एआर रहमान को गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड से सम्मानित किया गया है। उन पर मेरे मित्र और युवा कवि-अनुवादक सुशोभित सक्तावत ने यह टिप्पणी लिखी है। एक बिलकुल नई निगाह से उन्होंने रहमान यह बेहतरीन टिप्पणी लिखी है। उनके प्रति गहरा आभार प्रकट करते हुए आप सबके लिए हरा कोना की यह प्रस्तुतिः
मैं रहमान पर वस्तुनिष्ठ तटस्थता के साथ बात नहीं कर सकता... इसीलिए उसका ख़्याल करते हुए मैं कॉलरिज के 'विलिंग सस्पेंशन ऑफ़ डिसबिलीफ़' को याद रखता हूं, जिसके बिना 'कुब्ला ख़ान' और 'एन्शेंट मारिनर' सरीखी ज़मीनपारी चीज़ें मुमकिन नहीं हो सकती थीं. कुछ-कुछ यही तौर रहमान का भी है. म्यूजिक की बेइंतहाई रेंज वाला रहमान निर्विवाद रूप से अभी हिंदुस्तानी सिने संगीत का शाहज़ादा है... एक वर्सेटाइल जीनियस. उसके जैसी वर्सेटिलिटी इसके पहले हमने दादा बर्मन और पंचम में ही देखी थी. ये रहमान ही कर सकता है कि किसी डिस्को नंबर के आखिरी हिस्से को सरगम से सजा दे, या फिर किसी स्टॉक सिचुवेशन के लिए कम्पोज़ किए गए भीड़भरे सस्टेंड पीस के लिए शीशे और मोम के साज़ जुटा लाए. हमने रहमान के ज़रिये साउंडट्रैक पर बारिश की बूँदें सुनी हैं... और तपते दश्तों में भी हम उसके साथ दूर तक चले हैं. अपनी 'वीयर्ड कम्पोजिशंस' में वह सर्दीलेपन और सिलगन दोनों को रचना बख़ूबी जानता है. उसमें कुछ-कुछ 'अनकैनी' है... कुछ-कुछ पराभौतिक और लोकोत्तर... जिसके सामने व्यंजनाएँ मुँह ताकती रह जाती हैं. उसका टैलेंट बहुत ओरिजिनल चीज़ है- इधर से उधर तक जैसा हमने कुछ कभी देखा-सुना न हो. मौसिक़ी के तमाम मैनरिज़्म पर उसकी बारीक़ पकड़ है. दूसरे रिदम का वह बादशाह है. ध्वनियों के उत्सों और स्रोतों तक उसकी पहुंच है, इसलिए चाहे नॉक्चर्नल हों, चाहे लयात्मक, चाहे इंटेंस, चाहे लाउड और ज़मीनपारी... आवाज़ों के तमाम मौसम गढ़ना उसको आता है. फिर दक्खिनी हिंदुस्तानी संगीत से लेकर पश्चिमी क्लैसिकल संगीत के ध्वनि-रूपों तक उसकी पकड़ है. उसकी बहुतेरी कंपोजिशंस में आपको सिंफ़निक उठान मिल जाएगी. सिंफ़नी- जो के एक 'यूनिवर्सल रुदन' है, सदियों से ठहरा हुआ वजूद की छाती में- रहमान उसे लहराते परदों के सर्दीलेपन के साथ बुनना जानता है और जो हमें चारों तरफ़ से घेर लेती हैं. मेरा यक़ीन है कि वह बहुत ध्यान से चीज़ों को सुनता होगा- दुनियाभर की श्रेष्ठ और अनुपम चीज़ों को- वग़रना, वो ख़ुद के लिए इतना सघन और समृद्ध संगीत नहीं रच पाता. रहमान में दुनिया-जहान के संगीत-रूपों और ध्वन्यिक-प्रविधियों का दुर्लभ संयोजन आया है. सिंफ़नी से लेकर सूफ़ी, फ़ोक से लेकर क्लैसिकल और ट्रेंडी से लेकर ट्रिकी तक. वह ख़लाओं से लेकर अनुगूंजों तक एक दर्दमंद और दिलक़श पुल रचता है. उसे आवाज़ों के स्थापत्य की समझ है और उसे बरतने की तमीज़ भी. वह संगीत के पीछे छुपे वैश्चिक स्रोत तक पहुँचता हुआ राग-विराग रच देता है और ये अपने आपमें एक बहुत बड़ी ताक़त है- एक बहुत बड़ी तख़लीक़ की ताक़त- जो ख़ुदावंद से क़तई कमतर नहीं. उसे परदादारी के राज़ पता हैं. जिंदगी के महीन परदों के पीछे छुपे तिलिस्म वो जानता है और यह भी ख़्याल है उसे के म्यूजिक कुछ नहीं, अगर वो रूह को उधेड़कर रख देने की कीमिया नहीं है. (वो जानता है या नहीं, ये कोई इक़बालिया स्टेटमेंट नहीं है, वो बस उस सब को जानता है- बाय टेम्परामेंट- उसी तरह जैसे रंग रोशनियों को जानते हैं- वही 'अनकैनी'!) और वह यक़सी सफ़ाई के साथ कातरता या उत्साह को रच देता है. उसकी मौसिक़ी कभी-कभी तो ख़्याल की इंतेहा तक जाती है. तब, तल्लीनता से, मन की किसी उठी हुई हालत में उसे सुनना आपको औदात्य के दरवाज़े पर धकेल देता है. रहमान ने अपनी फिल्मों के लिए दो-एक बला की नातें भी गाई हैं, (ख़ुद उसकी आवाज़ अपने आपमें एक अजीबो-ग़रीब शै है- उसमें भराव से ज़्यादा उठान है और जो हमें अक्सर उखाड़ फेंकती है.) और जब वो ऐसा कुछ गाता है तो उसकी आवाज़ उसकी रूह का आइना बन जाया करती है. और तब हम देख सकते हैं कि एक मौसिक़ार के पीछे शायद एक दरवेश छिपा हुआ है... जिसकी रूह उसके सुरों के दरिया में रवां है, और जो हमारी दफ़्तरी दुपहरियों और उनकी सादा गतियों और पस्त इशारों को भी अपने बे-मंशाई होनेभर से रोशन औ' मुअत्तर कर सकती है.
मैं रहमान पर वस्तुनिष्ठ तटस्थता के साथ बात नहीं कर सकता... इसीलिए उसका ख़्याल करते हुए मैं कॉलरिज के 'विलिंग सस्पेंशन ऑफ़ डिसबिलीफ़' को याद रखता हूं, जिसके बिना 'कुब्ला ख़ान' और 'एन्शेंट मारिनर' सरीखी ज़मीनपारी चीज़ें मुमकिन नहीं हो सकती थीं. कुछ-कुछ यही तौर रहमान का भी है. म्यूजिक की बेइंतहाई रेंज वाला रहमान निर्विवाद रूप से अभी हिंदुस्तानी सिने संगीत का शाहज़ादा है... एक वर्सेटाइल जीनियस. उसके जैसी वर्सेटिलिटी इसके पहले हमने दादा बर्मन और पंचम में ही देखी थी. ये रहमान ही कर सकता है कि किसी डिस्को नंबर के आखिरी हिस्से को सरगम से सजा दे, या फिर किसी स्टॉक सिचुवेशन के लिए कम्पोज़ किए गए भीड़भरे सस्टेंड पीस के लिए शीशे और मोम के साज़ जुटा लाए. हमने रहमान के ज़रिये साउंडट्रैक पर बारिश की बूँदें सुनी हैं... और तपते दश्तों में भी हम उसके साथ दूर तक चले हैं. अपनी 'वीयर्ड कम्पोजिशंस' में वह सर्दीलेपन और सिलगन दोनों को रचना बख़ूबी जानता है. उसमें कुछ-कुछ 'अनकैनी' है... कुछ-कुछ पराभौतिक और लोकोत्तर... जिसके सामने व्यंजनाएँ मुँह ताकती रह जाती हैं. उसका टैलेंट बहुत ओरिजिनल चीज़ है- इधर से उधर तक जैसा हमने कुछ कभी देखा-सुना न हो. मौसिक़ी के तमाम मैनरिज़्म पर उसकी बारीक़ पकड़ है. दूसरे रिदम का वह बादशाह है. ध्वनियों के उत्सों और स्रोतों तक उसकी पहुंच है, इसलिए चाहे नॉक्चर्नल हों, चाहे लयात्मक, चाहे इंटेंस, चाहे लाउड और ज़मीनपारी... आवाज़ों के तमाम मौसम गढ़ना उसको आता है. फिर दक्खिनी हिंदुस्तानी