वे अपने कैनवास पर लाल-पीले-हरे रंगों के बड़े-बड़े ब्रश स्ट्रोक्स लगाते हैं। फिर उसी में कोई हलका या गहरा रंग लगाते हैं। ये स्ट्रोक्स पहले के मुकाबले छोटे-छोटे होते हैं। और फिर किसी एक रंग के छोटे-छोटे रेले बहते हुए दिखाई देते हैं। रंगों के ये रेले अक्सर उनके कैनवास के नीचे, कभी दाएं, कभी बाएं दिखाई देते हैं। ये सब मिलकर स्पेस बनाते हैं। उनके रंगों के छोटे छोटे स्ट्रोक्स मुख्य रंग के साथ कोरस गाते हुए लगते हैं। उनके कैनवास पर फोर्स दिखाई देता है और एक बहाव भी। जाहिर है ये उनकी भीतरी ऊर्जा के ताकतवर रूपांतरण हैं। उनके चित्रों की यह खासियत पहली नजर में ही दिखाई देती है।
ये हैं 32 वर्षीय विनम्र और संकोची चित्रकार विद्यासागर। प्रचार-प्रसार से दूर रहना उनका सहज गुण लगता है। वे उप्र के बलिया में जन्मे, इलाहाबाद में फाइन आर्ट की डिग्री हासिल की और पिछले कुछ सालों से दिल्ली में रहकर चित्रकारी कर रहे हैं। वे एक आर्ट कैम्प में जाने से पहले मांडव घूमने आए थे, इंदौर में रूके तो उनसे बातचीत की। दिल्ली में 9 से14 दिसंबर तक उनके चित्रों की एकल नुमाइश हुई और अब 9 से 15 मार्च को मुंबई में होने वाली एकल नुमाइश की तैयारी में संलग्न है।
वे कहते हैं जिंदगी में ऐसा होता है कि जो हम देखते हैं वह असल में होता नहीं है, और जो असल में होता है वह दिखाई नहीं देता। तो मेरे चित्र इसी न दिखाई देने वाली जगहों को रंगों में दिखाने की सहज स्फूर्त चेष्टाएं हैं। हम सब में एक ऊर्जा होती है। वह तरह-तरह से बाहर आकर दिखाई देती है। तो जो बाहर आता है वह तो दिखाई देता है लेकिन वह भीतर की किस जगह से आता है, वह कई बार दिखाई नहीं देता। मेरी ऊर्जा रंगों और रूपों में इन्हीं जगहों को रूपांतरित करती है। इसलिए मैंने अपने चित्रों को शीर्षक दिया-एक्सटेंशन आफ हिडन स्पेस।
वे बताते हैं कि उनका बचपन गांव में बीता। उन्होंने खेतों में हल-बक्खर से बनते-मिटते रूप और आकार देखे। गांव का हरापन और आसमान का नीलापन गहरे महसूस किया। लोगों से मिले प्रेम, सुख और दुख ने उन्हें बनाया। इसलिए वे कहते हैं कि मैं जो रचता हूं वह मेरा अपना ही नहीं है, उसमें मेरे कुटुम्ब का भी योग है। मेरे पिता-मां, मेरी नानी-दादी, जाने-पहचाने लोगों का भी योग है। क्योंकि मेरी भीतरी दुनिया इन सबसे बनी है। इसलिए यदि मैं अपनी भीतरी दुनिया संचालित किसी भाव को चित्रित करने की कोशिश करता हूं तो इसमें उन लोगों के रंग भी शामिल होते हैं। जीवन के रंग। मुझे लगता है कि इस जीवन से, इस दुनिया से रंगीन क्या हो सकता है। ये दुनिया ही रंग -रंगीली है। इसमें कई रंग छिपे हैं, बस वह निगाह चाहिए जो उन रंगों को देख सके। विद्यासागर ने इलाहाबाद के ख्यात कवि जगदीश गुप्त की प्रेरणा से कला और कविता के अंतर्संबंधों पर शोध भी किया। जब इस बारे में उनसे पूछा गया तो उनका कहना था कि हिंदी में कई बड़े कवियों की कविताअों में इतने ताकतवर बिम्ब, रंग और छवियां हैं कि वे चित्रकारी के लिए आपकी प्रेरणाएं बन सकती हैं। कई कवियों ने जैसे भवभूति से लेकर निराला तक ने कई ऐसी कविताएं लिखी हैं जो चित्रमय हैं। तो इस विषय ने मुझे खासा आकर्षित किया और मैंने इस पर शोध कर दिया। और फिर कविता का मामला तो ऐसा है कि वह कहीं न कहीं, किसी न किसी स्तर पर आपके मन को छूती है। चित्रकारी यह काम अपने रंगों और रूपों से करती है।
