Monday, June 29, 2009

उड़ते हुए रूई के फाहे


हमारा घर बहुत छोटा था। सदस्य ज्यादा थे। घर के लोगों के हाथ-पैरों पर खरोंचों के निशान थे। हम जब भी घर में आते-जाते तो हमें घर में रखी टूटी आलमारी, कुर्सी, या डिब्बों से खरोंचे लगती थीं। मां ने डिब्बे-डाबड़ी बहुत इकट्ठे कर रखे थे। मुझे पता है, जब एक बार पिताजी खाना खाने बैठे, तो पीछे रखे आटे के टूटे डिब्बे के ढक्कन से उन्हें एक लंबी खरोंच आई थी। उनकी बांईं जांघ पर खून की एक लकीर उभर आई थी।
घर में मां ने डिब्बे एक के ऊपर एक रखे हुए थे। वह कम जगह में ज्यादा से ज्यादा डिब्बे जमा कर रखती थी। उसका मानना था कि गृहस्थी आसानी से नहीं जमाई जा सकती!
कभी-कभी ऐसा होता कि कि मां यदि हल्दी का डिब्बा निकालना चाहती तो पटली पर रखा मिर्ची का डिब्बा गिर जाता। पूरे घर में मिर्ची की धांस उड़ती। ऐसे में पिताजी बड़बड़ाते। पिता को बड़बड़ाता देख मां उन्हें धीरे से देखती। हम भाई-बहन यह देख हंसते। हमें हंसता देखा मां और पिताजी भी धीरे-धीरे हंसते। उन्हें देख हम खूब हंसते। फिर मां-पिताजी भी खूब हंसते। घर में जब कभी कोई दिक्कत आती या दुःख छाने लगता तो मां-पिताजी हंसते। वे नहीं चाहते थे कि छोटे-छोटे दुःखों को हम तक आने दें। यही कारण था कि जब वे हंसते तो हमारे घर पर छाए दुःख रूई के फाहों में बदलकर उड़ने लगते। कभी-कभी मुझे लगता हमारे घर की दीवारों और छतों पर रूई के फाहे चिपके हुए हैं। लेकिन वे हमें दिखाई नहीं देते। हमें आश्चर्य तब होता जब दीवाली-दशहरे के पहले घर में सफाई होती और कहीं भी रूई के फाहे नहीं निकलते।
रात में सोते हुए हमें मां-पिताजी की बुदबुदाहट सुनाई देती। उनमें हमारी फीस, कपड़े, कॉपी-किताबों की चिंता होती। दादी की बीमारी और काकाओं के झगड़ों की बातें होती। मां-पिताजी की आवाज बहुत धीमी होती, इतनी कि दीवारें भी न सुन सकें। मां-पिताजी की ये बातें हमें रात में की गई किसी प्रार्थना के शब्दों जैसी लगती जिन्हें घर की उखड़ती और बदरंग होती दीवारें अपने में सोख लेतीं।
बारिश का मौसम हमारे और हमारे घर के लिए यातनादायक होता था। (यह बात मुझे बहुत बाद में बड़ा होने पर पता लगी ) बारिश में हमारी छत टपकती। घर गीला न हो इसलिए मां जहां पानी टपकता, बर्तन रख देती। कहीं तपेली, कहीं बाल्टी, कहीं गिलास। घर में तब बर्तन भी ज्यादा नहीं थे। कई बार में नमक का डिब्बा खाली कर उसे कागज की पुड़िया में बांध देती और डिब्बा टपकती बूंदों के नीचे। तेज बारिश में हम भाई-बहनों की नींद खुल जाती और हमें मां-पिताजी के प्रार्थना के शब्द सुनाई पड़ते। मां-पिताजी अगली बार छत पर नए कवेलू लगवाने की बात करते। तेज बारिश में उनकी बातों से अजीब वातावरण बन जाता। बाहर पानी की बूंदें टपकती और घर में मां-पिताजी का दुःख। इसी के साथ हम भाई -बहन घर की दीवारों के पोपड़े गिरते सुनते।
दीवार में जहां -जहां से पोपड़े गिरते, सुबह उनमें मां और पिताजी का दुःख काला-भूरा दिखाई देता। मां गोबर और पीली मिट्टी से उन्हें भर देती। घर की दीवार पर ऐसा जगह-जगह था।
ज्यादा बारिश होने से घर की दीवारों में सीलन आ जाती। छत चूने से पटली पर रखी हमारी कॉपी-किताबें गीली होने लगतीं। फिर हमारे कपड़े गीले होते और फिर हमारे बिस्तर। घर कितना गीला हो गया है, यह देखने के लिए जब हम लाइट चालू करने उठते तो हमारे पैर किसी के हाथ, पैर या मुंह पर पड़ते। लाइट जलाने के बाद मां बिस्तर ओटकर हमें सुलाती। सुबह हम भाई -बहन रात वाली बात याद कर खूब हंसते। हम रूई के फाहे उड़ते हुए देखते।
लेकिन कभी-कभी मुझे लगता कि मां और पिताजी हंस नहीं रो रहे हैं, हालांकि वे हमें हंसते हुए ही दिखते।
ठंड के दिनों में खूब मजा आता! हम भाई-बहन बीच में सोने के लिए झगड़तेएक ही रजाई में हम सब सोते। बीच में सोने का फायदा था। रजाई छोटी थी इसलिए जो अगल-बगल में सोते वे रजाई की खींचातानी करते।बीच वाला मजे में रहता। इस तरह हम ठंड से लड़ते।
मुझे सपने नहीं आते। लेकिन एक दिन मुझे सपना आया। मैंने देखा कि पिताजी बर्फ के पहाड़ पर धीरे-धीरे चढ़ रहे हैं। पहले तो मैं उन्हें पहचाना ही नहीं। उनका बदन रूई के फाहों से ढंका हुआ था। ये वही रूई के फाहे थे जो हमारे घर पर छा जाते थे। ये ही दुःख मां-पिताजी के हंसने पर रूई के फाहों में बदल जाते थे। तो मैंने देखा कि पिताजी धीरे-धीरे पहाड़ पर चढ़ रहे थे। उनका बदन रुई के फाहों से ढंका है। मैंने उनकी आंखों से पहचाना कि ये तो पिताजी हैं।
धीरे-धीरे वे चढ़ रहे थे। उन्हें बहुत ऊंचाई पर जाना था। बिलकुल शिखर पर , जहां कोमल हरी पत्तियों का पेड़ था। बहुत घना और खूबसूरत पेड़ था वह, जिस पर हमारे तमाम सुख लाल सुर्ख सेबों की तरह उगे हुए थे। वे ही सेब पिता को तोड़कर लाने थे। -हमारे लिए, हमारे घर के लिए...और वे चढ़ रहे थे!
लेकिन मैंने देखा कि वे जितना ऊपर चढ़ने की कोशिश करते, उनके पैर उतने ही धंसते चले जाते। लेकिन पिताजी अपनी पूरी ऊर्जा, पूरी ताकत से धंसते पैरों को निकालकर चढ़ने की कोशिश करते।
अचानक मैंने देखा कि बर्फ का पहाड़ धीरे-धीरे रूई के फाहों के पहाड़ में बदल रहा है। और पिताजी धीरे-धीरे उसमें धंसते चले जा रहे हैं। मैंने देखा पिताजी कमर तक धंस गए हैं फिर गले तक! मैंने उनकी आंखों में चमक कम होती देखी, फिर वह चमक धीरे-धीरे बुझ गई। फिर आखिर में मैंने उनके हिलते और कांपते हुए हाथ देखे....
उसके बाद...उसके बाद घबराहट में मेरी नींद टूट गई। आंखें खोलने पर मैंने देखा कोई बाबाजी मेरे पास बैठे हैं। मैं चौकां। वे तो पिताजी थे और रजाई लपटे बैठे हुए थे। वे बुदबुदा रहे थे। रात के अंधेरे में मेरा ध्यान इस कदर पिताजी की तरफ था कि उनकी प्रार्थना के शब्द मुझे सुनाई नहीं दिए।
सुबह जब हम भाई-बहन उठे, तो मैंने उन्हें अपना सपना सुनाया। मां और पिताजी को बुलाकर भी सुनाया। और वह बात भी बताई कि पिताजी रात में रजाई लपटे कैसे बुदबुदा रहे थे। हम सब खूब हंसे। हमें हंसता देख मां और पिताजी भी खूब हंसे। खूब हंसे।
हमने देखा रुई के फाहे घर में उड़ रहे हैं! आंगन में उड़ रहे रूई के फाहे भी हमने देखे! छतों और दीवारों पर भी रूई के फाहे चिपकते हमने देखे! खूब! खूब! खूब रूई के फाहे हमने उड़ते हुए देखे!
बहुत बाद में जब हम भाई-बहन बड़े और समझदार हुए, हमें पता लगा कि वे रूई के फाहे नहीं, हमारे घर पर अक्सर छा जाने वाले दुःख थे!

Tuesday, June 23, 2009

मां का मंत्रोच्चार



मैं जब भी मां के बारे में सोचता हूं मुझे मटके में ताजा पानी भरने की आवाज सुनाई देती है।
उसकी उम्र उसकी झुर्रियों से ज्यादा उन बर्तनों की खनखनाहट में थी जिसे वह सालों से मांजती चली आ रही थी। भरे-पूरे परिवार के लोगों के कपड़ों के रंग उड़ चुके रेशों में उसकी उम्र धुंधला चुकी थी। कपड़ों को लगातार रगड़ती-धोती वह उठती तो अपने घुटनों पर हाथ धरकर उठती । एक हलकी सी टसक के साथ।
हम भाई-बहन जब सुबह सो कर उठते तब तक सबके झकाझक धुले कपड़े तार पर सूख रहे होते। पटली पर रखे बर्तन चमाचम चमक रहे होते। सिगड़ी पर दाल उकल रही होती और परात में आटा गूंथा हुआ रखा है।
मटके में ताजा पानी भरा हुआ है।
मां जब भी उठती अपने घुटनों पर हाथ रखती हुई उठती। उसके घुटनों से हलकी सी आवाज निकलती और वहीं दम तोड़ देती। कई बार ऐसा होता कि आटा गूंथा हुआ रखा होता तो मां की उंगलियों के निशान गूंथे आटे पर छूट जाते।
मां घर में इतना मर खप गई थी कि कुल मिलाकर उसके चेहरे की झुर्रियों और अंदर धंस चुकी आंखों में हमसे लगी उम्मीदें बाकी रह गईं थीं। पिता इतने चुप रहते कि उनकी चुप्पी में उनका दुःख बजता रहता। वे अकसर चुप रहते और कोई न कोई दुःख उनके कंधे पर बैठा रहता। किसी पालतू पक्षी की तरह। वह पक्षी अजर-अमर था। पिता को अपना दुःख दिखाई नहीं देता और मां का दुःख उनसे देखा नहीं जाता।
हमारा घर मेनरोड पर था। मकानों की दीवारें बदरंग थीं। कहीं कहीं काली-भूरी। कच्चे मकान धूप में चमकते हुए और भी बदरंग दीखते। मेनरोड से आने-जाने वाले वाहनों से निकलता धुंआ और उड़ती हुई धूल मकानों की दीवारों पर चिपकती रहतीं।
यही नहीं, धूल और धुंआ उड़ता हुआ रसोई घर तक आ जाता । घरों में रहती तमाम चीजों पर यह धूल-धुंआ बैठ जाता। रजाई, गादी, कम्बलों और दरियों पर यह धूल-धुआं जमता रहता। रात को बिस्तर बिछाने से पहले मां दरी, रजाई गादी और कम्बलों को खूब झटकारती। यह धूल-धुआं झरता और फिर थोड़ी देर हवा में रूककर वापस जम जाता।
मां जब भी कचरा बुहारती, मैं मां को बहुत ध्यान से देखता। मां मुझे देखती और धीरे से हंसने लगती। कहती इस घर में जगह जगह दुःख बिखरे पड़े हैं। मैं पूछता कहां हैं दुःख। तो मां दीवारों पर धीरे-धीरे हाथ फेरती। दीवारों से झरती धूल को देखती। टूटे कप-बशी के टुकड़ों, पिता के कुरते के टूटे बटनों, सुई, हमारे पेम के टुकड़ों और कपड़े से बने फटे बिस्तों, फटी कॉपी-किताबों को देखती रहती।
मैं मां को कचरा बुहारते अकसर देखा करता। मां बहुत धीरे-धीरे कचरा बुहारती। लगाव और प्रेम के साथ। कभी कभी रूककर धूल या कचरे में पड़ी चीजों को ध्यान से देखती। कचरे में कभी उसे ब्लैड मिलती, कभी सुई, बटन या स्टोव की पिन। कभी धागे का कोई टुकड़ा। वह उन्हें निकालती और सावधानी से किसी कोने या आलिये में रख देती।
हम सुबह उठते तो हमेशा देखते कि मां चाय बनाने के साथ ही खाना बनाने की तैयारी भी कर रही है। एक सिगड़ी और एक स्टोव था और उसी पर सब काम होता था। चाय भी उसी पर बनती, नहाने का पानी भी उसी पर गर्म होता और दाल-भात भी उसी पर बनते। चाय के साथ खाना बनाने की जल्दबाजी में कई बार चाय ढुलती और उसके हाथ झुलस जाते। वह तुरंत हाथ पानी में डाल देती। कभी कभी कपबशी हाथ से छूटकर टूटते-फूटते।
सुबह की हड़बड़ाहट और जल्दबाजी में वह बड़बड़ाती। बड़बड़ाने के साथ उसका काम करना रूकता नहीं। हाथ पर हाथ धरे वह बैठी नहीं रहती। और न कभी सिर पक़ड़ कर बैठ जाती। उसका बड़बड़ाना स्टोव की आवाज में मिल जाता।
मां की बडबड़ाहट और स्टोव की आवाज मिल जाने से घर में अजीब सी आवाजें गूंजती। पिता इस आवाज को सुनते और चुप रहते। मां की आवाज स्टोव की आवाज की तरह थी। कभी तेज, कभी धीमी, और कभी लगभग बंद होती हुई। अंत में जैसे स्टोव बंद हो जाने की एक लंबी सीटी की आवाज निकलती, वैसी ही मां की रूलाई फूटती। पहले धीरे, फिर तेज और फिर धीरे होती हुई अचानक बंद ।
स्टोव की हवा बार-बार निकल जाती। वह बार-बार भरती। हवा भरने के बाद भी स्टोव की लौ ठीक तरह से जलती नहीं। वह पिन ढूंढ़ती। ताकि स्टोव की लौ तेज हो सके। पिन न मिलने पर उसकी चिड़चिड़ाहट बढ़ जाती। वह बहुत देर तक चिढ़ती रहती। हमें डांटती और कहती कि इस स्टोव को ठीक क्यों नहीं करा लाते।
दूसरे कमरे के एक कोने में पिता पूजा कर रहे होते। वे एक-एक भगवान की मूर्तियों को तरभाणे में रखते। पहले पानी से अभिषेक करते, फिर दूध से और फिर पानी से। मूर्तियों को पोंछकर यथा स्थान रखते। अष्टगंध निकालकर चंदन के साथ घीसते। मूर्तियों को चंदन लगाते। अक्षत चढ़ाते। फूल की पंखुरियां लगाते। अगरबत्ती लगाते। असली घी का दीपक लगाना नहीं भूलते। दही, दूध, शहद, घी और शकर से पंचामृत बनाते। फिर मंत्रोच्चार करते। फिर आरती होती। कर्पूर जलाया जाता। पुष्पांजलि के बाद आरती ली जाती। पंचामृत देते और प्रसाद बांटते।
जितनी देर में पिता पूजा करते उतनी देर में मां हमें नहला-धुलाकर खाना भी तैयार कर देती। पिता चिल्लाते, नैवेद्य ला। मां थाली परोसकर पिता को नैवेद्य लगाने के लिए देती। पिता तुलसी पत्र तोड़ते, पानी से धोते और भात पर रखकर नैवेद्य लगाते।
कई बार ऐसा होता कि मां को खाना बनाने में देर हो जाती और उसका बड़बड़ाना भी शुरू हो जाता। कभी उसे पिन नहीं मिलती, कभी घासलेट खत्म हो जाता। कभी कोयले नहीं तो कभी लकड़ी नहीं सुलगती।
कभी कभी ऐसा होता कि मां की बड़बड़ाहट और पिता के मंत्रोच्चार मिल जाते। इससे घर में अजीब सी आवाज पैदा होती। ये आवाजें अजब ढंग से गड्ड-मड्ड हो जातीं।
मुझे लगता, मानो मां तो मंत्रोच्चार कर रही है और पिता बड़बड़ा रहे हैं!

