Tuesday, June 2, 2009
मेरे अरमानों की कसक नीली है
उसे शिकायत है कि मैंने अभी तक उसकी कोई सुंदर और सीधी तस्वीर नहीं उतारी, मेरी मजबूरी है कि मैं सुंदर और सीधी तस्वीर उतार ही नहीं सकता। उसका कहना है कि जिसे मैं मजबूरी कहता हूँ वह दरअसल मेरी कल्पना का विकार है, मेरा कयास है कि जिसे वह मेरी कल्पना का विकार कहती है वही शायद मेरी कल्पना की जान हो। फिर भी मैं खुद इस ख्वाहिश की कैद में रहता हूँ कि एक बार उसके रूप की एक सरस और सुंदर तसवीर उतार कर उसे पेश कर दूँ और उसकी आँखों के नीले उजाले की बहार देखूँ। इसी ख्वाहिश ने ही शायद मुझे इस ऊँचाई पर ला बिठाया है।
ऊँचाई से आगाह इसी क्षण हुआ हूँ। देखता हूँ कि दोनों चपटी चट्टानें एक गहरी वादी के ऊपर कहीं टिकी झूल रही हैं। और उनके साथ साथ मैं भी। वादी में झाँकने से डरता हूँ। इस डर का रंग भी नीला है। इस पर पत्थर रखकर वादी में झाँकता हूँ तो महसस होता है उसकी आँखों में झाँक लिया हो। दो झिलमिलाती झीलों में पड़े दो नीले पत्थर मेरी निगाहों को रोक कर नाकार कर देते हैं। मैं कई बार उससे उन पत्थरों की बात कर चुका हूँ। वह हर बार एक ही जवाब देती है। मैं चुप और अकेला हो जाता हूँ, जैसे मुझे किसी ने नीले कोने में जा खड़ा होने का आदेश दे दिया गया हो।
इस याद की रोशनी में कोरे कागज को दबाए बैठे गोल पत्थर की नीली धड़कन पर उसके दिल की धड़कन का गुमान होता है। मैं बरसों से इस धड़कन की भाषा को समझने की नाकाम कोशिश कर रहा हूँ। अगर अभी तक उसका दिल, उसकी आँखें, उसकी समूची देह एक ऐसी सीमा बनी हुई है जिससे उधर और अंदर के आलम की मुझे सही सही खबर तक नहीं, तो क्या सबूत है कि मुझे किसी भी देह के उधर और अंदर के आलम की कोई खबर है? कोई सबूत नहीं। इस हार का रंग भी नीला है। कागज को दबाए हुए गोल पत्थर की धड़कती हुई नालाहट आँखों को आराम भी दे रही है, अशांति भी। आराम में ठंडक है, अशांति में ठिठुरन।
नीला रंग मुझे प्रिय है। मेरे अंधेरे का रंग नीला है। मेरे अरमानों का कसक नीली है। आकाश जब निर्दोष हो तो उसका रंग भी नीला होता है। उसकी आँखें नीली न होती हुई भी नीली हैं। हर दर्द का रंग नीला होता है। नसें नीली होती हैं। अंत का उजाला नीला होता है। जख्म के इर्दगिर्द कई बार एक नीला हाला सा बन जाता है। हब्शियों के संगीत का रंगी नीला है। मेरे खून में जो तृष्णा दौड़ती रहती है, उसका रंग नीला है। स्मृति का रंग नीला है। मिरियम का प्रिय रंग नीला था। भूख का भय नीला होता है। कृष्ण का रंग नीला है।
मेरी आँखों के नीचे पड़े फड़फडा़ते इस कागज के कोरेपन में भी नीलाहट की अनेक संभावनाएँ छिपी बैठी हैं जिसकी प्रतीक्षा में ही शायद मैं इस पर किसी बुत या बाघ की तरह झुका हुआ हूँ।
(ख्यात उपन्यासकार-कहानीकार कृष्ण बलदेव वैद के उपन्यास काला कोलाज का एक अंश। अंश का शीर्षक मैंने दिया है)
(पेंटिंगः रवीन्द्र व्यास)
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17 comments:
Just like the words of the author -your painting is good too!Regards!
Just like the words of the author-your painting is good too!Regards!
