इस वक्त वह रसोईघर में खड़ी-खड़ी
खिड़की से देख रही है बारिश
आप उसकी गुनगुनाहट को सुन नहीं सकते
बारिश उसमें शामिल होकर
उसे एक मीठे झरने में बदल रही है
हरे पत्तों के बीच जो पक्षी दुबका बैठा है
वह उसे टुकुर टुकुर देखता
वह अब धीरे-धीरे हंस रही है
और उसके गाल पर जो तिल है
तिल नहीं,
राई का दाना है
जो बघार करते वक्त उड़कर गाल पर आ बैठा था
उसके रूख़सार पर जो तिल की तरह दिखाई देता है
दरअसल उसके पीछे एक छाला है
Tuesday, September 16, 2008
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3 comments:
रविन्द्र जी बहुत ही सुन्दर रचना है
रवीन्द्र , बहुत ही सुन्दर । तिल-सी राई रह जाए और छाला गायब हो जाए।शायद वर्षा की बूँदों की ठण्डक से?
wah !! kya baat hai!!meethaa ehsaas
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