इमेज ः
अफ्रीकन चित्रकार बोबास की कलाकृति हार्ड वर्किंग वुमन।

Saturday, June 13, 2009

धूप एक ख़ूबसूरत जादूगरनी है!


वहाँ धूप फैली हुई थी। ख़ूबसूरत। जिसे छूती उसे ख़ूबसूरत बना देती। गुनगुनी। मुलामय। ऊन का हल्कापन लिए। वह हर जगह थी, घास की नोक पर, तार पर, तार पर सूखते कपड़ों पर, बच्चों की हँसी पर इठलाती, फूलों के खिले गालों पर तितली-सी बैठी, अपने कोमल पंखों को हिलाती हुई। और कुत्ते के सफेद-भूरे बच्चों के चेहरों पर फिसलती यह धूप उन्हें किसी भोले खिलौनों में बदल रही थी।
अभी-अभी नहाकर बैठी स्त्री के साँवलेपन पर, उसे और उजला करती हुई, शॉल से बाहर निकली उस बच्चे की पगथलियों को थोड़ा सा और रक्ताभ करती हुई जो धूप में माँ की गोद में स्तनपान कर रहा है, और माँ के चेहरे की अलौकिकता को पवित्र करती हुई...जैसे धूप के रूप में ईश्वर की ही पवित्रता माँ के चेहरे पर उतर आई हो...
धूप थी, इसीलिए घास कुछ ज्यादा हरी दिखाई दे रही थी। उसे धूप में हिलता देखें तो लगेगा हमारे भीतर का हरापन भी हिल रहा है। तार कुछ ज्यादा चमकीले दिखाई दे रहे थे जैसे वे तार न होकर ऊन के गोले से निकला कोई मुलामय सिरा हो, तार पर सूखते कपड़े ज्यादा रंगीन दिखाई दे रहे थे, लगता था जैसे उनसे पानी नहीं, उनमें रचा-बसा रंग ही टपकने लगेगा।
बच्चों की हँसी कुछ ज्यादा मुलायम थी, उनकी हँसी धूप में वैसे ही चमक रही थी जैसे कोई रंगबिरंगी गेंद टप्पे खाती उछल रही है। और फूलों के रंग कुछ ज्यादा ही चटख दिखाई दे रहे थे, जैसे शाख़ की कोख से जन्म ले मुट्ठियाँ तानकर किलकारियाँ मार रहे हों। अपने ताजापन में दिलखुश।
और उस स्त्री के साँवलेपन में धूप जैसे उजलापन घोलकर कर उसे और निखार रही थी। और माँ का स्तनपान करते उस बच्चे की पगथलियों पर धूप किसी फरिश्ते की तरह चुहलबाजियाँ कर रही थी...और उस बूढे़ के चेहरे की झुरियों को धूप किसी नाती-पोती की अँगुलियों की माफिक छू रही थी।
इन सबसे मिलकर जो दृश्य बन रहा था, वह इस पृथ्वी की एक सबसे उजली सुबह थी, सबसे ज्यादा सुहानी।
इसीलिए कभी-कभी लगता है कि धूप एक खूबसूरत जादूगरनी है। यह न होती तो हम ज़िंदगी के कई सारे जादू को देखने से हमेशा हमेशा के लिए वंचित रह जाते। इसलिए जब कभी धूप आपके आँगन में, आपकी दहलीज पर, आपकी बालकनी में या कि आपकी खिड़की पर आए तो उसके करीब जाएँ और उसके जादू का अहसास पाएँ।
यह धूप का ही जादू है कि वह हमें बताती है कि कैसे उजलेपन की पवित्रता में छूकर एक गुनगुनाता जादू जगाया जा सकता है। देखिए कि वह फूल के गालों को कैसे चूमती है। देखिए कि वह एक बच्चे की हँसी को कैसे ज्यादा मुलायम बनाती है। देखिए कि वह कैसे एक साँवलेपन को रोशन करती है और उसकी कशिश को और ज्यादा बढ़ा देती है। देखिए कि कैसे वह माँ का स्तनपान करते बच्चे की पगथलियों की छोटी-छोटी हरकतों में इस पृथ्वी की सबसे सुंदर संभावनाओं को जगाती है।
आप धूप में तो बैठिए, उसका जादू महसूस करेंगे। आप पाएँगे एक हरापन आपमें उग रहा है, आपकी पीठ पर दुनिया का सबसे गुनगुना आलाप झर रहा है, आप पाएँगे कि आपके गालों को अदृश्य हाथ छू रहे हैं और बहुत सारी गेंदें टप्पा खाती हुई आपकी की ओर आ रही हैं और आपके चेहरे पर माँ की छाती से निकले दूधिया उजाले की ललाई अब भी बाकी है, और यह भी कि उस बूढ़े चेहरे की झुर्रियों में आपसे लगी उम्मीदें अब भी धूप में कोंपलों की तरह हिल रही हैं....
यह सब है, क्योंकि धूप है। उसकी अँगुलियों की पोरों में कुछ है क्योंकि वह एक ख़ूबसूरत जादूगरनी है। अपनी विरल धुन से इस दुनिया को रोशन करती हुई...
(दिसंबर की एक उजली सुबह की याद...)

इमेज ः
पोलिश चित्रकार तमारा डि लैम्पिका की पेंटिंग द म्यूजिशियन। लैम्पिका का जन्म वारसा में हुआ था और मृत्यु मैक्सिको में। वे अपने समय की विवादास्पद चित्रकार रहीं। वे लेस्बियन भी रहीं। तनावग्रस्त जीवन के कारण उनका पति से तलाक हुआ। बाद में उन्होंने अपने एक प्रेमी से शादी की। यहां जो पेंटिंग दी गई है उसमें यदि शेडिंग टेकनिक पर ध्यान दिया जाए तो बाआसानी कहा जा सकता है कि यह पिकासो के क्यूबिज्म से प्रभावित लगती है। इसमें लैम्पिका ने शेडिंग के जरिये आकारों के घनत्व को साफ किया है और बढ़ाया है। इसे सॉफ्ट क्यूबिज्म भी कहा गया। यदि इस म्यूजिशियन के पीछे ब्लैकएनव्हाइट शैड्स पर भी ध्यान दें तो जाहिर होगा कि यह वही एक रंगीय और घनवाद की शैली है। हालांकि लैम्पिका इसमें पूरी तरह से उस शैली का अनुकरण नहीं करती और यही कारण है कि इस पर क्यूबिज्म की सिर्फ छाप ही देखी जा सकती है। इसीलिए इसे सॉफ्ट क्यूबिज्म कहा गया। उन्होंने कई न्यूड्स बनाए जिसमें यह छाप देखी जा सकती है।

Tuesday, June 2, 2009

मेरे अरमानों की कसक नीली है


उसे शिकायत है कि मैंने अभी तक उसकी कोई सुंदर और सीधी तस्वीर नहीं उतारी, मेरी मजबूरी है कि मैं सुंदर और सीधी तस्वीर उतार ही नहीं सकता। उसका कहना है कि जिसे मैं मजबूरी कहता हूँ वह दरअसल मेरी कल्पना का विकार है, मेरा कयास है कि जिसे वह मेरी कल्पना का विकार कहती है वही शायद मेरी कल्पना की जान हो। फिर भी मैं खुद इस ख्वाहिश की कैद में रहता हूँ कि एक बार उसके रूप की एक सरस और सुंदर तसवीर उतार कर उसे पेश कर दूँ और उसकी आँखों के नीले उजाले की बहार देखूँ। इसी ख्वाहिश ने ही शायद मुझे इस ऊँचाई पर ला बिठाया है।

ऊँचाई से आगाह इसी क्षण हुआ हूँ। देखता हूँ कि दोनों चपटी चट्टानें एक गहरी वादी के ऊपर कहीं टिकी झूल रही हैं। और उनके साथ साथ मैं भी। वादी में झाँकने से डरता हूँ। इस डर का रंग भी नीला है। इस पर पत्थर रखकर वादी में झाँकता हूँ तो महसस होता है उसकी आँखों में झाँक लिया हो। दो झिलमिलाती झीलों में पड़े दो नीले पत्थर मेरी निगाहों को रोक कर नाकार कर देते हैं। मैं कई बार उससे उन पत्थरों की बात कर चुका हूँ। वह हर बार एक ही जवाब देती है। मैं चुप और अकेला हो जाता हूँ, जैसे मुझे किसी ने नीले कोने में जा खड़ा होने का आदेश दे दिया गया हो।

इस याद की रोशनी में कोरे कागज को दबाए बैठे गोल पत्थर की नीली धड़कन पर उसके दिल की धड़कन का गुमान होता है। मैं बरसों से इस धड़कन की भाषा को समझने की नाकाम कोशिश कर रहा हूँ। अगर अभी तक उसका दिल, उसकी आँखें, उसकी समूची देह एक ऐसी सीमा बनी हुई है जिससे उधर और अंदर के आलम की मुझे सही सही खबर तक नहीं, तो क्या सबूत है कि मुझे किसी भी देह के उधर और अंदर के आलम की कोई खबर है? कोई सबूत नहीं। इस हार का रंग भी नीला है। कागज को दबाए हुए गोल पत्थर की धड़कती हुई नालाहट आँखों को आराम भी दे रही है, अशांति भी। आराम में ठंडक है, अशांति में ठिठुरन।

नीला रंग मुझे प्रिय है। मेरे अंधेरे का रंग नीला है। मेरे अरमानों का कसक नीली है। आकाश जब निर्दोष हो तो उसका रंग भी नीला होता है। उसकी आँखें नीली न होती हुई भी नीली हैं। हर दर्द का रंग नीला होता है। नसें नीली होती हैं। अंत का उजाला नीला होता है। जख्म के इर्दगिर्द कई बार एक नीला हाला सा बन जाता है। हब्शियों के संगीत का रंगी नीला है। मेरे खून में जो तृष्णा दौड़ती रहती है, उसका रंग नीला है। स्मृति का रंग नीला है। मिरियम का प्रिय रंग नीला था। भूख का भय नीला होता है। कृष्ण का रंग नीला है।

मेरी आँखों के नीचे पड़े फड़फडा़ते इस कागज के कोरेपन में भी नीलाहट की अनेक संभावनाएँ छिपी बैठी हैं जिसकी प्रतीक्षा में ही शायद मैं इस पर किसी बुत या बाघ की तरह झुका हुआ हूँ।
(ख्यात उपन्यासकार-कहानीकार कृष्ण बलदेव वैद के उपन्यास काला कोलाज का एक अंश। अंश का शीर्षक मैंने दिया है)
(पेंटिंगः रवीन्द्र व्यास)

