Saturday, June 13, 2009

धूप एक ख़ूबसूरत जादूगरनी है!


वहाँ धूप फैली हुई थी। ख़ूबसूरत। जिसे छूती उसे ख़ूबसूरत बना देती। गुनगुनी। मुलामय। ऊन का हल्कापन लिए। वह हर जगह थी, घास की नोक पर, तार पर, तार पर सूखते कपड़ों पर, बच्चों की हँसी पर इठलाती, फूलों के खिले गालों पर तितली-सी बैठी, अपने कोमल पंखों को हिलाती हुई। और कुत्ते के सफेद-भूरे बच्चों के चेहरों पर फिसलती यह धूप उन्हें किसी भोले खिलौनों में बदल रही थी।
अभी-अभी नहाकर बैठी स्त्री के साँवलेपन पर, उसे और उजला करती हुई, शॉल से बाहर निकली उस बच्चे की पगथलियों को थोड़ा सा और रक्ताभ करती हुई जो धूप में माँ की गोद में स्तनपान कर रहा है, और माँ के चेहरे की अलौकिकता को पवित्र करती हुई...जैसे धूप के रूप में ईश्वर की ही पवित्रता माँ के चेहरे पर उतर आई हो...
धूप थी, इसीलिए घास कुछ ज्यादा हरी दिखाई दे रही थी। उसे धूप में हिलता देखें तो लगेगा हमारे भीतर का हरापन भी हिल रहा है। तार कुछ ज्यादा चमकीले दिखाई दे रहे थे जैसे वे तार न होकर ऊन के गोले से निकला कोई मुलामय सिरा हो, तार पर सूखते कपड़े ज्यादा रंगीन दिखाई दे रहे थे, लगता था जैसे उनसे पानी नहीं, उनमें रचा-बसा रंग ही टपकने लगेगा।
बच्चों की हँसी कुछ ज्यादा मुलायम थी, उनकी हँसी धूप में वैसे ही चमक रही थी जैसे कोई रंगबिरंगी गेंद टप्पे खाती उछल रही है। और फूलों के रंग कुछ ज्यादा ही चटख दिखाई दे रहे थे, जैसे शाख़ की कोख से जन्म ले मुट्ठियाँ तानकर किलकारियाँ मार रहे हों। अपने ताजापन में दिलखुश।
और उस स्त्री के साँवलेपन में धूप जैसे उजलापन घोलकर कर उसे और निखार रही थी। और माँ का स्तनपान करते उस बच्चे की पगथलियों पर धूप किसी फरिश्ते की तरह चुहलबाजियाँ कर रही थी...और उस बूढे़ के चेहरे की झुरियों को धूप किसी नाती-पोती की अँगुलियों की माफिक छू रही थी।
इन सबसे मिलकर जो दृश्य बन रहा था, वह इस पृथ्वी की एक सबसे उजली सुबह थी, सबसे ज्यादा सुहानी।
इसीलिए कभी-कभी लगता है कि धूप एक खूबसूरत जादूगरनी है। यह न होती तो हम ज़िंदगी के कई सारे जादू को देखने से हमेशा हमेशा के लिए वंचित रह जाते। इसलिए जब कभी धूप आपके आँगन में, आपकी दहलीज पर, आपकी बालकनी में या कि आपकी खिड़की पर आए तो उसके करीब जाएँ और उसके जादू का अहसास पाएँ।
यह धूप का ही जादू है कि वह हमें बताती है कि कैसे उजलेपन की पवित्रता में छूकर एक गुनगुनाता जादू जगाया जा सकता है। देखिए कि वह फूल के गालों को कैसे चूमती है। देखिए कि वह एक बच्चे की हँसी को कैसे ज्यादा मुलायम बनाती है। देखिए कि वह कैसे एक साँवलेपन को रोशन करती है और उसकी कशिश को और ज्यादा बढ़ा देती है। देखिए कि कैसे वह माँ का स्तनपान करते बच्चे की पगथलियों की छोटी-छोटी हरकतों में इस पृथ्वी की सबसे सुंदर संभावनाओं को जगाती है।
आप धूप में तो बैठिए, उसका जादू महसूस करेंगे। आप पाएँगे एक हरापन आपमें उग रहा है, आपकी पीठ पर दुनिया का सबसे गुनगुना आलाप झर रहा है, आप पाएँगे कि आपके गालों को अदृश्य हाथ छू रहे हैं और बहुत सारी गेंदें टप्पा खाती हुई आपकी की ओर आ रही हैं और आपके चेहरे पर माँ की छाती से निकले दूधिया उजाले की ललाई अब भी बाकी है, और यह भी कि उस बूढ़े चेहरे की झुर्रियों में आपसे लगी उम्मीदें अब भी धूप में कोंपलों की तरह हिल रही हैं....
यह सब है, क्योंकि धूप है। उसकी अँगुलियों की पोरों में कुछ है क्योंकि वह एक ख़ूबसूरत जादूगरनी है। अपनी विरल धुन से इस दुनिया को रोशन करती हुई...
(दिसंबर की एक उजली सुबह की याद...)

