Thursday, May 21, 2009

रात, चंद्रमा, स्त्री और एक किताब ने बचा लिया


दुनिया में हमेशा से कुछ ऐसी चीजें रही हैं, जिसके कारण लोग आत्महत्या करने को विवश हो जाते हैं। और दुनिया में हमेशा से ऐसी चीजें भी रही हैं जो लोगों को आत्महत्या करने से रोक लेती हैं और उन्हें फिर से जीवन में खींचकर यह अहसास कराती हैं कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। यह जीवन अपनी तमाम क्रूरताओं के बावजूद सुंदर है। फूल उतने ही चटख रंगों में खिलते हुए हमें खूबसूरती का अहसास बखूबी करा रहे हैं, कि अब भी इस जीवन में महक बरकरार है।

मुझे नहीं पता कि दुनिया का हर व्यक्ति अपने जीवन में कभी न कभी आत्महत्या करने का सोचता है या नहीं लेकिन मैं अपने जीवन में एकबारगी इस अनुभव से गुजरा हूं कि अब यह जीवन लीला समाप्त कर लेना चाहिए। शायद ऐसे पल आते हैं जब लगता है कि जीवन की हरीतिमा सूख चुकी है और उसकी जगह काला-भूरा उजाड़ फैल रहा है जिसमें सांस लेना दूभर होता जा रहा है। लेकिन यकीन करिये मुझे कुछ चीजों ने आत्महत्या करने से बचा लिया और मैं जीवन में वापस लौट आया, उसकी सुंदरता को महसूस करता हुआ, उसके फूलों को निहारता हुआ, महकता हुआ...

यदि मेरे जीवन में रात, चंद्रमा, स्त्रियां और किताबें नहीं होती तो मैं कब का खत्म हो चुका था। मुझे एक शांत और गहराती रात ने, मुझे उस खूबसूरत घटते-बढ़ते चंद्रमा ने, मुझे स्त्रियों ने और अंततः मुझे किताबों ने आत्महत्या करने से बचा लिया...

मैं यदि अपनी किसी प्रिय किताब के पास भी बैठा होता हूं तो मुझे लगता है कि दूर कहीं एक लोरी की आवाज सुनाई दे रही है जो घने जंगलों के बीच से आ रही है। इस लोरी की आवाज जहां से आ रही है वहां एक नदी के बहने की आवाज भी आ रही है। और मैं जब इस आवाज पर जरा ज्यादा ध्यान देता हूं तो मुझे लगता है इसमें एक शीतलता है जिसमें मेरे हर ताप को और हर त्रास को हर लेने की ताकत है। अपनी प्रिय किताब के पास बैठने से कभी कभी लोरी की जो यह आवाज सुनाई देती है उसमें हलका उजाला है जो सबसे घने अंधेरे को रेशम की चादर में बदल देता है। इस आवाज के आने के पहले जो अंधेरा गाढ़ा होकर अपने वजन से मेरा गला दबाने की कोशिश कर रहा था वह हलका होकर एक ताजी हवा को अंदर आने देने वाले झरोखे में बदल जाता है।

किताबें मेरे लिए हमेशा एक झरोखा खोलती हैं। मुझे उसमें अपने हिस्से की गहराती रात दिखाई देती है जिसमें उगते तारे मुझे कभी अकेला नहीं होने देते हैं। किताब के इस झरोखे में मुझे अपना वह चांद दिखाई देता है जिसकी चांदनी के तार मुझे कायनात के उस संगीत में ले जाते हैं जहां मैं अपने ही भीतर गूंजती कोई विरल धुन सुनता हूं। किताब के इस झरोखे से मुझे वह हरापन दिखाई देता है जो मुझे जीवन में फिर से लौट आने का आमंत्रण देता है।

