है. नीरज का काम भी इसी की गवाही देता है. उसके सिरैमिक के तमाम कामों में एक तरह का 'ऑर्गेनिज़्म' और मांसलता है. एक छोर पर माध्यम की सघन उपस्थिति, तो दूसरे छोर पर उसका गझिन अंतर्संगुम्फन. अपनी ड्राइंग्स में वह वस्तु-जगत के 'बीजत्व' को लक्ष्य करता है- उसके 'अंकुरण' और स्फुरण को. यहां भी- शैली वही है, और दृष्टि भी. लेकिन उसका श्रेष्ठ काम सैंडस्टोन पर है. वह आकृतिमूलक पर भी सधे हाथों से काम कर सकता है (उज्जैन की कालिदास अकादमी में उसकी 'शकुंतला' इसका जीवंत साक्ष्य है.), लेकिन यहां उसने अपना अमूर्तन का काम ही प्रदर्शित किया है. (ये अलग बात है कि बक़ौल नीरज- 'देखा जाए तो सभी आकार अमूर्तन ही हैं'). आकृतियों को, उनकी सघन अवस्थितियों को अतिक्रांत करता, और इसके बावजूद आकृतियों के नए-भीतरी आयाम सृजित-अन्वेषित करता अमूर्तन. इतना डायनेमिक काम, कि एक तरह से वो कला में हर तरह के जड़वाद का प्रत्याख्यान करता है और रूपाकार मात्र की स्वायत्तता की प्रतिष्ठा करता है. यह अकारण नहीं कि नीरज ने अपनी नुमाइश का शीर्षक भी 'फ़ॉर्म' ही चुना है... उसके लिए आकार मात्र ही आत्यंतिक है. मिजाज़ से बेतरतीब नीरज यह भलीभांति जानता है कि अमूर्तन में भी एक अनुपात होता है, और उस अनुपात को कभी नज़र से ओझल नहीं होने देता. उसकी कला की एक और ख़ासियत उसमें वैपरीत्यों का सहअस्तित्व है, जहां वह कोमलता और कठोरता, गतिकी और स्थिरता, टैक्सचर और फिनिशिंग, प्रारब्ध और मुक्ति- सभी को एक साथ लेकर आता है. उसके काम में डिटेल्स भी काफ़ी हैं, तो रिलीफ़ का समतलपन भी.
शनिवार से सोमवार तक अरेरा कॉलोनी स्थित 'आलियां फ्रांस्वां' की 'बे-मंशाई' दूधिया दीर्घाओं में नीरज की इन्हीं शिल्प और चित्रकृतियों का प्रदर्शन हुआ. नीरज की दूसरी सोलो एग्जिबिशन. रूपाकार की नामहीन-शीर्षकहीन स्वायत्तता में विश्वास रखने वाला नीरज ख़ुद यह पसंद करता है कि लोग उसकी शिल्पकृतियों को छूकर देखें और उनकी लय महसूस करें. वो कहता है कि स्कल्पचर मेरे लिए बाहर से ज़्यादा भीतर की चीज़ है. वह सामूहिक स्मृतियों की भी बात करता है, पत्थर जिनके प्रागैतिहासिक प्रतीक हैं. 'पत्थर जीवन की तरह हैं' -वह कहता है- 'उसमें रीटेक नहीं होता. आप पत्थर में कुछ जोड़ नहीं सकते, बस उस पर काम करते हुए उसका वॉल्यूमभर बढ़ा सकते हैं.' नीरज को स्कल्पचर्स की दैहिकता अपील करती है, उसके अनुसार चित्रों के मुक़ाबले यह अधिक ठोस और सार्वभौमिक संकेत-भाषा है. दरअसल, हर फ़ॉर्म की एक भीतरी भाषा होती है और हर माध्यम की भी, संगतराश को बस उसे सुनना होता है. नीरज के यहां ऐसे ही बोलते हुए, बहते हुए और उगते हुए रूपाकारों का समूचा संसार है.
3 comments:
कल पढ़ी आपकी पोस्ट का असर ख़त्म ही नहीं हुआ था की आज फ़िर एक शानदार पोस्ट- भाषा और विचार दोनों स्तरों पर बेहतरीन प्रस्तुति के लिए साधुवाद।
सुशोभित सक्तावत ne bahut achchha likha hai.badhiya hai.
shusobhit is very brightly write every were i m farind of shushobhit from ujjain
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