Tuesday, September 9, 2008

वैन गॉग का एक खत


गुलजार


तारपीन तेल में कुछ घोली हुई धूप की डलियां
मैंने कैनवास में बिखेरी थीं मगर
क्या करूं लोगों को उस धूप में रंग दिखते ही नहीं!


मुझसे कहता था थियो चर्च की सर्विस कर लूं
और उस गिरजे की खिदमत में गुजारूं
मैं शबोरोज जहां-
रात को साया समझते हैं सभी,
दिन को सराबों का सफर!
उनको माद्दे की हकीकत तो नजर आती नहीं
मेरी तस्वीरों को कहते हैं, तखय्युल है
ये सब वाहमा हैं!


मेरे कैनवास पे बने पेड़ की तफसील तो देखो
मेरी तखलीक खुदाबंद के उस पेड़ से
कुछ कम तो नहीं है!
उसने तो बीज को एक हुक्म दिया था शायद,
पेड़ उस बीज की ही कोख में था,
और नुमायां भी हुआ
जब कोई टहनी झुकी, पत्ता गिरा, रंग अगर जर्द हुआ
उस मुसव्विर ने कहीं दखल दिया था,
जो हुआ, सो हुआ-


मैंने हर शाख पे, पत्तों के रंग-रूप पे मेहनत की है,
उस हकीकत को बयां करने में
जो हुस्ने हकीकत है असल में


उन दरख्तों का ये संभला हुआ कद तो देखो
कैसे खुद्दार हैं ये पेड़, मगर कोई भी मगरूर नहीं
इनको शेरों की तरह किया मैंने किया है मौजूं!
देखों तांबे की तरह कैसे दहकते हैं खिजां के पत्ते,


कोयला खदानों में झौंके हुए मजदूरों की शक्लें
लालटेनें हैं, जो शब देर तलक जलतीं रहीं
आलुअों पर जो गुजर करते हैं कुछ लोग-पोटेटो ईटर्स
एक बत्ती के तले, एक ही हाले में बंधे लगते हैं सारे!


मैंने देखा था हवा खेतों से जब भाग रही थी
अपने कैनवास पे उसे रोक लिया-
रोलां वह चिट्ठीरसां
और वो स्कूल में पढ़ता लड़का
जर्द खातुन पड़ोसन थी मेरी-
फानी लोगों को तगय्यर से बचा कर उन्हें
कैनवास पे तवारीख की उम्रें दी हैं!


सालहा साल ये तस्वीरें बनाई मैंने
मेरे नक्काद मगर बोल नहीं-
उनकी खामोशी खटकती थी मेरे कानों में,
उस पे तस्वीर बनाते हुए इक कव्वे की वह चीख-पुकार
कव्वा खिड़की पे नहीं, सीधा मेरे कान पे आ बैठता था,
कान ही काट दिया है मैंने!


मेरे पैलेट पे रखी धूप तो अब सूख चुकी है,
तारपीन तेल में जो घोला था सूरज मैंने,
आसमां उसका बिछाने के लिए-
चंद बालिश्त का कैनवास भी मेरे पास नहीं है!


मैं यहां रेमी में हूं
सेंटरेमी के दवाखाने में थोड़ी-सी
मरम्मत के लिए भर्ती हुआ हूं!
उनका कहना है कई पुर्जे मेरे जहन के अब ठीक नहीं हैं-
मुझे लगता है वो पहले से सवातेज हैं अब!
(गॉग की ख्यात पेंटिंग Tree and Man (in front of the Asylum of Saint-Paul, St. Rémy )

19 comments:

Prabhakar Pandey said...

उनका कहना है कई पुर्जे मेरे जहन के अब ठीक नहीं हैं-
मुझे लगता है वो पहले से सवातेज हैं अब!

सुंदरतम। यह गद्यगीत भी पेंटिग की यथार्थता को चरितार्थ कर रहा है।
साधुवाद स्वीकारें। नमस्कार।

रंजू भाटिया said...

सुंदर कविता ....पूर्ण करता आपका यह चित्र

कामोद Kaamod said...

