Tuesday, November 4, 2008

बारिश की आवाज़ (दूसरी किस्त)



बाहर पानी भरी सड़क पर इक्का -दुक्का वाहनों की आवाज़ें आती । बीच-बीच में नेपाली की सीटी की आवाज़ गूंजती सुनाई पड़ती और उसमें कुत्ते के भौंकने की आवाज अजब तरह से मिल जाती। कोई एक हे राम कहता हुआ निकल जाता। पेड़ों की सरसराहट से लगता बारिश बीच-बीच में तेज़ हो रही है।
हमारे घर के आगे पीपल और पिछवाड़े नीम का पेड़ है। बारिश में ये पेड़ जटाधारी की तरह हिलते हुए भयावह लगते और हमें कभी-कभी लगता ये पेड़ हमारे घर पर गिरकर उसे धराशायी कर देंगे। लेकिन सालों से ये पेड़ बारिश में झूमते रहते और हमारे घर की देह कांपती रहती ।
जब बारिश बंद हो जाती तो उसके बहुत देर बाद तक हमारे घर की छत पर कभी बौछारों या बूंदों के टपकने की आवाज़ आती रहती। छत पर पेड़ों की डगाल झूलती रहती और पत्तों से फिसलता पानी हमारी छत पर टपकता रहता। बहुत तेज़ हवा चलती तो हमें लगता बारिश फिर से शुरू हो गई है। हवा के चलने से पत्तों पर ठहरा पानी एक साथ गिरकर छतों पर गिरता तो लगता बारिश हो रही है। पेड़ की सरसराहट से भी बारिश की आवाज़ निकलती रहती।
कई बार सिर्फ टप् टप् टप् टप् की आवाज़ आती। जैसे बरसों से इकट्ठा हुआ पानी पत्थरों में पैदा हुई दरारों से रिसता हुआ धीरे-धीरे टपक रहा हो। इन बूंदों की आवाज़ घर में एक अजीब वातावरण पैदा करतीं। उस आवाज़ को लगातार सुनते हुए पिता का चेहरा कंदरा में बैठे किसी साधु की तरह लगता। बारिश के दिनों में दिन में भी अंधेरा लगतार् जैसे हम किसी कंदरा यद में बैठे हों।
रात में सोते हुए हमें यही लगता कि हम किसी कंदरा में सो रहे हैं लेकिन छत पर बिल्ली के चलने की आवाज़, सड़क पर कुत्ते के भौंकने और गाय के रंभाने की आवाज़ से या फिर सीटी की आवाज़ सुनकर हमें लगता हम कंदरा में नहीं, अपने घर में ही सो रहे हैं।
सुबह हम उठते तो सबसे पहले रसोईघर से खटर-पटर की आवाज़ सुनते। फिर मां की आवाज़ होती और इसके पीछे पेड़ों के सरसराने की आवाज़ होती। एक पक्षी की आवाज़ भी हम सुनते जिसे हमने कभी देखा नहीं।
हम भाई-बहन कुल्ला करने और चाय पीने के बाद पहला काम यही करते कि आंगन में आकर पानी में छपाक् छपाक् खेलते। मां चिल्लाती कि सर्दी हो जाएगी लेकिन हम अपनी छपाक् छपाक् में मगन रहते। फिर आसमान की अोर मुंह उठाकर गाने लगते-पानी बाबा आना, ककड़ी भुट्टा लाना।
अपने बचपन के दोस्तों के नाम मैं भूल गया लेकिन उनके चेहरे मुझे याद आते हैं। एक दोस्त के माथे पर चोट का निशान था। मैं जब भी उसे याद करता हूं तो सबसे पहले वह चोट का निशान याद आता है। पता नहीं, माथे पर वह चोट का निशान उसे कैसे पड़ा? वह कहीं से गिर पड़ा था या किसी ने उसे मारा था या जन्मजात था, मुझे याद नहीं। लेकिन जब उसके पिता ट्रांसफर होकर जाने लगे तो उस वक्त बारिश हो रही थी। वे सब तांगे में बैठ चुके थे। मेरा वह दोस्त भी। मैं खिड़की में बैठा तांगे को जाते हुए देख रहा था। तांगा थोड़ी दूर ही गया होगा कि उस दोस्त ने अपनी जेब से आधा खाया भुट्टे का टुकड़ा निकाला और मेरी तरफ उछाल दिया। भुट्टे का वह टुकड़ा एक क्षण के लिए धूप में चमका और छप्प से पानी भरे गड्ढे में गिरा। वह छप्प की आवाज़ और दोस्त का हिलता हुआ हाथ मेरी स्मृति में हमेशा के लिए ठहर गया।
और यह बारिश की आवाज़ ही थी जो मेरे बड़े होने के साथ-साथ यहां तक चली आई थी। बारिश में ही मेरे नए दोस्त बने और पुराने छूटे। मुझे अच्छी तरह याद है जब हम दोस्तों को पहली नौकरी मिली थी तो एक रायपुर, एक बालाघाट और एक फरीदाबाद चला गया। कुछ इसी शहर में रह गए थे। फिर एक के पिता, दूसरे का भाई और तीसरे की मां मर गई थी और बारिश में हम एक-दूसरे के आत्मीयजनों को चिटकती चिता में जलता देख रहे थे। हमारे अंदर रह रहकर कुछ चीजें गिरती रहती थीं और हम आंखें बंद किए उनका दरकना और गिरना सुनते रहते थे।
फिर कुछ दिनों बाद हमने बिना बोले विदा ली। वे हाथ हिलाते हैं और मैं उनका कांपना देखता हूं। वे मेरी फीकी हंसी की अोट में रुलाई को सुनते हैं। वे धीरे-धीरे चलने लगते हैं। पानी भरी सड़क पर उनकी पदचाप सुनता हूं, अपनी पीठ के पीछे। वे जा चुके हैं। और बारिश मुझे भिगो रही है। मैं अकेला धीरे-धीरे चलने लगता हूं। जो दोस्त विदा ले चुके हैं उनके सुनाए चुटकुले याद आते हैं और ठहाकों की गूंज सुनाई पड़ती है।
दोस्त विदा ले चुके हैं लेकिन लगता है, बांए कंधे पर एक दोस्त का हाथ अब भी रखा हुआ है।
विदा होने से पहले हमने अपनी-अपनी प्रेमिकाअों को याद किया। फिर हमने सोचा प्रेम-पत्रों का क्या किया जाए। एक ने कहा इनकी नाव बनाकर बारिश के पानी में छोड़ा जा सकता है। हम सभी दोस्तों ने ऐसा ही किया और प्रेम-पत्रों की नाव पानी में तैर रही थी। फिर हमने तेजी से एक ट्रक को आते देखा जो हलका-सा चर्ररर करता हुआ निकल गया। हमने देखा ट्रक के पहियों पर हमारे प्रेम-पत्र चिपके थे। हम सब दोस्त भागते ट्रक की आवाज़ सुनते रहे और पहियों के साथ घूमते हुए अपने प्रेम-पत्र देखते रहे।
बारिश अब भी हो रही थी और उसमें हम भीग रहे थे....
(इस कहानी का एक और टुकड़ा जल्द ही)


