Thursday, May 28, 2009

रोज घर से निकलो, रोज घर पहुंच जाओ बच्चो !


यह एक छोटा-सा अनुभव है, जो मैं आपको बताने जा रहा हूं लेकिन इसके पीछे जो दहशत है वह शायद कई सालों की है। और मुझे लगता है शायद मेरी मां इस दहशत से रोज-ब-रोज गुजरती थी।
मेरे बेटे मनस्वी, जिसे हम मनु कहते हैं, ने जिद की कि वह अब साइकिल से स्कूल जाएगा। अब तक वह अॉटो से जाया करता था।
मैं जब भी घर से निकलता हूं तो मां मुझे ऐसे देखती है कि अब मैं कभी वापस घर नहीं लौटूंगा। शहर में न दंगा-फसाद हुआ है और न ही कोई भूकंप आया हुआ है। न बाढ़ आई है और न ही कोई आगजनी हुई है। फिर भी जब मैं घर से निकलता हूं तो मां मुझे ऐसे देखती है कि मैं अब वापस घर नहीं लौटूंगा। घर से निकलते हुए मैं अपनी पीठ के पीछे मां के धम्म से बैठने की आवाज सुनता हूं।
जब मां को पता लगा कि उनका पोता साइकिल से स्कूल जाएगा तो उसने साफ इनकार कर दिया कि नहीं, वह आटो से ही जाएगा भले ही इसके लिए उसे अपनी पेंशन से पैसे देना पड़ें।
तो मंगलवार यानी छह मई को मनु साइकिल से स्कूल के लिए सुबह ठीक छह बजकर 55 मिनट पर घर से निकल गया। पता नहीं मैं किस दहशत में था, चुपचाप अपनी बाइक से बेटे के पीछे-पीछे चलने लगा। उसका स्कूल, घर से लगभग पांच-छह किलोमीटर दूर है। स्कूल के पास पहुंचने पर बेटे की साइकिल की चेन उतर गई। मैंने अपनी बाइक रोकी और उसकी चेन चढ़ाई और स्कूल तक उसके साथ-साथ गया। उसने मुझे अपने पीछे आते हुए देख लिया था । उसने मुझसे कुछ कहा नहीं, लेकिन उसका चेहरा बता रहा था कि इस तरह मेरा उसके पीछे-पीछे आना नागवार गुजरा है।
ठीक एक बजकर 15 मिनट पर मनु के स्कूल की छुट्टी हो जाती है। 12 बजकर 50 मिनट पर मेरे आफिस में पत्नी का फोन आता है। मैं अपने बेटे के साथ आने के लिए स्कूल रवाना हो जाता हूं और धीरे-धीरे उसके साथ घर लौटता हूं।
घर से स्कूल के रास्ते में तीन चौराहे पड़ते हैं और इनमें से इंदौर के दो चौराहों बाम्बे हॉस्पिटल और सत्य सांई स्कूल वाले चौराहे पर जबरदस्त ट्रेफिक होता है। इंदौर के अखबारों में रोज ही, कहीं न कहीं, सड़क दुर्घटना की खबरें छपती रहती हैं जिनमें बच्चे और युवा असमय मारे जाते हैं। और कौन सा ऐसा अखबार होगा जिनमें इस तरह की खबरें नहीं छप रही होंगी।
दूसरे दिन यानी सात मई को मनु ने जिद की कि मैं उसके पीछे न आऊं। मैं नहीं गया। वह सुबह ठीक छह बजकर 55 मिनट पर निकल गया। मैं साढ़े दस बजे अपने आफिस आ गया। कामकाज के बीच में रह=रह कर मैं एक दहशत में भर जाता था। समय जैसे धीरे-धीरे रेंग रहा हो। मैंने नोट किया था कि मनु को स्कूल से घर पहुंचने में कम से कम पच्चीस मिनट लगते हैं। मैंने एक बजकर चालीस मिनट पर घर फोन किया। पहली घंटी गई तो मैंने महसूस किया कि मेरी धड़कन सामान्य से कुछ तेज है। फिर दूसरी और तीसरी घंटी गई। मेरी धड़कन अचानक तेज हो गई थी। कितनी सारी काली खबरें दिमाग में शोर मचाने लगीं। कई तरह की आशंकाओं ने एकाएक घेर लिया। चौथी घंटी पर उधर मां की आवाज थी। उसकी दादी ने बताया मनु घर आ चुका है।
दोस्तो, मैं नहीं जानता ईश्वर है कि नहीं, लेकिन मैं हमेशा प्रार्थना करता रहूंगा उन तमाम बच्चों के लिए जो किसी भी काम से, किसी भी कारण अपने घर से निकलते हैं कि वे वापस अपने घर लौट आएं।
मैं अपनी मां को याद करता हूं जो मेरे घर से निकलने पर मुझे ऐसे देखती थी कि मैं अब कभी घर वापस नहीं लौटूंगा।
घर लौटो बच्चो,, घर लौट जाओ!!

इमेजः

स्पेन के मशहूर चित्रकार डिएगो रिवेरा की पेंटिंग

5 comments:

सतीश पंचम said...

ये दहशत अब सबके दिलों में घर करते जा रही है। लोग अब मोबाईल से हाय हैलो करते हैं तो मन में कहीं एक कोने से सनमन आवाज निकलती है ....सब ठीक है।

संगीता पुरी said...

बहुत ही सुंदर पोस्‍ट लिखा आपने .. ईश्‍वर से प्रार्थना है कि जिनके बच्‍चे घर से निकले .. वो फिर खुशी खुशी घर अवश्‍य पहुंच जाएं।

Anonymous said...

As always- good!!

मीनाक्षी said...

अपने से दूर गए बच्चों से एक बार ज़रूर फोन पर बात कर लेनी चाहिए...इतने से ही तसल्ली हो जाती है कि बच्चे सकुशल हैं...आपके सभी लेख मन पर गहरा प्रभाव छोड़ते हैं...

डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह said...

samvedna ki jeevant anubhooti,sahi kaha aapne hamare maa baap bhi isi tarah raah dekhtey rahe honge.
Gahan anubhootiyon ke liye aabhar.
Sunder blog aapka ,anand dey gaya
dr.bhoopendra
jeevansandarbh.blogspot.com