Friday, April 10, 2009

ठीक आदमजात-सा बेखौफ़ दिखना चाहता हूँ


क्या हिंदी समाज में एक कवि के जाने का कोई कुछ मतलब बचा रह गया है? जब किसी कविता संग्रह की तीन सौ प्रतियों का एडिशन पाँच सालों में पूरा नहीं बिकता हो तब किसी कवि का लगातार रचते रहना, उसका बीमार हो जाना या यकायक चले जाना इस समाज के लिए क्या मायने रखता है, ऐसे समय में जब कविता समाज की चिंता करती हुई हरदम उससे मुखातिब और रूबरू है और समाज उसकी तरफ से पीठ किए बैठा हो तब कवि की मृत्यु को इस समाज में किस तरह लिया जा रहा होगा इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।
नईम साहब चले गए। पहले वे चुप हुए, फिर शांत हो गए। यह एक ट्रेजेडी है। एक तरफ वे समाज में हर पाखंड और आडंबर के खिलाफ लड़ते रहे वहीं कविता के स्तर पर एक लगभग जानलेवा आत्मसंघर्ष भी करते रहे। हिंदी में कई आलोचक आज भी गीत और नवगीत के नाम पर नाक-भौंह सिकोड़ते हैं। इन्हीं आलोचकों के दबाव में हिंदी के कई गीतकारों ने अपनी लीक छोड़कर नई कविता की शरण ली थी। शायद गिरिजाकुमार माथुर इसके एक उदाहरण हो सकते हैं लेकिन नईम अपने नवगीतों पर डटे रहे। आखिर तक। यह नईम साहब के ही बूते और साहस की बात थी कि वे अपनी कविता में यह कह सके कि-
शामिल कभी न हो पाया मैं
उत्सव की मादक रुनझुन में
जानबूझ कर हुआ नहीं मैं
परम्परित सावन फागुन में
क्या कहिएगा मेरे इस खूसठ स्वभाव को?
यह उनकी कविता का ही स्वभाव नहीं था कि वे किसी उत्सव की मादक रुन-झुन में शामिल नहीं हुए बल्कि यह उनके व्यक्तित्व की ही खासियत थी जिसे उन्होंने अपना खूसठ स्वभाव कहा है। वे न कविता में, न जीवन में सच कहने से कभी चूके। कितना भी बड़ा फन्ने खां हो, वे उसके मुंह पर, सबके बीच सच कहने की ताकत रखते थे। जाहिर है यह उसी के लिए संभव हो सकता है जो निजी राग-द्वेष से ऊपर उठकर, निस्वार्थ और निडर होकर रहता आया हो।
उनके गीतों से गुजरकर यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता था कि एक तरफ वे मन के साफ निर्मल जल में जीवन के अर्थ को और मर्म को देखने की चाहत रखते थे और यह भी कि जीवन के कटु यथार्थ को अभिव्यक्त करने के लिए वे अपने को भी दाँव पर लगा सकते थे। वे अपने जीवन को, अपने समय को साधने की काव्यगत चेष्टाएँ करते रहे। अपने एक गीत में वे लिखते हैं-
भूत प्रेतों को नहीं, केवल समय को साधना है।
बंधु! मेरी यही पूजा-अर्चना, आराधना है।
शब्द व्याकुल हैं
समय के मंत्र होने के लिए
और यह भाषा
व्यवस्था तंत्र होने के लिए।
हो सकें तो हों हृदय से, ये हमारी कामना है।

वे सचमुच दिल से यह कामना करते रहे कि उनके शब्द समय के मंत्र बन जाएँ और यह सच है कि उनके शब्द मंत्र बनने की कोशिश करते रहे क्योंकि उनके गीतों में हमारे समय की विद्रूपताएँ और विडंबनाएँ तो गूँजती रहीं साथ ही जीवन के उत्साह-उमंग भी गूँजते रहे। जो उनके संपर्क में आए और जिन्होंने उन्हें पढ़ा है वह सहज इस बात पर विश्वास कर सकता है कि उनके लिखने-कहने और जीने में कोई फाँक नहीं थी। उनकी इन पंक्तियों पर गौर कीजिए-

लिखते कटते हाथ हमारे
किंतु जबाँ पर आँच न आती।
लिखने कहने में अंतर है
कैसे हैं ये सखा संगाती

