Friday, April 3, 2009

वे दिन पर कुछ बे-मंशाई नोट्स



आज निर्मल-दिवस है। हरा कोना उन्हें याद करते हुए यहां युवा कवि और अनुवादक सुशोभित सक्तावत के निर्मल वर्मा के उपन्यास वे दिन पर कुछ बेमंशाई नोट्स प्रस्तुत कर रहा है। हरा कोना हमेशा की तरह सुशोभित के प्रति आभार व्यक्त करता है।


1.
वे दिन' में इतना भर किया गया है कि कोई एक ऐसा स्‍पेस सजेस्‍ट किया जा सके, जिसमें अलग-अलग किरदारों के समांतर स्‍पेस 'को-एग्जिस्‍ट' करते हों. इस नॉवल का मूल कॉन्‍सेप्‍ट इसके ही एक वाक्‍य में छिपा है- 'एक ख़ास सीमा के बाद कोई किसी की मदद नहीं कर सकता, और तब, हर मदद कमतर होती है.' तब हम प्राग की धुंध में देखते हैं उन किरदारों को, जो एक-दूसरे के प्रति पर्याप्‍त सदाशय, संवेदनशील और जिम्‍मेदार होने के बावजूद एक-दूसरे के लिए कुछ नहीं कर पाते.

2.
यहां इंदी है, जो अपने मुल्‍क़ से हज़ारों मील दूर एक छात्र की हैसियत से प्राग आया है, और वो यह जानता है कि 'एक उम्र के बाद तुम घर लौटकर नहीं जा सकते.' फिर टी.टी. है, एक और अप्रवासी, एक बर्मी. वह अपने मुल्‍क़ को चाहता है, लेकिन वहां लौटने की उसकी भी अब इच्‍छा नहीं. रायना वियना से प्राग घूमने आई है, लेकिन लड़ाई के दिनों और टूटे रिश्‍तों की छाया लगातार उसके अस्तित्‍व पर मंडलाती रहती है. (कुछ चीज़ें हैं, जो लड़ाई के बाद मर जाया करती हैं, और वह उनमें से एक है!) वह अपने पति से अलग है और उसका एक बेटा है. निश्चित ही, वह प्राग में 'गंभीर होने' नहीं आई है, दरअस्‍ल वो एक 'सिस्‍टम' (शायद कोलोन का कॉन्‍सेंट्रेशन कैम्‍प या वियना का घर!) से बाहर निकलकर आती है, और अब उसमें जीवन को लेकर एक तरह का बेपरवाह बिखराव है. वो एक साथ 'फ़्लर्ट' और 'सिनिक' है, एक साथ 'ग्रेव' और 'विविड' (विविड! विविड!!), एक साथ बसंत और पतझर, और चूंकि उसे हासिल नहीं किया जा सकता, इसलिए उसे चाहना एक सुसाइडल डायलेमा ही हो सकता है). इंदी रायना को चाहता है, लेकिन ज़ाहिर है कि वह उसे कभी भी एक और 'सिस्‍टम' में दाखिल होने के लिए राज़ी नहीं कर सकता. यहां पर इन दोनों की दुनियाएं (इन दोनों के 'स्‍पेस'!) ट्रैजिक रूप से इंटरसेक्‍ट कर जाती हैं. फ्रांज़ फिल्‍में बनाता है, लेकिन यहां प्राग में उसका काम कोई समझ नहीं पाता. वह अपने देश जर्मनी लौट जाना चाहता है. मारिया उसके साथ रहती है, लेकिन वह उसके साथ बर्लिन नहीं जा सकती, क्‍योंकि वे दोनों विवाहित नहीं हैं, और ग़ैर-विवाहितों को साथ जाने का वीज़ा नहीं मिलता. ये तमाम किरदार अपनी-अपनी 'जगहों' से बाहर हैं और इन सभी में एक तरह का सर्द उचाटपन है. फिर भी ये किरदार अंतत: अपनी पीड़ाओं को स्‍वीकारते हैं, और इसके लिए वे किसी को दोषी भी नहीं ठहराते, जो उन्‍हें एक शहादत का-सा ग्रेंजर देता है. ये निर्मल वर्मा के वे ही किरदार हैं, जिन्‍हें मदन सोनी ने 'कथा के एकांत में कूटबद्ध देह' लिखा था, जिनके लिए निर्मल वर्मा अपनी कथा के ज़रिये एक ऐसा 'अवकाश' रचते हैं, जहां उनके 'अतीत और यातनाओं के विचित्र संदेश' ग्रहण किए जा सकें, जहां उनकी 'गुप्‍त गवाहियों का गवाह' हुआ जा सके.

