समकालीन हिंदी कविता के महत्वपूर्ण कवि कुमार अंबुज भी ब्लॉगर बन गए हैं। आज ही उन्होंने अपनी एक बेहतरीन पोस्ट डाली है। यह उनके गद्य का एक टुकड़ा है, शहर को देखने की उनकी अपनी नितांत नाजुक निगाह और शैली। इसे पढ़कर यह सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि यह एक कवि का गद्य है। मैं उनके प्रति गहरा आभार प्रकट करता हूं कि इसे अपने ब्लॉग पर लगाने की उन्होंने अनुमति दी। तो लीजिए पढ़िए कुमार अंबुज का गद्य।
बड़े शहरों का आकर्षण विचित्र है। वे लोगों को उस तरह अपनी तरफ खींचते हैं जैसे आलपिनों को कोई बड़ा चुंबक। उनकी परिधि और प्रभाव क्षेत्र में आनेवाले तमाम गांव-कस्बे उनमें धीरे-धीरे समा जाते हैं। आसपास एक निर्वात-सा बनता है, जिसे शहर अपनी परछाइयों से, अपने वैभव से और अपने कूड़े से भरता जाता है।विस्थापन की यह एक अबाध, अनवरत् प्रक्रिया है। इसे रोकना कठिन लगता है क्योंकि यही अब हमारे देश में विकास की अवधारणा का मॉडल है। कभी-कभी खुद से ही पूछता हूं कि क्या मनुष्य जीवन कुल पचास-साठ महानगरों में सीमित हो सकता है? या फिर छोटे-बड़े-मंझोले कुल तीन-चार सौ शहरों में। बाकी जगहों पर जीवन के सिर्फ अवशेष रहेंगे। उठते-गिरते, आसमान की तरफ देखते, अभिशप्त जीवन के उदाहरण। या वे जिजीविषा से भर उठेंगे और अपने होने को फिर साबित करेंगे?
जो भी हो, लेकिन अपना गांव कस्बा या शहर छोड़ देना, उसे अपने लिए एक स्थायी इतिहास बना देना सदैव ही सबसे मुश्किल काम है। और इसका कोई बहुत बड़ा, व्यावहारिक बुदिध से लबरेज, लाभ-हानिवाला कारण बताना लगभग नामुमकिन है। याद करें, `नसीम´ फिल्म में बूढ़े दादाजी, इस सवाल पर कि हम भी पाकिस्तान क्यों नहीं चले गये, अपनी पोती से कहते हैं कि `तुम्हारी दादी को यह सामने लगा नीम का पेड बहुत पसंद था, इसलिए।´ अब इस कारण को समझना बेहद आसान भी है और अत्यंत मुश्किल भी। इन्हीं वजहों से साहित्य में विस्थापन को लेकर, अपनी जगह-जमीन को लेकर महान रचनाएं संभव होती रही हैं।
दरअसल, शहर और आप, दोनों साथ-साथ विकसित होते हैं। पल्लवित होते हैं और एक साथ टूटते-फूटते हैं। कभी शहर में फूल खिलते हैं, नये पत्ते आते हैं तो आपके भीतर भी वे सब दर्ज होते हैं और जब आपके भीतर फुलवारी खिलती है तो आप देखते हैं कि शहर में भी जगह-जगह गुलमोहर फूल गया है। जब भी आप उदास होते हैं, अवसाद या दुख में होते हैं तो शहर अपनी किसी पुलिया के साथ, किसी पुराने पेड़ की छाया और उसके विशाल तने के साथ, अपने मैदान में ढलती शाम के आत्मीय अंधेरे के साथ आपके लिए उपस्थित हो जाता है। जैसे आप शहर के हर उस कोने-किनारे को जानते हैं, उन जलप्रपातों, कंदराओं और आ¡चल को जानते हैं जहा¡ जाकर एकदम किलकारी भर सकते हैं या सुबक सकते हैं। और जानते हैं कि यह शहर आपकी किसी मूर्खता, भावुकता और तकलीफ को इस तरह जगजाहिर नहीं होने देगा कि आपको शर्मिंदगी हो। यह अपना शहर है, यह आपको उबार लेगा। और मौका आने पर आज भी अपने कंधे पर बैठा लेगा। शहर की ठोकरों के निशान आपके माथे और आत्मा पर कुछ कम नहीं हैं लेकिन कुछ रसायन हैं जो तब ही बनते हैं जब आप अपने शहर में होते हैं। भीतर कुछ धातुएं हैं, घंटियां हैं, जिनका संगीत शहर में होने से ही फूटता है। जब आप अपने शहर में नहीं हैं तब भी एक तरह का संगीत, एक सिम्फनी बजती रहती है, लेकिन उसका राग कुछ अलग होता है।
