अनुराग कश्यप मेरे प्रिय फिल्मकारों में से एक हैं। कल उनकी फिल्म देव डी. रिलीज हो रही है। इस मौके पर मैं मेरे नए मित्र और युवा कवि-अनुवादक सुशोभित सक्तावत की एक छोटी सी टिप्पणी दे रहा हूं जो उन्होंने बिमल राय की देवदास की एक तस्वीर पर लिखी है। उन्होंने यह टिप्पणी मुझे भेजी और इस ब्लॉग पर लगाने की अनुमति दी, इसके लिए हरा कोना उनका आभारी है।
वह तस्वीर स्याह है... उस तस्वीर के ब्यौरे भरे हैं स्याह रंगों वाली किसी अकथ वेदना से. फिर उसमें पानी है, जिसमें बादल हैं. पानी में झांकते हुए नहीं, पानी से उभरते हुए बादल... गहरे रंगों वाले, बोझल-मन, जैसे पानी में पीड़ा का पहाड़! पूरा मौसम भरा-भरा है, भारी-भारी है. पूरे परिवेश पर गहरे अवसाद की छांह है. एक कातर अस्तित्व या एक कातर नियति. कातरता और दैन्य! तस्वीर के हर डिटेल- कमीज़ पर पड़ी सलवटों, गोद में धरी बंदूक़, नीचे- तस्वीर को बेस देते- दरिया के घाट के एक कोने, नज़ारे की गहरी रंगत, साये सरीखी एक मूर्तिमान आकृति, और वही हांटिंग पानी, वे ही हांटिंग बादल- पर वह कातरता पसरी हुई है. मुझे एक पीठ नज़र आती है, जबकि वे आंखें (वे रेतीली आंखें!) दरिया में कब की गुम चुकी हैं. यह तस्वीर मेरे सामने है और मैं सालों से उसे इसी तरह देख रहा हूं. एक गीत की टूटी हुई कडियां मेरी नज़रों के आगे तैर आती हैं- 'ब्याकुल जियरा, ब्याकुल नैना,एक-एक चुप में, सौ-सौ बैना, रह गए आंसू, लुट गए राग...'. यह विराग है- आर्त्तनाद तक पहुंचता शोकगायन. 'मितवा नहीं आए', और तमाम आलम सुई की आंख से होकर गुज़र गया और हर शै ज़र्रे में सिमटकर रह गई. यह असंभव की प्रत्याशा है, जो विडंबना की ग़र्त में झोंक देती है. यह लाचारी है अटूट और अंतहीन. कीट्स के संबोधन-गीतों की तरह यहां पूरा मंज़र दु:खपूर्ण पवित्रता में रुका हुआ है. एक अजब-सी हताशा में, जो एक हद के बाद जिंदगी का एक तरीक़ा, एक नज़रिया बन जाती है गोया दर्द हद से गुज़रकर दवा हो गया है, और फिर, उस हद के बाद, उसमें राग-विराग दोनों विगलित होने लगते हैं. आप अपने में 'सेट' कर दिए जाते हैं, अपने बेलौस बिखराव में स्थिर- किंकर्तव्यविमूढ़ कुछ-कुछ, काफ़ी हद तक नियत और तय- 'डेस्टाइंड' के नियतिपरक मायनों में. ये महज़ एक तस्वीर है... ये कुछ स्थिर-से संकेत हैं- कला के, फ़लसफ़े के, और ख़्याल के, लेकिन ये यह इलहाम बख़्शते हैं के शिक़स्त के ज़रिये भी राहतें हासिल होती हैं... के ख़्याल में और आर्ट में ज़मीन की ग्रैविटी के क़ायदे उल्टे पड़ जाते हैं... और फिर आप ख़ुद के लिए ये फ़ंतासी गढ़ने की कोशिश करते हैं के शायद निजात भी वहीं हो- बेकली के भीतर- अगरचे अफ़सोस मुक़म्मल हो... पूरे का पूरा.
(तस्वीर - बिमल रॉय की फिल्म 'देवदास' (1955) से एक स्टिल. यहीं पर तलत का वो अमर गीत आता है- 'मितवा लागी रे ये कैसी अनबुझ आग'- अंत के बाद भी मैं जिसे बचा लेना चाहूंगा!)
