उनके फोटो किसी महान और भव्य स्थापत्य कला के मोहताज नहीं है। उनके चित्र महंगे पत्थरों और संगमरमर के भी मोहताज नहीं। उनके चित्रों में गारे-मिट्टी-भूसे, लकड़ी, घांस-फूस और कवेलू से बने वे घर और गलियां हैं जो गोबर से लिपे हैं। उनके फोटो में मालवा के गांवों की दीवारें, दरवाजे, खिड़कियां और सीढ़ियां हैं। सुबह की मुलायम धूप है, आसमान है और पूरे फोटो को स्पंदित करती गांव की कोई मानवीय हलचल है। ये सब इतने अनूठे ढंग से संयोजित हैं कि गांव के अभाव का भाव तो दिखाई देता है लेकिन अभाव के इसी भाव का भावपूर्ण चित्रांकन भी है। अपनी सादगी और मार्मिकता में अभाव का यह आत्मीय वैभव है। यह वैभव देखना हो तो प्रवीण रावत के श्वेत-श्याम फोटो देखे जाना चाहिए। वे अपने कैमरे से मालवा के घरों की सुंदरता का चित्रांकन करते हैं। उनके खींचे गए फोटो में घरेलू स्थापत्य मुलायम धूप में अपनी सुंदरता में मोहित करते हैं। ये घरेलू स्थापत्य को गरिमा और सम्मान देना हैं। हाल ही में उन्हें जापान के सबसे बड़े अखबार अशाई शिंबुन द्वारा प्रायोजित और जापान की फोटोग्राफिक सोसायटी द्वारा आयोजित 69वीं अंतरराष्ट्रीय छायाचित्र स्पर्धा में गोल्ड मैडल मिला है। वे उत्साहित हैं और लगातार अपनी कला को निखारने में जुटे हैं।
वे कहते हैं कि मैं मालवा की इसी ग्रामीण और घरेलू स्थापत्य कला को लोगों के सामने लाना चाहता हूं। मेरे अधिकांश फोटो इसी विषय पर एकाग्र हैं। यानी ये जो दीवारें-दरवाजे-खिड़कियां-सीढ़ियां हैं इनकी सुंदरता को देखना-दिखाना चाहता हूं। यह इस तरह से बने हैं कि जितना गारा-मिट्टी उपलब्ध था उतनी सीढ़ियां बन गईं, उतना बड़ा चौबारा बन गया, जितना गोबर था उतनी दीवार लीप दी। इसमें कुछ छूट भी जाता है, वह दीखता भी है लेकिन मैं अपने खास कोण, गति, लाइट का ध्यान रखते हुए उसे इस तरह से संयोजित करता हूं कि उस छूटे हुए में भी सुंदरता के दर्शन हों। यही मेरे लिए ग्रामीण सौंदर्य है। अब यह सुंदरता भी आधुनिकता की हवा में धीरे धीरे खत्म हो रही है।
श्री रावत ने 1979 से फाइन आर्ट कॉलेज इंदौर से डिप्लोमा किया और फोटोग्राफी में दिलचस्पी होने से अपनी रचनात्मकता को इसी माध्यम में खोजा-निखारा। पहला पुरस्कार उन्हें 1990 में फोटोग्राफिक सोसायटी आफ इंडिया का मिला था। इससे उत्साहित होकर वे लगातार काम करते रहे और यही कारण है कि उन्हें अब तक 68 से ज्यादा प्रादेशिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। उनके अब तक 400 से ज्यादा रंगीन और श्वेत-श्याम फोटो प्रकाशित हो चुके हैं। इन दिनों वे मुंबई की जहांगीर आर्ट गैलरी में मार्च में लगने वाले एक ग्रुप शो की तैयारी में व्यस्त हैं। इसमें उनके ताजा फोटो प्रदर्शित होंगे।