इमेज ः
पोलिश चित्रकार तमारा डि लैम्पिका की पेंटिंग द म्यूजिशियन। लैम्पिका का जन्म वारसा में हुआ था और मृत्यु मैक्सिको में। वे अपने समय की विवादास्पद चित्रकार रहीं। वे लेस्बियन भी रहीं। तनावग्रस्त जीवन के कारण उनका पति से तलाक हुआ। बाद में उन्होंने अपने एक प्रेमी से शादी की। यहां जो पेंटिंग दी गई है उसमें यदि शेडिंग टेकनिक पर ध्यान दिया जाए तो बाआसानी कहा जा सकता है कि यह पिकासो के क्यूबिज्म से प्रभावित लगती है। इसमें लैम्पिका ने शेडिंग के जरिये आकारों के घनत्व को साफ किया है और बढ़ाया है। इसे सॉफ्ट क्यूबिज्म भी कहा गया। यदि इस म्यूजिशियन के पीछे ब्लैकएनव्हाइट शैड्स पर भी ध्यान दें तो जाहिर होगा कि यह वही एक रंगीय और घनवाद की शैली है। हालांकि लैम्पिका इसमें पूरी तरह से उस शैली का अनुकरण नहीं करती और यही कारण है कि इस पर क्यूबिज्म की सिर्फ छाप ही देखी जा सकती है। इसीलिए इसे सॉफ्ट क्यूबिज्म कहा गया। उन्होंने कई न्यूड्स बनाए जिसमें यह छाप देखी जा सकती है।

12 comments:

sanjay vyas said...

एक चित्रकार कलम को भी तूलिका बना देता है, दिसम्बर की धूप का बेहद चटखदार शब्दों से बनाया चित्र.

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर शब्द चित्र॥

Kirtish Bhatt said...

सुन्दर.. अति सुन्दर !!
आपको पढना भी उतना ही सुकून देता है जितना आपसे बतियाना,
आपसे बतियाये ये तो काफी समय समय हो हो गया, फ़िलहाल हरा कोना पढ़कर तसल्ली मिल जाती है.
शुभकामनाएं.

मुनीश ( munish ) said...

very serene and peaceful piece of expression amidst this 'khaini-bhakshi' blog samaj.

Rangnath Singh said...

bahut komalta h aap me. itni komal bhasha koi chitrakar hi likh sakta h. chitra me ajeeb se madakta h. us aurat ke face par kya emotion h. citra ki shaili ko to aap ne spast kar diya h. humare liye uske kathya ko bhi spast kare

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

धूप एक ख़ूबसूरत जादूगरनी है...और यह पेंटिंग भी!

कंचन सिंह चौहान said...

और उस स्त्री के साँवलेपन में धूप जैसे उजलापन घोलकर कर उसे और निखार रही थी।

सजीव और सलोना चित्रण....! ये सर्दियों के दिनों में फिर से पढ़ूँगी, तो और गुनगुनी लगेगी...! :)

Ek ziddi dhun said...

हरापन महसूस हो रहा है. धूप में ताम्बई होता सांवलापन भी

ओम आर्य said...

एक एक पंक्तियाँ मानो दिल से गहरे उतरती महसूस हुई ..........भाई आप जो लिखते है उसमे भावानाये सजीव होकर जिस्म मे गहरे उतरने लगती है......आभार

ravindra vyas said...

सभी का बहुत बहुत शुक्रिया।
प्रिय रंगनाथ। आपकी बात के जवाब में इतना ही कह सकता हूं कि एक बार चित्रकार सेजां ने कहा था कि चित्र अपने बारे में होता है।

प्रदीप कांत said...

गर्मी की कड़क धूप और तन से चूते पसीने सर्दी की गुनगुनी धूप महसूस होने लगी है, कुछ देर को सकून मिले.

अविनाश वाचस्पति said...

आज दिनांक 27 अगस्‍त 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में आपकी यह पोस्‍ट खूबसूरत जादूगरनी शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्‍कैनबिम्‍ब देखने के लिए जनसत्‍ता पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें।