आस्कर की वजह से स्लमडॉग मिलिनेयर एक बार फिर सुर्खियों में है। यह टिप्पणी मेरे मित्र और युवा कवि-अनुवादक सुशोभित सक्तावत ने भेजी है। आप उन्हें हरा कोना पर पहले भी पढ़ चुके हैं। सुशोभित ने इस फिल्म को एक अलहदा ढंग से पढ़ने की कोशिश की है। मैं उनके प्रति आभार मानते हुए उनकी यह टिप्पणी दे रहा हूं।
('स्लमडॉग मिलेनिएर' पर फ़र्स्ट हैंड रिएक्शंस, जो निहायत पर्सनल भी हो सकते हैं...)
डिकेंस से लेकर दॉस्तोएव्स्की तक और फ़ेलिनी से लेकर सत्यजीत रे तक इसे आज़मा चुके हैं... नॉवल, ड्रामा और सिनेमा की वह ड्रमैटिक डिवाइस, जिसमें एक ऐसा 'हेल' रचने की कोशिश की जाती है, जिसमें से एक 'परफ़ेक्ट अंडरडॉग हेरोइक्स' उभरकर सामने आ सके, जो के 'ग्रैंड' या 'फैंटास्टिक' और अप्रत्याशित रूप से रोमांचक हो और ऑडियंस को 'पोएटिक जस्टिस' की राहत दे सके। 'स्लमडॉग मिलेनिएर' इसी डिवाइस को पकड़ती है, लेकिन उसके पार नहीं जा पाती, और उसमें देशकाल का 'स्ट्रेस' उतने कंविक्शन के साथ कथानक में शिफ़्ट नहीं होता. नतीजन, पोएटिक जस्टिस स्खलित होता है, और आप थोड़े रोमांचित, लेकिन ज़्यादह खिन्न, सिनेमा हॉल के अंधेरे से लौटते हैं. 'स्लमडॉग' का देशकाल ख़ुद उस पर भारी पड़ा है. फिल्म का अंत फ़ंतासी में होता है. आप एक समूचा हेल कैप्चर करने के बाद फ़ंतासी में पनाह नहीं ले सकते. तब फिल्म अपने पहले हाफ़ के नारकीय भूगोल में धंस जाती है, जिसे उसके दूसरे हाफ़ की हेरोइक्स सांत्वना नहीं दे पाती. 'स्लमडॉग' में कैमरा ऐसी जगहों पर घुसा है, जहां से दृश्य माध्यम की साहसिकता शुरू होती है. मैंने हमेशा सोचा है कि विज़ुअल मीडियम की मारक क्षमता अगरचे ज़्यादह है, तो इसी के साथ उसके लिहाज़ भी बढ़ते हैं. तब स्क्रिप्ट में लिखा हुआ स्लम और स्क्रीन पर उघाड़ा गया स्लम एक ही चीज़ें नहीं हो सकतीं. 'स्लमडॉग' में कैमरा अतिक्रांत करता है, इसे भी ज़्यादह वो 'पेनिट्रेट' करता है, और तब वो 'ऑफ़ेंसिव' लगता है. कोई अचरज नहीं कि हिंदुस्तान में अवाम का बड़ा हिस्सा 'स्लमडॉग' के इस ऑफ़ेंस से तिलमिलाया हआ है. ये आइनेदारी अप्रत्याशित थी. 'स्लमडॉग' में वितृष्णा है और जुगुप्सा का बड़ा-सा हाशिया, जो के मंशाई लग सकता है. और अगर कॉन्सेप्चुअली भी बात करें तो फिल्म के अंत में जमाल का लतिका को पा जाना जितना रोमांचित करता है, इस फिल्म का स्ट्रेस, ख़ुद अपने कॉन्सेप्ट के खिलाफ़, उस पूरे परिवेश पर जाकर गिरता है, जिसमें लतिकाएँ जमालों को नहीं मिलतीं, जिसमें हेरोइक्स के लिए, और फ़ंतासियों के लिए ज़्यादह गुंजाइशें नहीं होतीं. तब 'स्लमडॉग' उस स्लम के उस समूचे स्पेस को एक तरह से 'रिडिकल' करती है. इस फिल्म को जीवेषणा का जयगान भी बताया जा रहा है, तब यह नज़रियों का फ़र्क हो सकता है. हिंदुस्तान में अवाम का एक