3.
'वे दिन' की तमाम क्राफ़्टमैनशिप इन किरदारों की अपने स्‍पेस में छटपटाहट और समांतर स्‍पेसों के पारस्‍परिक संवाद की असंभवता को लक्ष्‍य करने में है, जिसे निर्मल वर्मा ने प्राग के कासल, गिरजों, मॉनेस्‍ट्री, वल्‍तावा के पुलों और एम्‍बैंकमेंट के दुहराते हुए, मेलंकलिक मोनोटॅनी-सी गढ़ते डिटेल्‍स के साथ बुना है. हमेशा की तरह निर्मल वर्मा यहां तंद्रिल परिवेश रचते हैं- धुंध से ढंका हुआ, और स्‍वप्निल, जो आपको अवसन्‍न और शिथिल करता है, मेडिटेटिव बनाता है और एक जागे हुए अवसाद में झोंकता है. आप इस किताब को राहत के साथ नहीं पढ़ सकते, (आप उस गाढ़े 'आम्बियांस'- इतने गाढ़े ('डार्क एंड डीप!') कि जहां परिवेश पात्रों को लील जाए!- में 'ईज़ के साथ सांसें नहीं ले सकते), या कह लें यहां एक 'टीसता हुआ सुख' है, होनेभर का एक सूना-सफ़ेद सुख... शायद इसे ही मदन सोनी ने 'एक समझ, एक वापसी और एक पछतावा' कहा है. निर्मल वर्मा की डिस्क्रिप्टिव पॉवर आपको अपने भीतर की बेचैनी और अपनी अदम्‍य चाहना के परिप्रेक्ष्‍य में खोज निकालती है. आप अब पहले से ज्‍़यादा उदास और रिफ़्लेक्टिव, लेकिन पहले से ज्‍़यादा होशमंद, सजग और जिंदगी की विडंबनाओं के प्रति अधिक संवेदनशील हैं... अब आप छोटे सुखों के बरक्‍़स बड़े सुखों और प्रत्‍याशाओं के बरक्‍़स छलनाओं और हालात-किरदारों की सीमाओं को समझते हैं और आखिरकार एक ठंडी नि:श्‍वास छोड़कर रह जाते हैं- 'वे दिन' के बर्फ के फ़ाहों और ठंडे उजालों के ब्‍यौरों के साथ आपकी फितरत का यह सर्दीलापन बारीक़ी के साथ हर सफ़हे पर सजेस्‍ट होता है.

4.
इस नॉवल में भय, अंदेशे, तक़लीफ़, आकांक्षा और सुख की प्रत्‍याशा के इतने शेड्स हैं, कि वह अपने आपमें एक अलग कथा हो सकती है- 'प्रत्‍यक्ष ऐंद्रिय बोध' के स्‍तर पर एक समांतर कथानक. यहां 'जीने का नंगा-बनैला आतंक' है, प्रभाव की तीव्रता के साथ नॉवल के पन्‍नों पर अंकित. जो लोग मौत की शर्त पर एक साथ होते हैं, वे बाद में, जीवन की शर्तों पर उस तरह से साथ नहीं हो सकते... 'वे दिन' में लड़ाई के दिनों की छाया है और लड़ाई ख़त्‍म होने के बाद की मुर्दा ख़ामोशी भी. लड़ाई के आतंक से ज्‍़यादा लड़ाई ख़त्‍म होने के बाद का वह सालता हुआ-सीलनभरा सन्‍नाटा इस नॉवल के किरदारों को ज्‍़यादा तोड़ता है (बक़ौल ब्रेख्‍़त- 'उनकी ख़ामोशी ने मिटा डाला है वह सब कुछ/जो उनकी लड़ाई ने बचा छोड़ा था'). लेकिन, फिर भी, लड़ाई के दिनों का जिक्र यहां एक 'ड्रमैटिक डिवाइसभर' है... नॉवल का एक्‍सेंट उस पर नहीं गिरता, नॉवल का एक्‍सेंट कोल्‍डवार या पीसटाइम पर भी नहीं गिरता (जबके प्राग पर 'बिहाइंड दि आइरन कर्टेन' का लाल लेबल चस्‍पा था!)... यह नॉवल कुछ व्‍यक्तियों के बीच के उस अंधेरे को उभारता है, जो वहां है, जिससे इनकार नहीं किया जा सकता, और एक ही 'स्‍पेस' में होने के बावजूद, जिसे जोड़कर चिपकाया नहीं जा सकता. शायद इसीलिए इस नॉवल के किरदार 'इट वुडंट हेल्‍प' और 'बिकॉज़ दैन इट इज़ जस्‍ट मिज़री' जैसे संवाद दुहराते हैं... किसी ऐसी चीज़ पर 'विश्‍वास' करने की बात करते हैं, जो नहीं है, और यह सोचने की 'कोशिश' करते हैं, कि सब कुछ पहले जैसा ही है. तब 'वे दिन' रागात्‍मकता के परिप्रेक्ष्‍य में मानव-नियति का त्रासद आख्‍यान हो जाता है.

