आज सुबह से बारिश विलंबित खयाल में थी। कभी द्रुत भी लेकिन देर तक विलंबित।
बादल एक लय में तैर रहे हैं। पानी से भरे हुए। जहां मन होता है, बसरते हैं।
पेड़ एक पैर पर खड़े होकर नाचते हैं। एक पेड़ किसी खयाल में खड़ा भीग रहा है। चुपचाप। लगता है, किसी इंतजार में है। कोई उसे छोड़कर चला गया है।
उसकी स्मृति में पंखों की फड़फड़ाहट है।
पेड़ के सीने में एक लड़की की हिचकियां हैं जो कभी उससे पीठ टिकाए बैठी थी। पेड़ ने एक बजुर्ग के हांफने की आवाज को थाम रखा है। वह धीरे-धीरे हिलता हुए हवा करता था ताकि उसके नीचे खड़े आदमी का पसीना सूख सके। उसके पीछे हमेशा कोई न कोई छिप जाता था।
वह पेड़ अपने बदन पर किसी अंगुलियों के पोरों से लिखे नाम को अब भी तितली की तरह महसूस करता है। उसकी पत्तियों पर उन प्रेमियों की फुसफुसहट पानी की बूंदों की तरह अब भी ताजा हैं जो पहाड पर दौड़कर चढ़े और कुछ देर के लिए अोझल हो गए थे। वे लौटे तो उन्होंने पहाड़ को अपने चेहरे के साथ नदी की देह पर हिलते हुए देखा था। नदी का वह हरा पानी अब भी हिल रहा है।
वह पेड़ अब भी अपने में कुछ फूल छिपाए बैठा है। वह जानता है एक बूढ़ी आएगी और उसकी डाल को नीचा कर कुछ फूल अपनी झोली में ले जाएगी।
वह बूढ़ी विदा ले चुकी है और बारिश में उस पेड़ के फूल टूटकर झरते रहते हैं। वह झरते हुए फूलों को देखकर इस बात से बेखबर है कि वह बूढ़ी अब कभी उसके पास नहीं लौटेगी। ध्यान से सुनें तो आपको इस पेड़ के सुबकने की आवाज भी सुनाई देगी।
अब वह बहुत सारी स्मृतियों को धारे बारिश में खड़ा है। चुपचाप। भीगता हुआ।
बहुत सारे लोग उससे विदा ले चुके हैं। वह अकेला खड़ा है।
ये बारिश पीछा नहीं छोड़ती। बारिश में बारिश कभी अकेली नहीं आती। दूसरी बारिशों की बारिश भी साथ लेकर आती है। किसी न किसी बारिश में कोई न कोई उससे विदा लेता रहा है। वह भी बारिश का कोई एक दिन था, जब कोई उससे विदा ले चुका था।
वह भी एक दिन इसी मौसम में सबसे विदा लेगा। वह ऐसा सोचता है तो एक डाली कांपने लगती है। नदी की देह पर पहाड़ कांपता है। पहाड़ के सीने में वे पत्थर कांपते हैं, जिसमें हरी नदी का संगीत अब भी गुनगुनाता है।
जब अंतिम विदा की बेला आएगी
तब बारिश हो रही होगी
बारिश उसके सिरहाने टहलने आएगी और
उसे अविचल पड़ा देख कुछ देर थमेगी
दूर जाकर उस पहाड़ के पीछे गुम होना चाहेगी
लेकिन अचानक पलटकर तेज बरसती हुई
उसी पेड़ में छिपने की कोशिश करेगी
उस झुरमुट में अब भी कुछ सफेद फूल होंगे
बारिश की मार झेलते हुए
उस बूढ़ी की प्रतीक्षा में भीगते हुए चुपचाप।
Saturday, August 16, 2008
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11 comments:
एक रूहानी एहसास.. उपर वाली पैंटिंग की तरह ही खूबसूरत .. कितने सारे ज़ज्बात बाँध दिए आपने इस एक पोस्ट में.. बहुत बहुत बधाई
वह ऐसा सोचता है तो एक डाली कांपने लगती है। नदी की देह पर पहाड़ कांपता है। पहाड़ के सीने में वे पत्थर कांपते हैं, जिसमें हरी नदी का संगीत अब भी गुनगुनाता है।
bahut sundar kriti...itne hare shabd padhkar tabiyat khush ho gai...yh hara barkaraar rhe...aapke lekhan-pathan se hamlogon ko aswashti milti hai...painting ka to main mureed hun hi...saubhagy se kuch mere paas bhi hai yh...shubhkamnayen...
उम्दा प्रवाहमान गद्य. हरे का शब्दचित्र पेन्टिंग का ही अहसास कराता है. सुन्दर!
अरे वाह ! आप तो शानदार गद्य गीतकार हैं। दागिस्तानी कवि रसूल गम्जातोव का मेरा दागिस्तान याद आ गया।
सही कहा-बारिशों में बारिश अकेले नहीं आती....। सुंदर लेखन। पेंटिंग्स भी देख आए आपकी।
तय करना मुश्किल है कि पेण्टिंग सुन्दर है या आपका गद्य गीत ।
मन हरा हो गया ।
oh..gazab ..kitna kuch ek saath..bahut acchhey.
" हरा रँग" हर तरफ छा कर आँखोँ को सुकून दे रहा है रविन्द्र जी को बधाई ये आलेख भी बढिया हैँ ~~
- लावण्या
हरा-भरा, भूरा? ....फिर कोई छोटा बच्चा/ बच्ची बारिश के जने फूल लेने तो आएगा/ आएगी - है न [ :-)] - साभार मनीष
अद्भुत । मान गए रवीन्द्र, तुम रंगों से ही नहीं शब्दों से भी पेंटिंग करते हो। भीतर तक भिगो दिया। अनंत शुभकामनाएं।
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