Saturday, November 29, 2008

रुदन जो पहुंचता है ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक


मुंबई में आतंकवादी हमले के घेरे में डेढ़ सौ से ज्यादा लोगों के मरने की खबरें और इस घेरे में घायलों की गूँजती चीखें इस घेरे का व्यास और मारकता ज्यादा बढ़ाती हैं। इस पागलपन का असर कहाँ तक गया है, इसका अंदाजा शायद राजनीतिज्ञों, अर्थशास्त्रियो, समाजशास्त्रियों, पुलिस और कानून के विशेषज्ञों द्वारा अलग अलग लगाया जाएगा और इनकी राय, विश्लेषण और इससे निकलने वाले विचार महत्वपूर्ण माने जाएँगे लेकिन इस तरह की घटनाओं और पागलपन को एक कवि की निगाह बिलकुल भिन्न तरह से देखती-दिखाती है। एक कवि अपने समय की बड़ी घटनाओं और चीखों-चीत्कारों का ज्यादा मानवीय और मानीखेज ढंग से बखान करता है।

इजराइल के महान कवि येहूदा अमीखाई की एक कविता बम का व्यास इस तरह की हिंसा भरी घटनाओं की दूर तक फैली हद में आए लोगों के दुःख को अपनी नैतिक संवेदना के साथ इतनी मारकता से अभिव्यक्त करती हैं कि आप गहरे विचलित हो जाते हैं। येहूदा अमीखाई अपनी कविता में अचूक दृष्टि और गहरी मानवीय प्रतिबद्धता से अपने समय की हलचलों को इस तरह छूते हैं कि वह अपनी तमाम स्थानीयता और भौगोलिकता को पार करते हुए एक सार्वभौमिक सत्य को उद्घाटित करती है। हिंसा, युद्ध और आतंक तथा अपने समय की सचाइयों को उन्होंने बिना चीखे-चिल्लाए अपने संयत रचनात्मक कौशल से अभिव्यक्त किया। इसकी मार्मिकता हमें गहरे तक विचलित करती है। उनकी इस कविता बम का व्यास में जो सच और मर्म है वह अपनी नैतिक संवेदना में थरथराता हुआ तमाम तरह की हिंसा के खिलाफ एक तीखा प्रतिरोधी स्वर बन जाता है। कविता इन पंक्तियों से शुरू होती है-

तीस सेन्टीमीटर था बम का व्यास

और इसका प्रभाव पड़ता था सात मीटर तक

चार लोग मारे गए, ग्यारह घायल हुए

शुरूआत की इन तीन पंक्तियों में कुछ सूचनाएँ हैं। ये सूचनाएँ लगभग खबर के अंदाज में हैं। इसमें एक तरह का भावनात्मक सूखापन साफ लक्षित किया जा सकता है क्योंकि इनमें आंकड़े हैं और इन पर अपनी तरफ से कोई टिप्पणी करने की कोशिश नहीं की गई है। चौथी और पाँचवी पंक्ति में भी सूचना है लेकिन यहां संवेदना का स्पर्श है। दो अस्पताल और एक कब्रिस्तान के तबाह होने की बात है लेकिन कवि की निगाह यह बताने से नहीं चूकती कि इनके चारों तरफ एक बड़ा घेरा है दर्द और समय का। इनके चारों तरफ़ एक और बड़ा घेरा है - दर्द और समय का

दो हस्पताल और एक कब्रिस्तान तबाह हुए

इस तरह की घटना को कवि की निगाह किस तरह देखती है इसकी काव्यात्मक मिसाल काबिले गौर है लेकिन वह जवान औरत जिसे दफ़नाया गया शहर में

