Thursday, January 29, 2009

समय के आगे मनुष्य कितना असहाय है




महान स्पेनिश चित्रकार सल्वाडोर डाली पर चित्रकार विकास भट्टाचार्य की टिप्पणी


एक बड़ा चित्रकार अपने समय और समाज के तमाम रूपों, विद्रूपताअों और विडंबनाअों और साथ ही अपनी भीतरी दुनिया, स्वप्न, आकांक्षा और विशाद को कितने कलात्मक कौशल से चित्रित करता है इसकी एक नायाब मिसाल हैं स्पैनिश चित्रकार सल्वाडोर डाली। इंदौर के युवा कवि और बांग्ला अनुवादक उत्पल बैनर्जी ने बंगाल के ही बड़े चित्रकार विकास भट्टाचार्य द्वारा डाली पर लिखे लेख का अनुवाद किया है। बतौर बानगी उसके कुछ अंश आपके लिए प्रस्तुत हैं।




डाली का जो पक्ष मुझे अच्छा लगता है, वह यह कि वे बहुत ही स्पष्टवादी थे, समय-समय पर इसके लिए वे बहुत रूढ़ भी हो जाते थे। अपने मंतव्यों को प्रकट करते हुए उन्होंने कभी भी निगाहें नहीं चुराईं। मुझे लगता है कि डाली शायद कुछ ज्यादा ही अ‍सहिष्णु थे। उनकी स्पष्टवादिता ने उनकी लोकप्रियता को बहुत ज्यादा क्षति पहुँचाई थी। डाली की सिर्फ स्पष्टवादिता ने ही नहीं, उनकी अकारण चौंकाने की वृत्ति की वजह से भी उन्हें कई आलोचकों का शिकार होना पड़ा था। डाली पिकासो की व्यावसायिक मानसिकता की कड़ी निंदा किया करते थे, वे पिकासो को दक्ष कलाकार के रूप में स्वीकार नहीं करते थे। हालाँकि कालांतर में, दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि डाली खुद भी उसी व्यावसायिक मानसिकता के शिकार हो गए थे। जीवन के उत्तरार्द्ध में डाली की यह अकारण शोर मचाने की वृत्ति का मैंने कभी भी समर्थन नहीं किया, बल्कि मैंने घृणा ही की है।पचास या साठ के दशक में जब मैंने चित्र बनाने की शुरुआत की, तब निरंतर अध्यावसाय ही मेरा सहारा था। चित्रविद्या की चर्चा मुझे कभी भी केवल भावात्मक चर्चा नहीं लगी, अभ्यास और लगातार अभ्यास को मैं बहुत जरूरी मानता हूँ। मैंने सुना है कि डाली भी अपने विद्यार्थियों से कहा करते थे कि पहले के द‍क्ष कलाकारों के कार्यों को देखकर सीखना चाहिए, उन्होंने अध्‍यावसाय को कभी नहीं छोड़ा था। डाली ने चौंकाकर नाम कमाने की कितनी भी कोशिश क्यों न की हो लेकिन चित्र बनाने में उन्होंने निष्ठा में किसी भी तरह की कंजूसी नहीं की थी। उन्होंने दुनिया के सामने जिस तरह से अपने जगत को अभिव्यक्त किया है, उसमें बहुत सचाई थी। उनकी स्पष्टवादिता ही उनका आकर्षण थी।आंदोलन में भाषा की तलाश करते-करते मैंने डाली को एक वक्त अपने पास महसूस किया था, अपने पड़ोस में पाया था कॉलेज के दिनों में ही, जो उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया है। उत्तर कलकत्ता के घर-द्वार, तथाकथित जमींदार की कोठी के तमाम अनाचार मेरे मन में विद्रोह जगाते थे। मैंने जब चित्र बनाने की शुरुआत की तब मैंने इन लोगों पर व्यंग्य किए थे और यही वजह रही कि मेरे चित्र कभी भी सुंदर-सुंदर नहीं रहे। मैं फूल, लता, पत्तियाँ आदि को लेकर कभी भी चित्र नहीं बना सका, राजा-रानी वगैरह मेरे पास व्यंग्य के विषय के रूप में आए थे। डाली के चित्रों में इस तरह के तमाम व्यंग्य मिलते हैं। कभी राजनीति को लेकर, तो कभी मनुष्य के मन के दराजों को खोल-खोलकर नंगी सचाइयों को दिखाते वक्त। डाली ने मनुष्य के अवचेतन मन के दरवाजे को खोलकर अंदर घुसने की कोशिश की थी, वह जगह उन्हें कभी भी सुंदर महसूस नहीं हुई। मनुष्य की कामना-वासना, हिंसा, धर्म के नाम पर गुंडागर्दी आदि को लेकर उन्होंने बार-बार चित्र बनाए। ये तमाम चित्र मुझे प्रतिवाद के साथ-साथ बहुत अस्वीकृतिवाचक भी महसूस हुए हैं।डाली ने बहुत सारे चित्रों में नारकीय दृश्य दिखाए हैं, जिनमें मनुष्य के मन की वीभत्स पशु प्रवृत्तियों ने वीभत्स रूप धारण किए हैं। जीवन की घड़ी पिघल रही है। लोग कहेंगे कि डाली ने समय पर व्यंग्य किया है, असल में डाली ने कहना चाहा था कि समय के आगे मनुष्य कितना असहाय है।


3 comments:

Ek ziddi dhun said...

ghadi pighalne wala chitr shayad maine ashok vajpeyi ke kisi sangrah par dekha tha. ye nahi pata tha kiska hai. dhanywad

अनिल कान्त said...

बहुत खूब हमे इस से रूबरू कराने के लिए ..अच्छा लेख


अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

Arun Aditya said...

डाली बड़े चित्रकार थे, पर विकास भट्टाचार्य ने सही लिखा है कि वे कुछ ज्यादा ही असहिष्णु थे। कई बार तो उनकी स्पष्टवादिता में अहं का भाव भी झलकता था। मैड्रिड के फाइन आट्र्स कॉलेज से उन्हें इसीलिए निकाल दिया गया था क्योंकि उन्होंने सार्वजनिक तौर पर एलान कर दिया था कि उस संस्थान में एक भी शिक्षक ऐसा नहीं था जो उनकी परीक्षा ले सके। विलक्षण प्रतिभा के धनी लोगों में कुछ व्यवहारगत विलक्षणताएं भी होती हैं।
डाली पर कुछ और भी सामग्री दीजिए। प्रभु जोशी से भी कुछ लिखवा सकते हैं। आप तो जानते हैं कि उन्होंने डाली पर कितना शानदार रेडियो रूपक बनाया है।