वह तस्वीर स्याह है... उस तस्वीर के ब्यौरे भरे हैं स्याह रंगों वाली किसी अकथ वेदना से. फिर उसमें पानी है, जिसमें बादल हैं. पानी में झांकते हुए नहीं, पानी से उभरते हुए बादल... गहरे रंगों वाले, बोझल-मन, जैसे पानी में पीड़ा का पहाड़! पूरा मौसम भरा-भरा है, भारी-भारी है. पूरे परिवेश पर गहरे अवसाद की छांह है. एक कातर अस्तित्व या एक कातर नियति. कातरता और दैन्य! तस्वीर के हर डिटेल- कमीज़ पर पड़ी सलवटों, गोद में धरी बंदूक़, नीचे- तस्वीर को बेस देते- दरिया के घाट के एक कोने, नज़ारे की गहरी रंगत, साये सरीखी एक मूर्तिमान आकृति, और वही हांटिंग पानी, वे ही हांटिंग बादल- पर वह कातरता पसरी हुई है. मुझे एक पीठ नज़र आती है, जबकि वे आंखें (वे रेतीली आंखें!) दरिया में कब की गुम चुकी हैं. यह तस्वीर मेरे सामने है और मैं सालों से उसे इसी तरह देख रहा हूं. एक गीत की टूटी हुई कडियां मेरी नज़रों के आगे तैर आती हैं- 'ब्याकुल जियरा, ब्याकुल नैना,एक-एक चुप में, सौ-सौ बैना, रह गए आंसू, लुट गए राग...'. यह विराग है- आर्त्तनाद तक पहुंचता शोकगायन. 'मितवा नहीं आए', और तमाम आलम सुई की आंख से होकर गुज़र गया और हर शै ज़र्रे में सिमटकर रह गई. यह असंभव की प्रत्याशा है, जो विडंबना की ग़र्त में झोंक देती है. यह लाचारी है अटूट और अंतहीन. कीट्स के संबोधन-गीतों की तरह यहां पूरा मंज़र दु:खपूर्ण पवित्रता में रुका हुआ है. एक अजब-सी हताशा में, जो एक हद के बाद जिंदगी का एक तरीक़ा, एक नज़रिया बन जाती है गोया दर्द हद से गुज़रकर दवा हो गया है, और फिर, उस हद के बाद, उसमें राग-विराग दोनों विगलित होने लगते हैं. आप अपने में 'सेट' कर दिए जाते हैं, अपने बेलौस बिखराव में स्थिर- किंकर्तव्यविमूढ़ कुछ-कुछ, काफ़ी हद तक नियत और तय- 'डेस्टाइंड' के नियतिपरक मायनों में. ये महज़ एक तस्वीर है... ये कुछ स्थिर-से संकेत हैं- कला के, फ़लसफ़े के, और ख़्याल के, लेकिन ये यह इलहाम बख़्शते हैं के शिक़स्त के ज़रिये भी राहतें हासिल होती हैं... के ख़्याल में और आर्ट में ज़मीन की ग्रैविटी के क़ायदे उल्टे पड़ जाते हैं... और फिर आप ख़ुद के लिए ये फ़ंतासी गढ़ने की कोशिश करते हैं के शायद निजात भी वहीं हो- बेकली के भीतर- अगरचे अफ़सोस मुक़म्मल हो... पूरे का पूरा.
(तस्वीर - बिमल रॉय की फिल्म 'देवदास' (1955) से एक स्टिल. यहीं पर तलत का वो अमर गीत आता है- 'मितवा लागी रे ये कैसी अनबुझ आग'- अंत के बाद भी मैं जिसे बचा लेना चाहूंगा!)
8 comments:
वापस ले गयी उसी गीत की ओर आपकी बेहतरीन पोस्ट
melodies r sweet...
बहुत सुंदर...
कल प्रिव्यू के लिए अनुराग अपनी टीम के साथ चंडीगढ़ में थे। रात को दफ़तर आए तो मुलाक़ात हुई, आज यहां ये सब पढ़कर कई चीजें और ज़्यादा स्पष्ट दिखने लगीं। बहुत सुंदर प्रस्तुति। मितवा भी सुनवा देते तो और एक बार शुक्रिया कहते हम..।
अनुराग की एक खास अदा है ,जो भली सी लगती है...रिश्तो को देखने का उनका एक खास नजरिया है...जो कही न कही आज की पीड़ी को समझता सा लगता है.....इस फ़िल्म का treatment थोड़ा अलग है उस देवदास से .उसी का इंतज़ार है ..इस फ़िल्म का गाना" परदेसी " भी खासा रॉक स्टाइल में है...इमोशनल अत्याचार के बाद मुझे बेहद पसंद आया .....
वैसे आपके दोस्त की टिप्पणी .एक नज़्म की माफिक लगी....
सुशोभित को मेरा सलाम. इतना डूब कर सिनेमा को कम ही लोग देखते हैं और और भी कम लोग इतने मानी निकाल लाते हैं. मुझे फ़िल्म दुबारा देखने की तलब हो चली है.
bahut achchha likha hai.
aapane padhawaya. dhanywaad.
Good Song & good writing
Post a Comment