संगीत से लेकर पश्चिमी क्लैसिकल संगीत के ध्वनि-रूपों तक उसकी पकड़ है. उसकी बहुतेरी कंपोजिशंस में आपको सिंफ़निक उठान मिल जाएगी. सिंफ़नी- जो के एक 'यूनिवर्सल रुदन' है, सदियों से ठहरा हुआ वजूद की छाती में- रहमान उसे लहराते परदों के सर्दीलेपन के साथ बुनना जानता है और जो हमें चारों तरफ़ से घेर लेती हैं. मेरा यक़ीन है कि वह बहुत ध्यान से चीज़ों को सुनता होगा- दुनियाभर की श्रेष्ठ और अनुपम चीज़ों को- वग़रना, वो ख़ुद के लिए इतना सघन और समृद्ध संगीत नहीं रच पाता. रहमान में दुनिया-जहान के संगीत-रूपों और ध्वन्यिक-प्रविधियों का दुर्लभ संयोजन आया है. सिंफ़नी से लेकर सूफ़ी, फ़ोक से लेकर क्लैसिकल और ट्रेंडी से लेकर ट्रिकी तक. वह ख़लाओं से लेकर अनुगूंजों तक एक दर्दमंद और दिलक़श पुल रचता है. उसे आवाज़ों के स्थापत्य की समझ है और उसे बरतने की तमीज़ भी. वह संगीत के पीछे छुपे वैश्चिक स्रोत तक पहुँचता हुआ राग-विराग रच देता है और ये अपने आपमें एक बहुत बड़ी ताक़त है- एक बहुत बड़ी तख़लीक़ की ताक़त- जो ख़ुदावंद से क़तई कमतर नहीं. उसे परदादारी के राज़ पता हैं. जिंदगी के महीन परदों के पीछे छुपे तिलिस्म वो जानता है और यह भी ख़्याल है उसे के म्यूजिक कुछ नहीं, अगर वो रूह को उधेड़कर रख देने की कीमिया नहीं है. (वो जानता है या नहीं, ये कोई इक़बालिया स्टेटमेंट नहीं है, वो बस उस सब को जानता है- बाय टेम्परामेंट- उसी तरह जैसे रंग रोशनियों को जानते हैं- वही 'अनकैनी'!) और वह यक़सी सफ़ाई के साथ कातरता या उत्साह को रच देता है. उसकी मौसिक़ी कभी-कभी तो ख़्याल की इंतेहा तक जाती है. तब, तल्लीनता से, मन की किसी उठी हुई हालत में उसे सुनना आपको औदात्य के दरवाज़े पर धकेल देता है. रहमान ने अपनी फिल्मों के लिए दो-एक बला की नातें भी गाई हैं, (ख़ुद उसकी आवाज़ अपने आपमें एक अजीबो-ग़रीब शै है- उसमें भराव से ज़्यादा उठान है और जो हमें अक्सर उखाड़ फेंकती है.) और जब वो ऐसा कुछ गाता है तो उसकी आवाज़ उसकी रूह का आइना बन जाया करती है. और तब हम देख सकते हैं कि एक मौसिक़ार के पीछे शायद एक दरवेश छिपा हुआ है... जिसकी रूह उसके सुरों के दरिया में रवां है, और जो हमारी दफ़्तरी दुपहरियों और उनकी सादा गतियों और पस्त इशारों को भी अपने बे-मंशाई होनेभर से रोशन औ' मुअत्तर कर सकती है.
4 comments:
रहमान जी की तो बात कुछ और हैं।
रवींद्र भाई । रहमान एक संगीतकार नहीं बल्कि सुरों की एक क्रांति है । भारतीय फिल्म संगीत में युवा-स्वर लाने का श्रेय रहमान को ही जाता है । रहमान ने बार बार खुद को साबित किया है । इधर 'रंग दे बसंती' और 'जाने तू' में कहीं कहीं उन्होंने ऐसी बारीक प्रयोगात्मकता दिखाई है कि हम चकित रह जाते हैं ।
सुन्दर.......अति-सुन्दर सुश
अजातशत्रु के बाद फिल्म संगीत पर इतना उम्दा लेखन शायद आपका ही है।
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