सुबह जब उठे तो हमें किसी ने नहीं देखा।
फिर एक पेड़ हिला, उस पर चिडि़या बैठी, एक फूल झरा।
एक गाय आई, एक कुत्ता।
इनको भी किसी ने नहीं देखा।
रात की रोटी दूसरे दिन दोपहर तक सूखती रही।
बिल्ली दूध पीकर चली गई।
मैं बारिश में भीगता हूं।
छींकता हूं।
मुझे भी कोई नहीं देखता।
मैंने मां को ढूंढ़ा।
वह जहां सोयी थी वहां बच्चे अकेले हैं।
और हमारे सिरहाने ठंडे पानी की मटकी रखी हुई थी।
Wednesday, October 8, 2008
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12 comments:
क्रिस्टोफ़र कॉडवेल ने कहा है कि कविता वह है जो पढ़ते हुए आपके भीतर घटित होती है। यह कविता भी कुछ ऐसी ही है।
सगरी आस है, कइसी तलास है
हिस्स... रवींद्र व्यास है...
कैसा तो अजीब दृश्य बनता है- रात की रोटी दूसरे दिन तक सूखती रहे... इस बेचैन पंक्ति पर एक पूरी कहानी लिखी जा सके है.
अंग्रेज़ी में बोले तो ब्रावो ब्रावो...
mujhe lag raha tha ek din tum kavita me uthoge aur ise darj karoge.Bahut marmik. maf karna, iski badhai nahi de paunga.
निशब्द कर देने वाली है यह
मार्मिक अभिव्यक्ती!!अभार
और हमारे सिरहाने ठंडे पानी की मटकी रखी हुई थी।
बहुत मर्मस्पर्शी कविता। बधाई
आँखे सूनी हो गयीं -पढ़ते पढ़ते
संवेदनशील कविता...
विजयादशमी की बधाई...
अरुण जी सही कह रह हैं .. ड्र्श्य , भाव , घटना ..सब साकार ..
लाजवाब रचना ।
मैं इस कविता को कई दिनों से बार-बार पढता हूँ
bahut achchhikavita hai.
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