आप जानते हैं कि काफी हद तक ये सब रूमानियत और भावुकता से भरी बातें हैं। यथार्थ का धरातल रोजी-रोटी है। कस्बों और छोटे शहरों का अनियोजित विकास, टूटी सड़कें, फूटी नालियां, तंग गलियां, धूल, गंदगी, जाहिली-काहिली हमारे सामने वास्तविकता के बड़े हिस्से की तरह प्रकट है। लेकिन यह भी सच्चाई है कि हर आदमी को जैसे अपना एक शरीर मिलता है, वैसे ही उसे अपना एक शहर मिलता है। जीवन में सिर्फ एक बार। लेकिन चाहते हुये भी आप हमेशा अपने शरीर में वास नहीं कर सकते। दूसरी देहों में भी आपको रहना पड़ता है। यह कायांतरण जीवन की विडंबना है, लेकिन है। इस कायांतरण में आपको तिलचट्टे की देह मिल सकती है या मुमकिन है कि आपको किसी सुंदर पक्षी या चीते की देह मिल जाये। लेकिन फिर आप हमेशा ही अपने शरीर की खोज करते हैं कि आपका पुनर्वास हो सके। आपकी हर ऊंची उड़ान, हर अकल्पनीय छलांग या वेदनापूर्वक घिसटने की नियति, त्रासदी या उल्लास जैसे अपनी उस देह को फिर से पा लेने की ही कोई कोशिश है। हर दूसरा शहर, हर दूसरा शरीर जैसे कोई अस्थायी राहत-शिविर है। सराय है। तम्बू है।
दूसरे शरीर में रहते हुये, चाहे वह कितना ही सुंदर, सुगंधित, सामथ्र्यवान क्यों न हो, एक परायेपन, अचकचाहट और प्रवासी होने का बोध बना रहता है। जैसे आप निष्कासन पर हैं। और अपनी देह कितनी ही कुरूप हो, धूल-धक्कड़ से भरी हो, चुंबनों या घावों से लबरेज हो और उसमें कितनी ही मुश्किलें बन गयी हों मगर आपको लगता है कि यहा¡ आप अजनबी नहीं हैं। आश्वस्त है कि आप इस शरीर के सारे रास्ते जान सकते हैं। सारी गलियां, धमनियां, सारे चौराहे, घाटियां, खाइयां और गूमड़। उन स्पंदनों, संवेगों और तरंगों के साथ सहज रह सकते हैं जो आपकी देह में से उठती हैं। चूंकि शरीर की तरह, शहर-गांव भी एक ही बार आपको प्राप्त होता है इसलिए छूट गये शहर से आपकी मुक्ति संभव नहीं। वह आपका था, आपका है। आप उससे दूर हैं लेकिन वह आपका है। वह नष्ट हो रहा है तब भी और उठान पर है तब भी। दोनों स्थितियों में वह आपको व्यग्र बनाता है।
जग जाहिर है कि बड़े शहरों की मुश्किलें भी बड़ी हैं। अपरिचित भीड़ से उपजा अवसाद, दो सौ परिवारों के बीच में रहने से पैदा अकेलापन, प्रदूषण के तमाम प्रकार, अनियंत्रित जनसमूह, पार्किंग, ट्रैफिकजाम, भागमभाग, थकान और यांत्रिकता। यह सूची बहुत लंबी हो सकती है। लेकिन यहीं रोशनियां हैं, आधुनिकता है, नयी आवाजें और तसवीरें हैं। वे एकांतिक क्षण संभव हैं जब अपरिचय भी वरदान है, सभ्यता के अनेक स्तर हैं, जीवंत उठापटक है और वे चबूतरे, वे रोशनदान भी हैं जहां से आप दूर तक देख सकते हैं। हर शहर, अपने आकार और संपन्नता के अनुपात में उतना ही बड़ा एक चुंबक