Monday, June 1, 2009

शब्द का संग छूटा तो रंगों ने थाम लिया


वे कविता लिखती हैं लेकिन मन इन दिनों पेंटिंग्स में रमा हुआ है। शब्द का संग छूटता लग रहा है। ऐसे में रंगों ने उनका हाथ थाम लिया है। वे उम्र के उस पड़ाव पर हैं जहां अकसर लोग थककर खामोश हो जाते हैं लेकिन वे रंगों के साथ हमकदम हैं। बिना थके, बिना रूके वे लगातार चित्र बना रही हैं। ये हैं कवयित्री और चित्रकार चम्पा वैद। वे 78 पार हैं लेकिन रंगों में उनकी रचनात्मकता का यौवन झलकता है। हैरतअंगेज यह है कि 77 की उम्र में उन्होंने पेंटिंग्स बनाना शुरू किया। वे अपने 21 चित्रों के साथ पिछले दिनों देवलालीकर कला वीथिका, इंदौर में कला और कविता प्रेमियों से रूबरू थीं। उन्होंने अपनी कविताएं भी पढीं। फ्रांस आलियांस और फाइन आर्ट कॉलेज का यह मिला जुला कार्यक्रम था।
77 उम्र में चित्रकारी करने के सवाल पर श्रीमती वैद कहती हैं-मुझे खुद नहीं पता कि यह चमत्कार कैसे घटित हुआ। मैं बीमार थी और कविता भी नहीं लिख पा रही थी। बेचैनी थी। एक दिन अचानक पेंसिल उठाई और चित्र बनाया। वह बन गया। बस कहीं से सोता फूट निकला और मैं बहती चली गई। फिर एकाएक रंग आ गए, कागज आ गए, हाथों ने कलम की जगह कूची थाम ली। और इस तरह चित्र बनते चले गए। ऐसा लगा कि मन के भीतर कहीं बहुत गहरे कुछ भरा पड़ा था, रूका पड़ा था। दिन थोड़े बचे हैं और बहुत सारा अभिव्यक्त करना है। तो जो भीतर भरा पड़ा था, उसे एकाएक रास्ता मिल गया, रंगों के जरिये, आकारों के जरिये।
इसके बाद वे रूकी नहीं और यही कारण है कि उनके चित्रों की दो समूह प्रदर्शनियां हो चुकी हैं और यह दूसरी एकल प्रदर्शनी थी-स्क्रिप्ट्स। उनकी तीसरी एकल नुमाइश डान आफ द डस्क शीर्षक से तीन जून से इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित है जिनमें उनके 25 काम प्रदर्शित होंगे। उनके इन चित्रों का चयन किया है कला समीक्षक वर्षा दास और पत्रकार अोम थानवी ने। इंदौर की देवलालीकर कला वीथिका में उनके कैनवास और पेपर पर एक्रिलिक से बने चित्र हुए। वे कहती हैं कि मुझे पेंटिंग्स से गहरा लगाव था लेकिन सोचा नहीं था कि चित्र भी बनाने लगूंगी। महसूस होता है जैसी सरस्वती ही यह सब संभव कर रही हैं। अपर्णा कौर, माधवी पारेख और अर्पिता सिंह की चित्रकारी को पसंद करने वाली श्रीमती वैद कहती हैं कि मैं खुश हूं कि मेरे सपनों में रंग और इमेजेस आते हैं और मैं चित्र बना रही हूं लगातार। खुशी यह भी है कि कला प्रेमी और कला पारखी कहते हैं कि इन पर किसी का प्रभाव भी नहीं। लेकिन दुःख इस बात का है कि शब्दों का साथ छूटता जा रहा है। मैं कविता नहीं लिख पा रही। लिखती भी हूं तो वह रचनात्मक संतोष नहीं मिलता जो रंगों के साथ होने से मिल रहा है। मैं जिस इंटेसिटी से कविताएं लिखती थी वह अब नहीं हो रहा है। अब तो मन रंगों में डूबा है।

Thursday, May 28, 2009

रोज घर से निकलो, रोज घर पहुंच जाओ बच्चो !


यह एक छोटा-सा अनुभव है, जो मैं आपको बताने जा रहा हूं लेकिन इसके पीछे जो दहशत है वह शायद कई सालों की है। और मुझे लगता है शायद मेरी मां इस दहशत से रोज-ब-रोज गुजरती थी।
मेरे बेटे मनस्वी, जिसे हम मनु कहते हैं, ने जिद की कि वह अब साइकिल से स्कूल जाएगा। अब तक वह अॉटो से जाया करता था।
मैं जब भी घर से निकलता हूं तो मां मुझे ऐसे देखती है कि अब मैं कभी वापस घर नहीं लौटूंगा। शहर में न दंगा-फसाद हुआ है और न ही कोई भूकंप आया हुआ है। न बाढ़ आई है और न ही कोई आगजनी हुई है। फिर भी जब मैं घर से निकलता हूं तो मां मुझे ऐसे देखती है कि मैं अब वापस घर नहीं लौटूंगा। घर से निकलते हुए मैं अपनी पीठ के पीछे मां के धम्म से बैठने की आवाज सुनता हूं।
जब मां को पता लगा कि उनका पोता साइकिल से स्कूल जाएगा तो उसने साफ इनकार कर दिया कि नहीं, वह आटो से ही जाएगा भले ही इसके लिए उसे अपनी पेंशन से पैसे देना पड़ें।
तो मंगलवार यानी छह मई को मनु साइकिल से स्कूल के लिए सुबह ठीक छह बजकर 55 मिनट पर घर से निकल गया। पता नहीं मैं किस दहशत में था, चुपचाप अपनी बाइक से बेटे के पीछे-पीछे चलने लगा। उसका स्कूल, घर से लगभग पांच-छह किलोमीटर दूर है। स्कूल के पास पहुंचने पर बेटे की साइकिल की चेन उतर गई। मैंने अपनी बाइक रोकी और उसकी चेन चढ़ाई और स्कूल तक उसके साथ-साथ गया। उसने मुझे अपने पीछे आते हुए देख लिया था । उसने मुझसे कुछ कहा नहीं, लेकिन उसका चेहरा बता रहा था कि इस तरह मेरा उसके पीछे-पीछे आना नागवार गुजरा है।
ठीक एक बजकर 15 मिनट पर मनु के स्कूल की छुट्टी हो जाती है। 12 बजकर 50 मिनट पर मेरे आफिस में पत्नी का फोन आता है। मैं अपने बेटे के साथ आने के लिए स्कूल रवाना हो जाता हूं और धीरे-धीरे उसके साथ घर लौटता हूं।
घर से स्कूल के रास्ते में तीन चौराहे पड़ते हैं और इनमें से इंदौर के दो चौराहों बाम्बे हॉस्पिटल और सत्य सांई स्कूल वाले चौराहे पर जबरदस्त ट्रेफिक होता है। इंदौर के अखबारों में रोज ही, कहीं न कहीं, सड़क दुर्घटना की खबरें छपती रहती हैं जिनमें बच्चे और युवा असमय मारे जाते हैं। और कौन सा ऐसा अखबार होगा जिनमें इस तरह की खबरें नहीं छप रही होंगी।
दूसरे दिन यानी सात मई को मनु ने जिद की कि मैं उसके पीछे न आऊं। मैं नहीं गया। वह सुबह ठीक छह बजकर 55 मिनट पर निकल गया। मैं साढ़े दस बजे अपने आफिस आ गया। कामकाज के बीच में रह=रह कर मैं एक दहशत में भर जाता था। समय जैसे धीरे-धीरे रेंग रहा हो। मैंने नोट किया था कि मनु को स्कूल से घर पहुंचने में कम से कम पच्चीस मिनट लगते हैं। मैंने एक बजकर चालीस मिनट पर घर फोन किया। पहली घंटी गई तो मैंने महसूस किया कि मेरी धड़कन सामान्य से कुछ तेज है। फिर दूसरी और तीसरी घंटी गई। मेरी धड़कन अचानक तेज हो गई थी। कितनी सारी काली खबरें दिमाग में शोर मचाने लगीं। कई तरह की आशंकाओं ने एकाएक घेर लिया। चौथी घंटी पर उधर मां की आवाज थी। उसकी दादी ने बताया मनु घर आ चुका है।
दोस्तो, मैं नहीं जानता ईश्वर है कि नहीं, लेकिन मैं हमेशा प्रार्थना करता रहूंगा उन तमाम बच्चों के लिए जो किसी भी काम से, किसी भी कारण अपने घर से निकलते हैं कि वे वापस अपने घर लौट आएं।
मैं अपनी मां को याद करता हूं जो मेरे घर से निकलने पर मुझे ऐसे देखती थी कि मैं अब कभी घर वापस नहीं लौटूंगा।
घर लौटो बच्चो,, घर लौट जाओ!!

इमेजः

स्पेन के मशहूर चित्रकार डिएगो रिवेरा की पेंटिंग

Saturday, May 23, 2009

आंगन नहीं, धूप नहीं, खिलखिलाने की आवाजें नहीं


हमारे घर में आंगन था।
आंगन में धूप आती थी। सूरज दिखाई देता था।
अब घर के ठीक सामने तीन-चार बिल्डिंगें बन जाने से सूरज बारह बजे के पहले दिखाई ही नहीं देता। अब धूप की जगह आंगन में बिल्डिंग की परछाइयां दिखाई देती हैं।
पहले पिता सूर्य नमस्कार करते थे, अब करते तो लगता बिल्डिंगों को नमस्कार कर रहे हैं।
मां पहले मूंग की बड़ी और कई तरह के पापड़ बनाया करती थीं लेकिन अब बड़ी और पापड़ सुखाने के लिए आंगन में धूप नहीं आती।
भाभी या जीजी सिर से नहाती तो बाल सुखाने आंगन में आ जाया करती थीं।
अब न धूप आती है, न भाभी और जीजी बाल सुखाने इस आंगन में दिखाई देती हैं।
पूरे मोहल्ले में हमारा ही घर ऐसा था जिसमें आंगन था। मोहल्ले में धीरे-धीरे पुराने मकान टूट रहे थे, नए बनते जा रहे थे। उनके आंगन गायब हो गए। ज्यादा कमरे बनने से आंगन सिमटते जा रहे थे। अधिकांश घरों में प्यारा-सा छोटा-सा आंगन तक नहीं दिखाई देता। आंगनों में जो कमरे बन गए थे, उनमें एक ही परिवार के लोग अलग अलग रहने लगे थे। उन सब की अलग अलग दुनिया थी। उनके फ्रीज अलग थे, उनके टीवी अलग थे, उनकी कुर्सियां और सोफे अलग थे।
हमारे घर में जो आंगन था, वहां धूप आती तो घर के सारे लोग धूप सेंकते। पिता अपनी कुर्सी पर चाय की चुस्कियां लेते अखबार पढ़ते। फिर सरसों के तेल की मालिश करते। मैं अकसर सरसों के तेल से पिता के हाथ-पैरों की मालिश करता। फिर वे हमारे हाथ पैरों पर तेल लगा कर हलके हाथ से मालिश करते। कहते मालिश करा करो, बदन बनाओ। मां कपड़े सुखाती या पापड़ और बड़ी। उसी आंगन में हम सब बैठकर बासी रोटी से बना पुस्कारा खाते (रोटी को चूरकर हरी मिर्च -प्याज से बघार कर )।
पिता को किताबें पढ़ने का इतना शौक था कि वे बाहरी के कमरे में प्लग लगाकर एक लंबे वायर को आंगन तक ले आते और लैम्प जलाकर पढ़ते।
उस आंगन में पास खड़े पीपल और नीम के पेड़ से पिपलियां और निम्बोलियां गिरती रहती थी। हम इन पिपलियों को खाते थे। वे मीठी लगती थीं। उनका स्वाद हम अब तक भूले नहीं हैं। बसंत में हम कोयल की कूक सुनते। उसकी नकल करते। कई पक्षियों का कलरव सुनते। उन्हें उड़ते और बैठते देखते। शाम को लौटते देखते। हमारे आंगन में, हमारी कुर्सियों, हमारे कपड़ों पर बीट गिरती। हमारे आंगने में उनके पंख गिरते। हम हथेलियों में ले उन्हें उडा़ते। वे इतने हल्के, इतने कोमल होते की जरा सी फूंक से हवा में लहराने लगते। सुबह की कोमल धूप में वे पंख और कोमल दिखाई देते। सफेद, चमकीले। गर्मियों की शाम हमारे बिस्तर आंगन में लगते। हम तारों भरी रातों को निहारते सोते थे। मां हमें तारे बताती। खूब चमकीला तारा बताती। वे हमें तारों से बनी आकृतियां बताती- कभी धनुष, कभी हल। हम घटते-बढ़ते चंद्रमा को देखते। हम दूज का, तीज का और पूर्णिमा का चंद्रमा निहारते। बड़ी बहनें हमें कभी लोरियां और कभी कहानियां सुनाया करती थीं। कई बार पड़ोस के बच्चे हमारे साथ आकर मां से कहानियां सुनते। सुनते- सुनते हमारे साथ ही सो जाते। उनकी माएं उन्हें कभी ढ़ूंढ़ने नहीं आती। उन्हें पता होता कि वे हमारे साथ ही सोये होंगे।
आंगन में छोटे छोटे पौधे थे। गेंदा, चमेली, नींबू, केले। बहने उन्हें बराबर पानी देती। वे कभी सूखे नहीं। मुरझाए नहीं। कभी कभी आंगन में लाल-काली चीटियां हो जातीं। लाल चीटियों के काटने से हमें ददोड़े (लाल चकत्ते) हो जाते। मैं आटा डालती।
बहनें फुगड़ियां खेलती, लंगड़ी खेलतीं, पांचे खेलती। हम सब के खिलखिलाने से यह आंगन गूंजता था। मां हमारी इस खिलखिलाहट में शामिल होती थी। पिता यह सब देखते हुए मुदित रहते। उनका एक भरा-पूरा परिवार था। हंसता-गाता संसार था। हम उनके पंछी थे, हमारी चहचहाहट से उनका आंगन गूंजता था।
हमारा आंगन बहुत बड़ा था। सामान बहुत कम था। हमारे खेलने के लिए खूब जगह थी। हम गिरते तो घुटने छिल जाते थे। बहने गोद में उठा लिया करती थीं। मां हल्दी का फोहा लगाती। रात में हल्दी के साथ ही गरम दूध पिलाती। पिता चुपचाप अपने सीने से लगाए हमें थपकियां देते सुला लेते थे।
उस आंगन में हमें हमारे जीवन की सबसे मीठी नींद आती थीं।
अब न मां है, न पिता। कभी बहनें आती हैं, कभी -कभार भाभियां-काकियां भी आती हैं। बच्चे भी हैं। उनके दोस्त भी हैं। सुख-सुविधाओं का सामान भी है।
बस आंगन नहीं है, धूप नहीं है, धूप में बैठकर सबके खिलखिलाने की आवाजें नहीं हैं।

