Friday, October 24, 2008

तब से वह अपने पीले हाथों को सबसे छिपाए फिरती है


वह इससे बेखबर थी।
न तारीख पता, न वार, न ये पता था कि दिन था या शाम। या अपने में ही गहराती कोई रात। धूप थी कि छांव। वह सोयी थी या जागी। जीवन में थी या स्वप्न में।
पता नहीं, कोई एक खयाल कब उसके पास आकर हौले से बैठ गया। पहली नजर में उसने ध्यान नहीं दिया। जब दोबारा वह खयाल अपनी जगह से उठकर उसके आसपास मंडराने लगा तो उसने महूसस किया कि इसमें कुछ झीनापन है जिसके पार देखा जा सकता है। रोज के इतने काम थे कि वह इस झीनेपन में ठीक से देख नहीं पाई। फिर इस झीनेपन पर कुछ रंग आने लगे। फिर खुशबू। उसे लगा इस रंगो-बू को समझने की कोशिश करे। वह समझती इसके पहले ही यह झीनापन एक तितली में बदल गया।
पहले एक तितली।
फिर दूसरी।
फिर तीसरी।
फिर तीसवीं।
उसे लगा वह तितलियों से घिरी है। उसके चारों तरफ तितलियां ही तितलियां मंडरा रही हैं। खूब सारी तितलियां। रंगबिरंगी। इन्हीं तितलियों में गुम उसे लगा वह किसी दूसरे संसार की प्राणी है। वह उन तितलियों के रंगों में गुम थी। वह जमीन पर ही थी लेकिन अपने कदमों को रखते हुए वह चलती तो उसे लगता वह एक फूल से दूसरे फूल पर हौले-हौले कदम रख रही है।
वह इतनी खुश थी कि वह हमेशा अपनी आंखें बंद रखती। उसे लगता उसके चेहरे पर भी तितलियां उतर रही हैं। वह अपने चेहरे पर धीरे से हाथ फेरती। उसे लगता उसके हाथों में कुछ धड़क रहा है। वह धीरे-धीरे अपनी ही धड़कनों को सुनते हुए हाथ खोलती और पाती कि उसके दोनों हथेलियां एक बड़े फूल की पीली पंखुरियों में बदल गए हैं। उसके हाथों में पीला रंग महक रहा है, जैसे किसी ने बड़े प्यार से गीत गाते हुए हल्दी लगाई हो। उसे लगा यह कोई जादू है। उसे जादू में यकीन था।
उसने पीला रंग देखा। वह खुश रंग था। लेकिन उसने सोचा उसके हाथ पीले देखकर लोग सवाल करेंगे। उसने सोचा पानी से हाथ धो ले तो यह रंग छूट जाएगा। लेकिन उसने देखा पानी में रगड़-रगड़कर हाथ धोने के बाद भी पीला रंग छूट नहीं रहा। फिर उसने साबुन लगाकर हाथ धोए। वहां अब भी पीला चमक रहा था। उसने कपड़े के साबुन से हाथ धोए। वहां पीला रंग ही दमक रहा था। उसने सोचा कैरोसिन ट्राई किया जाए। फिर सोचा मि्टटी।
लेकिन उसके हाथ हमेशा के लिए पीले हो चुके थे।
तब से वह अपने पीले हाथों को सबसे छिपाए फिरती है।
(पेंटिंग ः रवींद्र व्यास)

14 comments:

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

ये कहानी रँगोँ भरी...बहुत भावुक लगी -

सचिन श्रीवास्तव said...

"वह चलती तो उसे लगता वह एक फूल से दूसरे फूल पर हौले-हौले कदम रख रही है।"
मार डाला गुरु. अरे कोई है इस हरे कलम को छीन कर तोड दो. जैसे ताज बनाने के बाद काट डाले गए थे हुनरमंदों के हाथ. इससे बेहतर भी किस्सागोई क्या होगी?
अद्भुत गुरु यहीं खिला है पूरा रंग..

रंजू भाटिया said...

इस तरह लिखना एक कला है जिस में दिल के रंग तक भीतर गहरे उतर जाए और फ़िर छुटे नहीं ..दिल को बहुत करीब से छुआ है इस कहानी ने और इस पर बिखरे रंगों ने ..बहुत बढ़िया

Geet Chaturvedi said...

सबसे पहले तो इतनी सुंदर पेंटिंग के लिए दिलोजान से बधाई. तितलियां, इस तरह. कमाल है.
मारकेस का वह कैरेक्‍टर याद आ जाता है, जो जिस कमरे में जाता था, उसके पीछे तितलियां ही तितलियां होती थीं. और उर्सुला जिसे हमेशा भुन-भुन करते हुए देखती थी. वे स्‍वप्‍न, आकांक्षा, प्रेम और मोह की तितलियां थीं, जो यहां भी उसी तरह आई हैं, पूरी कोमलता, गहराई और गझिनता के साथ.

वाह.

Pratyaksha said...

तितलियाँ कैनवस से निकल कर शब्दों में समा गई .. बहुत खूब !

अजित वडनेरकर said...

बहुत खूब मित्र ....
तितलियों के हाथ सिर्फ पीले क्यों ? केसरिया, लाल , हरे नीले भी हों तो और भी अच्छा ....सवाल है
उनके पास उड़ने को पंख तो हों .... गुल तो हो, गुलशन भी हो....
आमीन...दोनों रचनाएं जबर्दस्त हैं....

पारुल "पुखराज" said...

पल्ले बिच अग दे अंगारे नही लुकते
इश्क ते मुश्क़ छुपाये नही छुप दे!!!!

रूमानी……

विधुल्लता said...

गेब्रियल गार्सिया की तितलियाँ आपके जेहन मैं बखूबी बसी हैं, कभी लड़की के पीले दुपट्टे में तो कभी हाथों में... इस रूमानी कहानी के लिए बधाई!

Bahadur Patel said...
This comment has been removed by the author.
शायदा said...

पेंटिंग और पोस्‍ट दोनो लाजवाब।

Arun Aditya said...

Adbhut jugalbandi. Audio-visual language : Shabd drishyman hain aur rang bolte hain. Anant shubhkamnayen.

Dr. Nazar Mahmood said...

accha hai yeh ahsaas

एस. बी. सिंह said...

सफ़क, धनुक, महताब, घटाएं, तारे, नगमें, बिजली, फूल
उस दामन में क्या क्या कुछ है , वो दामन हाथ में आए तो ।

इंदौर लाइव said...

sabdo se kaise khela jata hai ye ravindraji se sikha ja sakta hai , titliya kewal deekhtee gh sundar dil me bhee utar jatee hai , badhaee