दिल्ली की द मिंट आर्ट गैलरी में इंदौर के फोटोग्राफर आशीष दुबे की फोटो प्रदर्शनी
हम किसी से अलग-थलग नहीं है बल्कि इसी कायनात का अभिन्न हिस्सा हैं। सही-गलत की दुनिया के पार यह वह इलाका है जहां पवित्र शांति की लय में आत्मा का मधुर संगीत गूंजता है। यही वह आध्यात्मिक उजाला है जिसमें अनंत से मिलन का एक दुर्लभ क्षण किसी फूल की मानिंद खिल कर अपनी खूशबू फैलाता है। यही असल यथार्थ है और यही जिंदगी का फलसफा। कायनात की लय से लय मिलाते हुए धड़कते रहना। अलग होकर भी एकाकार होना। इंदौर के फोटोग्राफर आशीष दुबे के फोटो की प्रदर्शनी सॉन्ग अॉफ द रीड का यही मर्म है। उनकी फोटो प्रदर्शनी दिल्ली की द मिंट आर्ट गैलरी में आयोजित है जो पांच फरवरी तक जारी रहेगी। इसमें शहर के सिरपुर तालाब में उगी घास-फूस के 13 फोटो शामिल हैं जिनके आर्काइवल पेपर पर प्रिट लिए गए हैं। उनके ये फोटो जीवन के अनसुने संगीत को सुनने की और उसकी चित्रमय अभिव्यक्ति है। ये अपनी कलात्मकता में इतने समृद्ध हैं कि किसी एक रंगीय चित्रकारी का आनंद भी देते हैं। इनमें पानी और हवा की लय में नाचती-गाती-झूमती घासों का गीत सुना जा सकता है।
उन्होंने शहर के सिरपुर तालाब को अपनी अंदरूनी निगाह से देखा और उसके उन अनसुने-अनदेखे हिस्सों को अपनी कला का विषय बना लिया। उन्होंने इस तालाब के किनारे और पानी में उगी घास-फूस को किसी गहरे एकांत क्षण में देखा और किसी कौंध की तरह उनके सामने यह उद्घाटित हुआ कि इसमें जिंदगी का गहरा मर्म छिपा है। वे कहते हैं-जैसे ही मैंने इन घास-फूस और कुश को देखा तो लगा ये मुझसे कुछ कहना चाहती हैं। धीरे-धीरे मेरी उनसे आत्मीयता बढ़ी और फिर संवाद शुरू हुआ। ये क्या कहना चाहती हैं, यह जानने-समझने की कोशिश की। महसूस किया। उसी दौरान मैंने सूफी शायर जलालुद्दीन रूमी की कविता सॉन्ग अॉफ द रीड पढ़ी और तब यह बेहतर जान सका कि इनका दर्शन क्या है. अर्थ क्या है। बस फिर मैंने इसी विषय को एकाग्र कर फोटो खींचे। इसमें से एक फोटो अंतरराष्ट्रीय पत्रिका नेशनल जियोग्राफिक के जून 2008 के अंक में छपा। वे इस पत्रिका के यूअर शॉट कॉलम में छपने वाले पहले भारतीय हैं।
गुजराती विज्ञान महाविद्यालय इंदौर में भौतिक शास्त्र के सहायक प्राध्यापक श्री दुबे सन् 1985 से शौकिया फोटोग्राफी कर रहे हैं और इसके पहले वे महेश्वर, धाराजी, अोंकारेश्वर के अलावा तरह तरह के फूलों की तस्वीरें खींच चुके हैं। कॉलेज में भी वे अपने फोटोज का एक स्लाइड शो कर चुके हैं। वे कहते हैं दिल्ली की इस प्रदर्शनी के लिए हमने ध्रुपद संगीत का उपयोग किया ताकि जो लोग ये फोटोज देखने आ रहे हैं वे हांफती-दोड़ती जिंदगी से दूर अपनी लय में आएं और फिर इन फोटो की लय से लय मिलाते हुए इन्हें देखे। मकसद यही था कि इस तरह संगीत के जरिये भी मेरे फोटोज का मर्म वे ज्यादा बेहतर तरीके से महसूस कर सकें। वे इसी दौरान दलाई लामा से मिलकर अभिभूत हैं और उनकी विनम्रता और लोगों के प्रति गहन संवदेनशीलता उन्हें छूती है।