5.
पहली दफ़े पढ़ने पर मुझे 'वे दिन' में कुछ अपरिभाषेय-सा 'मिसिंग' लगा था, अब दूसरी रीडिंग में मुझे समझ आया है कि 'मिसिंग' नॉवल में नहीं, कहीं और है, और 'वे दिन' महज़ उस 'मिसिंग' को व्‍यक्‍त करने की कोशिश करता है. मेरे लिए फिर से 'वे दिन' के पन्‍ने पलटना वैसा ही था, जैसे किसी परिचित देह, या किसी पहचानी जगह पर लौटना. और तब, आपको पता चलता है कि कुछ हिस्‍से ऐसे थे, जो पहले आपके स्‍पर्श से छूट गए थे, और वहाँ आपकी प्रतीक्षा में अनमने-से पड़े थे... कि आप आएँ, और उन लम्‍हों को, उनके नए अर्थों को खोलकर देखें, उनकी बुझी हुई धूप सहलाएँ, और उनकी तक़लीफ़ों को फिर से झेलें. यह ठीक वैसा ही है, जैसे नॉवल में रायना एक बार फिर प्राग देखने आती है, और पाती है कि लोरेंत्‍तो गिरजे का गु़म्‍बद और प्राग के पुल, वे ही हैं, लेकिन फिर भी वे वही नहीं हैं... उनमें अब कुछ ऐसा है, जिसमें विएना की मृत हवा, और कोलोन के कैम्‍प पीछे छूट गए हैं, और अब केवल प्रेतछायाओं-सी उनकी स्‍मृति किसी पतली परछाईं की तरह बची रह गई हैं, और तब, आपको पता चलता है कि उद्घाटित जगहों में भी बहुत कुछ अधखुला छूट जाया करता है, जिन्‍हें उघाड़ने के लिए आपको लौटना पड़ता है. यह लौटना- स्‍मृति और मृत समय में यह वापसी- आगे चलने से कम क़ीमती नहीं होता, जब आप ख़ुद को एक और परत खोलकर फिर से देखते हैं, और पहले से ज्‍़यादा पहचानते हैं. 'वे दिन' में लौटने की यातनामय प्रक्रिया का ये ही नॉस्‍टेल्जिक लेकिन दिलक़श इलहाम है!

5 comments:

मुनीश ( munish ) said...

I appreciate ur love for Nirmal Verma 'cos even after his death there are people jealous of his 'videsh yatraz' ! Envy is but natural BUT that should not stop Hindi alochak to give him the credit he deserved.His literary craftsmanship is still matchless.

ravindra vyas said...

शुक्रिया मुनीशजी। हां, निर्मलजी के प्रति मेरे मन में अथाह प्रेम है। मैं उन्हें बार-बार पढ़ता हूं। और जब कभी बहुत उदास, दुःखी होता हूं तो उनके लिखे शब्द बुखार में तपे व्यक्ति के माथे पर ठंडी पट्टी की तरह काम करते हैं। कभी कभी ऐसा भी होता है कि वे शब्द ताप को और बढ़ा देते हैं। यह मेरे लिए कितना असहनीय है कि मैं उनकी तरह लिख नहीं सकता। उनके सामने जाता हूं तो अपने मीडियाकर होने का भाव और घना होता जाता है।

पारुल "पुखराज" said...

is lekh ke bahut se ansh sahejey liye jaa rahi huun..baar baar ..gunney ko..duubna.. chatpataanaa ..phir aur duubna...ubar na paanaa..nirmal verma padhkar yahi haal hota hai...

anurag vats said...

samvedansheel padhat...

Ek ziddi dhun said...

beshak bevkufana irshya hain Nirmal Verma se par isi tarha ka prem bhi hai bahut se `sanskriti` ke thekedaron ko unse.
...unki stories mujhe bahut pasand hain. Ve manushya ki Garima ko chhota nahi padne dete.