मैं क्यों बार-बार गुलज़ार साहब की ओर लौटता हूँ। उसमें हमेशा कोई दृश्य होता है, कोई बिम्ब होता है, बहुधा प्रकृति की कोई छटा होती है, लगभग मोहित करती हुई या मैं इसलिए उनकी तरफ लौटता हूँ कि उनमें मुझे हमेशा एक ताजगी या नयापन मिलता है, अपनी बात को कहने का एक शिल्पहीन शिल्प मिलता है।
क्या उनकी शायरी में सिर्फ रुमानीपन मिलता है जो मेरी खास तरह की सेंसेबिलिटी से मेल खाता है? क्या मैं उनकी कविता में किसी हसीन ख्वाहिश, मारू अकेलेपन या दिलकश खामोशी के वशीभूत लौटता हूँ? क्या उसमें स्मृतियाँ और स्मृतियाँ होती हैं, जिनकी गलियों और पगडंडियों से होकर गुजरते हुए हमेशा एक गीला अहसास होता है?
और ये अहसास भी ऐसे जैसे कोई खामोश मीठे पानी की झील हमेशा कोहरे से लिपटी रहती है? या कोई अपने में अलसाया पहाड़ को सिमटते कोहरे में बहते सब्जे से और भी सुंदर नजर आता है? या बनते-टूटते, खिलते-खुलते और सहमते-सिमटते रिश्तों का ठंडापन या गर्माहट है? या कि उनमें कोई जागते-सोते-करवट लेते ख्वाबों की बातें हैं? या कि सिर्फ अहसास जिन्हें रूह से महसूस करने की वे बात करते हैं? या कि इन सबसे बने एक खास गुलज़ारीय रसायन से बने स्वाद के कारण जिसका मैं आदी हो चुका हूँ?
शायद ये सब बातें मिलकर उनकी शायरी का एक ऐसा मुग्धकारी रूप गढ़ती हैं जिस पर मैं हमेशा-हमेशा के लिए फिदा हो चुका हूँ। इसीलिए इस बार संगत के लिए मैंने फिर से गुलज़ार की एक और नज़्म लैण्डस्केप चुनी है। यह भी एक दृश्य से शुरू होती है। दूर के दृश्य से। जैसे किसी फिल्म का कोई लॉन्ग शॉट हो। वे हमेशा अपनी बात को कहने के लिए कोई दृश्य खोजते हैं और खूबी यह है कि किसी में कोई दोहराव नहीं क्योंकि दृश्य को अपनी काव्यात्मक भाषा में रूपायित करने के लिए इसे बरतने का उनका तरीका अलहदा है, मौलिक है क्योंकि वे दृश्य को दृश्य नहीं रहने देते।
अपनी कल्पना के किसी नाजुक स्पर्श से, अपने भीतर उमड़ते-घुमड़ते किसी भाव या समय की परतों में दबी किसी याद से इतना मानीखेज़ बना देते हैं कि फिर वह दृश्य दृश्य नहीं रह जाता। यह उनकी खास शैली है जो उन्होंने रियाज से नहीं ज़िंदगी के तज़ुर्बों की निगाह से हासिल की है जो किसी शायर के पास ही हो सकती है।
यह नज़्म इन पंक्तियों से शुरू होती है-
दूर सुनसान से साहिल के क़रीब
इक जवाँ पेड़ के पास
इसमें साहिल है। यह दूर है। और वह सुनसान भी है। इसके पास एक पेड़ है, यह जवाँ है। दूर, सुनसान, साहिल, करीब और पेड़ जैसे सादा लफ्ज़ों से वे एक दृश्य बनाते हैं। लेकिन यह दृश्य यहीं तक सिर्फ एक दृश्य है। इसके बाद गुलज़ार की वह खास शैली का जादू शुरू होता है जिसे शिल्पहीन शिल्प कहा है। यानी कोई शिल्प गढ़ने की मंशा से आज़ाद होकर अपनी बात को इतने सादे रूप में कहना कि वह एक खास तरह के शिल्प में बदल जाए।
आगे की पंक्तियाँ पढ़िए-
उम्र के दर्द लिए, वक़्त का मटियाला दुशाला ओढ़े
बूढ़ा-सा पॉम का इक पेड़ खड़ा है कब से
यहाँ एक बूढ़े पॉम के पेड़ के जरिए एक व्यक्ति के अकेलेपन को कितनी खूबी से फिर एक दृश्य में पकड़ा गया है। यह पेड़ वक़्त का मटियाला दुशाला ओढ़े है। जाहिर है इस मटियालेपन में वक्त के बीतने का अहसास अपने पूरे रुमानीपन के बावजूद कितना खरा, खुरदरा और पीड़ादायी है। यह सदियों की खामोशी में अकेलेपन का गहरा अहसास है।
सालों की तन्हाई के बाद
झुकके कहता है जवाँ पेड़ से : 'यार
सर्द सन्नाटा है तन्हाई है
कुछ बात करो'
अब यह अकेलेपन का जो अहसास है, बहुत घना हो चुका है। और ऊपर से सर्द सन्नाटा है और तन्हाई है। जाहिर है यह सब कितना जानलेवा है। लेकिन खामोशी में सदियों के अकेलेपन को कहने की जो अदा है उसमें कोई चीख-पुकार नहीं है। जैसे बहुत ही गहरी एक आवाज़ है जो अपने पास खड़े एक जवाँ पेड़ से कुछ बात करने इच्छा जता रही हो।
यह एक पेड़ है जो सालों की तन्हाई में खड़ा है और झुक के कुछ बात करने के लिए कह रहा है। यह बात इतने सादा, इतने संयत और मैच्योर ढंग से कही गई है कि सीना चीर के रख देती है।
ना यह हमारी ही बात। हमारे अकेलेपन, हमारी खामोशी, हमारे सन्नाटे और हमारी तन्हाई की बात। इसे ध्यान से सुनिए, यह आपके कान में कही गई बात है, आपके दिल के किसी कोने से उठती बात है -
कि सर्द सन्नाटा है, तन्हाई है, कुछ बात करो।
पेंटिंगः रवीन्द्र व्यास
(वेबदुनिया के लिए लिखे जा रहे साप्ताहिक कॉलम संगत की एक कड़ी)
3 comments:
क्या कहूं! नज़्म ज्यादा अच्छी या आपका आलेखन। दोनों बहुत .....और पेंटिंग भी बहुत सुंदर
INHEY PADHKAR JO GEHREY UTARTAA HAI...USEY AAPNEY BAHUT ACCHHA UKERAA HAI.सर्द सन्नाटा है तन्हाई है
कुछ बात करो'
कि सर्द सन्नाटा है, तन्हाई है, कुछ बात करो।
Gulzaar Sahab vaise bhi Gulzaar Sahab hi hain
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