पेंटिंग-रवींद्र व्यास

6 comments:

रंजू भाटिया said...

पहियों के साथ घूमते हुए अपने प्रेम-पत्र ..देखना बारिश की टिप टिप बूंदों में उस प्रेम को ....उस बीते वक्त को जो कहीं रूह के साथ जुड़ जाता है ..और फ़िर हर टपकते मौसम में दस्तक दे ही जाता है ...अगली कड़ी का इन्तजार है

डॉ .अनुराग said...

शब्दों के लय जाल में बंधी बारिश .....ऐसा लगा जैसे सामने घटित हो रहा है.......पूरी कहानी में बारिश का ताल-मेल खूबसूरत है

Suneel R. Karmele said...

रवि‍न्‍द्र जी, दीपावली की बहुत बहुत शुभकामनाऍं।
एक दो दि‍न पहले ही युनुस भाई से आपके और आपके ब्‍लॉग हरा कोना के बारे में चर्चा हुई थी। और अभी ब्‍लॉग पर अपनी रचना पोस्‍ट करने से पहले भी आपके बारे में सोच रहा था। अच्‍छी टेलीपैथी है। और परि‍णाम कि‍ आपकी टि‍प्‍पणी मुझे मि‍ल गई, धन्‍यवाद बहुत बहुत।

Udan Tashtari said...

बहुत बेहतरीन प्रवाह जारी है..आगे कड़ी का इन्तजार है.

RADHIKA said...

बहुत ही अच्छी पोस्ट रविन्द्र जी ,बहुत ही जिवंत चित्रण बारिश का ,
आकी टिप्पणी पढ़कर वेब दुनिया पर आपने वाणी नामक मेरे ब्लॉग के बारे में दिया आलेख पढ़ा .बहुत बहुत धन्यवाद श्री रविन्द्र व्यास जी,आपने मेरे ब्लॉग वाणी की इतनी वृहत और सारगर्भित चर्चा की हैं ,आप के जैसे सुधि वाचको और लेखको से मिले प्रोत्साहन के कारण ही मैं अपना संगीत का ब्लॉग चला पा रही हूँ ,आप को पुनः एक बार शुक्रिया ,किंतु एक बात आपसे कहनी थी वह यह की वाणी नामक जो ब्लॉग मैं चला रही थी उसका पासवर्ड खो जाने से मैं उसकी जगह वीणापाणी ब्लॉग चला रही हूँ और इस बारे में मैंने पूर्व में विस्तृत पोस्ट भी निकली थी ,आपसे अनुरोध हैं की वाणी के साथ साथ वीणापाणी का नाम दे दे .ताकि पाठको को नवीन जानकारी प्राप्त हो सके

साभार
राधिका बुधकर

पारुल "पुखराज" said...

फिर एक के पिता, दूसरे का भाई और तीसरे की मां मर गई थी और बारिश में हम एक-दूसरे के आत्मीयजनों को चिटकती चिता में जलता देख रहे थे। हमारे अंदर रह रहकर कुछ चीजें गिरती....padhna mun bhaa raha hai..