
मैं जब भी मां के बारे में सोचता हूं मुझे मटके में ताजा पानी भरने की आवाज सुनाई देती है।
उसकी उम्र उसकी झुर्रियों से ज्यादा उन बर्तनों की खनखनाहट में थी जिसे वह सालों से मांजती चली आ रही थी। भरे-पूरे परिवार के लोगों के कपड़ों के रंग उड़ चुके रेशों में उसकी उम्र धुंधला चुकी थी। कपड़ों को लगातार रगड़ती-धोती वह उठती तो अपने घुटनों पर हाथ धरकर उठती । एक हलकी सी टसक के साथ।
हम भाई-बहन जब सुबह सो कर उठते तब तक सबके झकाझक धुले कपड़े तार पर सूख रहे होते। पटली पर रखे बर्तन चमाचम चमक रहे होते। सिगड़ी पर दाल उकल रही होती और परात में आटा गूंथा हुआ रखा है।
मटके में ताजा पानी भरा हुआ है।
मां जब भी उठती अपने घुटनों पर हाथ रखती हुई उठती। उसके घुटनों से हलकी सी आवाज निकलती और वहीं दम तोड़ देती। कई बार ऐसा होता कि आटा गूंथा हुआ रखा होता तो मां की उंगलियों के निशान गूंथे आटे पर छूट जाते।
मां घर में इतना मर खप गई थी कि कुल मिलाकर उसके चेहरे की झुर्रियों और अंदर धंस चुकी आंखों में हमसे लगी उम्मीदें बाकी रह गईं थीं। पिता इतने चुप रहते कि उनकी चुप्पी में उनका दुःख बजता रहता। वे अकसर चुप रहते और कोई न कोई दुःख उनके कंधे पर बैठा रहता। किसी पालतू पक्षी की तरह। वह पक्षी अजर-अमर था। पिता को अपना दुःख दिखाई नहीं देता और मां का दुःख उनसे देखा नहीं जाता।
हमारा घर मेनरोड पर था। मकानों की दीवारें बदरंग थीं। कहीं कहीं काली-भूरी। कच्चे मकान धूप में चमकते हुए और भी बदरंग दीखते। मेनरोड से आने-जाने वाले वाहनों से निकलता धुंआ और उड़ती हुई धूल मकानों की दीवारों पर चिपकती रहतीं।
यही नहीं, धूल और धुंआ उड़ता हुआ रसोई घर तक आ जाता । घरों में रहती तमाम चीजों पर यह धूल-धुंआ बैठ जाता। रजाई, गादी, कम्बलों और दरियों पर यह धूल-धुआं जमता रहता। रात को बिस्तर बिछाने से पहले मां दरी, रजाई गादी और कम्बलों को खूब झटकारती। यह धूल-धुआं झरता और फिर थोड़ी देर हवा में रूककर वापस जम जाता।
मां जब भी कचरा बुहारती, मैं मां को बहुत ध्यान से देखता। मां मुझे देखती और धीरे से हंसने लगती। कहती इस घर में जगह जगह दुःख बिखरे पड़े हैं। मैं पूछता कहां हैं दुःख। तो मां दीवारों पर धीरे-धीरे हाथ फेरती। दीवारों से झरती धूल को देखती। टूटे कप-बशी के टुकड़ों, पिता के कुरते के टूटे बटनों, सुई, हमारे पेम के टुकड़ों और कपड़े से बने फटे बिस्तों, फटी कॉपी-किताबों को देखती रहती।
मैं मां को कचरा बुहारते अकसर देखा करता। मां बहुत धीरे-धीरे कचरा बुहारती। लगाव और प्रेम के साथ। कभी कभी रूककर धूल या कचरे में पड़ी चीजों को ध्यान से देखती। कचरे में कभी उसे ब्लैड मिलती, कभी सुई, बटन या स्टोव की पिन। कभी धागे का कोई टुकड़ा। वह उन्हें निकालती और सावधानी से किसी कोने या आलिये में रख देती।
हम सुबह उठते तो हमेशा देखते कि मां चाय बनाने के साथ ही खाना बनाने की तैयारी भी कर रही है। एक सिगड़ी और एक स्टोव था और उसी पर सब काम होता था। चाय भी उसी पर बनती, नहाने का पानी भी उसी पर गर्म होता और दाल-भात भी उसी पर बनते। चाय के साथ खाना बनाने की जल्दबाजी में कई बार चाय ढुलती और उसके हाथ झुलस जाते। वह तुरंत हाथ पानी में डाल देती। कभी कभी कपबशी हाथ से छूटकर टूटते-फूटते।