वह रहनेवाली थी सौ किलोमीटर से आगे कहीं की

वह बना देती है घेरे को और बड़ा

इन पंक्तियों में सौ किलोमीटर आगे रहने वाली एक जवान औरत को दफनाने की सूचना धीरे-धीरे काव्य संवेदना में थरथराती हुई इस घेरे को और बड़ा बनाती जा रही है। जाहिर है जिस बम का व्यास तीन सेंटीमीटर था वह अब कवि की निगाह से लगातार फैलता जा रहा है। कविता यही करती है। वह अपनी तरलता और संवेदना में एक बड़े सच को, उसमें छिपे मर्म को इसी तरह व्यक्त करती है। अब यह घेरा और बड़ा हो रहा है क्योंकि जिस बम से मरी औरत का आदमी सुदूर किनारों पर उसका शोक कर रहा है जो समूचे संसार को इस घेरे में ले रहा है।

और वह अकेला शख़्स जो समुन्दर पार

किसी देश के सुदूर किनारों पर

उसकी मृत्यु का शोक कर रहा था

समूचे संसार को ले लेता है इस घेरे में

कहा जाता है कि हिंसा का शिकार सबसे ज्यादा महिलाएँ और बच्चे होते हैं। यदि हम आँकड़ें और उन तमाम खबरों को यहाँ न भी दें तो यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि हिंसा की मार कहाँ-कहाँ और किस-किस तरह महिलाओं और बच्चों पर पड़ती है। कवि अपनी आखिरी पंक्तियों में जो सच बताने जा रहा है वह इस कविता को कितना बड़ा बना देता है, इस बम के व्यास के घेरे को कितना फैला देता है, इन पंक्तियों को पढ़िए-

और अनाथ बच्चों के उस रुदन का तो मैं

ज़िक्र तक नहीं करूँगा

जो पहुँचता है ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक

और उससे भी आगे

और जो एक घेरा बनाता है बिना अन्त

और बिना ईश्वर का ...

जैसा कि इस टिप्पणी में पहले कहा गया है कि एक कवि की निगाह इस घटना को कितनी गहरी संवेदना के जल में थरथराते हुए देखते-दिखाती है कि हम गहरे विचलित हो जाते हैं। इस बम विस्फोट में कवि उन अनाथ बच्चों के रूदन का जिक्र नहीं करना चाहता जो ऊपर ईश्वर के सिंहासन तक और उससे भी आगे चला गया है। यह रूदन ही वह घेरा बनाता है अंत का और बिना ईश्वर का। कहने की जरूरत नहीं कि एक कवि ही वह अनसुना रूदन सुना सकता है जिससे हमारी आत्मा तक सिहर जाती है। सचमुच एक कवि हमारे सामने कितना बड़ा और बारीक मर्म उद्घाटित कर रहा है जिसमें अनाथ बच्चों के रूदन का अंतहीन और बिना ईश्वर का घेरा है। इस कविता की सबसे बड़ी ताकत यह है कि यह कविता अपने को भावुकता से बचाती हुई उस नैतिक संवेदना से बनी है जो तमाम हिंसा के खिलाफ एक प्रतिरोध है।


कविता का अनुवाद ः अशोक पांडे
पेंटिंग ः रवीन्द्र व्यास

(यह वेबदुनिया के लिए लिखे जा रहे साप्ताहिक कॉलम संगत की एक कड़ी है। मैं इसे मुंबई में आतंकी हमले में मारे गए इंदौर के युवा इंजीनियर गौरव जैन को समर्पित करता हूं।)

Saturday, November 15, 2008

इति जैसा शब्द



हेमन्त शेष की कविता


नर्म और सुगंधमयी कोंपलों की तरह
फूट आती हैं नीली
कांपती हुई इच्छाएं
अनसुने दृश्यों और अनदेखी आवाज़ों के स्वागत में
प्रेम खोल देता है आत्मा की बंद खिड़की


वहां बिलकुल शब्दहीन
अोस से भरी हवाएं प्रवेश कर सकती हैं


देह की दीर्घा की हर चीज़
भीगी और मृदुल जान पड़ती है


बेचैन हाथों से
मृत्यु और काल का प्राचीन फाटक खोलकर
पूरी पृथ्वी पर बचे दो लोग आचमन के लिए
अलौकिक रोशनी से भरे तालाब की तरफ़ आते हैं


