हिंदी के अप्रतिम गद्यकार निर्मल वर्मा के लेखन में एक विरल धुन हमेशा सुनी जा सकती है। वह कभी मन के भीतर के अंधेरे-उजाले कोनों से उठती है, किसी शाम के धुंधलाए साए से उठती है या फिर आत्मा पर छाए किसी अवसाद या दुःख के कोहरे से लिपटी सुनाई देती है। मैं यहां उनकी डायरी का एक अंश प्रस्तुत कर रहा हूं और उस पर आधारित अपनी पेंटिंग भी। अपनी सुविधा के लिए मैंने इस डायरी के अंश का शीर्षक दे दिया है जो दरअसल उनकी ही एक किताब का शीर्षक भी है।
सितंबर की शाम, बड़ा तालाब।
देखकर दुःख होता है कि देखा हुआ व्यक्त कर पाना, डायरी में दर्ज कर पाना कितना गरीबी का काम है, कैसे व्यक्त कर सकते हो, उस आंख भेदती गुलाबी को जो बारिश के बाद ऊपर से नीचे उतर आती है, एक सुर्ख सुलगती लपट जिसके जलने में किसी तरह की हिंसात्मकता नहीं, सिर्फ भीतर तक खिंचा, खुरचा हुआ आत्मलिप्त रंग, तालाब को वह बांटता है, एक छोर बिलकुल स्याह नीला, दूसरा लहुलूहान और शहर का आबाद हिस्सा तटस्थ दर्शक की तरह खामोश सूर्यास्त की इस लीला को देखता है। पाट का पानी भी सपाट स्लेट है-वहां कोई हलचल नहीं-जैसे रंग का न होना भी हवा का न होना है, लेकिन यह भ्रम है, सच में यह हिलता हुआ तालाब है, एक अदृश्य गुनगुनी हवा में कांपता हुआ और पानी की सतह पर खिंचते बल एक बूढ़े डंगर की याद दिलाते हैं जो बार बार अपनी त्वचा को हिलाता है और एक झुर्री दूसरी झुर्री की तरफ भागती है, काली खाल पर दौड़ती सुर्ख सलवटें जो न कभी नदी में दिखाई देती हैं न उफनते ेसागर में हालांकि इस घड़ी यह तालाब दोनों से नदी के प्रवाह और सागर की मस्ती को उधार में ले लेता है लेकिन रहता है तालाब ही, सूर्यास्त के नीचे डूबी झील। मैं घंटों उसे देखते हुए चल सकता हूं, एक नशे की झोंक में औऱ तब अचानक बोध होता है-अंधेरा, गाढ़ा, गूढ़ मध्यप्रदेशीय अंधकार जिसमसें पलक मारते ही सब रंग आतिशबाजी की फुलझड़ी की तरह गायब हो जाते हैं और फिर कुछ भी नहीं रहता, सब तमाशा खत्म। रह जाती है एक ठंडी, शांत झील, उस पर असंख्य तारे और उनके जैसे ही मिनिएचरी अनुरूप पहाड़ी पर उड़ते चमकते धब्बे-भोपाल के जुगनू।
लेकिन यह डायरी तीन दिन बाद की है, कैसे हम उन्हें खो देते हैं जो एक शाम इतना जीवन्त, स्पंदनशील, मांसल अनुभव था-इज इट दि मिस्ट्री आफ पासिंग टाइम आर दि ट्रुथ आफ इटर्नल डाइंग?
देखकर दुःख होता है कि देखा हुआ व्यक्त कर पाना, डायरी में दर्ज कर पाना कितना गरीबी का काम है, कैसे व्यक्त कर सकते हो, उस आंख भेदती गुलाबी को जो बारिश के बाद ऊपर से नीचे उतर आती है, एक सुर्ख सुलगती लपट जिसके जलने में किसी तरह की हिंसात्मकता नहीं, सिर्फ भीतर तक खिंचा, खुरचा हुआ आत्मलिप्त रंग, तालाब को वह बांटता है, एक छोर बिलकुल स्याह नीला, दूसरा लहुलूहान और शहर का आबाद हिस्सा तटस्थ दर्शक की तरह खामोश सूर्यास्त की इस लीला को देखता है। पाट का पानी भी सपाट स्लेट है-वहां कोई हलचल नहीं-जैसे रंग का न होना भी हवा का न होना है, लेकिन यह भ्रम है, सच में यह हिलता हुआ तालाब है, एक अदृश्य गुनगुनी हवा में कांपता हुआ और पानी की सतह पर खिंचते बल एक बूढ़े डंगर की याद दिलाते हैं जो बार बार अपनी त्वचा को हिलाता है और एक झुर्री दूसरी झुर्री की तरफ भागती है, काली खाल पर दौड़ती सुर्ख सलवटें जो न कभी नदी में दिखाई देती हैं न उफनते ेसागर में हालांकि इस घड़ी यह तालाब दोनों से नदी के प्रवाह और सागर की मस्ती को उधार में ले लेता है लेकिन रहता है तालाब ही, सूर्यास्त के नीचे डूबी झील। मैं घंटों उसे देखते हुए चल सकता हूं, एक नशे की झोंक में औऱ तब अचानक बोध होता है-अंधेरा, गाढ़ा, गूढ़ मध्यप्रदेशीय अंधकार जिसमसें पलक मारते ही सब रंग आतिशबाजी की फुलझड़ी की तरह गायब हो जाते हैं और फिर कुछ भी नहीं रहता, सब तमाशा खत्म। रह जाती है एक ठंडी, शांत झील, उस पर असंख्य तारे और उनके जैसे ही मिनिएचरी अनुरूप पहाड़ी पर उड़ते चमकते धब्बे-भोपाल के जुगनू।
लेकिन यह डायरी तीन दिन बाद की है, कैसे हम उन्हें खो देते हैं जो एक शाम इतना जीवन्त, स्पंदनशील, मांसल अनुभव था-इज इट दि मिस्ट्री आफ पासिंग टाइम आर दि ट्रुथ आफ इटर्नल डाइंग?