मुझे आपकी ये पोस्ट बहुत पसंद आई ...बहुत
कृष्ण साहब द्वारा लिखी गई इस रचना के मर्म को पूरी तरह समझ पाया हूँ ये तो नहीं कहूँगा पर नीले रंग पे लिखा गया अनुच्छेद दिल को छू गया। पढ़वाने का आभार।
तुम्हारी यह नयी पेंटिंग बहुत अच्छी है।
शब्दातीत। इसे किन्हीं शब्दों की जरूरत भी नहीं है।
मैं तुम्हारे चित्रकार से बहुत खुश हूं।
प्रिय रवि,
कलावाद और जनवादी साहित्य को लेकर पर्याप्त विमर्श उपलब्ध है। मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र पर दुनिया भर में साहित्य प्रकाशित है। हिन्दी में प्रेमचंद ने, मुक्तिबोध ने किंचित विस्तार से इस बारे में कहा है। अमत राय ने तो एक पुस्तक ही लिखी है-'साहित्य और जीवन'। इसी तरह कला और कलावाद को लेकर भी प्रचुर संख्या में निबंधादि लिखे गए हैं। फिर भी कुछ बातें।
एक लेखक कौन सा रास्ता चुनता है, यह उसकी रूचि और विवेक पर निर्भर है। इसमें किसी को कोई एतराज नहीं है। आप भाषा में खेल करते हुए सर्जना के रास्ते चलना चाहते हैं अथवा जीवन से मुठभेड् करते हुए उसे कलात्मकता के साथ रचना में दर्ज करना चाहते हैं। आप साहित्य में एक्टिविस्ट होना चाहते हैं या साहित्य पढ़कर, उसीमें से साहित्य रचने का सामर्थ्य पाना चाहते हैं। आप कलाबाजी दिखाते हुए नट की तरह करतब करना चाहते हैं या जीवन की सख्त, बेरौनक पगडंडियों से गुजरना चाहते हैं, ये सब रास्ते सबके लिए खुले हैं। इन सभी रास्तों के अपने सौंदर्य, खतरे, स्वीकार और अस्वीकार हैं। मुश्किलें और आसानियां हैं। चुनाव आपका है।
कभी किसी प्रगतिशील-जनवादी लेखक ने कलावादियों से मान्यता पाने की अपेक्षा नहीं की है और न ही उन पर उपेक्षा अथवा साजिश का आरोप लगाया है। लेकिन यह बार-बार होता है कि कला और शिल्प को अत्यंत तरजीह देनेवाले लेखक अक्सर ही प्रगतिशील-जनवादी लेखकों पर, मार्क्सवादी आलोचकों पर आरोप लगाते हैं। जैसे उन्हें अपने रास्ते के चुनाव पर ही कोई क्षोभ है, जो जब-तब सिर उठाता है।
आत्महत्या, कुंठा, उदासी, अवसाद, निराशा के साथ आशा, संघर्ष, अभाव, संत्रास, उत्साह, जिजीविषा भी इसी जीवन के अवयव हैं। आपका पक्ष, आपकी प्रतिबद्धता आपके लेखन में परिलक्षित होगी। इससे लेखक को प्रसन्न और संतुष्ट होना चाहिए। इसमें किसी तरह की नाराजी का, शिकायत का अंश अंतत: रचनाविरोधी प्रत्यय है। खुद पर अविश्वास भी है।
एक पाठक के तौर पर हिन्दी में, प्रतिनिधि उदाहरणस्वरूप कहूं कि मैं प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, रेणु, भीष्म साहनी, अमरकांत, ज्ञानरंजन के गद्य को बेहद कलात्मक पाता हूं, जिसमें जीवन की अनंत छबियां हैं। उनकी कला कला के लिए नहीं है, इस जीवन के अनंत आयामों में विन्यस्त है, वहीं से प्रगट और अभिव्यक्त है। ये सब लेखक हमारे गौरव हैं, पापुलर नहीं हैं, श्रेष्ठ हैं। किसी को अच्छा कहने के लिए उसके लेखन में से सामग्री और औचित्य खोजना चाहिए, आरोप-प्रत्यारोप लगाकर और खिन्न होकर कोई बात कहना गैरसर्जनात्मकता का लक्षण है। तमाम कलावादी लेखकों की रचनाओं में मुझे यह गुण नहीं मिलता है। और इसी से वह उब पैदा होती है जो भाषिक सुंदरता और कलाबाजी को ढांप लेती है। जिन्हें उनमें सुख मिलता है, उन्हें जरूर लेना चाहिए।
हर तरह के साहित्य के पाठक उपलब्ध हैं। पाठकों का भी अपना एक चुनाव है। इसलिए एक लेखक को शालीनता से अपने पाठकों पर यकीन करते चले जाना चाहिए। लेकिन शालीनता से, मैं दोहराना चाहता हूं।
आप लोगों को पेंटिंग पसंद आई, इसके लिए शुक्रिया। बहुत ही जल्द नीले रंग में किए गए मेरे और काम आप जल्द ही देख सकेंगे।