भय और आशंका की असंख्य लहरें गड्‍डमड्ड कर देती हैं स्पर्शों के बिम्ब


सिर्फ़ रात के आकाश की कलाई पर गुदा हुआ मिलता है
स्थायी हरा चंद्रमा
जिसके हर गुलाबी पत्थर पर लिखा वे
एक-दूसरे का नाम देखते हैं


वहां से झीने आलोक में डूब दिन उन्हें
जहाज़ों की तरह तैरते नज़र आते हैं
अनन्त दूरियां और विस्तारों तक जिन्हें ले जाते हैं आकांक्षा के पंख


शरीर में जागे हुए करोड़ों फूलों और
कुहरे में झिलमिलाते हुए जुगनूअों जैसी
मौलिक लिपि में
प्रेमीगण बार-बार लिखते हैं
संसार की सबसे प्राचीन त्रासद पटकथा


वे जिसकी बस
कांपती हुई नीली शुरूआत जानते हैं


इति जैसा कोई शब्द
प्रेम के शब्दकोश में नहीं होता।

(कवि के प्रति गहरा आभार प्रकट करते हुए और इस कविता के साथ अपनी पेंटिंग लगाकर कृतज्ञ महसूस करते हुए)

Tuesday, November 11, 2008

एक बार तुमसे प्रेम कहूंगा



एक बार खिलता फूल कहूंगा
एक बार जिगर में अंगारा
एक बार गहराती रात कहूंगा
एक बार झिलमिल तारा


एक बार जागा सपना कहूंगा
एक बार हाथ में लकीर
एक बार धूनी रमाता कहूंगा
एक बार गाता फकीर


एक बार दर दर भटका कहूंगा
एक बार मिला कमंडल
एक बार ये है चिमटा कहूंगा
एक बार अलख निरंजन


एक बार तुमसे प्रेम कहूंगा
एक बार टपका आंसू
एक बार पहाड़ काटूंगा कहूंगा
एक बार नदी में झांकूं


पेंटिंग ः मार्क शागाल

Saturday, November 8, 2008

बारिश की आवाज़ (अंतिम किस्त)