19 comments:
कूची और कलम, रंग और स्याही का इतना सुंदर गठजोड़। पढ़कर आनंद आ गया। गुलजार साहब के बाद अब निर्मल वर्मा जी की डायरी के अंश के साथ आपकी पेंटिग की जुगलबंदी बेहद खूबसूरत है।
वाह ! जैसा मनोहर मंत्रमुग्ध करता शब्द चित्रण,वैसा ही अद्भुत रंगों का सम्मिश्रण. आनंद विभोर कर गया मन को.साधुवाद.
पेंटिंग के रंग स्तब्ध करते हैं .. और निर्मल वर्मा की डायरी का अंश .. बेहद कोमल , गुनगुना , उदास ..
चित्र सुंदर है और डायरी के अंश ..और आगे पढने के लिए प्रेरित करते हैं
"निर्मल वर्मा का लेखन"--चस्के से निकलना मुश्किल!
क्या कहूँ इस पोस्ट पर। सबसे पहले पेटिग देखकर दिल खुश हो गया और निर्मल जी की डायरी का ये अंश पढकर अच्छा लगा। उनके लेखन में जादू होता है। और ये भी जादू सा कर गया। और हाँ आप तो कलाकार भी हैं बहुत खूब जी, बधाई ।
पता नही कहाँ से ये चित्र चुरा कर लाते है आप.......बेहद खूबसूरत .निर्मल वर्मा जी अपनी तरह के लेखक थे....शायद उनकी कोई अपनी ही विधा थी....खास तौर से उनके यात्रा व्त्रांत याद है मुझे......
ज़बरदस्त पेन्टिंग रवीन्द्र भाई! वाक़ई में! कितनी सारी धुंधों को एक साथ समेट लेते हैं आप एक साथ.
bahut achchhi painting hai apaki. usi ke anuroop nirmal verma ki diary bhi. adbhut talmel hai.
mere blog ki link apane chahi thi jo de raha hoon.
bahadurpatel.blogspot.com
मन के एक छोर से दूसरे छोर इन्द्रधनुष सा खींचती पोस्ट रविन्द्र भाई। धन्यवाद
कैसे हम उन्हें खो देते हैं जो एक शाम इतना जीवन्त, स्पंदनशील, मांसल अनुभव था-इज इट दि मिस्ट्री आफ पासिंग टाइम आर दि ट्रुथ आफ इटर्नल डाइंग? .....मेरे पास तो शब्द ही नही .निर्मल आनंद की धारा...आपके नीले रंग सयोंजन के साथ एक तृप्ति का अनुभव ..शब्दों मैं बधाई भी छोटी लग रही है
अनुराग जी, ये सारी पेंटिग्स खुद रवींद्र जी करते हैं...वे जितने धनी कलम के हैं उतना ही कमाल उनकी कूची भी करती है।
Tumhari paintings bahut sunder hain. mein khush hoon.
Tum jin par 'fida' ho, unme se Gulzar ki kavita behad roomaniyat se bhari hai aur tumhe sandigdh banati hai. Sorry.
Tumhari paintings bahut sunder hain. mein khush hoon.
Tum jin par 'fida' ho, unme se Gulzar ki kavita behad roomaniyat se bhari hai aur tumhe sandigdh banati hai. Sorry.
सभी का बहुत बहुत आभार।
aapki painting aur nirmal verma ke shabd... both eye catching...
नव वर्ष की आत्मीय शुभकामनाएं।
हरा को ना
या
हरा कोना
अच्छा है
देश में
बहरा होना।
निर्मल वर्मा ... इस नाम से मेरी आखों के सामने एक धुंध सी छा जाती है ... प्राग दिखाई देता है कल्पनाओ से भरा हुआ प्राग और वहाँ कि बर्फ भी ... हज़ारो लोग एक साथ बीयर पीते दिखाई देते है ... और एक धुंध घेर लेती है ... ऐसा लगता है जेसे शेरी , कोन्याक और स्लिबो वित्से का कोकटेल पी लिया हो मैने ... निर्मल वर्मा या धुंध ...
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