बड़ा तबक़ा इस फिल्म को लेकर पसोपेश में है कि इस पर नाज़ करे, या इस पर शर्मिंदा हो. कई लोग तो इसे 'नेशनल डिसग्रेस' की तरह भी देख रहे हैं और उनके ऐतराज़ पूरी तरह बेज़ा नहीं हैं. निश्चित ही, 'स्लमडॉग' झुग्गियों, चकलों, यतीमगाहों और गैंगवारी के अड्डों के बेपर्दा डिटेल्स के साथ विचलित करती है. एक दृश्य में कम्युनल कमेंट भी है, जिससे मेजोरिटी आहत हो सकती है. कहा जा सकता है कि अगर समूचा हिंदुस्तान स्लम नहीं है, यह बात सच है, तो यह बात भी उतनी ही सच है कि हिंदुस्तान में स्लम हैं. वो वहां है- आप आंखें मूंद सकते हैं या नाक दबा सकते हैं, लेकिन उससे फ़र्क नहीं पड़ेगा. हालांकि मेरे लिए यह जानना ख़ासा दिलचस्प होगा कि अगर कोई भारतीय यह फिल्म बनाता, तब किस तरह के रिएक्शंस सामने आते. अभी तक तो इस पर काफ़ी मिश्रित प्रतिक्रियाएँ आई हैं, और अंतिम रूप से कुछ भी तय नहीं किया जा पा रहा है. बहरहाल, 'स्लमडॉग' में राहत के लम्हे भी हैं, और कई जगह तो यह निहायत लिरिकल हो जाती है. फिल्म की सबसे लिरिकल चीज़ है लतिका का चेहरा, जबके वो रेलवे प्लेटफ़ॉर्म पर 'स्पॉट' होती है. यह शॉट बार-बार दुहराया गया है. वहां लतिका के चेहरे पर एक उमगता-सा उजास है- प्रणय के आतुर विस्मय को एक्सप्रेस करता हुआ, और जो उस तमाम मॉर्बिड मौसम को एक लिरिकल रिलीफ़ बख़्शता है. डैनी बॉयल ने फिल्म की गति तेज़ रखी है, और माध्यम पर अपनी पकड़ का परिचय दिया है. फिल्म में इंटरकटिंग है, फ़्लैशबैक्स हैं, यानी तगड़े होमवर्क के बाद एडिटिंग टेबल पर किया गया ख़ासा पुख़्ता काम. स्लम के ऐसे कंविंसिंग दृश्य स्क्रीन पर कभी नहीं आए थे. यह उन लोगों की विज़ुअल रिसर्च की ताक़त भी दिखाता है, और उन्होंने स्लम के समूचे आंबियांस को, उसकी नब्ज़ को पकड़ा है. फिल्म का दूसरा हाफ़ ड्रमैटिक है, कहा जाए तो ज़्यादह फिल्मी, और वहां पर फिल्म सेट होती है, और इसी के चलते, उसमें अपने पहले हाफ़ की तुलना में फांक भी पड़ती है. रहमान ने फिल्म के लिए कमाल का साउंडट्रैक रचा है, जो फ्रेम-दर-फ्रेम उसके संगसाथ क़दमताल करता है. 'जय हो' तो जयगान है ही, 'गैंग्स्टा ब्ल्यूज़', 'एस्केप', 'रॉयट', 'साया' और 'लिक्विड डैंस' भी पूरी फिल्म के लिए ध्वनियों का अनुकूल-समांतर संसार गढ़ते हैं. लेकिन फिल्म की रूह है 'ड्रीम्स ऑन फ़ायर', जो के जमाल और लतिका के प्रणय की प्रत्याशाओं का संगीत है. 'स्लमडॉग' के बाद, सब कुछ भूल चुकने के बाद, महज़ रागात्मक त्वरा का वह संगीत ही याद रह जाता है. तब हमें लगता है के इंटेंसिटी का वह संगीत ही शायद इस फिल्म (और दुनिया-जहान) पर छाए हुए सिनिसिज़्म को (सिनिसिज़्म तक को!) औदात्य बख़्श सकता है. 'स्लमडॉग' के बाद थियेटर के अंधेरे से शायद हम इतनी राहत से ज़्यादा और कुछ लेकर नहीं लौट सकते.