यह किताबों के कारण ही संभव है। आज इस वक्त, मैं जीवन में हूं, तो किताबों के कारण। आज मैं किसी रात मे, चांदनी भरी रात में किसी स्त्री के पास हूं, तो किताबों के कारण। आज मैं इसी चांदनी भरी रात में किसी स्त्री को प्रेम करने के काबिल हूं, तो किताब की वजह से। और आज मैं किसी स्त्री के आंसू का स्वाद जानता हूं, तो किताबों के कारण ही।
ये रात, ये चंद्रमा, ये स्त्री और किताबें नहीं होती तो पता नहीं मैं कहां होता?
मुझे हमेशा एक रात ने बचा लिया।
मुझे हमेशा एक चंद्रमा ने बचा लिया।
मुझे हमेशा एक स्त्री ने बचा लिया।
और मुझे हमेशा एक किताब ने बचा लिया....

12 comments:

sushant jha said...

बेहतरीन लेख...आपकी लेखनी कमाल की है। कितने एंगिल से सोचा जा सकता है आज पता चला। एक बार फिर से धन्यवाद।

निर्मला कपिला said...

badiya lekh hai kisi ne aise hi nahi kaha ki pustaken apki sachi dost hoti hain apse chand pal mangti hain aur apna sarvsa apko de deti hain abhar

Anonymous said...

It is worth coming to your blog.An honest creative post along with your earlier posts! Keep up the good work!

Ek ziddi dhun said...

yh mahsoos karne likhne ke liye bheetar bhee ek stree hoti hai

डॉ .अनुराग said...

दिलचस्प !

सुनील मंथन शर्मा said...

wah!

अनुपम अग्रवाल said...

लगा कि आपको मै बहुत देर से पढ़ रहा हूँ .

सच्चाई को बयान करती हुई रचना

शिरीष कुमार मौर्य said...

रवीन्द्र भाई ज़िद्दी धुन सही कह रही है ! मुझे यह पोस्ट एक कविता लगी और पता नहीं क्यों पर देवताले जी भी याद आए. किताबों की सिरीज़ में ये पोस्ट सर्वश्रेष्ठ है.

Himanshu Pandey said...

कविता जैसा गद्य, एकदम से बहता हुआ ।

चिंतन की श्रृंखला में कई चीजें अनायास आपके हाँथों में चली आती हैं,आप उनके प्रति सदय होकर उनसे आत्मीय होने लगते हैं- फिर अचानक ही सब कुछ एकमेक होकर आपकी लेखनी का हिस्सा बन जाता है ।

मैं सोचता हूँ, इस तरह का लिखना यदि किसी चिंतन का परिणाम है, तो उसकी इतनी विमायें ?

ravindra vyas said...

शुक्रिया सुशांतजी। आप ठीक कहती हैं निर्मलाजी कि किताबें अपना सब कुछ हमें सौंप देती हैं। रिया जी आप इस ब्लॉग पर आईं, पढ़ा और रिएक्ट किया तो अच्छा लगा। आती रहें और पढ़ती रहें। एक जिद्दी धुन के धीरेश भाई यह सच है कि हमारे भीतर जितनी स्त्री होगी और जितना बच्चा होगा हम उतने मानवीय और कल्पनाशील होंगे शायद। डॉ. अनुराग और सुनील के प्रति आभार। अग्रवालजी और हिमांशु जी बहुत बहुत शुक्रिया। शिरीष भाई आपके प्रति आभार कि आपको यह पोस्ट पसंद आई।
मुझे खुशी है कि मेरी किताबों पर लिखी जा रही इस श्रृंखला को पढ़ा जा रहा है और यह भी कि इस पर कई तरह की प्रतिक्रियाएं व्यक्त की जा रही हैं। हरा कोना आप सब के प्रति एक बार फिर आभार व्यक्त करता है।

neera said...

किताबों से प्यार तो है अचानक खूब सारा उमड़ पड़ा है.. शुक्रिया

somadri said...

kitab na hoti to kya hota, jaise nason me bahta khoon khoon na hota