Friday, May 22, 2009

जिन्हें तुम धन्यवाद देना चाहते हो

कुमार अंबुज की कविता

न वह पेड़ बचता है और न वैसी रात फिर आती है
न ओंठ रहते हैं और न पंखुरियां
रूपकों और उपमाओं के अर्थ ध्वनित नहीं हो सकते
बारिश जा चुकी है और ये सर्दियां हैं जिनसे सामना है

जीवन में रोज ऐसा होता है कि कृतज्ञता ज्ञापित
कर सकने के क्षण में हम सिर्फ अचंभित रह जाते हैं
और फिर वक्त निकल जाता है

बाद में जिन्हें तुम धन्यवाद देना चाहते हो
तो पाते हो कि वे आदमी और जगहें ध्वस्त हो चुकी हैं
या इतनी बदल गई हैं कि उन्हें धन्यवाद देना
किसी अजनबी से कुछ कहना होगा

लेकिन इससे हमारे भीतर बसा आभार
और उसका वजन कम नहीं हो जाता
एक निगाह, एक हाथ और एक शब्द ने
यहां तक जीवित चले आने में हर एक की मदद की है
और इतने अचरज हमारे साथ हैं कि दुनिया में स्वाद है

धन्यवाद न दे सकने की कसक भी चली आती है
जो किसी मौसम में या टूटी नींद में घेर लेती है
जिन्हें तुम धन्यवाद देना चाहते हो
कई बार उन्हें खोजना भी मुश्किल है
और जो सामने हैं उनके बरक्स तुम
फिर अचकचाए या सकुचाए खड़े रहते हो

हालांकि कई चीजें तुम्हारी भाषा नहीं समझतीं
पतझड़, झरने, चाय की दुकान और अस्पताल की बेंच
लेकिन उनसे तुम्हारा बर्ताव ही बताएगा कि तुम
आखिर क्या चाहते हो

शायद इसलिए ही कभी सोच-समझकर या अनायास ही
लोग उनके कंधों पर सिर रख देते हैं


(नईदुनिया दिल्ली के साथ प्रकाशित होने वाली साप्ताहिक पत्रिका संडे नईदुनिया के 17 मई के अंक में प्रकाशित कविता)

Thursday, May 21, 2009

रात, चंद्रमा, स्त्री और एक किताब ने बचा लिया


दुनिया में हमेशा से कुछ ऐसी चीजें रही हैं, जिसके कारण लोग आत्महत्या करने को विवश हो जाते हैं। और दुनिया में हमेशा से ऐसी चीजें भी रही हैं जो लोगों को आत्महत्या करने से रोक लेती हैं और उन्हें फिर से जीवन में खींचकर यह अहसास कराती हैं कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। यह जीवन अपनी तमाम क्रूरताओं के बावजूद सुंदर है। फूल उतने ही चटख रंगों में खिलते हुए हमें खूबसूरती का अहसास बखूबी करा रहे हैं, कि अब भी इस जीवन में महक बरकरार है।

मुझे नहीं पता कि दुनिया का हर व्यक्ति अपने जीवन में कभी न कभी आत्महत्या करने का सोचता है या नहीं लेकिन मैं अपने जीवन में एकबारगी इस अनुभव से गुजरा हूं कि अब यह जीवन लीला समाप्त कर लेना चाहिए। शायद ऐसे पल आते हैं जब लगता है कि जीवन की हरीतिमा सूख चुकी है और उसकी जगह काला-भूरा उजाड़ फैल रहा है जिसमें सांस लेना दूभर होता जा रहा है। लेकिन यकीन करिये मुझे कुछ चीजों ने आत्महत्या करने से बचा लिया और मैं जीवन में वापस लौट आया, उसकी सुंदरता को महसूस करता हुआ, उसके फूलों को निहारता हुआ, महकता हुआ...

यदि मेरे जीवन में रात, चंद्रमा, स्त्रियां और किताबें नहीं होती तो मैं कब का खत्म हो चुका था। मुझे एक शांत और गहराती रात ने, मुझे उस खूबसूरत घटते-बढ़ते चंद्रमा ने, मुझे स्त्रियों ने और अंततः मुझे किताबों ने आत्महत्या करने से बचा लिया...

मैं यदि अपनी किसी प्रिय किताब के पास भी बैठा होता हूं तो मुझे लगता है कि दूर कहीं एक लोरी की आवाज सुनाई दे रही है जो घने जंगलों के बीच से आ रही है। इस लोरी की आवाज जहां से आ रही है वहां एक नदी के बहने की आवाज भी आ रही है। और मैं जब इस आवाज पर जरा ज्यादा ध्यान देता हूं तो मुझे लगता है इसमें एक शीतलता है जिसमें मेरे हर ताप को और हर त्रास को हर लेने की ताकत है। अपनी प्रिय किताब के पास बैठने से कभी कभी लोरी की जो यह आवाज सुनाई देती है उसमें हलका उजाला है जो सबसे घने अंधेरे को रेशम की चादर में बदल देता है। इस आवाज के आने के पहले जो अंधेरा गाढ़ा होकर अपने वजन से मेरा गला दबाने की कोशिश कर रहा था वह हलका होकर एक ताजी हवा को अंदर आने देने वाले झरोखे में बदल जाता है।

किताबें मेरे लिए हमेशा एक झरोखा खोलती हैं। मुझे उसमें अपने हिस्से की गहराती रात दिखाई देती है जिसमें उगते तारे मुझे कभी अकेला नहीं होने देते हैं। किताब के इस झरोखे में मुझे अपना वह चांद दिखाई देता है जिसकी चांदनी के तार मुझे कायनात के उस संगीत में ले जाते हैं जहां मैं अपने ही भीतर गूंजती कोई विरल धुन सुनता हूं। किताब के इस झरोखे से मुझे वह हरापन दिखाई देता है जो मुझे जीवन में फिर से लौट आने का आमंत्रण देता है।

यह किताबों के कारण ही संभव है। आज इस वक्त, मैं जीवन में हूं, तो किताबों के कारण। आज मैं किसी रात मे, चांदनी भरी रात में किसी स्त्री के पास हूं, तो किताबों के कारण। आज मैं इसी चांदनी भरी रात में किसी स्त्री को प्रेम करने के काबिल हूं, तो किताब की वजह से। और आज मैं किसी स्त्री के आंसू का स्वाद जानता हूं, तो किताबों के कारण ही।
ये रात, ये चंद्रमा, ये स्त्री और किताबें नहीं होती तो पता नहीं मैं कहां होता?
मुझे हमेशा एक रात ने बचा लिया।
मुझे हमेशा एक चंद्रमा ने बचा लिया।
मुझे हमेशा एक स्त्री ने बचा लिया।
और मुझे हमेशा एक किताब ने बचा लिया....

Wednesday, May 20, 2009

पत्ता-पत्ता, जीवन का हर राग गाता रफ्ता-रफ्ता




वहां कैनवास पर पत्ते ही पत्ते हैं। झरते हुए, कभी एक साथ और कभी छितराए हुए। हरे-पीले, नारंगी-नीले, काले-भूरे। उजाले में आकर नाचते हुए, उदास हो कर अंधेरे में डूबते हुए। लगता है जैसे हरे-पीले पत्ते जीवन का राग गाते हुए स्वागत कर रहे हों, नारंगी-नीले वसंत के हर्ष में नाच रहे हों। काले-भूरे जैसे बिछड़ने के दुःख में, विषाद में विलाप कर रहे हों। ध्यान से देखो तो लगेगा ये कैनवास से निकलकर आपको घेर लेते हैं और अपने उड़ने में, भटकाव में, एक लय में जीवन के गहरे आशय बता रहे हों। जैसे कह रहे हों यही जीवन है जिसमें उत्साह के साथ निराशा है, दुख के साथ सुख है और अंततः वसंत के साथ पतझर भी है। जाहिर है ये कैनवास जीवन के स्वागत के, बिछोह के और हर स्पंदन के रूप हैं, प्रतीक हैं। रफ्ता-रफ्ता जीवन के हर राग को गाते हुए।
ये नए कैनवास रचे हैं इंदौर के युवा चित्रकार राजीव वायंगणकर ने। उनके इन चित्रों की एकल नुमाइश मुंबई के आर्टिस्ट सेंटर में 25 से 31 मई को लगने जा रही है। इसमें वे 30 नए चित्रों को प्रदर्शित करेंगे। उन्होंने इसका शीर्षक दिया है- पत्ता पत्ता।
उनके घर पर ताजा चित्रों को देखते हुए महसूस हुआ कि ये चित्र गहरे दार्शनिक आशयों के चित्र हैं। इन पत्तों में जीवन का मर्म प्रकट हो रहा है। लेकिन इन पत्तों को रचने में राजीव की कोई हड़बड़ाहट नहीं देखी जा सकती बल्कि एक इत्मीनान है, धीरज है। जैसे वे जीवन के आशयों को जानकर उन्हें अनुकूल रूपाकारों में ढाल रहे हैं। इसलिए उनके पत्तों में स्पंदन है, कम्पन्न है। वे एक सोची समझी रंग योजना में इस तरह प्रकट होते हैं कि अपने साथ उन आशयों को लपेटे हुए लिए आते हैं जिन्हें चित्रकार अभिव्यक्त करना चाहता है। इसीलिए राजीव कहते हैं कि इससे पहले मैं अपने को टुकड़ों में अभिव्यक्त कर रहा था अब लगता है मैंने अपने आपको सही दिशा और सही भाव भूमि पर अभिव्यक्त किया है। मैं अब इस जीवन-जगत को, इसके रहस्यों और आशयों को गहराई से समझ रहा हूं।
राजीव अपने कैनवास पर प्रकाश और छाया का सुंदर खेल रचते हैं। उनके इस हलके-गहरे प्रकाश में पत्ते अपने आकारों में रूपायित होकर कभी उजाले में पास आते लगते हैं तो गहरे रंगों में दूर जाते हुए तिरोहित होते लगते हैं। लेकिन इसके पहले उनकी थरथराहट कैनवास पर छूट जाती है और इस तरह उड़ते और दूर जाते हुए पत्ते कैनवास को अपने आशयों से अर्थवान बना देते हैं। इसी से कैनवास धड़कने लगता है। कहने की जरूरत नहीं कि पत्ते पृथ्वी की जीवंतता है। उनमें जीवन के उत्सव-उल्लास के रंग हैं लेकिन मृत्यु निश्चित है इसलिए राजीव इन उत्सव मनाते पत्तों के बीच कहीं कही मृत्यु के प्रतीक काले-भूरे पत्तों को सायास और सावधानीपूर्वक रचते हैं। इस जीवन और मृत्यु के बीच ही उनके पत्ते उड़ते रहते हैं और आपकी स्मृति में गिरते हैं। वे आपको छूते हैं. आपको घेरते हैं, और बिना आवाज किए चुपचाप आपको जीवन का मर्म समझा जाते हैं। हालांकि राजीव बिल्व पत्र की महिमा बताते हुए इन कैनवास पर एक ही श्लोक लिखते हैं जिसका अर्थ यह है कि इस पत्ते को शिव को अर्पित करने से तीन जन्मों के पापों से मुक्त हुआ जा सकता है। वे श्लोक को अपने हर कैनवास पर इस तरह से लिखते हैं कि वह भी पेंटिंग का अभिन्न हिस्सा हो जाता है , उसकी लय में लय मिलाता अपनी सार्थकता हासिल करता है।
राजीव ने पत्तों को इतनी संवेदनशीलता से रचा है कि उनकी बनावट और टोनल इफेक्ट आकर्षित करते हैं। फिर वे टेक्स्चर को लेकर काम करते हैं, रंगों की पतली गहरी सतहें बनाते हैं, और इस तरह से आंखों की संवेदना को जगाते हैं। रंगों के साथ उनका बरताव चैनदारी और कल्पनाशीलता का है। इस तरह वे कभी शाम, कभी सुबह, कभी अंधेरे, कभी उजाले में झरते पत्तों को चित्रित करने मे कामयाब हुए हैं। टेक्स्चर उनका अलंकार है। इससे वे कैनवास को सजाते हैं। ये कैनवास पत्ता टूटा डाली से पवन ले गई उडा़व जैसी काव्य पंक्ति के रूप हैं। जीवन चक्र को ज्यादा कल्पनाशील ढंग से अभिव्यक्त करते हुए। राजीव के इन कैनवास को देखना जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव और रहस्यों को देखना-समझना है। इसमें जीवन के कई मूड्स हैं।

