वे अपने चित्रों में कुछ अक्षर लिखते हैं, इसलिए कहते हैं कि मेरे ये चित्र, चित्रलेख हैं। वे रंगों की हलकी-गहरी परतों के बीच अक्षरों की रेखाएं खींचते हैं। एक के नीचे एक फैली अक्षरों की इन रेखाअों पर कोई आकार हवा में या पानी में तैरता महूसूस होता है। ये आकार अपने में प्रकाशमान होने के साथ ही अपने आसपास फैले प्रकाश में अवस्थित हैं। रहस्य के कोहरे में लिपटे हुए। ऐसा लगता है कि ये आपको पढ़ने का एक मौन बुलावा दे रहे हैं। ये अक्षर उन लिपियों के हैं जिन्हें अभी जानना बाकी है, पढ़ना बाकी है। इनमें शायद कोई अर्थ छिपा है। इनमें शायद कोई मर्म छिपा है। ये शायद आदि-अक्षर के चित्र हैं। इन चित्रों को जरा गौर से देखें तो लगता है जैसे किसी सघन एकांत में की गई प्रार्थनाअों के बिखरे अक्षर हैं। ये चित्र, इंदौर के ही चित्रकार राजेश पाटिल के हैं। चैन्नई की अप्पाराव गैलरी में उनकी एकल नुमाइश हाल ही में संपन्न हुई। उनके चित्रों की अब तक सात एकल नुमाइश हो चुकी हैं और वे देश की तमाम गैलरीज के साथ अमेरिका के अटलांटा, कैरोलिना, वाशिंगटन, सैन डिएगो, मैडिसन और इंग्लैंड, कनाडा, पौलेंड, जर्मनी, आस्ट्रेलिया और फ्रांस में हुई समूह प्रदर्शनियों में शिरकत कर चुके हैं।
उनके चित्रों का एक सिरा जहां प्राचीन लिपियों के रहस्य से जुड़ता है तो दूसरा सिरा मिनिएचर की परंपरा से। उनके चित्रों में रंगों के अनंत में आकार की नृत्यरत मुद्राएं हैं। वे कहते हैं मैं अपने से यह बार-बार पूछता हूं कि रंग और आकार क्या संगीत या ध्वनि में रूपांतरित हो सकते हैं। उनके घर पर अपने चित्रों को दिखाते हुए वे कहते हैं कि मैं अक्षर में निहित ध्वनि और प्रकाश को रूपांतरित करने की कोशिश में हूं। आप गौरे से देखें तो सौंदर्य, प्रकाश और ध्वनि को देख-महसूस कर सकते हैं।
उनके चित्रों में कोई एक रंग की प्रमुखता है। उसी रंग की अलग अलग टोन्स की परते हैं। वे कहते हैं मुझे गहरे रंग पसंद हैं। हरा, पीला या कत्थई। मैं कम से कम रंगों के जरिये रंगों को जानना-समझना चाहता हूं। मैं किसी एक रंग की परत पर परत बनाता हूं। इनमें आकार आकर इनकी एकरसता को खत्म करते हैं। ये आकार अक्षर हैं। इस तरह से चित्र की एक अनायास भाषा बनती और दीखने लगती है।
लेकिन मैं इन्हें किसी वाद में नहीं बांधना चाहता क्योंकि ये हवा, पानी और धूप की तरह हैं। ये घटित होते हैं। मैं इन्हें चित्रित करने की कोशिश नहीं करता। जब तक मेरे दिमाग में यह बात रहेगी कि मैं चित्र बना रहा हूं तब तक मैं चित्र नहीं बना सकता। इस तरह तो दिमाग अडंगा पैदा करता है। चित्र तो बनेगा ही तब, जब मैं अपने को भूल जाऊं। जब तक मैं खाली नहीं हो जाऊंगा तब तक चित्र नहीं घटेगा। चित्र का जन्म खुद को भूलने से पैदा होता है। मैं अपने को भूलकर चित्र बनाता हूं।
यदि आप अपने चित्रों को चित्र लेख कहते हैं तो क्या लिखते हैं? वे कहते हैं मैं अपने चित्रों में अपनी स्व-अनुभूति लिखता हूं। मैं चित्रों में अपना प्रेम और अपनी घृणा लिखता हूं। मैं शायद मौन को, प्रार्थना को, शांति को या किसी रहस्यमय में लिपटी लिपि को लिखना चाहता हूं। से मैं मानता हूं कि प्रेम का लोप होना आकार का लोप होना है। आकार का लोप होना और आकार का लोप होना अमूर्त होना है। और इसके लिए अमूर्त भी नाकाफी शब्द है। मैं तो एक ऐसी निर्दोष आंख हासिल करना चाहता हूं जिसके जरिये चित्र को संपूर्ण रच सकूं। इसके लिए अपने प्रति, अपने रंगों के प्रति, अपने चित्र में आ रहे आकारों के प्रति सजग होना जरूरी है। मूर्त-अमूर्त के विभाजन पर वे कहते हैं कि कला में किसी भी तरह का विभाजन नहीं होता। आधुनिक समाज ने हमारी स्वाभाविक वृत्तियों को विकृत कर दिया है और यही कारण है कि हम हर चीज का विभाजन करते हैं।
Wednesday, January 21, 2009
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1 comment:
bahut sahi....
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