है। वह लोहे को ही नहीं, हर उस चीज को खींचता है, जो उसके करीब से गुजरती है। मैं भी पिछले वर्षों से इसकी गिरत में हूं। बीसियों बार अपने शहर गुना का मकान बेचकर, यहां भोपाल में छोटा-सा घर लेने के उपक्रम में फंसता हूं। लेकिन ठीक उस वक्त जब सब चीजें निर्णय में जाना चाहती हैं, मैं उस खेल को जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे बिगाड़ देता हूं। अब यह खेल जैसा ही कुछ हो गया है। जैसे मैं बड़े शहरों से मुक्त होना चाहता हूं। उन्हें परास्त कर देना चाहता हूं। उनके रूप, लावण्य, गरिमा और गर्व को आहत करना चाहता हूं। उनके गुरुत्वाकर्षण के खिलाफ जाकर अपनी गुम पृथ्वी पर लौट आना चाहता हूं। यह एक जटिल खोज है, जटिल लड़ाई है। इसके अनेक मोर्चे हैं, अनगिन पहलू। मैं कभी कंदरा में छिपता हूं, कभी मैदान में आकर लड़ता हूं। लगता है कि एक दिन अपनी काया को वापस पा लू¡गा। कभी लगता है कि अब वह अलभ्य है।
और यदि कभी आपको अपना शहर वापस मिलता है, भले ही थोड़े-से वक्त के लिए, तो आप देखकर विस्मित और अवाक् हो सकते हैं कि यह वह शहर नहीं जिसे आपने खो दिया था। इस तरह अपने शहर को आप एक बार फिर खो देते हैं, और फिर से अपने खो गये शहर को खोजने की यात्रा शुरू होती है। अब हम उन चिन्हों, उन सितारों, मैदानों और सूर्यास्तों को, उन कोनों-किनारों, रास्तों और पुलियों को फिर से खोजते हैं। उस उमंग, उत्साह, उत्ताप और आनंद को छू लेना चाहते हैं जो भीतर बसा और धंसा रह गया था। लगता है जैसे यह खोज अपनी किशोरावस्था की, युवा दिनों की, वनस्पतियों, तालाबों, गलियों और उन मित्रों की खोज भी है जो दरअसल बीत गये हैं और ऐसी जगह जाकर फंस गये हैं कि उनकी वापसी संभव नहीं। कई बार तो अपने शहर में रहते हुये भी आप उसे खो देते हैं और बेसाख्ता आपके मुंह से निकलता है- `अब यह शहर वैसा नहीं रहा।´ इस तरह हम अपनी ही देह, अपनी ही उम्र के गुजर जाने की सूचना भी चस्पा करते हैं।
कभी-कभी अपने शहर की अब तक अदेखी गली या किसी नयी बन रही जगह को देखकर लगता है कि अरे, इतने वर्ष हो गये, इस तरफ तो आना ही नहीं हुआ। सड़क के भीतर कुछ ध¡सकर उग आये बांस के झरमुट, शांत चट्टान या अब तक अलक्षित किसी टूटी दीवार को देखकर भी ऐसा ही भाव आता है कि अभी इस शहर के कई रंग हैं, कई रूप, जिन्हें देखना हमेशा शेष रहेगा। तकलीफें, उम्मीदें और जिज्ञासाएं आपका पीछा नहीं छोड़तीं। यह एक बहुआयामी अन्वेषण है। एक अनवरत खोज।
लेकिन हर उस शहर का, जिसमें आप फिलहाल रहते हैं और जो भले आपका न हो, एक सौंदर्य होता ही है। उसके स्थापत्य का, उसकी ह¡सी का, उसकी रातों का और उसकी सुबहों का एक मायाजाल होता है। कुछ दिन साथ रहने से उपजा आपसी प्रेम होता है। इनका सामना आप हर बार अपने कस्बे की गंध से, स्मृतियों से और छबियों से करते हैं। लेकिन ये कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं हैं। आप हर बार निहत्थे हैं। चीजें आपको लुभाती चली जाती हैं। और यह देखकर, यह जानकर कि आखिर हर बड़ा शहर अपने आप में एक `शेल्टर हाऊस´ है, आप एक बार फिर शरणार्थी होने का अनुभव करते हैं।
