Saturday, November 29, 2008

रुदन जो पहुंचता है ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक


मुंबई में आतंकवादी हमले के घेरे में डेढ़ सौ से ज्यादा लोगों के मरने की खबरें और इस घेरे में घायलों की गूँजती चीखें इस घेरे का व्यास और मारकता ज्यादा बढ़ाती हैं। इस पागलपन का असर कहाँ तक गया है, इसका अंदाजा शायद राजनीतिज्ञों, अर्थशास्त्रियो, समाजशास्त्रियों, पुलिस और कानून के विशेषज्ञों द्वारा अलग अलग लगाया जाएगा और इनकी राय, विश्लेषण और इससे निकलने वाले विचार महत्वपूर्ण माने जाएँगे लेकिन इस तरह की घटनाओं और पागलपन को एक कवि की निगाह बिलकुल भिन्न तरह से देखती-दिखाती है। एक कवि अपने समय की बड़ी घटनाओं और चीखों-चीत्कारों का ज्यादा मानवीय और मानीखेज ढंग से बखान करता है।

इजराइल के महान कवि येहूदा अमीखाई की एक कविता बम का व्यास इस तरह की हिंसा भरी घटनाओं की दूर तक फैली हद में आए लोगों के दुःख को अपनी नैतिक संवेदना के साथ इतनी मारकता से अभिव्यक्त करती हैं कि आप गहरे विचलित हो जाते हैं। येहूदा अमीखाई अपनी कविता में अचूक दृष्टि और गहरी मानवीय प्रतिबद्धता से अपने समय की हलचलों को इस तरह छूते हैं कि वह अपनी तमाम स्थानीयता और भौगोलिकता को पार करते हुए एक सार्वभौमिक सत्य को उद्घाटित करती है। हिंसा, युद्ध और आतंक तथा अपने समय की सचाइयों को उन्होंने बिना चीखे-चिल्लाए अपने संयत रचनात्मक कौशल से अभिव्यक्त किया। इसकी मार्मिकता हमें गहरे तक विचलित करती है। उनकी इस कविता बम का व्यास में जो सच और मर्म है वह अपनी नैतिक संवेदना में थरथराता हुआ तमाम तरह की हिंसा के खिलाफ एक तीखा प्रतिरोधी स्वर बन जाता है। कविता इन पंक्तियों से शुरू होती है-

तीस सेन्टीमीटर था बम का व्यास

और इसका प्रभाव पड़ता था सात मीटर तक

चार लोग मारे गए, ग्यारह घायल हुए

शुरूआत की इन तीन पंक्तियों में कुछ सूचनाएँ हैं। ये सूचनाएँ लगभग खबर के अंदाज में हैं। इसमें एक तरह का भावनात्मक सूखापन साफ लक्षित किया जा सकता है क्योंकि इनमें आंकड़े हैं और इन पर अपनी तरफ से कोई टिप्पणी करने की कोशिश नहीं की गई है। चौथी और पाँचवी पंक्ति में भी सूचना है लेकिन यहां संवेदना का स्पर्श है। दो अस्पताल और एक कब्रिस्तान के तबाह होने की बात है लेकिन कवि की निगाह यह बताने से नहीं चूकती कि इनके चारों तरफ एक बड़ा घेरा है दर्द और समय का। इनके चारों तरफ़ एक और बड़ा घेरा है - दर्द और समय का

दो हस्पताल और एक कब्रिस्तान तबाह हुए

इस तरह की घटना को कवि की निगाह किस तरह देखती है इसकी काव्यात्मक मिसाल काबिले गौर है लेकिन वह जवान औरत जिसे दफ़नाया गया शहर में

