Monday, May 4, 2009

जिंदगी से बेदखल पसीने की गंध


मेरे पिता के पसीने की गंध अब भी मेरे मन में बसी है। वे हमेशा पैदल चलते थे और उन्होंने कभी साइकिल तक नहीं चलाई। उनके बचपन का एक फोटो मैंने अब तक संभाल कर रखा है जिसमें वे तीन पहिए की साइकिल पर बैठे हैं। उन्होंने मुझे बहुत कम गोद में उठाया। संयुक्त परिवार में होने के कारण माँ हमेशा रसोईघर में रहती और मुझे मेरी बड़ी बहनें संभालती।
मुझे याद है, बचपन में खेलते हुए जब मेरे दाहिने पैर के अँगूठे का नाखून उखड़ गया तो पिता ने मुझे गोद में उठाया और सिख मोहल्ले के डॉक्टर सिंह के क्लिनिक ले गए क्योंकि उस दिन शायद डॉक्टर फाटक नहीं थे जो हमारे परिवार के सभी सदस्यों का इलाज करते थे।
मैंने रोते हुए पिता के कंधे पर अपना सिर रखा था और दर्द को सहते हुए मुझे पिता के पसीने की गंध भी आ रही थी। उसमें सरसों के तेल की गंध भी शामिल थी क्योंकि पिता कसरत के पहले मालिश किया करते थे।
हमारा घर बहुत छोटा था। बहनें जब कभी बाहर जाती, मेरी पीठ के पीछे कपड़े बदल लिया करती थीं। मेरी पीठ उनके लिए छोटा-सा कमरा थीं। कई बार जल्दबाजी में वे कपड़े ऐसे पटकती कि वे मेरे सिर पर गिरते थे। उनके पसीने में राई-जीरे से लगे बघार की गंध होती थी। उनके पसीने की गंध मैं भूला नहीं हूँ।
और दुनिया में कौन ऐसा बच्चा होगा जो अपनी माँ के पसीने की गंध को भूल सकता है।
और आज खुशबू का करोड़ों का कारोबार है, जिंदगी से पसीने की गंध को बेदखल करता हुआ। एक विज्ञापन बताता है कि एक खुशबू में इतना आकर्षण, सम्मोहन और ताकत है कि दीवारों में लगी पत्थर की हूरें जिंदा होकर चुपचाप मंत्रमुग्ध-सी उस बाँके युवा के पीछे चल पड़ती हैं जिसने एक खास तरह के ब्रांड की खुशबू लपेट रखी है।
अब तो हर जगह को नकली खुशबूओं ने घेर रखा है। शादी हो या कोई उत्सव, या चाहे फिर कोई-सा प्रसंग नकली खुशबुओं का संसार पसरा पड़ा है। जिसको देखो वह बाजार में सजी नकली खुशबू में नहाया निकलता है। मजाल है जो कहीं से पसीने की गंध आ जाए। और अब तो खुशबूएँ कहाँ नहीं हैं। वे हमारी गोपन जगहों पर भी पसरी पड़ी हैं क्योंकि अब बाजार में कंडोम भी कई तरह की खुशबू में लिपटे मिलते हैं।
मैं जहाँ कहीं, किसी कार्यक्रम में जाता हूँ तो लोग नाना तरह की खुशबू में नहाए मिलते हैं। इन समारोह में कई ऐसे दृश्य भी दिखाई देते हैं जहाँ पिता अपने बच्चों को ढूँढ़ रहे हैं, माँएँ अपने बच्चों को गोद में बैठाकर आईसक्रीम खिला रही हैं या फिर बहनें अपने छोटे भाई का हाथ पकड़कर उसे नूडल्स के स्टॉल की ओर ले जा रही हैं। और ये सब नकली खुशबू में नहाए खाते-पीते खिलखिला रहे हैं।
खुशबू के फैले इस संसार में क्या उस बच्चे को अपने पिता, माँ या बहन के पसीने की गंध की याद रहेगी?

22 comments:

नीरज गोस्वामी said...

वाह रविन्द्र जी वाह....आप की इस लेखन के अंदाज़ ने मन मोह लिया....कितनी सच्ची और अच्छी बात लिखी है आपने...आज के युग में पसीने की गंध के दीवाने अब कहाँ...रिश्ते ही इतने कमजोर हो गए हैं की आँख ओझल पहाड़ ओझल वाला हाल हो गया है...कौन किसे याद रखता है...
नीरज

रंजू भाटिया said...

बात कहने का अंदाज़ आपका बहुत निराला है ...आज के सच को कल के बीते प्यार की गंध में डुबो दिया आपने ..सच कहा आज वह अपनापन ही बनावटी बन के रह गया है तो यह सरल स्नेह की गंध कौन समझे कौन जाने ..

ghughutibasuti said...