ये हैं 32 वर्षीय विनम्र और संकोची चित्रकार विद्यासागर। प्रचार-प्रसार से दूर रहना उनका सहज गुण लगता है। वे उप्र के बलिया में जन्मे, इलाहाबाद में फाइन आर्ट की डिग्री हासिल की और पिछले कुछ सालों से दिल्ली में रहकर चित्रकारी कर रहे हैं। वे एक आर्ट कैम्प में जाने से पहले मांडव घूमने आए थे, इंदौर में रूके तो उनसे बातचीत की। दिल्ली में 9 से14 दिसंबर तक उनके चित्रों की एकल नुमाइश हुई और अब 9 से 15 मार्च को मुंबई में होने वाली एकल नुमाइश की तैयारी में संलग्न है।
वे कहते हैं जिंदगी में ऐसा होता है कि जो हम देखते हैं वह असल में होता नहीं है, और जो असल में होता है वह दिखाई नहीं देता। तो मेरे चित्र इसी न दिखाई देने वाली जगहों को रंगों में दिखाने की सहज स्फूर्त चेष्टाएं हैं। हम सब में एक ऊर्जा होती है। वह तरह-तरह से बाहर आकर दिखाई देती है। तो जो बाहर आता है वह तो दिखाई देता है लेकिन वह भीतर की किस जगह से आता है, वह कई बार दिखाई नहीं देता। मेरी ऊर्जा रंगों और रूपों में इन्हीं जगहों को रूपांतरित करती है। इसलिए मैंने अपने चित्रों को शीर्षक दिया-एक्सटेंशन आफ हिडन स्पेस।
वे बताते हैं कि उनका बचपन गांव में बीता। उन्होंने खेतों में हल-बक्खर से बनते-मिटते रूप और आकार देखे। गांव का हरापन और आसमान का नीलापन गहरे महसूस किया। लोगों से मिले प्रेम, सुख और दुख ने उन्हें बनाया। इसलिए वे कहते हैं कि मैं जो रचता हूं वह मेरा अपना ही नहीं है, उसमें मेरे कुटुम्ब का भी योग है। मेरे पिता-मां, मेरी नानी-दादी, जाने-पहचाने लोगों का भी योग है। क्योंकि मेरी भीतरी दुनिया इन सबसे बनी है। इसलिए यदि मैं अपनी भीतरी दुनिया संचालित किसी भाव को चित्रित करने की कोशिश करता हूं तो इसमें उन लोगों के रंग भी शामिल होते हैं। जीवन के रंग। मुझे लगता है कि इस जीवन से, इस दुनिया से रंगीन क्या हो सकता है। ये दुनिया ही रंग -रंगीली है। इसमें कई रंग छिपे हैं, बस वह निगाह चाहिए जो उन रंगों को देख सके। विद्यासागर ने इलाहाबाद के ख्यात कवि जगदीश गुप्त की प्रेरणा से कला और कविता के अंतर्संबंधों पर शोध भी किया। जब इस बारे में उनसे पूछा गया तो उनका कहना था कि हिंदी में कई बड़े कवियों की कविताअों में इतने ताकतवर बिम्ब, रंग और छवियां हैं कि वे चित्रकारी के लिए आपकी प्रेरणाएं बन सकती हैं। कई कवियों ने जैसे भवभूति से लेकर निराला तक ने कई ऐसी कविताएं लिखी हैं जो चित्रमय हैं। तो इस विषय ने मुझे खासा आकर्षित किया और मैंने इस पर शोध कर दिया। और फिर कविता का मामला तो ऐसा है कि वह कहीं न कहीं, किसी न किसी स्तर पर आपके मन को छूती है। चित्रकारी यह काम अपने रंगों और रूपों से करती है।
3 comments:
वे अपने ब्लॉग पर पहले एक पेंटिग लगाते हैं फ़िर मानो ब्लॉग पट पर कलकल करती पहाडी नदी से शब्दों की धारा बह निकलती है । एक पूरा व्यक्तित्व आंखों के सामने जिवंत हो उठाता है मानो हाँ अभी उस से मिल कर लौट रहे हों। जी हाँ यही कह सकता हूँ आपकी पोस्ट के लिए।
पीला तो देखो मित्र !
आपका किया विश्लेषण भी बहुत अच्छा है।
अच्छी पेंटिंग है और आपका लेख भी। पेंटिंग क्यों अच्छी है मैं बता नहीं सकती - मेरी अभिव्यक्ति में भी अमूर्तन है, पेंटिंग की ही तरह!
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