अचानक बारिश तेज होने लगती है लेकिन मैं बारिश की परवाह किए बिना धीरे-धीरे चलने लगता हूं। मैं देखता हूं लोग भागते हैं और सिर छिपाने की जगह ढूंढ लेते हैं। कोई चाय के टपरे के नीचे या घने पेड़ के नीचे शरण लेता है। कोई आड़ ढूंढ़ लेता है, कोई छाते के नीचे बुला लेता है और दोस्त की तरह कंधे पर हाथ ऱखकर धीरे से मुस्करा देता है। एक मां अपने बच्चे को आंचल से ढांक लेती है और बच्चा टुकुर-टुकुर बौछारों को देखते रहता है। कुछ युवा हैं जो उम्र की इस दहलीज पर खड़े बारिश को मनमानी करने देते हैं। एक लड़की खिड़की में बैठी बारिश को देख रही है। बारिश के इस संगीत में उसके होठों पर कोई गीत है जिसे वह बारिश की लय के साथ गुनगुना रही है। हो सकता है, उसकी स्मृति में पहले चुम्बन की बारिश हो और उसी चुम्बन की मिठास में वह गुनगुना रही हो।
कुछ स्त्रियां फैक्टरी से निकली हैं और बारिश में अपने आप सिमट जाती हैं। जैसे यह सिमटना उन्हें बारिश में भीगने से बचा लेगा। वे भागने लगती हैं तो उनकी सांवली और ठोस पिंडलियां श्रम की आभा में चमकती हैं। वे पोलिथिन की थैलियों निकालती हैं और अपने सिरों में फंसा लेती हैं। भीड़ में अपना पल्लू संभालती हैं और चौकस निगाहों से तेजी से चलने लगती हैं।
उधर फुटपाथ पर एक भिखारी बारिश में अपने घर को संभालता है। अपना कम्बल और बची-खुची रोटी बचाता है। बस स्टॉप के शेड में वह अपना फटा कुरता झटकारता है और आसमान की अोर मुंह उठाकर बड़बड़ाता है। उसकी बड़बड़ाहट को अनसुना करते हुए लोग तितर-बितर भाग रहे हैं।
मंदिरों में दर्शनार्थियों की भीड़ है। मंदिर के सामने जूते-चप्पलों का अंबार लगा है और चारों तरफ मंदिर की घंटियों की आवाज गूंज रही है। दर्शनार्थी घंटी बजाते हैं तो सूखी रोटियां चबाते हुए भिखारी सिर उठाकर थोड़ी देर मंदिर की तरफ देखता है और फिर सिर झुकाकर रोटियां चबाने लगता है।
मैं पूरा तर-बतर हो चुका हूं औऱ मेरे जूतों में पानी भर चुका है। घर पहुंच कर जूते उतारता हूं तो पिता के जूतों से निकलते गंदले पानी की आवाज गूंजती है। मैं सिर पोंछता हूं और मेरी कनपटी पर पानी की बूंदें थोड़ी देर ठहरकर फिसलने लगती हैं। मैं जेब से दोस्तों के गीले हो चुके पते निकालता हूं और डायरी में रख देता हूं।
मैं छींकने लगता हूं तो मां अचानक चौंकती है और काढ़ा लाकर कहती है-पी ले, सर्दी नहीं होगी। मां की इस आवाज के पीछे मैं कई-कई बारिशों की आवाजें फिर से सुनता हूं। बारिश में मां कई दिनों तक चुप रहती हैं और अपना काम करती रहतीं। पिता, मां को चुपचाप काम करता हुआ देखते रहते।
कई दिनों बाद धूप निकली है। आसमान एकदम साफ और नीले कांच की तरह चमक रहा है। पेड़ साफ धुले नहाए अपने हरेपन में मुस्करा रहे हैं। अचानक मुझे हंसी की आवाज आती है। बहुत मुलायम हंसी। ऐसी हंसी जिसे सुनकर संतूर याद आए।
मैंने ऐसी हंसी बहुत दिनों के बाद सुनी थी और यह हंसी घर में से ही आ रही थी। मैं अंदर गया तो देखा मां छत की अोर देखकर हंस रही थी। कवेलू वाली हमारी छत में एक बड़ा छेद हो गया था और उसमें से धूप झर रही थी।
धूप मां के चेहरे पर झरने की तरह गिर रही थी और मां की हंसी का उजलापन पूरे घर में फैल गया था।
मैं मां की हंसी के उजलेपन में खड़ा मां की हंसी सुन चुपचाप सुन रहा था।
मैं बहुत खुश था और हलके बादलों की तरह आसमान में उड़ना चाहता था। मैंने सोचा ऐसे में दोस्तों को पत्र लिखना चाहिए। मैंने बहुत दिनों बाद पत्र लिखा। एक दोस्त का जवाब आया। मैंने उसे खोला और पढ़ना शुरू किया।
दोस्त ने लिखा था-तेरा पत्र पढ़कर ऐसा लगा कि धूप में बारिश हो रही है....