Monday, May 18, 2009

जिसके कंधे पर सिर रखकर रो सकें


किताबों पर लिखी जा रही श्रृंखला की दूसरी कड़ी

वह कुर्सी अब भी है। उसका एक हत्था ढीला हो चुका है। उसका रंग उड़ चुका है। अब वह ज्यादा कत्थई-भूरी दिखती है। वह सागौन की अच्छी लकड़ी से बनी कुर्सी है। सुबह की गुनगुनी धूप में या किसी ठिठुरती रात में हमारे घर की जर्जर पीली रोशनी में पिता इसी कुर्सी पर बैठकर अपनी मनपसंद किताबें पढ़ते रहते।
कभी गीता या रामचरित मानस का कोई गुटका, प्रेमचंद का गोदान या निर्मला, दिनकर के संस्कृति के चार अध्याय या फिर मुक्तिबोध का चाँद का मुँह टेढ़ा है। वे मराठी बहुत अच्छी बोलते थे और मराठी नाटकों में उन्होंने कई भूमिकाएँ अदा कीं।
वे मराठी साहित्य प्रेमी भी थे। मुझे उनसे जो लकड़ी की हरी पेटी मिली थी, उसमें इन बहुत सारी किताबों के साथ ही मराठी के नाटककार रामगणेश गडकरी के नाटक भी थे।
मैं अक्सर उन्हें उन किताबों में डूबा देखता था और सोचता था कि आखिर किताबों में ऐसा क्या है। एक दिन ऐसा नहीं जाता कि पिता किसी किताब को लिए बैठे न हों।
जैसे अपने जीवन में सब लोग अपने प्रिय जनों को हमेशा हमेशा के लिए खो देते हैं, ठीक उसी तरह मेरे पिता ने भी अपने प्रियजनों को बारी-बारी से खोया। जैसे कि मैंने उन्हें खो दिया। हमेशा के लिए। पिता के जाने के बाद मैंने माँ को पढ़ते हुए देखा। अब मैंने अपनी माँ को भी खो दिया है।
मैं भी किताबें पढ़ता हूँ और मुझे किताबें पढ़ता हुआ देख मेरा बेटा मुझे देखता है।
पहले पिता के पास किताबों को रखने के लिए कोई रैक नहीं थी। वे अपनी किताबें एक लकड़ी की पेटी में रखते थे।

फिर मैंने किताबें खरीदना शुरू कीं तो उन्हें सस्ती लकड़ी के एक रैक में रखता था। अब नए घर में दो-तीन आलमारियाँ हैं जिनमें मेरी किताबें भरी हैं। इनमें वे किताबें भी हैं जो मेरे पिता से मुझे मिली थीं।

मैं उन घरों में जाकर सिहर जाता हूँ जहाँ किताबों के लिए कोई कोना नहीं देखता ।
हमारे घर गोदामों में तब्दील हो चुके हैं। उनमें सुख-सुविधा के तमाम साधन हैं लेकिन कई घरों में देखता हूँ कि वहाँ किताबों के लिए कोई कोना नहीं है।

मैं चाहता हूँ कि मैं अपने पिता की वह कुर्सी हमेशा-हमेशा के लिए सड़ने से बचा लूँ जिस पर बैठकर वे किताबें पढ़ते थे। मैं चाहता हूँ मेरे बाद मेरा बेटा यह कुर्सी हमेशा-हमेशा के लिए बचा ले ताकि वह इस पर बैठकर कोई किताब पढ़ सके। और मेरे जाने से जो खालीपन उसके जीवन में पैदा होगा वह किताबों की खूबसूरत दुनिया से थोड़ा भर ले।
जैसे मैं अपने माता-पिता के जाने के बाद पैदा हुआ खालीपन किताबों से भरने की कोशिश करता हूँ।

युवा कहानीकार जयशंकर ने कितनी मार्मिक बात कही है-मुझे लगता रहा था कि अपने प्रियजनों के चले जाने के बाद जैसा खालीपन जीवन में उतरता चला जाता है, उसे किताबों से भी थोड़ा बहुत भरा जा सकता है। वहाँ किताबें हमारे आत्मीयजनों में बदल जाती हैं। वे हमारी मित्र हो जाती हैं और अपने कन्धों पर हमारा सर रख लेती हैं कि हम कुछ देर तसल्ली के साथ रो सकें। सांत्वना पा सकें। अपने जीने को सह सकें, अपने जीवन को समझ सकें।
मैं चाहता हूँ हर घर में कोई ऐसी किताब हो जिसके कंधे पर हम अपना सिर रखकर रो सकें। सांत्वना पा सकें। अपने जीने को सह सकें, अपने जीवन को समझ सकें।

Saturday, May 16, 2009

मोनालिसा! हम आ रहे हैं!!



वे बरसों से सभी को अपनी ओर खींच रही हैं। विशेषकर चित्रकारों को। उनका चेहरा अलौकिक है, मुस्कान चिर रहस्यमयी। चेहरे और आंखों के भाव इतने विरल और तरल हैं कि हजारों अर्थ निकाले जाते हैं। उनके प्रति मोह अंतहीन है। यही कारण है, सब उनकी ओर खींचे चले जाते हैं। वे मानालिसा हैं। इटली के महान चित्रकार-शिल्पकार लियोनार्दो दा विची की कालजयी कलाकृति। शहर के तीन कलाकार मोनालिसा की असल पेंटिंग को निहारना चाहते हैं। ये हैं ईश्वरी रावल, बीआर बोदड़े और सुशीला बोदड़े। ये तीनों कलाकार 15 मई को विदेश यात्रा पर नौ कलाकारों के साथ जा रहे थे। इसमें पुणे के छह कलाकार शामिल हैं। लेकिन स्वाइन फ्लू के कारण इन्होंने अपनी यात्रा फिलहाल स्थगित कर दी है। हालात ठीक होते ही वे यह यात्रा करेंगे।
दल का इरादा है कि घूमें भी और दुनिया की मशूहर आर्ट गैलरीज, संग्रहालय और पेंटिंग्स देखने का मौका न चूकें। यह दल अपनी सत्रह दिवसीय यात्रा में लंदन, पेरिस, रोम, फ्लोरेंस, वेटिकन सिटी, लुक्रेन(स्विट्जरलैंड ), इन्सप्रक(आस्ट्रिया), ब्रूसेल्स, एम्सटर्डम की सैर करेगा। इस दौरान ये कलाकार न केवल मशहूर आर्ट गैलरीज में विश्वविख्यात पेंटिंग्स को देखेंगे बल्कि चाहते हैं कि वहां मौजूद समकालीन कलाकारों से बातचीत भी हो सके।
वरिष्ठ चित्रकार ईश्वरी रावल बताते हैं कि मैं मोनालिसा को न केवल निहारना चाहता हूं बल्कि मैं उनके हाथों की बनावट का भी अध्ययन करना चाहता हूं क्योंकि कुछ शोधों का निष्कर्ष है कि मोनालिसा की अंगुलियां सूजी हुई हैं जो किसी बीमारी के लक्षण हैं। मोनालिसा पिछले पांच सौ सालों से कला इतिहास के केंद्र में हैं और उनसे लिपटे रहस्य अब तक बरकरार है। इस पेंटिंग को लेकर कई अध्ययन हुए हैं और सिद्धांत प्रतिपादित किए गए हैं। आज भी मोनालिसा को लेकर अध्ययन जारी हैं। जाहिर है यह लियोनार्दो दा विंची की अद्भुत कल्पना की कालजयी कृति है। यह पेंटिंग पेरिस के लुव्र संग्रहालय में है। श्री रावल बताते हैं कि मैं इसके अलावा लंदन की नेशनल गैलरी में अतियथार्थवादी महान चित्रकार सल्वाडोर डाली की अमर चित्रकृति मेटामार्फासिस आफ नैरसिसस देखने की भी गहरी उत्सुकता है और साथ ही ज्यां ओनार फ्रेगनार्ड के बनाए बच्चों के चित्र भी देखना चाहता हूं। इसके अलावा जॉन कॉन्स्टेबल द्वारा बनाया गया अपनी पत्नी का व्यक्तिचित्र मारिया बिकनेल देखूंगा।
वरिष्ठ चित्रकार बीआर बोदडे कहते हैं कि हम इस विदेश को यात्रा यादगार बनाने के लिए दुनिया के यादगार पेंटिंग्स देखने का मौका नहीं चूकना चाहते हैं। किसी भी चित्रकार के लिए यह दुर्लभ और अनूठा अनुभव हो सकता है कि वह दुनिया के दिग्गज चित्रकारों की मशहूर पेंटिंग्स के सामने खड़ा हो। हम जिन गैलरीज और संग्रहालयों में जाएंगे उनमें पाब्लो पिकासो से लेकर वान गॉग, गोया से लेकर रेम्ब्रां तक की पेंटिंग्स देख सकेंगे। संभव हुआ तो समकालीन चित्रकारों से संवाद करेंगे। वे कहते हैं कि मोनालिसा पेंटिंग्स के बारे में इतना सुन औऱ पढ़ रखा है कि उसकी असल पेंटिंग देखने की तमन्ना बरसों से मन में संजो रखी थी। उसे देखने के लिए मैं आतुर हूं और चाहता हूं कि उसके सामने ज्यादा से ज्यादा वक्त बिता सकूं। चित्रकार सुशीला बोदड़े तो रोमांचित हैं कि वे जल्द ही मोनालिसा की असल पेंटिंग को देख सकेंगी। वे कहती हैं मैंने आज से लगभग बास साल पहले मोनालिसा का एक बहुत ही खूबसूरत कैलेंडर देखा था। उनकी मोहक मुस्कान देखकर मैं मोहित हो गई थी। सोचा करती थी कि वह स्त्री कितनी खूबसूरत होगी जिसके चारों ओर अब भी रहस्य लिपटा है। इतनी रेअर पेंटिंग को देखना इस जीवन का सचमुच बहुत ही अनूठा अनुभव होगा। मैं रोमांचित हूं।

इमेजेसः
१. मोनालिसा
२. डाली की मेटामार्फिसिस आफ नैरसिसस

किताब, देह, स्त्री और सुजाताजी की प्रतिक्रिया

मेरी पोस्ट पर चिट्ठा चर्चा में सुजाताजी ने अपनी विनम्र असहमति जताई है। हरा कोना चिट्ठा चर्चा और सुजाताजी के प्रति आभार प्रकट करते हुए उस असहमति को यहां अविकल प्रस्तुत कर रहा है।

स्त्री देह का रहस्य एक सोशल कंस्ट्रक्ट है
मैं जब भी अपनी किसी प्रिय किताब को छूता हूं तो लगता है, एक स्त्री को छू रहा हूं। एक स्त्री की तरह किताब भी अपने सारे रहस्य एक बार में नहीं खोलती। पूरे दुःख में, पूरे सुख में, सारी ऋतुओं में, उसे बार-बार छूकर और पढ़कर ही सही अर्थों में हासिल किया जा सकता है। और तब वह अपने रहस्यों के अर्थ खोलती है। धीरे धीरे। एक विलंबित लय में।
एक देह में रूके समय को बहने के लिए और एक किताब में रूके समय को बहने के लिए एक प्रेमिल निगाह और प्रेमिल स्पर्श चाहिए होता है।
जब रवींद्र व्यास यह लिख रहे थे तो शायद उनके अनजाने ही इस धारणा को बल मिल रहा था कि स्त्री सदा पुरुष के लिए एक रहस्य रहती है।क्या वाकई इतना रूमानी होना सही है कि हम रहस्य -स्त्री देह -स्पर्श- किताब को एक साथ एक रूमानियत से देखने लगें! लगभग वही बात कि स्त्री का चरित्र तो ईश्वर भी नही जान सकता।क्या वाकई?मै सोचती हूँ कि क्या किताब के पास जाना किसी स्त्री के लिए भी किसी पुरुष के पास जाने जैसा होता होगा? क्या कभी ऐसा होता होगा?शायद आप बता पाएँ ! मेरे लिए कम से कम ऐसा नही।
मेरे लिए शायद यह ऐसा हो जैसा कि किसी कार्टून सीरियल मे एलियंस आते हैं रियल दुनिया मे जिन्हे हीरो अपने हथियारों और प्रयासों से किसी दूसरे डायमेंशन मे भेज देता है।किताब की दुनिया ऐसे ही किसी दूसरे डायमेंशन मे भेज देती है।
किताब को पढना कैसा है, सबके लिए अलग अलग हो सकता है इसका जवाब।
लेकिन फिलहाल मै इस पोस्ट को पढकर विचलित हूँ।रवीन्द्र ने जो लिखा वह आपने पढा।जो नही लिखा उसे मैने पढा। रहस्य को स्त्री देह के साथ जोड़कर महसूस करना और रूमानियत मे खो जाना व्यतीत क्यों नही होता? क्या रहस्य है ? कितना ही खुलापन है ,मीडिया है,विज्ञापन हैं,अंतर्जाल है जो ज्ञान के भंडार के साथ प्रस्तुत है , क्या जानना है? क्या रहस्य है?कम से कम वह स्त्री देह तो नही ही है।पहले स्कूल की किताब मे नवीं कक्षा मे कुछ समझ आता था कुछ नही।जिज्ञासा दोनो ओर थी।लेकिन क्या अब भी ?
जब जब हम स्त्रीके साथ इस रहस्य को जोड़ते हैं तो हमारे किशोर इस मूल्य के साथ बड़े होते हैं कि स्त्री रहस्य है इसलिए उससे डील करना आसान नही है। इसलिए वे उसके पास जाने से पहले अपने अस्त्र शस्त्र और योजनाएँ बना कर जाते हैं।मुक्त हो कर सहज भाव से नही।यदि आपको बताया जाए कि आप किसी तिलिस्म के दरवाज़े पर खड़े हैं तो स्वाभाविक ही होगा कि आपकी मन:स्थिति जूझने , लड़ने, विजयी होने , जीतने या भय के कारण उतपन्न असुरक्षा और अभिमान की होगी।एक ग्रंथि ! एक ऐसी ग्रंथि जो इस दुनिया मे स्त्री को कभी पुरुश के लिए और पुरुष को स्त्री के लिए सहज नही होने देती।
ऐसे मे जेंडर समानता की उम्मीद एक मुश्किल बात लगती है।कुछ रहस्य नही है।देह तो बिलकुल नही।इसे स्वीकार करना होगा। मन की बात है तो मन तो पुरुष का भी उतना ही रहस्य है।मन है ही रहस्य लोक ! मनोविज्ञान खुद मानता है इस बात को ।
स्त्री देह को रहस्यमयी मानना एक सोशल कंस्ट्रक्ट है।किसी भी अन्य सामाजिक संरचना की तरह इसकी भी सीमाएँ , खामियाँ,षडयंत्र , प्रयोजन , मकसद हैं।इन मूल्यों को आत्मसात करने वाली किशोरी अपनी वर्जिनिटी के खोने से किस तरह त्रस्त होकर आत्महत्या पर मजबूर होती है यह हम सुनते देखते हाए हैं?रहस्य है ? तो रह्स्य खुलने पर सब खत्म !!! है न !!
शब्द जो जाल बिछाते हैं उनसे उबरना स्त्री विमर्श के लिए बेहद ज़रूरी है।फिर बहुत सम्भव है कि यह शब्द जाल अजाने मे ही किन्ही जड़ीभूत संस्कारों के कारण प्रकट हुआ हो।
निश्चित ही रवीन्द्र का यह आलेख , बल्कि अधिकांश आलेख उत्तम होते हैं।लेकिन यहाँ उनसे मेरी विनम्र असमति है।पुस्तक प्रेम बढाने के लिए आप पुस्तक मे स्त्री देह का उपमान दें यह मौलिक भले ही हो लेकिन मासूम नही है।एकतरफा है।एकांगी है।स्त्री की नज़र से भी इसे देखें!