सुबह की हड़बड़ाहट और जल्दबाजी में वह बड़बड़ाती। बड़बड़ाने के साथ उसका काम करना रूकता नहीं। हाथ पर हाथ धरे वह बैठी नहीं रहती। और न कभी सिर पक़ड़ कर बैठ जाती। उसका बड़बड़ाना स्टोव की आवाज में मिल जाता।
मां की बडबड़ाहट और स्टोव की आवाज मिल जाने से घर में अजीब सी आवाजें गूंजती। पिता इस आवाज को सुनते और चुप रहते। मां की आवाज स्टोव की आवाज की तरह थी। कभी तेज, कभी धीमी, और कभी लगभग बंद होती हुई। अंत में जैसे स्टोव बंद हो जाने की एक लंबी सीटी की आवाज निकलती, वैसी ही मां की रूलाई फूटती। पहले धीरे, फिर तेज और फिर धीरे होती हुई अचानक बंद ।
स्टोव की हवा बार-बार निकल जाती। वह बार-बार भरती। हवा भरने के बाद भी स्टोव की लौ ठीक तरह से जलती नहीं। वह पिन ढूंढ़ती। ताकि स्टोव की लौ तेज हो सके। पिन न मिलने पर उसकी चिड़चिड़ाहट बढ़ जाती। वह बहुत देर तक चिढ़ती रहती। हमें डांटती और कहती कि इस स्टोव को ठीक क्यों नहीं करा लाते।
दूसरे कमरे के एक कोने में पिता पूजा कर रहे होते। वे एक-एक भगवान की मूर्तियों को तरभाणे में रखते। पहले पानी से अभिषेक करते, फिर दूध से और फिर पानी से। मूर्तियों को पोंछकर यथा स्थान रखते। अष्टगंध निकालकर चंदन के साथ घीसते। मूर्तियों को चंदन लगाते। अक्षत चढ़ाते। फूल की पंखुरियां लगाते। अगरबत्ती लगाते। असली घी का दीपक लगाना नहीं भूलते। दही, दूध, शहद, घी और शकर से पंचामृत बनाते। फिर मंत्रोच्चार करते। फिर आरती होती। कर्पूर जलाया जाता। पुष्पांजलि के बाद आरती ली जाती। पंचामृत देते और प्रसाद बांटते।
जितनी देर में पिता पूजा करते उतनी देर में मां हमें नहला-धुलाकर खाना भी तैयार कर देती। पिता चिल्लाते, नैवेद्य ला। मां थाली परोसकर पिता को नैवेद्य लगाने के लिए देती। पिता तुलसी पत्र तोड़ते, पानी से धोते और भात पर रखकर नैवेद्य लगाते।
कई बार ऐसा होता कि मां को खाना बनाने में देर हो जाती और उसका बड़बड़ाना भी शुरू हो जाता। कभी उसे पिन नहीं मिलती, कभी घासलेट खत्म हो जाता। कभी कोयले नहीं तो कभी लकड़ी नहीं सुलगती।
कभी कभी ऐसा होता कि मां की बड़बड़ाहट और पिता के मंत्रोच्चार मिल जाते। इससे घर में अजीब सी आवाज पैदा होती। ये आवाजें अजब ढंग से गड्ड-मड्ड हो जातीं।
मुझे लगता, मानो मां तो मंत्रोच्चार कर रही है और पिता बड़बड़ा रहे हैं!
इमेज ः
अफ्रीकन चित्रकार बोबास की कलाकृति हार्ड वर्किंग वुमन।
18 comments:
baanch kar anand mila
badhaai 1
बहुत ही सुन्दर.
में पढता गया और इसे अपने घर से जोड़ता गया. एक लाइन या एक शब्द भी ऐसा नहीं निकला जो मुझे अपरिचित सा लगा हो.
वाकई बहुत सुन्दर.
्सुंदर गद्य है। बहुआयामी।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.बाँधकर रखा अंत तक.
बहुत अच्छा लिखा है।
चित्रकार जब लाइफ स्कैच बनाते हैँ तब कई रँग भर देते हैँ केन्वस मेँ और हम देखते रह जाते हैँ
- लावण्या
पिताओं की वैदिक ऋचाओं से होड़ लेता माँओं का अपना गृह्य- सूत्र.
घर की हर ध्वनी और मौन को स्वर देता गद्य.