वे कहते हैं आंख के पीछे कोई चित्रकार बैठा हो तो गले में लटके कैमरे को ब्रश की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। यह आंख जो फोटो खींचती है उसमें चित्रकारी का मजा भी आता है। किसी भी कलात्मक फोटो के लिए रेखाएं, आकार, टेक्स्चर और कलर्स महत्वपूर्ण होते हैं। बस इन्हीं को अलग अलग कलाकार अपने ढंग से नए तरीके से संयोजित करता है। इसी संयोजन में कला का मर्म छिपा होता है। मैं रोटीग्राफी (खाने-कमाने के लिए की जाने वाली फोटोग्राफी) करता हूं लेकिन रचनात्मक आनंद के लिए मैं लगातार रचनात्मक फोटो खींचने में लगा रहता हूं और फोटो को निखारने के लिए अपने डार्करूम में भी उस पर काम करता हूं ताकि अपेक्षित प्रभाव हासिल कर सकूं। मैं टोन और टेक्स्चर, लाइट और कम्पोजिशंस का ध्यान रखता हूं।
यही कारण है कि फोटोग्राफी में उच्च गुणवत्ता और सृजनात्मकता हासिल करने के लिए अक्टूबर 2008 में उन्हें दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित संस्था द रायल फोटोग्राफिक सोसायटी आफ ग्रेट ब्रिटेन ने सर्टिफिकेट दिया। इसके लिए श्री रावत ने ग्रामीण पर्यावरण पर खींचे अपने श्वेत-श्याम फोटोज का कैटलॉग भेजा था। वे कहते हैं तकनीक एक हद तक ही मदद करती है, असल चीज है आपकी वह आंतरिक आंख को किसी भी फोटो को सुंदर बना देती है। वे कहते हैं, मैं प्रयोग भी करता हूं और अपने लिए नए आयाम खोजने की कोशिश भी।
यदि उनका ब्लैक इज ब्लैक प्रेजेंटेशन देखें तो सहज ही कहा जा सकता है कि आधुनिकता की हवा में नष्ट होती मालवा के घरों की ग्रामीण स्थापत्य कला को वे अपने कैमरे में कैद कर एक तरह से उसका दस्तावेजीकरण कर रहे हैं। हो सकता है आने वाले समय में मालवा की यह सुंदरता उनके खींचे चित्रों में ही देखने को मिले।
8 comments:
वे कहते हैं आंख के पीछे कोई चित्रकार बैठा हो तो गले में लटके कैमरे को ब्रश की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है।
bilkul sahi kahte hain. achchha likha hai. badhaai.
आपने रावतजी और उनके कौशल का सांगोपांग शास्त्रोक्त वर्णन किया और अपना लेखकीय काैशल भी प्रमाणित किया किन्तु इतने भाव-प्रणव आलेख के साथ एक केवल चित्र ही पर्याप्त है-यह आपने कैसे मान लिया?
इस अन्याय का प्रायश्चित कीजिएगा?
बड़ी महीन तस्वीर. फ़ोटो कुछ और खोज लाये होते, वैसे जो लाये उसका शुक्रिया..
"आंख के पीछे कोई चित्रकार बैठा हो तो गले में लटके कैमरे को ब्रश की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है।"
अद्भुत सत्य...
रावत जी को कभी हमारे शहर भी लाइए भई. वैसे तस्वीर जो आपने लगे है ख़ुद ही सबकुछ कह रही है.
बेहद सुंदर। काश आपने कुछ और फोटो लगाए होते। मेरा ब्लाग भी देखें- http://babloobachpan.blogspot.com/
बहुत अच्छी जानकारी ! काश उनके खींचे कुछ फोटो यहाँ लगा देते तो हमें भी ये नायाब कला देखने को मिल जाती !
"तकनीक एक हद तक ही मदद करती है, असल चीज है आपकी वह आंतरिक आंख को किसी भी फोटो को सुंदर बना देती है।"
बहुत ठीक। शायद यह बातहर काम के सम्बन्ध में सच है। हर बार की तरह बढिया पोस्ट। आभार
achchha likha hai. ravat ji ko badhai. aapako dhanywaad.
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