Friday, May 15, 2009

किताब के पास जाना, एक स्त्री के पास जाना है


क्या किताब के पास जाना एक स्त्री देह के पास जाने जैसा है। यह बहुत ही रोमांचक और उत्तेजित करने वाला अनुभव है।
स्त्री की तरह ही किताबों में सदियों की करवटें सोयी रहती हैं। एक प्रेमिल निगाह और आत्मीय स्पर्श पाकर वे करवटें अपनी तमाम बेचैनियों के साथ अपना चेहरा आपकी ओर करती हैं। लगभग पत्थर हो चुकी उसकी आंखें आपको एक नाउम्मीदी से टकटकी लगाए देख रही होती हैं। वह विरल व्यक्ति होगा जो स्त्रियों के पास जाते हुए उसकी आत्मा पर पड़ी सदियों की खरोंचों पर धीरे धीरे अपनी अंगुलियां फेरता है और पाता है कि उसकी समूची देह वह प्रेमिल स्पर्श पाकर एक लय में कांप रही है।
उन खरोंचों में मवाद है। वहां सूख चुकी मृत चमड़ी की महिन परतें हैं। लेकिन उसके नीचे अब तक सदियों में मिले असंख्य घाव हैं। वे अब तक ताजा हैं, अपने हरेपन में छिपते हुए। जैसे वे सदियों पुराने नहीं, बस कल रात के ही हों। और उंगली फिराते हुए कोई सूखी चमड़ी की परत उखड़ती है और वहां बिना किसी चीख या आह के घाव उघड़ जाते हैं और रक्त की सहसा उछल आई बूंद में बदल जाते हैं। बस यहीं और यहीं एक देह भी और इस तरह एक किताब भी यह महसूस करती है कि यही है वह स्पर्श जिसने मुझे ऐसे छुआ है कि इसके पहले कभी किसी ने नहीं छुआ था। और उसकी आत्मा के चंद्रमा से सदियों से जो सफेद, महिन बुरादा झर रहा था वह अचानक एक दूधिया उजाले में अपनी पूरी पवित्रता के साथ झिलमिलाने लगता है।
एक देह इसी पवित्रता में अपना कायांतरण इस तरह करती है कि सदियों से चट्टान के नीचे दबे बीज अंगड़ाई लेकर हरेपन के अनंत में अपनी नीली-पीली कोमलता में खुलते-खिलते हुए चमकने लगते हैं।
किताब के पास जाना एक स्त्री के पास जाना है। वह आपके स्पर्श करने के कौशल पर निर्भर करता है कि उसी देह को आप कैसे एक नई देह में बदलते हैं। यदि इस स्पर्श में यांत्रिकता और रोजमर्रा का उतावलापन है तो हो सकता है आप वही देह पाएंगे जो आपको लगभग निर्जीव-सा अनुभव देगी। तब शायद आप उस दुःख के आईने में नहीं झांक पाएंगे जिनमें दुनिया के झिलमिलाते अक्स हैं।
किताब एक स्त्री की आत्मा का घर है
जिसमें देह का रोना सुनाई देता है
रोना एक स्वप्न है
जिसमें बहुत सारी हिचकियां रहती हैं
हिचकियां एक चादर है
जिसके रेशों में दुःख का रंग है
दुःख एक आईना है
आईने में दुनिया के अक्स हैं।
किताब के पास जाना सचमुच एक स्त्री के पास जाना है। वहां अपने अकेलेपन में, अपनी ही धुरी पर घूमती पृथ्वी की आवाज एक आलाप की तरह सुनाई देती है। वहां अमावस्या और पूर्णिमा के बीच एक बेचैन चीख की आवाजाही है जिसका कोई ठोर नहीं। कोई ओर नहीं, कोई छोर नहीं। वह अनंत में अंतहीन है।
जब आप किसी किताब को छूते हैं, वह एक स्त्री को छूने जैसा ही है। आप उसे छूएंगे तो वहां आपको उजाड़ का धूसर और भूरापन भी मिलेगा और बसंत का नीला और पीलापन भी। वहां आपको बारिश की विलंबित लय भी मिलेगी और सूखे का चारों ओर गूंजता सन्नाटा भी। वहां रक्त को जमा देने वाली शीत ऋतु भी मिलेगी तो आपको ग्रीष्म का वह ताप भी मिलेगा जो आपकी आत्मा में पैठ चुकी प्राचीन सीलन को सूखाकर उड़ा देगा।
मैं जब भी अपनी किसी प्रिय किताब को छूता हूं तो लगता है, एक स्त्री को छू रहा हूं। एक स्त्री की तरह किताब भी अपने सारे रहस्य एक बार में नहीं खोलती। पूरे दुःख में, पूरे सुख में, सारी ऋतुओं में, उसे बार-बार छूकर और पढ़कर ही सही अर्थों में हासिल किया जा सकता है। और तब वह अपने रहस्यों के अर्थ खोलती है। धीरे धीरे। एक विलंबित लय में।
एक देह में रूके समय को बहने के लिए और एक किताब में रूके समय को बहने के लिए एक प्रेमिल निगाह और प्रेमिल स्पर्श चाहिए होता है।

इमेज ः
परेश मैती का जलरंग

Monday, May 11, 2009

पेंटिग्स कौन खरीदेगा?


हरा कोना पर मंदी के मद्देनजर एक पोस्ट लगाई गई थी-कौन बिकेगा, कौन नहीं। ख्यात कार्टूनिस्ट अभिषेक ने उसी पोस्ट के मद्देनजर यह कार्टून खासतौर पर हरा कोना के लिए भेजा है। हरा कोना उनके प्रति गहरा आभार प्रकट करते हुए यह कार्टून यहां प्रकाशित कर रहा है।

Saturday, May 9, 2009

कौन बिकेगा, कौन नहीं?



मंदी का असर चारों तरफ है। इसने कला-जगत पर भी असर किया है। पहला असर तो यही है कि इसका बाजार ठंडा पड़ गया है। दूसरा असर ये हुआ है कि अब यह बहस चल पड़ी है कि कला बाजार में आकृतिमूलक (फिगरेटिव) चित्र ज्यादा पसंद किए जाएंगे कि अमूर्त(एब्स्ट्रेक्ट)।
वरिष्ठ चित्रकार बीआर बोदड़े का कहना है कि मंदी का असर कलाकारों पर भी पड़ा है और बड़े महानगरों की बड़ी आर्ट गैलरीज ने अपने शो स्थगित कर दिए हैं। जिन कलाकारों ने दो-तीन साल पहले से बुकिंग कर रखी थी वे ही अपने शो कर रहे हैं और नए शो प्लान नहीं किए जा रहे हैं। वे कहते हैं कि मंदी के पहले कला बाजार में जो बूम आया था उसमें हर तरह का काम बिका लेकिन अब स्थिति ज्यादा साफ होगी क्योंकि अब लोग फिगरेटिव पेंटिंग्स ज्यादा पसंद करेंगे। इसका अब भी मार्केट है और यह लंबे समय तक चलेगा। पैसा कमाने के लिए जो अमूर्त चित्रकार कला में कूद पड़े थे उन्हें निराशा हाथ लगेगी। आकृतिमूलक चित्रकारी करने वाले युवा चित्रकार बृजमोहन आर्य का कहना है कि फिगरेटिव पेंटिंग्स से लोग अपने को ज्यादा सहज तरीके से कनेक्ट कर लेते हैं। इस तरह की पेंटिंग्स उनके अनुभव संसार का हिस्सा ही जान पड़ती है इसलिए वह उन्हें आकर्षित करती है और वे इसे खरीदते हैं।
युवा अमूर्त चित्रकार मोहित भाटिया अपना अलग नजरिया पेश करते हैं। उनका मानना है कि मंदी का दौर अस्थायी है लेकिन महत्वपूर्ण और स्थायी बात यह है कि चित्रकारी बेहतरीन होना चाहिए। वे आकृतिमूलक चित्रकारी और अमूर्त चित्रकारी की बहस को निरर्थक मानते हैं और कहते हैं कि जो अच्छा काम करेगा वह बिकेगा। इसलिए जेनुइन कलाकार कभी भी उपेक्षित नहीं किए जा सकते।
वरिष्ठ चित्रकार ईश्वरी रावल कहते हैं कि यह बाजार तय नहीं कर सकता कि आकृतिमूलक चित्र ज्यादा बिकेंगे कि अमूर्त चित्र। बाजार किसी भी कला का सही मूल्यांकन नहीं कर सकता। खास बात यह है कि कलाकार अपने चित्रों में रमा है कि नहीं। और यह भी कि उसकी चित्रकला पर बाजार का दबाव तो नहीं। आज कई ऐसे अमूर्त चित्रकार हैं जो परंपरा से दीक्षित होकर नहीं आए हैं। उन्होंने सीधे ही अमूर्त चित्रकारी करना शुरू कर दिया है। मैं मानता हूं कि जो अमूर्त चित्रकार यथार्थपरक चित्रकारी से होकर गुजरा है उसके अमूर्त चित्र भी ज्यादा सुंदर होंगे। चूंकि खरीदार को कला की उतनी समझ नहीं होती इसलिए वह कई बार सिर्फ रंगों से ही प्रभावित होकर चित्र खरीद लेता है जबकि यह जरूरी नहीं कि वह चित्र अच्छा हो।
युवा चित्रकार राजीव वायंगणकर का कहना है कि अब जिन लोगों ने चित्रकारी की फैक्टरी लगा रखी थी उसे बंद करने का समय है। कुछ लोगों ने कलाकारों ने चित्रकारी का प्रोडक्शन शूरू कर दिया था और अपने चित्रों का उतना समय नहीं दिया जितने की दरकार थी। कई चित्रकारों ने बाजार की मांग के अनुसार चित्रकारी की है। उनका मानना है कि आकृतिमूलक बनाम अमूर्त चित्रकारी की बहस नकली औऱ बेकार है। वे तर्क देते हैं कि संगीत चाहे शास्त्रीय हो या सुगम, मायने इस बात के हैं कि वह सुर-ताल में है कि नहीं। यही बात चित्रकारी पर भी लागू होती है। यह बात मायने नहीं रखती कि चित्र आकृतिमूलक है या अमूर्त । मायने यह बात रखती है कि उसमें सुर-ताल है कि नहीं।
इमेजेसः
ईश्वरी रावल का अमूर्त चित्र
बृजमोहन आर्य की पेंटिंग संगीतकार

Monday, May 4, 2009

जिंदगी से बेदखल पसीने की गंध


मेरे पिता के पसीने की गंध अब भी मेरे मन में बसी है। वे हमेशा पैदल चलते थे और उन्होंने कभी साइकिल तक नहीं चलाई। उनके बचपन का एक फोटो मैंने अब तक संभाल कर रखा है जिसमें वे तीन पहिए की साइकिल पर बैठे हैं। उन्होंने मुझे बहुत कम गोद में उठाया। संयुक्त परिवार में होने के कारण माँ हमेशा रसोईघर में रहती और मुझे मेरी बड़ी बहनें संभालती।
मुझे याद है, बचपन में खेलते हुए जब मेरे दाहिने पैर के अँगूठे का नाखून उखड़ गया तो पिता ने मुझे गोद में उठाया और सिख मोहल्ले के डॉक्टर सिंह के क्लिनिक ले गए क्योंकि उस दिन शायद डॉक्टर फाटक नहीं थे जो हमारे परिवार के सभी सदस्यों का इलाज करते थे।
मैंने रोते हुए पिता के कंधे पर अपना सिर रखा था और दर्द को सहते हुए मुझे पिता के पसीने की गंध भी आ रही थी। उसमें सरसों के तेल की गंध भी शामिल थी क्योंकि पिता कसरत के पहले मालिश किया करते थे।
हमारा घर बहुत छोटा था। बहनें जब कभी बाहर जाती, मेरी पीठ के पीछे कपड़े बदल लिया करती थीं। मेरी पीठ उनके लिए छोटा-सा कमरा थीं। कई बार जल्दबाजी में वे कपड़े ऐसे पटकती कि वे मेरे सिर पर गिरते थे। उनके पसीने में राई-जीरे से लगे बघार की गंध होती थी। उनके पसीने की गंध मैं भूला नहीं हूँ।
और दुनिया में कौन ऐसा बच्चा होगा जो अपनी माँ के पसीने की गंध को भूल सकता है।
और आज खुशबू का करोड़ों का कारोबार है, जिंदगी से पसीने की गंध को बेदखल करता हुआ। एक विज्ञापन बताता है कि एक खुशबू में इतना आकर्षण, सम्मोहन और ताकत है कि दीवारों में लगी पत्थर की हूरें जिंदा होकर चुपचाप मंत्रमुग्ध-सी उस बाँके युवा के पीछे चल पड़ती हैं जिसने एक खास तरह के ब्रांड की खुशबू लपेट रखी है।
अब तो हर जगह को नकली खुशबूओं ने घेर रखा है। शादी हो या कोई उत्सव, या चाहे फिर कोई-सा प्रसंग नकली खुशबुओं का संसार पसरा पड़ा है। जिसको देखो वह बाजार में सजी नकली खुशबू में नहाया निकलता है। मजाल है जो कहीं से पसीने की गंध आ जाए। और अब तो खुशबूएँ कहाँ नहीं हैं। वे हमारी गोपन जगहों पर भी पसरी पड़ी हैं क्योंकि अब बाजार में कंडोम भी कई तरह की खुशबू में लिपटे मिलते हैं।
मैं जहाँ कहीं, किसी कार्यक्रम में जाता हूँ तो लोग नाना तरह की खुशबू में नहाए मिलते हैं। इन समारोह में कई ऐसे दृश्य भी दिखाई देते हैं जहाँ पिता अपने बच्चों को ढूँढ़ रहे हैं, माँएँ अपने बच्चों को गोद में बैठाकर आईसक्रीम खिला रही हैं या फिर बहनें अपने छोटे भाई का हाथ पकड़कर उसे नूडल्स के स्टॉल की ओर ले जा रही हैं। और ये सब नकली खुशबू में नहाए खाते-पीते खिलखिला रहे हैं।
खुशबू के फैले इस संसार में क्या उस बच्चे को अपने पिता, माँ या बहन के पसीने की गंध की याद रहेगी?