अलबेलाजी बहुत बहुत शुक्रिया। कीर्तीष, आपकी प्रतिक्रिया मार्मिक है। शायद कविता कहानी इसी तरह चरितार्थ होती है कि वह अपनी होकर सबकी हो जाती है। विजयभाई आपकी कहानी पसंद आई आभार। उड़नतश्तरीजी आपकी प्रतिक्रिया उत्साहित करती है। बालीजी और लावण्या जी गहरे से आभार। संजयभाई बहुत बहुत शुक्रिया।
स्टोव था ही अबी खयालों मे, लेकिन ये पिन गुम गई थी आज आपके कहते ही फिर आ गई ज़ेहन में..!
मुझे लगता, मानो मां तो मंत्रोच्चार कर रही है और पिता बड़बड़ा रहे हैं!
अद्भुत अंदाज है आपका बातो को कहने का..!
तुम अपने को यों ही गर्क मत करो।
कहानियां लिखो।
यह फास्ट फूड स्वादिष्ट है, आकर्षक है, आनंददायी है लेकिन तुम पूरी रसोई बना सकते हो। यकीन करो।
तुम्हें कैसे समझाऊं। शायद यह आखिरी कोशिश है।
अंबुजजी, ये लिखी जा चुकी चीजें हैं। इसलिए पोस्ट कर दी हैं। मैं जानता हूं कि मैं रसोई बना सकता हूं। अब मैं कुछ नई कहानियां लिख रहा हूं। आप यकीन करिये, आपकी राय मेरे लिए बहुत मायने रखती है। आप शायद भूल गए होंगे कि मैंने आपके और विवेक के कहने पर ही अपनी एक बाईस पेज की कहानी के बीस पन्ने फाड़ दिए थे।
मैं फिर से जुटा हूं।
बहुत सुंदर गद्य में लिखा गया अदभूत संस्मरण !!
रविन्द्र जी
आप जिस तरह का गद्य लिखतें हैं उसमें बहुत संभावना दिखती है। आपके गद्य से बहुत सुकून मिलता है। प्रेमचंद के अलावा हिन्दी में तो मैं नहीं कह सकता लेकिन हिन्देतर गद्य में आस्कर वाइल्ड, चेखव और हेमिंग्वें की तरह का गद्य लिखने की संभावना आप में साफ दिखती है। गद्य के छोटे-छोटे टुकड़ो से बड़ी बात बुनने में आप सक्षम है। जरूरी नहीं कि सैकड़ों कहानियाँ लिखीं जाएं। ऐसे किसी दबाव को दरकिनार कर कम से कम एक “उसने कहा था“ लिख लेना भी उपलब्धि है।
आप की कहानी का मुझे बेसब्री से इंतजार रहेगा। ऐसी कहानी का जिसमें कहानीपन हो। ऐसी कहानी जो हौले-हौले अंदर उतरे। ऐसी कहानी जिसमें हमीद और उसका चिमटा हीरो हों !! ऐसी कहानी जो बूढ़े भगत के मंत्र जैसी हो !!
ऐसी कहानी जो पाठक बनाए। ऐसी कहानी जो हिन्दी गद्य को लोकप्रिय बनाए।
आप कि भाषा को गैर-जरूरी आत्म-ग्रस्तता और आत्म-दया से उपजे रहस्यवादी उलझाव का घुन न लगे तो आप बहुत पढ़ जाएंगे।
प्रिय रंगनाथ
आपकी प्रतिक्रिया पढ़कर थोड़ा सा भावुक हो गया। मैं इसी तरह की कहानियां लिखना चाहता हूं। लेकिन कई बार समय इतना कम बचता है कि वह संभव नहीं हो पाता और फिर इतना सारी चीजों में दिलचस्पी है कि क्या कहूं। हालांकि मैं यह भी जानता हूं कि जो लिखना चाहते हैं वे इस तरह का एक्सक्यूज नहीं देते। फिर भी मैं कोशिश करूंगा कि लगातार कहानियां लिखता चलूं। आप बहुत ही जल्द हरा कोना पर मेरी एक अन्य कहानी रूई के फाहे जल्द ही पढ़ सकेंगे।
हिंदी में आप जैसे सहृदय पाठक मिलना सुखद
बहुत गहरे आभार के साथ।
Ravindraji,
Bahut achchha, swaabhaavik aur saral likhte hain aap. Ek adrashya roomaanee sansaar jise ham yaheen kaheen jeete hain, aapkee rachnaa men aankhen kholtaa hai . likhte rahiye. intezaar rahegaa.
बहुत खुब सर. रुई के फूए मैने हिदी सहित्य समिति मे लाइव सुनी थी. बाकी कहानिया भी दिल मे उतरने वाली है. मज़ा आ गया.
लाजवाब! माँ से ही हैं ये घर परिवार!
बेहतरीन ...आखिरी पंक्तिओं ने मुस्कान ला दी मुखरे पर..
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