हेमन्त शेष की कविता
नर्म और सुगंधमयी कोंपलों की तरह
फूट आती हैं नीली
कांपती हुई इच्छाएं
अनसुने दृश्यों और अनदेखी आवाज़ों के स्वागत में
प्रेम खोल देता है आत्मा की बंद खिड़की
वहां बिलकुल शब्दहीन
अोस से भरी हवाएं प्रवेश कर सकती हैं
देह की दीर्घा की हर चीज़
भीगी और मृदुल जान पड़ती है
बेचैन हाथों से
मृत्यु और काल का प्राचीन फाटक खोलकर
पूरी पृथ्वी पर बचे दो लोग आचमन के लिए
अलौकिक रोशनी से भरे तालाब की तरफ़ आते हैं
भय और आशंका की असंख्य लहरें गड्डमड्ड कर देती हैं स्पर्शों के बिम्ब
सिर्फ़ रात के आकाश की कलाई पर गुदा हुआ मिलता है
स्थायी हरा चंद्रमा
जिसके हर गुलाबी पत्थर पर लिखा वे
एक-दूसरे का नाम देखते हैं
वहां से झीने आलोक में डूब दिन उन्हें
जहाज़ों की तरह तैरते नज़र आते हैं
अनन्त दूरियां और विस्तारों तक जिन्हें ले जाते हैं आकांक्षा के पंख
शरीर में जागे हुए करोड़ों फूलों और
कुहरे में झिलमिलाते हुए जुगनूअों जैसी
मौलिक लिपि में
प्रेमीगण बार-बार लिखते हैं
संसार की सबसे प्राचीन त्रासद पटकथा
वे जिसकी बस
कांपती हुई नीली शुरूआत जानते हैं
इति जैसा कोई शब्द
प्रेम के शब्दकोश में नहीं होता।
(कवि के प्रति गहरा आभार प्रकट करते हुए और इस कविता के साथ अपनी पेंटिंग लगाकर कृतज्ञ महसूस करते हुए)
12 comments:
इति जैसा कोई शब्द
प्रेम के शब्दकोश में नहीं होता।
इतनी सुंदर कविता पढाने के लिए आभार ..चित्र भी बहुत अच्छा लगा इस रचना के साथ
chandramaa huraa aur sthaayii...phir ye bhi sach sa ...इति जैसा कोई शब्द
प्रेम के शब्दकोश में नहीं होता।
hemant ki kavita bahut achchhi hai . kai panktiyan to adbhut hai. padhakar deh ki dirgha ki har chiz bhigi aur mrdul jan padati hai. kavita padhawane ke liye dhanywad.
प्रेम खोल देता है आत्मा की बंद खिड़की.....
और
.....
देह की दीर्घा की हर चीज़
भीगी और मृदुल जान पड़ती है
सुंदर अति सुंदर कविता भी और चित्र भी
शब्दों को हरा कोना मिला और कविता को ठौर...
रंगों की आभा में काव्य भी कृतज्ञ होता है और कवि को भी होना चाहिए रवीन्द्र भाई...
कुछ समझे आप ?
painting dil ko bha gayi hai
ravindra bhai mere blog par bhi padharen.
इति जैसा कोई शब्द
प्रेम के शब्दकोश में नहीं होता
vakai tum bahut gahre or antarman ko chhoo lene wale kavi ho.
अभिषेकजी, यह कविता हेमन्त शेष की है।
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