तब यह जीवन जैसे अपने शरीर और अपने शहर को वापस पा लेने की, पुनर्वास की आकांक्षा की, एक अशांत और आशावान दिनचर्या से भर जाता है।
जो भी हो, लेकिन अपना गांव कस्बा या शहर छोड़ देना, उसे अपने लिए एक स्थायी इतिहास बना देना सदैव ही सबसे मुश्किल काम है। और इसका कोई बहुत बड़ा, व्यावहारिक बुदिध से लबरेज, लाभ-हानिवाला कारण बताना लगभग नामुमकिन है। याद करें, `नसीम´ फिल्म में बूढ़े दादाजी, इस सवाल पर कि हम भी पाकिस्तान क्यों नहीं चले गये, अपनी पोती से कहते हैं कि `तुम्हारी दादी को यह सामने लगा नीम का पेड बहुत पसंद था, इसलिए।´ अब इस कारण को समझना बेहद आसान भी है और अत्यंत मुश्किल भी। इन्हीं वजहों से साहित्य में विस्थापन को लेकर, अपनी जगह-जमीन को लेकर महान रचनाएं संभव होती रही हैं।
दरअसल, शहर और आप, दोनों साथ-साथ विकसित होते हैं। पल्लवित होते हैं और एक साथ टूटते-फूटते हैं। कभी शहर में फूल खिलते हैं, नये पत्ते आते हैं तो आपके भीतर भी वे सब दर्ज होते हैं और जब आपके भीतर फुलवारी खिलती है तो आप देखते हैं कि शहर में भी जगह-जगह गुलमोहर फूल गया है। जब भी आप उदास होते हैं, अवसाद या दुख में होते हैं तो शहर अपनी किसी पुलिया के साथ, किसी पुराने पेड़ की छाया और उसके विशाल तने के साथ, अपने मैदान में ढलती शाम के आत्मीय अंधेरे के साथ आपके लिए उपस्थित हो जाता है। जैसे आप शहर के हर उस कोने-किनारे को जानते हैं, उन जलप्रपातों, कंदराओं और आ¡चल को जानते हैं जहा¡ जाकर एकदम किलकारी भर सकते हैं या सुबक सकते हैं। और जानते हैं कि यह शहर आपकी किसी मूर्खता, भावुकता और तकलीफ को इस तरह जगजाहिर नहीं होने देगा कि आपको शर्मिंदगी हो। यह अपना शहर है, यह आपको उबार लेगा। और मौका आने पर आज भी अपने कंधे पर बैठा लेगा। शहर की ठोकरों के निशान आपके माथे और आत्मा पर कुछ कम नहीं हैं लेकिन कुछ रसायन हैं जो तब ही बनते हैं जब आप अपने शहर में होते हैं। भीतर कुछ धातुएं हैं, घंटियां हैं, जिनका संगीत शहर में होने से ही फूटता है। जब आप अपने शहर में नहीं हैं तब भी एक तरह का संगीत, एक सिम्फनी बजती रहती है, लेकिन उसका राग कुछ अलग होता है।
आप जानते हैं कि काफी हद तक ये सब रूमानियत और भावुकता से भरी बातें हैं। यथार्थ का धरातल रोजी-रोटी है। कस्बों और छोटे शहरों का अनियोजित विकास, टूटी सड़कें, फूटी नालियां, तंग गलियां, धूल, गंदगी, जाहिली-काहिली हमारे सामने वास्तविकता के बड़े हिस्से की तरह प्रकट है। लेकिन यह भी सच्चाई है कि हर आदमी को जैसे अपना एक शरीर मिलता है, वैसे ही उसे अपना एक शहर मिलता है। जीवन में सिर्फ एक बार। लेकिन चाहते हुये भी आप हमेशा अपने शरीर में वास नहीं कर सकते। दूसरी देहों में भी आपको रहना पड़ता है। यह कायांतरण जीवन की विडंबना है, लेकिन है। इस कायांतरण में आपको तिलचट्टे की देह मिल सकती है या मुमकिन है कि आपको किसी सुंदर पक्षी या चीते की देह मिल जाये। लेकिन फिर आप हमेशा ही अपने शरीर की खोज करते हैं कि आपका पुनर्वास हो सके। आपकी हर ऊंची उड़ान, हर अकल्पनीय छलांग या वेदनापूर्वक घिसटने की नियति, त्रासदी या उल्लास जैसे अपनी उस देह को फिर से पा लेने की ही कोई कोशिश है। हर दूसरा शहर, हर दूसरा शरीर जैसे कोई अस्थायी राहत-शिविर है। सराय है। तम्बू है।