Tuesday, November 4, 2008

बारिश की आवाज़ (दूसरी किस्त)



बाहर पानी भरी सड़क पर इक्का -दुक्का वाहनों की आवाज़ें आती । बीच-बीच में नेपाली की सीटी की आवाज़ गूंजती सुनाई पड़ती और उसमें कुत्ते के भौंकने की आवाज अजब तरह से मिल जाती। कोई एक हे राम कहता हुआ निकल जाता। पेड़ों की सरसराहट से लगता बारिश बीच-बीच में तेज़ हो रही है।
हमारे घर के आगे पीपल और पिछवाड़े नीम का पेड़ है। बारिश में ये पेड़ जटाधारी की तरह हिलते हुए भयावह लगते और हमें कभी-कभी लगता ये पेड़ हमारे घर पर गिरकर उसे धराशायी कर देंगे। लेकिन सालों से ये पेड़ बारिश में झूमते रहते और हमारे घर की देह कांपती रहती ।
जब बारिश बंद हो जाती तो उसके बहुत देर बाद तक हमारे घर की छत पर कभी बौछारों या बूंदों के टपकने की आवाज़ आती रहती। छत पर पेड़ों की डगाल झूलती रहती और पत्तों से फिसलता पानी हमारी छत पर टपकता रहता। बहुत तेज़ हवा चलती तो हमें लगता बारिश फिर से शुरू हो गई है। हवा के चलने से पत्तों पर ठहरा पानी एक साथ गिरकर छतों पर गिरता तो लगता बारिश हो रही है। पेड़ की सरसराहट से भी बारिश की आवाज़ निकलती रहती।
कई बार सिर्फ टप् टप् टप् टप् की आवाज़ आती। जैसे बरसों से इकट्ठा हुआ पानी पत्थरों में पैदा हुई दरारों से रिसता हुआ धीरे-धीरे टपक रहा हो। इन बूंदों की आवाज़ घर में एक अजीब वातावरण पैदा करतीं। उस आवाज़ को लगातार सुनते हुए पिता का चेहरा कंदरा में बैठे किसी साधु की तरह लगता। बारिश के दिनों में दिन में भी अंधेरा लगतार् जैसे हम किसी कंदरा यद में बैठे हों।
रात में सोते हुए हमें यही लगता कि हम किसी कंदरा में सो रहे हैं लेकिन छत पर बिल्ली के चलने की आवाज़, सड़क पर कुत्ते के भौंकने और गाय के रंभाने की आवाज़ से या फिर सीटी की आवाज़ सुनकर हमें लगता हम कंदरा में नहीं, अपने घर में ही सो रहे हैं।
सुबह हम उठते तो सबसे पहले रसोईघर से खटर-पटर की आवाज़ सुनते। फिर मां की आवाज़ होती और इसके पीछे पेड़ों के सरसराने की आवाज़ होती। एक पक्षी की आवाज़ भी हम सुनते जिसे हमने कभी देखा नहीं।
हम भाई-बहन कुल्ला करने और चाय पीने के बाद पहला काम यही करते कि आंगन में आकर पानी में छपाक् छपाक् खेलते। मां चिल्लाती कि सर्दी हो जाएगी लेकिन हम अपनी छपाक् छपाक् में मगन रहते। फिर आसमान की अोर मुंह उठाकर गाने लगते-पानी बाबा आना, ककड़ी भुट्टा लाना।