नीला रंग मुझे प्रिय है। मेरे अंधेरे का रंग नीला है। मेरे अरमानों का कसक नीली है। आकाश जब निर्दोष हो तो उसका रंग भी नीला होता है। उसकी आँखें नीली न होती हुई भी नीली हैं। हर दर्द का रंग नीला होता है। नसें नीली होती हैं। अंत का उजाला नीला होता है। जख्म के इर्दगिर्द कई बार एक नीला हाला सा बन जाता है। हब्शियों के संगीत का रंगी नीला है। मेरे खून में जो तृष्णा दौड़ती रहती है, उसका रंग नीला है। स्मृति का रंग नीला है। मिरियम का प्रिय रंग नीला था। भूख का भय नीला होता है। कृष्ण का रंग नीला है।
BAHUT BADHIYA
शुक्रिया प्रदीपजी। आप हैं कहां? कितने दिन हुए कोई मुलाकात नहीं।
अंबुज जी, मुझे खुशी है कि आपको मेरा काम पसंद आ रहा है। इधर काफ्का को लेकर कुछ श्वेत श्याम काम किए हैं। जल्द ही आपको देखने को मिलेंगे।
ये कमेंट युवा कवि-अनुवादक सुशोभित ने भेजा है। मैं इसे यहां दे रहा हूं क्योंकि सुशोभित के पास कमेंट करने की सुविधा नहीं है।
अरमानों की नीली कसक पर अंबुजजी के परोक्ष ऐतराज़ पर एक छोटी-सी प्रतिक्रिया:
सबसे पहले तो लेखकों के बीच कलावाद और प्रगतिशीलता का विभाजन ही मुझे ख़ासा अजीब लगता है. मेरे लेखे कोई भी राइटर न पूरी तरह कलावादी हो सकता है, न वो रचना में पूरी तरह शिल्प और कलापक्ष की उपेक्षा ही कर सकता है. लिटररी लैंग्वेज आमफ़हम ज़बानों से अलग हुए करती है- स्टायलिस्टिकों और रूसी रूपवादियों ने जब ये कहा था, उसे भी अब अरसा हो चुका है. जिन लेखकों पर कलावादी होने के आरोप लगाए जाते रहे हैं, वे तुलनात्मक रूप से अधिक शिल्प-सजग कहे जा सकते हैं, लेकिन शिल्प-एकाग्र तो उनमें से कोई नहीं है. नॉवल में केवल शिल्प ही शिल्प हो, ऐसा प्रयोग हिंदी में तो इधर अभी तक देखने में नहीं आया है. अंबुजजी ने उल्लेखनीय लेखकों की अपनी सूची में निर्मल वर्मा का नाम गोल कर दिया है, उस पर भी कोई ऐतराज़ नहीं. निर्मल वर्मा में केवल शिल्प है, या शैथिल्य है, ये निहायत एकांगी आरोप कहे जाएंगे. उनमें मानवीय संबंधों की गहरी पड़ताल भी है, इंसान के आस्तित्विक संकट की तीक्ष्ण संचेतना और उसके अध्यात्म (इस लफ़्ज़ के रूढ़ अर्थों में नहीं) से जुड़े गहरे प्रश्न हैं, तो प्रत्यक्ष ऐंद्रिक बोध के स्तर पर यथार्थ का एक आभ्यांतरिक स्तर पर अधिग्रहण भी. दिलचस्प ये है कि फणीश्वरनाथ रेणु का नाम अंबुजजी ने अपनी सूची में शामिल किया है. क्या अंबुजजी को ये अंदाज़ा है कि रेणु को प्रगतिशीलों ने जीवनदर्शनहीन, अपदार्थवान और सौंदर्यवादी-रागवादी कहकर कितना लांछित किया है? रेणु वर्सेस प्रेमचंद और रेणु वर्सेस नागार्जुन के पॉलिमिकल प्रसंग भी क्या उन्हें वाक़ई याद नहीं? रेणु जैसी आंचलिक संवेदना और उनके जैसा शिल्प सौष्ठव हिंदी में कितना दुर्लभ है, और हमारे लिए वो कितना मूल्यवान है, इसका हिसाब क्या हमें लाकर देगा? क्या कोई भी अदबी नक़्क़ाद किसी रचना के बीचोबीच एक आभासी रेखा खेंचकर ये बता सकता है कि वो किस सीमा तक सौष्ठववादी थी और किस सीमा के बाद उसमें रेडिकल या इंक़लाबी चीज़ें आना शुरू हो गई हैं, जिससे ख़ून में हरकत या गतिशीलता के शगूफ़े छोड़ें जा सकें, और आग्रहों का अहाता खेंचा जा सके?
बिलकुल निर्दोष...शांत नीले
आकाश सा.....पर अतल को
छू लेने वाला अंश...प्रस्तुति के लिए
आपका शुक्रिया.....आपका चयन आपकी
परिष्कृत अभिरुचि का प्रतिबिम्ब भी तो है.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
is blog ko niymit padhta rahunga. ho sakta h kuchi aur rang ki bhasa samajhne ki salahiyat humame bhi aa jaye
aapki ki tippaniyo samet lage chitra hi hum logo ke liye suvidhajanak h. aap thoda sa parichay chitra me kiye kam ke bare me bhi de diya kare to hum jaise logo ka utsah badhega.
priy rangnath,
poori koshish karoonga!
हरा कोना नीला होकर और निखर गया :-)
मेरे अरमानों की कसक नीली है
बहुत ऊँची उड़ान ...
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