दूसरे शरीर में रहते हुये, चाहे वह कितना ही सुंदर, सुगंधित, सामथ्र्यवान क्यों न हो, एक परायेपन, अचकचाहट और प्रवासी होने का बोध बना रहता है। जैसे आप निष्कासन पर हैं। और अपनी देह कितनी ही कुरूप हो, धूल-धक्कड़ से भरी हो, चुंबनों या घावों से लबरेज हो और उसमें कितनी ही मुश्किलें बन गयी हों मगर आपको लगता है कि यहा¡ आप अजनबी नहीं हैं। आश्वस्त है कि आप इस शरीर के सारे रास्ते जान सकते हैं। सारी गलियां, धमनियां, सारे चौराहे, घाटियां, खाइयां और गूमड़। उन स्पंदनों, संवेगों और तरंगों के साथ सहज रह सकते हैं जो आपकी देह में से उठती हैं। चूंकि शरीर की तरह, शहर-गांव भी एक ही बार आपको प्राप्त होता है इसलिए छूट गये शहर से आपकी मुक्ति संभव नहीं। वह आपका था, आपका है। आप उससे दूर हैं लेकिन वह आपका है। वह नष्ट हो रहा है तब भी और उठान पर है तब भी। दोनों स्थितियों में वह आपको व्यग्र बनाता है।
जग जाहिर है कि बड़े शहरों की मुश्किलें भी बड़ी हैं। अपरिचित भीड़ से उपजा अवसाद, दो सौ परिवारों के बीच में रहने से पैदा अकेलापन, प्रदूषण के तमाम प्रकार, अनियंत्रित जनसमूह, पार्किंग, ट्रैफिकजाम, भागमभाग, थकान और यांत्रिकता। यह सूची बहुत लंबी हो सकती है। लेकिन यहीं रोशनियां हैं, आधुनिकता है, नयी आवाजें और तसवीरें हैं। वे एकांतिक क्षण संभव हैं जब अपरिचय भी वरदान है, सभ्यता के अनेक स्तर हैं, जीवंत उठापटक है और वे चबूतरे, वे रोशनदान भी हैं जहां से आप दूर तक देख सकते हैं। हर शहर, अपने आकार और संपन्नता के अनुपात में उतना ही बड़ा एक चुंबक है। वह लोहे को ही नहीं, हर उस चीज को खींचता है, जो उसके करीब से गुजरती है। मैं भी पिछले वर्षों से इसकी गिरत में हूं। बीसियों बार अपने शहर गुना का मकान बेचकर, यहां भोपाल में छोटा-सा घर लेने के उपक्रम में फंसता हूं। लेकिन ठीक उस वक्त जब सब चीजें निर्णय में जाना चाहती हैं, मैं उस खेल को जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे बिगाड़ देता हूं। अब यह खेल जैसा ही कुछ हो गया है। जैसे मैं बड़े शहरों से मुक्त होना चाहता हूं। उन्हें परास्त कर देना चाहता हूं। उनके रूप, लावण्य, गरिमा और गर्व को आहत करना चाहता हूं। उनके गुरुत्वाकर्षण के खिलाफ जाकर अपनी गुम पृथ्वी पर लौट आना चाहता हूं। यह एक जटिल खोज है, जटिल लड़ाई है। इसके अनेक मोर्चे हैं, अनगिन पहलू। मैं कभी कंदरा में छिपता हूं, कभी मैदान में आकर लड़ता हूं। लगता है कि एक दिन अपनी काया को वापस पा लू¡गा। कभी लगता है कि अब वह अलभ्य है।