डिकेंस से लेकर दॉस्तोएव्स्की तक और फ़ेलिनी से लेकर सत्यजीत रे तक इसे आज़मा चुके हैं... नॉवल, ड्रामा और सिनेमा की वह ड्रमैटिक डिवाइस, जिसमें एक ऐसा 'हेल' रचने की कोशिश की जाती है, जिसमें से एक 'परफ़ेक्ट अंडरडॉग हेरोइक्स' उभरकर सामने आ सके, जो के 'ग्रैंड' या 'फैंटास्टिक' और अप्रत्याशित रूप से रोमांचक हो और ऑडियंस को 'पोएटिक जस्टिस' की राहत दे सके। 'स्लमडॉग मिलेनिएर' इसी डिवाइस को पकड़ती है, लेकिन उसके पार नहीं जा पाती, और उसमें देशकाल का 'स्ट्रेस' उतने कंविक्शन के साथ कथानक में शिफ़्ट नहीं होता. नतीजन, पोएटिक जस्टिस स्खलित होता है, और आप थोड़े रोमांचित, लेकिन ज़्यादह खिन्न, सिनेमा हॉल के अंधेरे से लौटते हैं. 'स्लमडॉग' का देशकाल ख़ुद उस पर भारी पड़ा है. फिल्म का अंत फ़ंतासी में होता है. आप एक समूचा हेल कैप्चर करने के बाद फ़ंतासी में पनाह नहीं ले सकते. तब फिल्म अपने पहले हाफ़ के नारकीय भूगोल में धंस जाती है, जिसे उसके दूसरे हाफ़ की हेरोइक्स सांत्वना नहीं दे पाती. 'स्लमडॉग' में कैमरा ऐसी जगहों पर घुसा है, जहां से दृश्य माध्यम की साहसिकता शुरू होती है. मैंने हमेशा सोचा है कि विज़ुअल मीडियम की मारक क्षमता अगरचे ज़्यादह है, तो इसी के साथ उसके लिहाज़ भी बढ़ते हैं. तब स्क्रिप्ट में लिखा हुआ स्लम और स्क्रीन पर उघाड़ा गया स्लम एक ही चीज़ें नहीं हो सकतीं. 'स्लमडॉग' में कैमरा अतिक्रांत करता है, इसे भी ज़्यादह वो 'पेनिट्रेट' करता है, और तब वो 'ऑफ़ेंसिव' लगता है. कोई अचरज नहीं कि हिंदुस्तान में अवाम का बड़ा हिस्सा 'स्लमडॉग' के इस ऑफ़ेंस से तिलमिलाया हआ है. ये आइनेदारी अप्रत्याशित थी. 'स्लमडॉग' में वितृष्णा है और जुगुप्सा का बड़ा-सा हाशिया, जो के मंशाई लग सकता है. और अगर कॉन्सेप्चुअली भी बात करें तो फिल्म के अंत में जमाल का लतिका को पा जाना जितना रोमांचित करता है, इस फिल्म का स्ट्रेस, ख़ुद अपने कॉन्सेप्ट के खिलाफ़, उस पूरे परिवेश पर जाकर गिरता है, जिसमें लतिकाएँ जमालों को नहीं मिलतीं, जिसमें हेरोइक्स के लिए, और फ़ंतासियों के लिए ज़्यादह गुंजाइशें नहीं होतीं. तब 'स्लमडॉग' उस स्लम के उस समूचे स्पेस को एक तरह से 'रिडिकल' करती है. इस फिल्म को जीवेषणा का जयगान भी बताया जा रहा है, तब यह नज़रियों का फ़र्क हो सकता है. हिंदुस्तान में अवाम का एक बड़ा तबक़ा इस फिल्म को लेकर पसोपेश में है कि इस पर नाज़ करे, या इस पर शर्मिंदा हो. कई लोग तो इसे 'नेशनल डिसग्रेस' की तरह भी देख रहे हैं और उनके ऐतराज़ पूरी तरह बेज़ा नहीं हैं. निश्चित ही, 'स्लमडॉग' झुग्गियों, चकलों, यतीमगाहों और गैंगवारी के अड्डों के बेपर्दा डिटेल्स के साथ विचलित करती है. एक दृश्य