बहुत बड़ी बात कही है आपने। जीवन में गन्ध का अपना महत्व है व वे यादों में बस जाती हैं।
घुघूती बासूती

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

मेरी एक कविता है 'बीड़ी सुलगाते पिता', एक है 'विज्ञापन'. यह आलेख मुझे इन दोनों कविताओं की याद दिला गया. यह गंध आत्मीय और बड़ी मूल्यवान है. बढ़िया लिखा है भाई. पेंटिंग की आपकी निजी शैली है ही.

शिरीष कुमार मौर्य said...

पूरी पोस्ट में जो एक कविता की गंध है, उसे भी देखा जाए.

Pratyaksha said...

kho gayee gandh ki talaash ..khushboo jaise hi failee

डॉ .अनुराग said...

मन में सुगंध छोड़ती पोस्ट.......

ravindra vyas said...

sabhi ka shukriya!

Ek ziddi dhun said...

ऐसी स्मृतियों की गंध कभी मंद नहीं पड़तीं बल्कि वक़्त के साथ गहरी होती जाती हैं. पिता के पसीने की गंध तो और भी ज्यादा दुर्लभ रही होगी क्योंकि संयुक्त परिवार में यह मूल्य की तरह था कि कोई अपने बच्चे की दीवानगी न दिखाए. बहनों की स्मृति की गंध मार्मिक है, हम सबके लिए.
....गंध के कारोबार की बात तो मिटटी की गंध का परफ्यूम भी बिकता

Ek ziddi dhun said...

Shireesh theek kah rahe hain

Ashok Pande said...

बेहतरीन पोस्ट. शानदार रवीन्द्र भाई!

यह एक अविस्मरणीय आलेख है आपका. सच!

cartoonist ABHISHEK said...

ravindra bhai
अफ़सोस...
इस पोस्ट को मैंने
इतनी देर से पढ़ा....
सीधे दिल से आपको
बधाई...
अब तो तरस जाते हें..
ऐसे टुकड़े पढने को मिलते ही नहीं.....
शुभकामनायें आप ऐसे ही लिखते रहें...

एक निगाह इस ब्लॉग पर भी...डालना.
http://dailyjoota.blogspot.com/

ravindra vyas said...

शुक्रिया धीरेश भाई। हां, मैंने शिरीष भाई की बात पर गौर किया। और अशोकजी आपका भी बहुत बहुत शुक्रिया। अभिषक भाई आपका ब्लॉग जल्द ही देखता हूं। आते रहिएगा।

एस. बी. सिंह said...

रविन्द्र भाई कोई न कोई खुशबू हम सब के मन में बसी है और शायद यही जीवन को जीवन बनाए हुए है। जिस खुशबू के विज्ञापन की आप बात कर रहे हैं उस तरह की खुशबू का असर तो सिर्फ़ 'पत्थर की हूरों' पर ही होगा। जिंदा लोगों के लिए तो जिंदगी की महक चाहिए। सुंदर और मार्मिक शब्द चित्र। बधाई।

admin said...

कहते हैं पसीने की गंध का अपना नशा होता है। आपने उसके मनोविज्ञान को बखूबी बयां किया है।

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SBAI TSALIIM

Pratibha Katiyar said...

It'S A BEAUTIFUL POETIC PROSE.

ravindra vyas said...

सिंह साहब, महामंत्री तस्लीम और प्रतिभाजी के प्रति आभार।

Manish Kumar said...

पसीने की गंध और खुशबू का कारोबार ये बिंब बहुत कुछ मुझे रामवृक्ष बेनीपुरी की रचना गेहूँ और गुलाब की ओर खींच ले गया। वैसे एक हट कर विषय चुना है आपने..अच्छा लगा।

पारुल "पुखराज" said...

सोंधी पोस्ट !खूबसूरत

कंचन सिंह चौहान said...

याद आ गई मुझे ये बात कि जब मेरी भांजी सौम्या को उसके छोटे भाई के नवागमन पर माँ से अलग सोने को कहा गया, तो वो कतई तैयार नही हो रही थी। दीदी ने कई तरह समझाया तो वह बोली " माँ किसी में तुम्हारे जैसी महक नही आती।"
और दीदी ने जब ये बात हँस हँस कर सबको बताई तो मुझे लगा कि वो बच्ची मेरे मन की बात कह गई, क्योंकि उन दीदी से मैं भी बहुत जुड़ी थी, उन्ही के साथ सोती थी और जब भी उनसे अलग रहने को कहा जाता तो शायद अचेतन मस्तिष्क में यही बात आती थी...!

बहुत अच्छा लिखते हैं आप..!

अभय तिवारी said...

बहुत अच्छा लिखा है.. इस तरह का लेखन आज-कल विरल है!

Laxmi said...

आपके लेखन में ताज़ापन है, मऔलिकता है। पढ़ कर अच्छा लगा।