वह रहनेवाली थी सौ किलोमीटर से आगे कहीं की

वह बना देती है घेरे को और बड़ा

इन पंक्तियों में सौ किलोमीटर आगे रहने वाली एक जवान औरत को दफनाने की सूचना धीरे-धीरे काव्य संवेदना में थरथराती हुई इस घेरे को और बड़ा बनाती जा रही है। जाहिर है जिस बम का व्यास तीन सेंटीमीटर था वह अब कवि की निगाह से लगातार फैलता जा रहा है। कविता यही करती है। वह अपनी तरलता और संवेदना में एक बड़े सच को, उसमें छिपे मर्म को इसी तरह व्यक्त करती है। अब यह घेरा और बड़ा हो रहा है क्योंकि जिस बम से मरी औरत का आदमी सुदूर किनारों पर उसका शोक कर रहा है जो समूचे संसार को इस घेरे में ले रहा है।

और वह अकेला शख़्स जो समुन्दर पार

किसी देश के सुदूर किनारों पर

उसकी मृत्यु का शोक कर रहा था

समूचे संसार को ले लेता है इस घेरे में

कहा जाता है कि हिंसा का शिकार सबसे ज्यादा महिलाएँ और बच्चे होते हैं। यदि हम आँकड़ें और उन तमाम खबरों को यहाँ न भी दें तो यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि हिंसा की मार कहाँ-कहाँ और किस-किस तरह महिलाओं और बच्चों पर पड़ती है। कवि अपनी आखिरी पंक्तियों में जो सच बताने जा रहा है वह इस कविता को कितना बड़ा बना देता है, इस बम के व्यास के घेरे को कितना फैला देता है, इन पंक्तियों को पढ़िए-

और अनाथ बच्चों के उस रुदन का तो मैं

ज़िक्र तक नहीं करूँगा

जो पहुँचता है ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक

और उससे भी आगे

और जो एक घेरा बनाता है बिना अन्त

और बिना ईश्वर का ...

जैसा कि इस टिप्पणी में पहले कहा गया है कि एक कवि की निगाह इस घटना को कितनी गहरी संवेदना के जल में थरथराते हुए देखते-दिखाती है कि हम गहरे विचलित हो जाते हैं। इस बम विस्फोट में कवि उन अनाथ बच्चों के रूदन का जिक्र नहीं करना चाहता जो ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक और उससे भी आगे चला गया है। यह रूदन ही वह घेरा बनाता है अंत का और बिना ईश्वर का। कहने की जरूरत नहीं कि एक कवि ही वह अनसुना रूदन सुना सकता है जिससे हमारी आत्मा तक सिहर जाती है। सचमुच एक कवि हमारे सामने कितना बड़ा और बारीक मर्म उद्घाटित कर रहा है जिसमें अनाथ बच्चों के रूदन का अंतहीन और बिना ईश्वर का घेरा है। इस कविता की सबसे बड़ी ताकत यह है कि यह कविता अपने को भावुकता से बचाती हुई उस नैतिक संवेदना से बनी है जो तमाम हिंसा के खिलाफ एक प्रतिरोध है।


कविता का अनुवाद ः अशोक पांडे
पेंटिंग ः रवीन्द्र व्यास

(यह वेबदुनिया के लिए लिखे जा रहे साप्ताहिक कॉलम संगत की एक कड़ी है। मैं इसे मुंबई में आतंकी हमले में मारे गए इंदौर के युवा इंजीनियर गौरव जैन को समर्पित करता हूं।)

15 comments:

Satyendra Tripathi said...

सत्ताधीशो को अपने बिलो से बाहर निकालने के लिये जरुरी है कि देशवासी दिल्ली की ओर कूच करे और इन कायरो को बिलो से बाहर निकाले। आप शांत हो गये तो इन बेशर्मो को चमडी बदलने मे जरा भी समय न लगेगा।

श्रुति अग्रवाल said...

रवींद्र जी, इस बार आपके दिलकश चित्र का रंग दिलखुश हरा नहीं है...येहूदा अमीखाई की पंक्तियों की ही तरह आज आपकी पेंटिग में मुझे मुंबई का शोक और निर्दोषों का खून दिखाई दे रहा है। जैसे वे चिल्ला-चिल्ला कर इन मासूमों और जांबाजो के लिए क्रंदन करी हैं। शायद आज मेरी देखने की नजर दूसरी है...माफ कीजिएगा लेकिन लाल रंग देखते ही निर्दोषों का खून नजर आ रहा है।

MANVINDER BHIMBER said...