में कम्युनल कमेंट भी है, जिससे मेजोरिटी आहत हो सकती है. कहा जा सकता है कि अगर समूचा हिंदुस्तान स्लम नहीं है, यह बात सच है, तो यह बात भी उतनी ही सच है कि हिंदुस्तान में स्लम हैं. वो वहां है- आप आंखें मूंद सकते हैं या नाक दबा सकते हैं, लेकिन उससे फ़र्क नहीं पड़ेगा. हालांकि मेरे लिए यह जानना ख़ासा दिलचस्प होगा कि अगर कोई भारतीय यह फिल्म बनाता, तब किस तरह के रिएक्शंस सामने आते. अभी तक तो इस पर काफ़ी मिश्रित प्रतिक्रियाएँ आई हैं, और अंतिम रूप से कुछ भी तय नहीं किया जा पा रहा है. बहरहाल, 'स्लमडॉग' में राहत के लम्हे भी हैं, और कई जगह तो यह निहायत लिरिकल हो जाती है. फिल्म की सबसे लिरिकल चीज़ है लतिका का चेहरा, जबके वो रेलवे प्लेटफ़ॉर्म पर 'स्पॉट' होती है. यह शॉट बार-बार दुहराया गया है. वहां लतिका के चेहरे पर एक उमगता-सा उजास है- प्रणय के आतुर विस्मय को एक्सप्रेस करता हुआ, और जो उस तमाम मॉर्बिड मौसम को एक लिरिकल रिलीफ़ बख़्शता है. डैनी बॉयल ने फिल्म की गति तेज़ रखी है, और माध्यम पर अपनी पकड़ का परिचय दिया है. फिल्म में इंटरकटिंग है, फ़्लैशबैक्स हैं, यानी तगड़े होमवर्क के बाद एडिटिंग टेबल पर किया गया ख़ासा पुख़्ता काम. स्लम के ऐसे कंविंसिंग दृश्य स्क्रीन पर कभी नहीं आए थे. यह उन लोगों की विज़ुअल रिसर्च की ताक़त भी दिखाता है, और उन्होंने स्लम के समूचे आंबियांस को, उसकी नब्ज़ को पकड़ा है. फिल्म का दूसरा हाफ़ ड्रमैटिक है, कहा जाए तो ज़्यादह फिल्मी, और वहां पर फिल्म सेट होती है, और इसी के चलते, उसमें अपने पहले हाफ़ की तुलना में फांक भी पड़ती है. रहमान ने फिल्म के लिए कमाल का साउंडट्रैक रचा है, जो फ्रेम-दर-फ्रेम उसके संगसाथ क़दमताल करता है. 'जय हो' तो जयगान है ही, 'गैंग्स्टा ब्ल्यूज़', 'एस्केप', 'रॉयट', 'साया' और 'लिक्विड डैंस' भी पूरी फिल्म के लिए ध्वनियों का अनुकूल-समांतर संसार गढ़ते हैं. लेकिन फिल्म की रूह है 'ड्रीम्स ऑन फ़ायर', जो के जमाल और लतिका के प्रणय की प्रत्याशाओं का संगीत है. 'स्लमडॉग' के बाद, सब कुछ भूल चुकने के बाद, महज़ रागात्मक त्वरा का वह संगीत ही याद रह जाता है. तब हमें लगता है के इंटेंसिटी का वह संगीत ही शायद इस फिल्म (और दुनिया-जहान) पर छाए हुए सिनिसिज़्म को (सिनिसिज़्म तक को!) औदात्य बख़्श सकता है. 'स्लमडॉग' के बाद थियेटर के अंधेरे से शायद हम इतनी राहत से ज़्यादा और कुछ लेकर नहीं लौट सकते.
(इमेज ः गूगल से साभार)
2 comments:
आधा ही पढ़ा और मुझ पर ये लिखा हुआ हावी होने लगा सो पढना बंद कर दिया. पहले फिल्म देख लूं फिर पढता हूँ
main bhi film dekhakar hi padhunga.
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