अपने बचपन के दोस्तों के नाम मैं भूल गया लेकिन उनके चेहरे मुझे याद आते हैं। एक दोस्त के माथे पर चोट का निशान था। मैं जब भी उसे याद करता हूं तो सबसे पहले वह चोट का निशान याद आता है। पता नहीं, माथे पर वह चोट का निशान उसे कैसे पड़ा? वह कहीं से गिर पड़ा था या किसी ने उसे मारा था या जन्मजात था, मुझे याद नहीं। लेकिन जब उसके पिता ट्रांसफर होकर जाने लगे तो उस वक्त बारिश हो रही थी। वे सब तांगे में बैठ चुके थे। मेरा वह दोस्त भी। मैं खिड़की में बैठा तांगे को जाते हुए देख रहा था। तांगा थोड़ी दूर ही गया होगा कि उस दोस्त ने अपनी जेब से आधा खाया भुट्टे का टुकड़ा निकाला और मेरी तरफ उछाल दिया। भुट्टे का वह टुकड़ा एक क्षण के लिए धूप में चमका और छप्प से पानी भरे गड्ढे में गिरा। वह छप्प की आवाज़ और दोस्त का हिलता हुआ हाथ मेरी स्मृति में हमेशा के लिए ठहर गया।
और यह बारिश की आवाज़ ही थी जो मेरे बड़े होने के साथ-साथ यहां तक चली आई थी। बारिश में ही मेरे नए दोस्त बने और पुराने छूटे। मुझे अच्छी तरह याद है जब हम दोस्तों को पहली नौकरी मिली थी तो एक रायपुर, एक बालाघाट और एक फरीदाबाद चला गया। कुछ इसी शहर में रह गए थे। फिर एक के पिता, दूसरे का भाई और तीसरे की मां मर गई थी और बारिश में हम एक-दूसरे के आत्मीयजनों को चिटकती चिता में जलता देख रहे थे। हमारे अंदर रह रहकर कुछ चीजें गिरती रहती थीं और हम आंखें बंद किए उनका दरकना और गिरना सुनते रहते थे।
फिर कुछ दिनों बाद हमने बिना बोले विदा ली। वे हाथ हिलाते हैं और मैं उनका कांपना देखता हूं। वे मेरी फीकी हंसी की अोट में रुलाई को सुनते हैं। वे धीरे-धीरे चलने लगते हैं। पानी भरी सड़क पर उनकी पदचाप सुनता हूं, अपनी पीठ के पीछे। वे जा चुके हैं। और बारिश मुझे भिगो रही है। मैं अकेला धीरे-धीरे चलने लगता हूं। जो दोस्त विदा ले चुके हैं उनके सुनाए चुटकुले याद आते हैं और ठहाकों की गूंज सुनाई पड़ती है।
दोस्त विदा ले चुके हैं लेकिन लगता है, बांए कंधे पर एक दोस्त का हाथ अब भी रखा हुआ है।
विदा होने से पहले हमने अपनी-अपनी प्रेमिकाअों को याद किया। फिर हमने सोचा प्रेम-पत्रों का क्या किया जाए। एक ने कहा इनकी नाव बनाकर बारिश के पानी में छोड़ा जा सकता है। हम सभी दोस्तों ने ऐसा ही किया और प्रेम-पत्रों की नाव पानी में तैर रही थी। फिर हमने तेजी से एक ट्रक को आते देखा जो हलका-सा चर्ररर करता हुआ निकल गया। हमने देखा ट्रक के पहियों पर हमारे प्रेम-पत्र चिपके थे। हम सब दोस्त भागते ट्रक की आवाज़ सुनते रहे और पहियों के साथ घूमते हुए अपने प्रेम-पत्र देखते रहे।
बारिश अब भी हो रही थी और उसमें हम भीग रहे थे....
(इस कहानी का एक और टुकड़ा जल्द ही)