मैं नमन करती हूं उन सभी शहीदों को जिन्होंने हमारी सुख शान्ति के लिये अपनी जान की बाजी लगायी है।

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

bas itna hee, narayan narayan

रंजू भाटिया said...

लफ्ज़ मूक हैं और जे देखा है इन दिनों में वह बहुत दुखद है ..जिसके लिए जितना लिखा जाए कहा जाए कम है

पारुल "पुखराज" said...

khinnataa ek si hai..vyakt karney ke tareeqey alag

anurag vats said...

priy bhai...aapne kavita ki bahut marmsparshi wyakhya ki...gaurav jain ke bare men jankar dukh ho rha hai...

एस. बी. सिंह said...

क्या कहें मित्र। बस-

अनाथ बच्चों के उस रुदन का तो मैं
ज़िक्र तक नहीं करूँगा
जो पहुँचता है ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक

Ek ziddi dhun said...

आतंकवाद को लेकर बेतुकी प्रतिक्रियाओं की अति इधर ज्यादा है. ये और ज्यादा डरा देती हैं. आपने सही ही इस वक्त इस कविता के जरिए सही बात की है...

Bahadur Patel said...

ravindra bhai bahut achchhe se apane kavita par likha.apaki painting umda hai.

Mihir Pandya said...

रवीन्द्र जी, आपका लिखा पढ़ा वेबदुनिया पर. बहुत अच्छा लगा ये देखकर कि आपने कितने मन से मेरे लिखे एक-एक शब्द को पढ़ा है. शुक्रिया कहने यहां आया तो और सुंदर शब्दों का ख़ज़ाना मिला.

मुझे मुम्बई में जो हुआ उसके बाद आने वाली लोगों की प्रतिक्रियायें और ज़्यादा डरा रहीं हैं. अचानक लोगों को लगने लगा है जैसे कि युद्ध कोई समाधान है. क्या हम यह याद करेंगे कि युद्ध में आखिरकार दोनों ओर से लड़ने वालों की हार होती है. इस संकट की घड़ी में यह याद रखना ज़्यादा ज़रूरी है.

हमारी सरकारें तो इस आक्रोश को भी भुनाने की कोशिश करेंगी. कुछ पार्टियां इसी की नैया पर चढ़कर अगले लोकसभा चुनाव तर जाने का ख्वाब देखने लगीं हैं. ज़रूरी है कि यह आक्रोश अपनी सामान्य तर्क क्षमता ना खोए.

ravindra vyas said...

मिहिर, आपने वेबदुनिया का कॉलम देखा और जवाब दिया, इसके लिए शुक्रिया।
सभी के प्रति आभार।

sandhyagupta said...

Kavita rongte khadi karti hai,kavita ki vyakhya bhi bahut bhavpurna hai.Par mere vichar se pathakon ko kavita me dub jaane ke liye swantra chod dena chahiye.

guptasandhya.blogspot.com

Kavita Vachaknavee said...

यह संयोग हो सकता है कि अभी वागर्थ (http://vaagarthaa.blogspot.com )
पर इन्हीं सन्दर्भों को लेकर बुनी गई एक कविता "युद्ध : बच्चे और माँ" लगाई और अभी आपका यह ब्लॊग देखा। इस संयोग से अच्छा लगा। इस से पूर्व शेफ़ाली द्वारा भेजे उसके लिंक पर आपकी टिप्पणी देखी थी अशोक वाजपेयी वाली कविता के प्रस्तुतीकरण पर की गई.

प्रदीप कांत said...

और अनाथ बच्चों के उस रुदन का तो मैं
ज़िक्र तक नहीं करूँगा
जो पहुँचता है ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक
और उससे भी आगे
और जो एक घेरा बनाता है बिना अन्त
और बिना ईश्वर का ...

Kuch kahane ko bacha hi nahin