बहुत सुन्दर शब्दों में चित्र से कविता को बान्धा हि आपने.
साधुवाद

अफ़लातून said...

कृपया रंजनाजी को बतायें कि 'आपका यह चित्र' नहीं है । जिनका है उनके बारे में

cartoonist ABHISHEK said...

कैसे खुद्दार हैं ये पेड़, मगर कोई भी मगरूर नहीं
BADHAI... BHAI RAVINDRA JI

Ashok Pande said...

उस्ताद विन्सेन्ट वान गॉग को नमन!

आपकी कविता में बहुत सारे परिचित नामों-पात्रों का इस आत्मीयता से आना अद्भुत है.

जय हो दादा.

रंजू भाटिया said...

जी हाँ पढ़ा था .कि यह चित्र इनका नही हैं ..पर कॉमेंट्स देने में आपके द्वारा पोस्ट किया हुआ लिखना था ..कुछ गड़बड़ हो गई लफ्जों की .माफ़ी इस के लिए ..बताने के लिए शुक्रिया

MANVINDER BHIMBER said...

आपने बहुत अच्छा लिखा है....इसमे सच्चाई भी है...

pallavi trivedi said...

bahut badhiya painting hai aur kavita bhi utni hi shaandar...

संगीता पुरी said...

बहुत ही अच्छा लिखा है।

sanjay patel said...
This comment has been removed by the author.
sanjay patel said...

रवीन्द्र भैया,
छोड़ो यार पत्रकारिता और कूद पड़ो पूरी तरह से पैंटिंग्स और लेखन की दुनिया में.
समय आपकी प्रतीक्षा करता सा दीखता है. ब्लॉग की दुनिया आपके लिये बहुत
छोटी है दादा...निकल आओ ...थोड़ी रिस्क है ज़रूर लेकिन यदि जैसा चल रहा
है वैसा ही रहा तो दुनिया एक लगनशील,पराक्रमी,निष्ठावान,संजीदा लेखक और चित्रकार
से वंचित हो जाएगी.मैं तो ज्योतिष नहीं जानता लेकिन आपके शब्दों और चित्रों से आती ख़ुशबू
मुझे काफ़ी कुछ कह जाती है...बहुत सी आहट दे जाती है...किसी को दिखा दो न
आपकी जनम पत्रिका ..बाँच कर कोई बता दे आपको कि जो कह रहा हूँ मैं
वह एकदम खरा है...

शायदा said...

मेरे पैलेट पे रखी धूप तो अब सूख चुकी है,
तारपीन तेल में जो घोला था सूरज मैंने,
आसमां उसका बिछाने के लिए-
चंद बालिश्त का कैनवास भी मेरे पास नहीं है!

रवींद्र जी आपकी प्रस्‍तुति हमेशा अलग होती है। इस बार भी बहुत अच्‍छी। बोल, रंग बात सब बढि़या। पेंटिंग तो कमाल है ही।

Arun Aditya said...

संजय पटेल जी की बात से सौ फीसदी सहमत। लेकिन पत्रिकारिता में भी तुम जैसे गिने व्हुने लोगों का बने रहना बहुत बहुत जरूरी है.

Unknown said...

ईश्वर से मुकाबिल एक सर्जक का आत्मविश्वास। बधाई।

Kirtish Bhatt said...

बेहतरीन
मन कर रहा है संजय पटेल जी की टिपण्णी कॉपी - पेस्ट कर दूँ
पर में अपनी ओर से कुछ कहना चाहता हूँ कि - " संजयजी की बात पर ध्यान दीजियेगा".

पारुल "पुखराज" said...

us din padhney me kuch khalal thaa so ruk gayi/aaj vapas aa kar puuri padhi/bahut kuch hai ismey...kya kya ginaya jaaye!!!! aabhaar

Deepak Tyagi said...

इस कविता में सवातेज का अर्थ बताईएगा.. बहुत खोजने पर भी नहीं मिला..!!

Deepak Tyagi said...

इस कविता में सवातेज का अर्थ बताईएगा.. बहुत खोजने पर भी नहीं मिला..!!