पेंटिंग-रवींद्र व्यास

Saturday, November 1, 2008

बारिश की आवाज़


बारिश की कई आवाज़ें मेरी स्मृति में बजती रहती हैं। नदी और झरने की नहीं, सिर्फ बारिश की आवाज़। और बारिशों की इतनी आवाज़ें थीं कि जब बारिश नहीं हो रही होती है तब भी मुझे बारिश की आवाज़ सुनाई देती रहती है। जैसे ही मां हम भाई-बहनों को आवाज़ लगाती, मुझे लगता मां की आवाज़ के पीछे बारिश हो रही है। हम मां के पास दौड़ते हुए जाते। पहले मां हमारे सिर पर धीरे से हाथ फेरती, फिर चूमती और हमारी इधर-उधर पड़ी कॉपी-किताबों को अपने आंचल में से ऐसे निकालकर देतीं जैसे कॉपी-किताबें खरगोश के बच्चे हों। फिर कहती-बेटा अपनी कॉपी-किताबें संभाल कर रखा करो।
मां बहुत धीरे बोलती थी। इतना धीरे कि कान देकर सुनना पड़ता था। पहली बार में तो हमें सुनाई ही नहीं देता था कि मां क्या कह रही हैं। हम क्या मां क्या मां करते तो बड़ी मुश्किल से वह दुबारा अपनी बात कहती। लेकिन दुबारा वह कहती तो वह इतनी टूटी-फूटी होती कि हम समझ ही नहीं पाते। मुझे लगता मां की यह आवाज़ बारिश के कई परदों को पार करती हुई, लड़खड़ाती हम तक आ रही है। छप छप करती हुई।
बारिश में पिता के घर आने की आवाज भी अजीब थी। पिता को पैदल चलने की आदत थी। घनघोर बारिश में भी वे टेम्पो या रिक्शा में नहीं बैठते। वे जब घर आते तो उनके जूतों में पानी भरा होता और चलने पर उन जूतों से पचर-पचर की आवाज़ें आतीं। वे जूते निकालते तो बारिश के गंदले पानी की छोटी-सी धार की आवाज होती।
मां पहले से ही पंछा लेकर बैठी रहती। पिता सिर पोंछते तो बल्ब की पीली रोशनी में उनके सफेद बाल सुनहरी लगते और कनपटी पर पानी की बूंदें थोड़ी देर ठहरी रहतीं और फिर एक साथ इकट्ठा होकर फिसल जातीं।
घर में आते ही पिता पहले छत को देखते। छत पर बौछारों की आवाज के साथ बिल्ली की म्याऊं की लंबी आवाज सुनाई देती। छत के बाद पिता की आंखें घर की दीवारों पर फिसलने लगतीं। दीवारों में जहां सीलन आती वहां विचित्र आकृतियां उभर आतीं। हम भाई-बहन उन आकृतियों में शेर, हाथी, घोड़े, भालू, ढूंढ़ लेते। कई बार लगता दीवारों से बहुत धीमा शोर उठ रहा है। लगता, कोई चीख रहा है, चिल्ला रहा है। कभी कभी हमें घोड़ों के टापों की आवाज आती और दीवारों पर उभरी आकृतियों में लगता तलवार लिए लोग चीख-चिल्ला रहे हैं।
बारिश में कभी ऐसा भी होता कि दीवार पर एक बड़ी मानव मुखाकृति बन जाती। गौर से देखने पर भी पता नहीं लगता कि यह आकृति आदमी की है या औरत की। कभी-कभार हम भाई-बहन बहुत करीब से उसे देखते। वह मुखाकृति कभी हमें मां की लगती, कभी पिता की। रात मे कई बार हम भाई-बहन पीली रोशनी में इस काली-भूरी और कभी बदरंग दिखाई देती मुखाकृति को देख डर जाते। कई बार ऐसा होता कि रात में हड़बड़ाकर हम उठ बैठते और रोने लगते। मां हमें अपनी छाती से चिपटा लेती। हम धड़क-धड़क की आवाज सुनते। मां के छाती से चिपटा लेने के बावजूद हमारा डर कम नहीं होता।
पिता हमें धीरे-धीरे थपकियां देने लगते-थप् थप् थप्...
थपकियों के बीच हमें मां के गिलास भरने की आवाज सुनाई देती और फिर मां हमें धीरे से उठाकर कहती-ले पानी पी ले एक घूंट। मैं उठता और गट गट पानी पी जाता। नींद आने के ठीक पहले मुझे ऐसा लगता कोई सिसकियां ले रहा है। जोर-जोर से सांस लेने की आवाज आती। आंखें बंद किए मैं डरता रहता।
मुझे लगता दीवार पर बनी मुखाकृति रो रही है...

(लघु पत्रिका आवेग में प्रकाशित मेरी कहानी बारिश की आवाज का एक टुकड़ा। बहुत जल्द ही आप इस कहानी के दो और टुकड़े पढ़ पाएंगे। )
पेंटिंग - रवींद्र व्यास