हम किसी से अलग-थलग नहीं है बल्कि इसी कायनात का अभिन्न हिस्सा हैं। सही-गलत की दुनिया के पार यह वह इलाका है जहां पवित्र शांति की लय में आत्मा का मधुर संगीत गूंजता है। यही वह आध्यात्मिक उजाला है जिसमें अनंत से मिलन का एक दुर्लभ क्षण किसी फूल की मानिंद खिल कर अपनी खूशबू फैलाता है। यही असल यथार्थ है और यही जिंदगी का फलसफा। कायनात की लय से लय मिलाते हुए धड़कते रहना। अलग होकर भी एकाकार होना। इंदौर के फोटोग्राफर आशीष दुबे के फोटो की प्रदर्शनी सॉन्ग अॉफ द रीड का यही मर्म है। उनकी फोटो प्रदर्शनी दिल्ली की द मिंट आर्ट गैलरी में आयोजित है जो पांच फरवरी तक जारी रहेगी। इसमें शहर के सिरपुर तालाब में उगी घास-फूस के 13 फोटो शामिल हैं जिनके आर्काइवल पेपर पर प्रिट लिए गए हैं। उनके ये फोटो जीवन के अनसुने संगीत को सुनने की और उसकी चित्रमय अभिव्यक्ति है। ये अपनी कलात्मकता में इतने समृद्ध हैं कि किसी एक रंगीय चित्रकारी का आनंद भी देते हैं। इनमें पानी और हवा की लय में नाचती-गाती-झूमती घासों का गीत सुना जा सकता है।
उन्होंने शहर के सिरपुर तालाब को अपनी अंदरूनी निगाह से देखा और उसके उन अनसुने-अनदेखे हिस्सों को अपनी कला का विषय बना लिया। उन्होंने इस तालाब के किनारे और पानी में उगी घास-फूस को किसी गहरे एकांत क्षण में देखा और किसी कौंध की तरह उनके सामने यह उद्घाटित हुआ कि इसमें जिंदगी का गहरा मर्म छिपा है। वे कहते हैं-जैसे ही मैंने इन घास-फूस और कुश को देखा तो लगा ये मुझसे कुछ कहना चाहती हैं। धीरे-धीरे मेरी उनसे आत्मीयता बढ़ी और फिर संवाद शुरू हुआ। ये क्या कहना चाहती हैं, यह जानने-समझने की कोशिश की। महसूस किया। उसी दौरान मैंने सूफी शायर जलालुद्दीन रूमी की कविता सॉन्ग अॉफ द रीड पढ़ी और तब यह बेहतर जान सका कि इनका दर्शन क्या है. अर्थ क्या है। बस फिर मैंने इसी विषय को एकाग्र कर फोटो खींचे। इसमें से एक फोटो अंतरराष्ट्रीय पत्रिका नेशनल जियोग्राफिक के जून 2008 के अंक में छपा। वे इस पत्रिका के यूअर शॉट कॉलम में छपने वाले पहले भारतीय हैं।
गुजराती विज्ञान महाविद्यालय इंदौर में भौतिक शास्त्र के सहायक प्राध्यापक श्री दुबे सन् 1985 से शौकिया फोटोग्राफी कर रहे हैं और इसके पहले वे महेश्वर, धाराजी, अोंकारेश्वर के अलावा तरह तरह के फूलों की तस्वीरें खींच चुके हैं। कॉलेज में भी वे अपने फोटोज का एक स्लाइड शो कर चुके हैं। वे कहते हैं दिल्ली की इस प्रदर्शनी के लिए हमने ध्रुपद संगीत का उपयोग किया ताकि जो लोग ये फोटोज देखने आ रहे हैं वे हांफती-दोड़ती जिंदगी से दूर अपनी लय में आएं और फिर इन फोटो की लय से लय मिलाते हुए इन्हें देखे। मकसद यही था कि इस तरह संगीत के जरिये भी मेरे फोटोज का मर्म वे ज्यादा बेहतर तरीके से महसूस कर सकें। वे इसी दौरान दलाई लामा से मिलकर अभिभूत हैं और उनकी विनम्रता और लोगों के प्रति गहन संवदेनशीलता उन्हें छूती है।
3 comments:
बहुत सुन्दर और प्रभावशाली रचना
ब्लैक एन्ड व्हाइट वाला फ़ोटो हमेशा के लिए स्मृति में सहेज लिया गया है रवीन्द्र भाई!
इधर आप एक से एक चीज़ें ला रहे हैं हरे कोने पर.
बधाई आपको भी और आशीष दुबे साहब को भी.
adbhut
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