क्या यह कहने की जरूरत है कि उन्होंने अपनी कविता में जहाँ एक ओर अपने हृदय को बानी दी है वहीं अपने समय की सचाई को कहने के लिए तीखे व्यंग्य का सहारा भी लिया। इसीलिए उन्होंने लिखा कि-

अपने हर अस्वस्थ समय को
मौसम के मत्थे मढ़ देते
निपट झूठ को सत्यकथा सा
सरेआम हम तुम मढ़ लेते
तनिक नहीं हमको तमीज हँसने रोने का
स्वांग बखूबी कर लेते भोले होने का
जिनकी मिलती पीठें खाली
बिला इजाजत हम चढ़ लेते


उनकी नजर समय की विडंबना पर कितनी अचूक थी, इसे व्यक्त करने की भाषा उतनी ही मारक थी इसका अंदाजा इस कविता से लगाया जा सकता है कि

हम तुम
कोशिश ही करते रह गए जनम भर
लेकिन वो
जाने,क्यूँ, कैसे
रातों,रात महान हो गए,

लेकिन वे जीवन के गीत भी गाते थे। वे जीवन में मिलनेवाली शंख और सीपियों को बटोरना भी चाहते थे। वे चाहते थे कि हम खुली हवा और पानी से सीखें कि जीवन क्या है। वे चाहते थे हम प्रकृति की भाषा को पढ़ें और साथ साथ पानी उछालें। वह पानी जो भाव से बना है। वह पानी जो जीवन से बना है। वह पानी जो आँसुओं से बना है। यही नहीं, वे जीवन के स्वीकार की, जीवन के स्वागत की कविता भी करते थे और चाहते थे कि हमारे दिन भी नदी और ताल के दिन बन जाएँ-
आओ हम पतवार फेंककर
कुछ दिन हो लें नदी ताल के
नाव किनारे के खजूर से बाँध
बटोरें शंख-सीपियाँ
खुली हवा, पानी से सीखें
शर्मो-हया की नई रीतियाँ

बाचें प्रकृति पुरूष की भाषा
साथ-साथ पानी उछाल के
लिख डालें फिर नए सिरे से
रंगे हुए पन्नों को धोकर
निजी दायरों से बाहर हो
रागहीन रागों में खोकर
आमंत्रण स्वीकारें उठकर
धूप-छाँव-सी हरी डाल के

नमस्कार पक्के घाटॊं को
नमस्कार तट के वृक्षों को

पोंछ-पोंछ डालें जिस्मों से
चिपक गए नागर कक्षों को
हो न सके यदि लगातार
तब जी लें सुख हम अंतराल के

वे शायद हमेशा से ही अपनी कविता में प्यार लिखना चाहते थे और बेखौफ दिखना चाहते थेः

लिख सकूँ तो?
प्यार लिखना चाहता हूँ,
ठीक आदमजात सा
बेखौफ़ दिखना चाहता हूँ।

अब वह गीतकार हमारे बीच नहीं हैं। जो आदमजात सा बेखौफ दिखना चाहता था और हमें भी ठीक उसी तरह होने के लिए प्रेरित करता था।
(प्रो. अब्दुल नईम खान यानी नईम साहब को आज उनकी कर्मभूमि देवास में दफनाया गया। गुरुवार को शाम पांच बजकर चालीस मिनट पर उन्होंने इंदौर के बाम्बे हॉस्पिटल में आखिरी सांस ली। 9 जनवरी को उन्हें ब्रेन हेमरेज होने पर इंदौर के विशेष हॉस्पिटल में भर्ती किया गया था। इसकी सूचना मुझे कथाकार-चित्रकार प्रभु जोशी से मिली थी और उसी दिन रात को हम दोनों उनसे मिलने गए थे लेकिन वे अचेत थे। पथराई आंखें और लिख सकूं तो उनके नवगीत संग्रह प्रकाशित हैं। उन्होंने कुछ समय तक काष्ठ कला भी की। एक पत्रिका जरूरत निकाली थी। मैं उनसे कई बार मिला। देवास में उनके घर, इंदौर और भोपाल के कई कार्यक्रमों में। मेरे पिता की मृत्यु पर उन्होंने मुझे एक लंबा खत लिखा था। वह अब भी मेरे पास है। जिन लोगों को उनका थोड़ा-बहुत स्नेह मिला, उनमें मैं भी हूं। हरा कोना उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करता है। )

8 comments:

अनिल कान्त said...