Friday, April 17, 2009

नजारों से नजरिये तक







इंदौर के चित्रकार-कहानीकार प्रभु जोशी के नए चित्रों को देखकर यह सहज ही कहा जा सकता है कि लैंडस्केप के प्रति उनका फेसिनेशन बरकरार है। विषयों की विविधता और रंग बहुलता के बावजूद उनके नए काम इसलिए सौंदर्यपूर्ण हैं क्योंकि इनमें उनकी पुरानी मनोहारी रंग-योजना और रंगों को बरतने की जादुई तरकीब का कमाल देखा जा सकता है। इस बार उन्होंने वाटर कलर्स का साथ छोड़कर मिक्स मीडिया में काम किए हैं। उनकी इस 12 वीं एकल नुमाइश का बुधवार को उद्घाटन किया ख्यात पत्रकार-चित्रकार-फिल्ममेकर प्रीतीश नंदी ने। इसमें उनके 14 शामिल हैं जो उन्होंने कैनवास पर मिक्स मीडिया में बनाए हैं।
उनके नए चित्रों की दो-तीन खासियतें तुरंत ध्यान खींचती हैं। पहली तो यही कि पहले वे सिर्फ खूबसूरत प्राकृतिक नजारों के चित्रकार थे जिसमें प्रकृति की कोई छटा अपने दिलकश अंदाज के साथ प्रकट होती थी लेकिन इस बार के चित्र उनके नजरिये का पता भी देते हैं। इस बार उनके चित्रों में खंडित समय, स्मृति की पगडंडी पर बचपन के दिन और स्मृति भंग की परछाइयां साफ देखी जा सकती हैं। मिसाल के तौर पर उनके एक चित्र में खूबसूरत लैंडस्केप के बीच एक मस्तिष्क है। और उस मस्तिष्क में भी रंगों के कई टुकड़े हैं जो वस्तुतः समय के ही टुकड़े हैं। वे कहते भी हैं कि मेरे ये चार चित्र नवगीतकार स्वर्गीय नईम को ट्रिब्यूट हैं। हम एक खंडित समय में ही रह रहे हैं जहां स्मृतियां हैं स्मृति भंग है और स्मृति का लोप भी है।
उनके एक चित्र में स्मृतियों का धुंधला स्मरण है जहां बचपन के कपड़े सूख रहे हैं यानी वे स्मृति की पगडंडी से गुजरते हुए अपने अतीत की स्मृतियों को रूपाकारों में जीवंत कर रहे हैं। यह भूलने के विरूद्ध याद रखने की रंग-यात्रा भी है। इसी तरह उनके अन्य चित्रों में स्मृतियों की अवसादपूर्ण मौजूदगी भी महसूस की जा सकती है जिसमें जंगलों के कटने का एक दृश्य है और जंगलों के कटने का एक अर्थ स्मृतियों का धराशायी होना भी है। इस पीड़ाजनक अनुभव को वे अपने सिद्ध कला-कौशल से रचते हैं। इसके अलावा उन्होंने कालिदास रचित कुमार संभव को ध्यान में रखते हुए शिव के जो चित्र रचे हैं। एक चित्र में बहुत ही खूबसूरती से उन्होंने शिव के त्रिशूल, कमर से उतारी गई छाल, पार्वती की साड़ी और माथे से हटाकर एक तरफ रखा गया चंद्रमा चित्रित किया है तो दूसरे चित्र में शिव की पगथलियों के सामने पार्वती की पगथलियां बनाई हैं। एक प्रीतीशनंदी का व्यक्तिचित्र भी उन्होने बनाया है जिसमें आंख हरी, सिर लाल और होंठ गुलाबी बनाए हैं।
लेकिन विषय वैविध्य होने के बावजूद इन तमाम चित्रों को देखकर बाआसानी कहा जा सकता है कि ये एक ही चित्रकार की कृतियां हैं। इसका कारण है कि उन्होने इसमें अपनी पुरानी रंग योजना, तकनीक और रंगों के वापरने के अपने चिरपरिचित ढंग को बरकरार रखा है। यानी उन्होंने एक्रिलिक और आइल कलर को पानी पानी कर दिया है इसी कारण उनके इन नए चित्रों में वह रंगों की तरलता और सहज बहाव और उस पर असाधारण नियंत्रण देखा जा सकता है। यह उनकी लंबी रियाज का ही प्रतिफल है कि उनके चित्रों का कुल प्रभाव लगभग जादुई है और दर्शाता है कि अपने मीडियम पर उनका नियंत्रण अंसदिग्ध है। इसके अलावा कहीं कही बहाव को तोड़ते उनके सायास टेक्सचर और कम्पोजिशंस के साथ लैंडस्केप के पर्सपेक्टिव खासे आकर्षित करते हैं। वे कहते हैं मैंने इसमें कहींकहीं इंक का भी इस्तेमाल किया है। वे कहते हैं कि तमाम दुःखद स्मृतियों और पीडा़दायी अनुभवों के बावजूद कला से सौंदर्य को बाहर नहीं किया जा सकता है। सौंदर्य उसका मूलतत्व है लिहाजा ये चित्र अवसादपूर्ण होकर भी सुंदर हैं।
इसलिए इनमें खंडित समय और स्मृति भंग के चित्र के साथ ही बहती नदी, कोहरे में लिपटे पहाड़ और अपने में ही मगन पेड़ और खुला आसमान दिल लुभाते हैं।

Friday, April 10, 2009

ठीक आदमजात-सा बेखौफ़ दिखना चाहता हूँ


क्या हिंदी समाज में एक कवि के जाने का कोई कुछ मतलब बचा रह गया है? जब किसी कविता संग्रह की तीन सौ प्रतियों का एडिशन पाँच सालों में पूरा नहीं बिकता हो तब किसी कवि का लगातार रचते रहना, उसका बीमार हो जाना या यकायक चले जाना इस समाज के लिए क्या मायने रखता है, ऐसे समय में जब कविता समाज की चिंता करती हुई हरदम उससे मुखातिब और रूबरू है और समाज उसकी तरफ से पीठ किए बैठा हो तब कवि की मृत्यु को इस समाज में किस तरह लिया जा रहा होगा इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।
नईम साहब चले गए। पहले वे चुप हुए, फिर शांत हो गए। यह एक ट्रेजेडी है। एक तरफ वे समाज में हर पाखंड और आडंबर के खिलाफ लड़ते रहे वहीं कविता के स्तर पर एक लगभग जानलेवा आत्मसंघर्ष भी करते रहे। हिंदी में कई आलोचक आज भी गीत और नवगीत के नाम पर नाक-भौंह सिकोड़ते हैं। इन्हीं आलोचकों के दबाव में हिंदी के कई गीतकारों ने अपनी लीक छोड़कर नई कविता की शरण ली थी। शायद गिरिजाकुमार माथुर इसके एक उदाहरण हो सकते हैं लेकिन नईम अपने नवगीतों पर डटे रहे। आखिर तक। यह नईम साहब के ही बूते और साहस की बात थी कि वे अपनी कविता में यह कह सके कि-
शामिल कभी न हो पाया मैं
उत्सव की मादक रुनझुन में
जानबूझ कर हुआ नहीं मैं
परम्परित सावन फागुन में
क्या कहिएगा मेरे इस खूसठ स्वभाव को?
यह उनकी कविता का ही स्वभाव नहीं था कि वे किसी उत्सव की मादक रुन-झुन में शामिल नहीं हुए बल्कि यह उनके व्यक्तित्व की ही खासियत थी जिसे उन्होंने अपना खूसठ स्वभाव कहा है। वे न कविता में, न जीवन में सच कहने से कभी चूके। कितना भी बड़ा फन्ने खां हो, वे उसके मुंह पर, सबके बीच सच कहने की ताकत रखते थे। जाहिर है यह उसी के लिए संभव हो सकता है जो निजी राग-द्वेष से ऊपर उठकर, निस्वार्थ और निडर होकर रहता आया हो।
उनके गीतों से गुजरकर यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता था कि एक तरफ वे मन के साफ निर्मल जल में जीवन के अर्थ को और मर्म को देखने की चाहत रखते थे और यह भी कि जीवन के कटु यथार्थ को अभिव्यक्त करने के लिए वे अपने को भी दाँव पर लगा सकते थे। वे अपने जीवन को, अपने समय को साधने की काव्यगत चेष्टाएँ करते रहे। अपने एक गीत में वे लिखते हैं-
भूत प्रेतों को नहीं, केवल समय को साधना है।
बंधु! मेरी यही पूजा-अर्चना, आराधना है।
शब्द व्याकुल हैं
समय के मंत्र होने के लिए
और यह भाषा
व्यवस्था तंत्र होने के लिए।
हो सकें तो हों हृदय से, ये हमारी कामना है।

वे सचमुच दिल से यह कामना करते रहे कि उनके शब्द समय के मंत्र बन जाएँ और यह सच है कि उनके शब्द मंत्र बनने की कोशिश करते रहे क्योंकि उनके गीतों में हमारे समय की विद्रूपताएँ और विडंबनाएँ तो गूँजती रहीं साथ ही जीवन के उत्साह-उमंग भी गूँजते रहे। जो उनके संपर्क में आए और जिन्होंने उन्हें पढ़ा है वह सहज इस बात पर विश्वास कर सकता है कि उनके लिखने-कहने और जीने में कोई फाँक नहीं थी। उनकी इन पंक्तियों पर गौर कीजिए-

लिखते कटते हाथ हमारे
किंतु जबाँ पर आँच न आती।
लिखने कहने में अंतर है
कैसे हैं ये सखा संगाती

क्या यह कहने की जरूरत है कि उन्होंने अपनी कविता में जहाँ एक ओर अपने हृदय को बानी दी है वहीं अपने समय की सचाई को कहने के लिए तीखे व्यंग्य का सहारा भी लिया। इसीलिए उन्होंने लिखा कि-

अपने हर अस्वस्थ समय को
मौसम के मत्थे मढ़ देते
निपट झूठ को सत्यकथा सा
सरेआम हम तुम मढ़ लेते
तनिक नहीं हमको तमीज हँसने रोने का
स्वांग बखूबी कर लेते भोले होने का
जिनकी मिलती पीठें खाली
बिला इजाजत हम चढ़ लेते


उनकी नजर समय की विडंबना पर कितनी अचूक थी, इसे व्यक्त करने की भाषा उतनी ही मारक थी इसका अंदाजा इस कविता से लगाया जा सकता है कि

हम तुम
कोशिश ही करते रह गए जनम भर
लेकिन वो
जाने,क्यूँ, कैसे
रातों,रात महान हो गए,

लेकिन वे जीवन के गीत भी गाते थे। वे जीवन में मिलनेवाली शंख और सीपियों को बटोरना भी चाहते थे। वे चाहते थे कि हम खुली हवा और पानी से सीखें कि जीवन क्या है। वे चाहते थे हम प्रकृति की भाषा को पढ़ें और साथ साथ पानी उछालें। वह पानी जो भाव से बना है। वह पानी जो जीवन से बना है। वह पानी जो आँसुओं से बना है। यही नहीं, वे जीवन के स्वीकार की, जीवन के स्वागत की कविता भी करते थे और चाहते थे कि हमारे दिन भी नदी और ताल के दिन बन जाएँ-
आओ हम पतवार फेंककर
कुछ दिन हो लें नदी ताल के
नाव किनारे के खजूर से बाँध
बटोरें शंख-सीपियाँ
खुली हवा, पानी से सीखें
शर्मो-हया की नई रीतियाँ

बाचें प्रकृति पुरूष की भाषा
साथ-साथ पानी उछाल के
लिख डालें फिर नए सिरे से
रंगे हुए पन्नों को धोकर
निजी दायरों से बाहर हो
रागहीन रागों में खोकर
आमंत्रण स्वीकारें उठकर
धूप-छाँव-सी हरी डाल के

नमस्कार पक्के घाटॊं को
नमस्कार तट के वृक्षों को

पोंछ-पोंछ डालें जिस्मों से
चिपक गए नागर कक्षों को
हो न सके यदि लगातार
तब जी लें सुख हम अंतराल के