और यदि कभी आपको अपना शहर वापस मिलता है, भले ही थोड़े-से वक्त के लिए, तो आप देखकर विस्मित और अवाक् हो सकते हैं कि यह वह शहर नहीं जिसे आपने खो दिया था। इस तरह अपने शहर को आप एक बार फिर खो देते हैं, और फिर से अपने खो गये शहर को खोजने की यात्रा शुरू होती है। अब हम उन चिन्हों, उन सितारों, मैदानों और सूर्यास्तों को, उन कोनों-किनारों, रास्तों और पुलियों को फिर से खोजते हैं। उस उमंग, उत्साह, उत्ताप और आनंद को छू लेना चाहते हैं जो भीतर बसा और धंसा रह गया था। लगता है जैसे यह खोज अपनी किशोरावस्था की, युवा दिनों की, वनस्पतियों, तालाबों, गलियों और उन मित्रों की खोज भी है जो दरअसल बीत गये हैं और ऐसी जगह जाकर फंस गये हैं कि उनकी वापसी संभव नहीं। कई बार तो अपने शहर में रहते हुये भी आप उसे खो देते हैं और बेसाख्ता आपके मुंह से निकलता है- `अब यह शहर वैसा नहीं रहा।´ इस तरह हम अपनी ही देह, अपनी ही उम्र के गुजर जाने की सूचना भी चस्पा करते हैं।
कभी-कभी अपने शहर की अब तक अदेखी गली या किसी नयी बन रही जगह को देखकर लगता है कि अरे, इतने वर्ष हो गये, इस तरफ तो आना ही नहीं हुआ। सड़क के भीतर कुछ ध¡सकर उग आये बांस के झरमुट, शांत चट्टान या अब तक अलक्षित किसी टूटी दीवार को देखकर भी ऐसा ही भाव आता है कि अभी इस शहर के कई रंग हैं, कई रूप, जिन्हें देखना हमेशा शेष रहेगा। तकलीफें, उम्मीदें और जिज्ञासाएं आपका पीछा नहीं छोड़तीं। यह एक बहुआयामी अन्वेषण है। एक अनवरत खोज।
लेकिन हर उस शहर का, जिसमें आप फिलहाल रहते हैं और जो भले आपका न हो, एक सौंदर्य होता ही है। उसके स्थापत्य का, उसकी ह¡सी का, उसकी रातों का और उसकी सुबहों का एक मायाजाल होता है। कुछ दिन साथ रहने से उपजा आपसी प्रेम होता है। इनका सामना आप हर बार अपने कस्बे की गंध से, स्मृतियों से और छबियों से करते हैं। लेकिन ये कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं हैं। आप हर बार निहत्थे हैं। चीजें आपको लुभाती चली जाती हैं। और यह देखकर, यह जानकर कि आखिर हर बड़ा शहर अपने आप में एक `शेल्टर हाऊस´ है, आप एक बार फिर शरणार्थी होने का अनुभव करते हैं।
तब यह जीवन जैसे अपने शरीर और अपने शहर को वापस पा लेने की, पुनर्वास की आकांक्षा की, एक अशांत और आशावान दिनचर्या से भर जाता है।
3 comments:
kai baar ham apne shahar mein ghamandee se laute hain
ghoomte hain kuchh wakt akde-akde se, shahar koi shikayat nahi karta kabhi, log badal jaate hain, par gali-kooche, udaas aur saghan raaten hamesha usee tarh intjaar karte milte hain, jaise barson pahle hum unmen udaas khushi mein doobe bhatkte rahte the, jab hu kahte hain ki ye shahar aarju ka shahar nahi raha, tab bhi shahar koi shikayat nahi karta, aur jab ham thake-toote, haare, tamam asafaltaon kee gard aur apne kahe kee sharmindgee liye lachar hote hain, shahar ka koi kona hi hamaree yadon mein hamen majbooti deta hai...senti ho raha hoon shayad
स्वागत है!
हमने तो 'मुनीर' अपनी आदत ही बना ली है
जिस शहर में भी रहना उकताए हुए रहना।
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