हिंदी को पढने वालों की कमी के चलते बहुत से साहित्यकार और कवियों की कलम चुप हो जाती है

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

रंजीत/ Ranjit said...

Mujhe nahin lagta kee Kavee aur Kavita ka Matlab kabhee Khatm hoga.Aaj ka Hindi samaj apna chehra dekhna nahin chata,lekin jab yahee samaj thakar baithega wah aaenaa kee talash karega.
Naeem Saheb ko thoda-bahut padha tha, aapse unkee Shakhsiat ke bare me bahut kuch jana, lekin Mauju dukhee kar gaya.
Sirf sradhanjalee de sakta hun...
Ranjit

शिरीष कुमार मौर्य said...

कभी नईम साहब की ज्ञानपीठ से आई किताब समीक्षा के लिए सहारा समय से मुझे मिली थी. अभी आदरणीय देवताले जी ने उनके ना रहने का समाचार दिया . मेरी और अनुनाद की श्रद्धांजलि.

संजय पटेल said...

कबीरी धज वाले नईम साहब का चला जाना उस रिवायत का ख़ामोश हो जाना है जब जनजीवन वाक़ई गुनगुनाने में यक़ीन करता था. सरल शब्दों से संतों की बानी जैसे पद्य रचते नईम साहब अपने तेवर के अनूठी शब्द शिल्पी थे.
समय रहते हमने उन जैसे ईमानदार कवियों का मान नहीं किया तो शायद समय कभी किसी को शब्द उपासना की ओर मुख़ातिब होने को मुतास्सिर न करे.

ख़िराज ऐ अक़ीदत...हरा कोन के सफ़े पर.

Tanveer Farooqui said...

jis patrika dharmyug Ke zariye hamne Naieem Sahab ko ore dusre sahitykaron kviyon chitrkaron ore photographers ko jana samjha ore padha us ko band huye ek arsa ho gaya hai , dusri sahityic patrkayen bhi ham se door hoti chaligayeen akhbaron ne bhi sahitya ko tavajjo dena kam kaardiya! man nirash zarur hota hai,lekin achha sahity padhne vale abhi bhi hain zariye zarur badal gaye hai, blogs per kai chizen padhne dekhne ko milti hain,zarurat ham sab ko update karne ki hai purani avdharnayen,nazariye badane ki hai, blogs din par din zyada lokpriy hote ja rahe hain jahan hum apni bhavnaon ko zyada se zyada logon tak pohncha sakte hain,
kai kitaben ore references ke liye ek Library se doosri library bhatka karte the vo sab net par moujud hain,zarurat hai hindi sahity ko bhi net per uplabdh karvaya jaye,
Naieem sahab ka jana mere liye vaykytigat kshati hai,
khuda un ki aatma ko shanti pradan kare.... Aamin !

सतीश पंचम said...

मैं तो उन्हें पहली बार यहीं आपके इस पोस्ट के जरिये ही जान पाया हूँ। उनके कविता अंश जो यहाँ पढे हैं वाकई लाजवाब हैं।
रही बात साहित्यकारों के कम होने की तो मैं यही कहूँगा कि अब साहित्यकार कम नहीं बल्कि बढे ही हैं बस जरिया बदला है । पहले किताबों की शक्ल में थे आज ब्लॉग की शक्ल में हैं। जरूरत इन ब्लॉग साहित्य से अच्छी रचनाओं को चुनने भर की है। बाकि तो पहले के मुकाबले अब लोग ज्यादा लेखक और पाठक के तौर पर करीब आ गये लगते हैं। त्वरित टिप्पणीयां उसी का एक जरिया हैं।
नईम जी के बारे में जानकारी देने के लिये धन्यवाद।

varsha said...

समय रहते हमने उन जैसे ईमानदार कवियों का मान नहीं किया ...sahi kaha sanjayji ne .divyatma ko shat shat naman.

cartoonist ABHISHEK said...

hamare samay ke ek bade kavi ko meri shraddhanjali....