वे शायद हमेशा से ही अपनी कविता में प्यार लिखना चाहते थे और बेखौफ दिखना चाहते थेः

लिख सकूँ तो?
प्यार लिखना चाहता हूँ,
ठीक आदमजात सा
बेखौफ़ दिखना चाहता हूँ।

अब वह गीतकार हमारे बीच नहीं हैं। जो आदमजात सा बेखौफ दिखना चाहता था और हमें भी ठीक उसी तरह होने के लिए प्रेरित करता था।
(प्रो. अब्दुल नईम खान यानी नईम साहब को आज उनकी कर्मभूमि देवास में दफनाया गया। गुरुवार को शाम पांच बजकर चालीस मिनट पर उन्होंने इंदौर के बाम्बे हॉस्पिटल में आखिरी सांस ली। 9 जनवरी को उन्हें ब्रेन हेमरेज होने पर इंदौर के विशेष हॉस्पिटल में भर्ती किया गया था। इसकी सूचना मुझे कथाकार-चित्रकार प्रभु जोशी से मिली थी और उसी दिन रात को हम दोनों उनसे मिलने गए थे लेकिन वे अचेत थे। पथराई आंखें और लिख सकूं तो उनके नवगीत संग्रह प्रकाशित हैं। उन्होंने कुछ समय तक काष्ठ कला भी की। एक पत्रिका जरूरत निकाली थी। मैं उनसे कई बार मिला। देवास में उनके घर, इंदौर और भोपाल के कई कार्यक्रमों में। मेरे पिता की मृत्यु पर उन्होंने मुझे एक लंबा खत लिखा था। वह अब भी मेरे पास है। जिन लोगों को उनका थोड़ा-बहुत स्नेह मिला, उनमें मैं भी हूं। हरा कोना उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करता है। )

Thursday, April 9, 2009

यहां पानी चांदनी की तरह चमकता है


कुमार अंबुज की कविता

आंधियां चलती हैं और मेरी रेत के ढूह
उड़कर मीलों दूर फिर से बन जाते हैं
यह मेरी अनश्वरता है

यह दिन की चट्टान है जिस पर मैं बैठता हूं
प्रतीक्षा और अंधकार। उम्मीद और पश्चाताप
वासना और दिसंबर। वसंत और धुआं
मैं हर एक के साथ कुछ देर रहता हूं

तारों की तरह टूटते हैं प्रतिज्ञाअों के शब्द
अंतरिक्ष में गुम होते हुए उनकी चमकभर दिखती है।
चंद्रमा को मैं प्रकट करता हूं किसी ब्लैक होल में से
और इस तरह अपने को संसार में से गुजारता हूं

इस संसार में मेरे पास प्रेमजन्य यह शरीर है अलौकिक
इसी में रोज खिलते हैं फूल और यहीं झर जाते हैं
बहती है नीली नदियां और वाष्पित होती हैं
जो मिलती हैं समुद्रों में
गिरती हैं फिर बारिश के साथ
यहीं है उतना निर्जन जो जरूरी है सृष्टि के लिए
इसी में कोलाहल है, संगीत है और बिजलियां
पुकार है और चुप्पियां
यहीं है वे पत्थर जिन पर काई जमा होती है
यहीं घेर लेती हैं खुशियां
और एक दिन बुखार में बदल जाती हैं

यह सूर्यास्त की तस्वीर है
देखने वाला इसे सूर्योदय की भी समझ सकता है
प्रेम के वर्तुल हैं सब तरफ
इनका कोई पहला और आखिरी सिरा नहीं
जहां से थाम लो वही शुरूआत
जहां छोड़ दो वहीं अंत
रेत की रात के अछोर आकाश में ये तारे
चुंबनों की तरह टिमटिमाते हैं
और आकाशगंगा मादक मद्धिम चीख की तरह
इस छोर से उस छोर तक फैली है

रात के अंतिम पहर में यह किस पक्षी की व्याकुलता है
किस कीड़े की किर्र किर्र चीं चट
हर कोई इसी जनम में अपना प्रेम चाहता है
कई बार तो बिल्कुल अभी, ठीक इसी क्षण
आविष्कृत हैं इसीलिए सारी चेष्टाएं, संकेत और भाषाएं

चारों तरफ चंचल हवा है वानस्पतिक गंध से भरी
प्रेम की स्मृति में ठहरा पानी चांदनी की तरह चमकता है
और प्यास का वर्तमान पसरा है क्षितिज तक
तारों को देखते हुए याद आता है कि जो छूट गया
जो दूर है, अलभ्य है जो, वह भी प्रेम है
दूरी चीजों को नक्षत्रों में बदल देती है।


(...और पेंटिंग रवीन्द्र व्यास की है। )

Wednesday, April 8, 2009

पलाश-सेमल के फूल और रंगात्मक प्रतिरोध






उनके चित्रों में वे सेमल और पलाश के चटख फूल रूपायित हो रहे हैं जो उन्होंने अपने बचपन में कभी गांव में देखे थे। ये फूल उनके कैनवास पर बोल्ड स्ट्रोक्स और गहरे रंगों में खिलकर लोगों को आकर्षित कर रहे हैं। यही नहीं उन्होंने बांग्ला लेखिका तस्लीमा नसरीन के पक्ष में अपने रंगात्मक प्रतिरोध को अभिव्यक्ति दी है। अपने गहरे रंगों के कैनवास लेकर मनोज कचंगल फिर प्रस्तुत हैं। फाइन आर्ट कॉलेज इंदौर के स्टूडेंट रहे युवा चित्रकार मनोज के नए चित्रों की एकल नुमाइश चैन्नई में 11 से 17 अप्रैल तक आयोजित होगी। अप्पाराव गैलरीज में होने वाली इस प्रदर्शनी में एक्रिलिक में बनाए उनके 14 काम प्रदर्शित होंगे। उल्लेखनीय है कि उन पर एक बड़ी किताब डोअर्स आफ परसेप्शन भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से छपकर आई है। इसका संपादन देश की ख्यात कला समीक्षक रत्नोत्तमा सेनगुप्ता ने किया है। इसी शीर्षक से उन पर एक डाक्युमेंट्री फिल्म भी बन चुकी है जिसे प्रेवश भारद्वाज ने निर्दैशित किया है और विषय विशेषज्ञ के रूप में ख्यात कवि-कला समीक्षक विनोद भारद्वाज ने योग दिया है।
मनोज ने फाइन आर्ट कॉलेज इंदौर से 2001 में बीएफ किया और 2003 में एमएफए किया। वे कुछ सालों तक इंदौर में ही चित्रकारी करते रहे और पिछले पांच-छह सालों से नोएडा में बस गए हैं। वे पहले क्षैतिज ब्रश स्ट्रोक्स लगाकर अपने कैनवास पर सुंदर भू-दृश्य रचते थे। अक्सर हलके रंगों को पतला करते हुए वे परत-दर-परत इस्तेमाल करते थे। यानी एक्रिलिक रंगों को वे लगभग वाटर कलर्स की तरह वापरते थे और एक के ऊपर एक सतहें रचते हुए उन्हें टोनल इफेक्ट्स देते थे। कैनवास के नीचे की सतह को अक्सर गहरे रंगों और फिर हल्के रंगों के साथ ऊपर बढ़ते हुए जमीन-आसमान एक कर देते हैं। और इस तरह तैयार होते थे उनके खूबसूरत लैंडस्केप। अब उनमें बदलाव आया है और अब रंगों की क्षैतिज सतह पर उनके बोल्ड स्ट्रोक्स या रंगों के बड़े बड़े पैचेस दिखाई देते हैं।
वे कहते हैं कि बचपन में मुझे पलाश के चटख रंग खींचते थे। मैंने उन्हें देखते कभी अघाया नहीं। वे मेरे अवचेतन में कहीं गहरे बसे हुए थे। अब वही पलाश और सेमल के फूल मेरे कैनवास पर कलानुभव में रूपांतरित हो रहे हैं। इंदौर में चित्रकारी की बारिकियां सीखते हुए मैंने मांडू और आसपास की जगहों के लैंडस्केप किए हैं और प्रकृति मुझे मोहित करती है। मांडू को लेकर तो मैंने एक पूरी सिरीज ही की थी- सिम्फनी आफ रूइंस। इसे लेकर मैंने बनारस में एकल नुमाइश की थी जिसे सराहा गया था। इसके बाद मैंने रंगों को धीरे-धीरे जानना शुरू किया, उनकी एकदूसरे के साथ संगति को समझा और फिर मैंने एक और सिरीज की-सिम्फनी आफ कलर्स। तो चटख रंगों की इस यात्रा में मेरा यह पड़ाव है जिसमें मैंने पूरी ताकत के साथ लाल-नीले-पीले रंगों का कल्पनाशील इस्तेमाल किया है। मैं वान गाग के रंगों और रंग लगाने के उनके तरीकों से बेहत प्रभावित रहा हूं। मैंने अपने नए चित्रों में रंगों को लगाने का नया ढंग सीखा है। उन्होंने तो बांग्ला लेखिका तस्लीमा नसरीन को भारत में पनाह नहीं देने के विरोध में भी पेंटिग की है। वे कहते हैं इस घटना से मैं इतना विचलित था कि मैंने लाल रंगों के बोल्ड स्ट्रोक्स से इसका रंगात्मक प्रतिरोध किया। मेरे ये चित्र इस नई प्रदर्शनी में शामिल हैं।
रजा पुरस्कार प्राप्त मनोज कहते हैं कि मुझ पर किताब छपना और डाक्युमेंट्री फिल्म बनना एक तरह से ईश्वर की कृपा है। इससे मुझे हिम्मत मिली है कि मैं और बेहतर काम कर सकूं। डाक्युमेंट्री की कुछ शूटिंग इंदौर के फाइन आर्ट कॉलेज, छावनी, रेलवे स्टेशन, मांडू में हुई है। कुछ हिस्सा दिल्ली और कोलकाता की आर्ट गैलरीज में शूट किया गया है जहां मेरी एक्जीबिशन थी। इसके अलावा मेरे स्टुडियो में मुझे काम करते हुए और बातचीत करते हुए दिखाया गया है।
किताब डोअर्स आफ परसेप्शन में मनोज का इंटरव्यू, देश के नामचीन समीक्षकों की समीक्षाएं, उनके बचपन से लेकर अब तक के चुनिंदा फोटो, उनके शुरूआती से लेकर नए काम शामिल किए गए हैं। इसमें उनकी डाक्युमेंट्री के बार में एक संक्षिप्त राइट अप है।
उनका मानना है कि मंदी आने से कलाकारों को कोई फर्क नहीं पड़ा। फर्क पड़ा है तो उन गैलरियों को जो मुनाफा कमाने के लिए धड़ाधड़ खुल गई थीं। फर्क पड़ा है तो उन कलाकारों को जो सिर्फ पैसा कमाने के लिए कला के इलाके में आए थे। जो अच्छे कलाकार हैं वे पहले भी बिक रहे थे और मंदी के इस दौर में भी बिक रहे हैं। लेकिन मंदी से अब कला बाजार भी थोड़ा साफ होगा और यह नए सिरे से उभरेगा। और यह भी कि अब असल कलाकार ही टिक सकेंगे।
इमेजेस
१. मनोज की किताब का कवर
२. मनोज का एक पुराना लैंडस्केप
३. मनोज का नया लैंडस्केप
४. मनोज का एक और नया लैंडस्केप
५. मनोज, गैरी बेनेट के साथ जिन्होंने एक आक्शन में मनोज की पेंटिंग खरीदी थी।

Monday, April 6, 2009

बूंदें, पंखुड़ियां, रोटी और चुंबन



यह सचमुच जीवन की यात्रा है। अपने भ्रम और यथार्थ के साथ। भौतिकता और आध्यात्मिकता के साथ। प्रेम और भक्ति के साथ। भूख और प्यास के साथ। यहां आपको पानी की बूंदें, पंखुड़ियां, रोटी, प्रेम और चुंबन दिख जाएंगे। सुख-दुःख के जुड़वां चेहरे मिल जाएंगे लेकिन ये इतनी तल्लीनता और कलात्मक कौशल से रचे गए हैं कि आप गैलरी से बाहर निकलते हैं तो वे बूंदें, रोटी और चुंबन आपके साथ-साथ चले आते हैं। वे आपकी स्मृति में ठहर जाते हैं, धड़कते हैं और एकबारगी फिर हमें ये याद दिलाते हैं कि हमारी जिंदगी में इनके होने का कितना गहरा मतलब है।
यह सब देखा और महसूस किया जा सकता है दिल्ली के चित्रकार विजेंदर शर्मा की प्रदर्शनी जर्नी आफ लाइफ में। शनिवार को इंदौर में उनकी प्रदर्शनी शुरू हुई। पहली ही नजर में ये पेंटिंग्स जता देती हैं कि चित्रकार की यथार्थपरक शैली में काम करने की रियाज कितनी तगड़ी है। यही नहीं, ये पेंटिंग्स इस बात की भी गवाही देती हैं इन्हें किसी ध्यानस्थ अवस्था में बनाया गया है। यानी इसमें कलाकार की एकाग्रता, अपने माध्यम पर अचूक नियंत्रण और अपने सोच को अनुकूल आकृतियों और रंगों में ढालने की अद्भुत क्षमता के दर्शन भी होते हैं। चाहे पुजारी की भीगी धोती की सलवटें हो, पीठ और हाथों से फिसलती पानी की बूंदें हों, पंखुड़ियां या फिर चाहे सिंकी हुई रोटी हो या चुंबनरत जोड़ा इन्हें इस तरह रचा गया है कि ये चौंका देने की हद तक सच्ची लगती हैं। जाहिर है, वे सधी रेखाअों, अचूक आंतरिक दृष्टि, कल्पनाशील दिमाग और संवेदनशील रंगों से एक ऐसी दुनिया को रचते हैं जो एक साथ यथार्थ और भ्रम का अहसास कराती हैं। रोटी और लव शीर्षक की पेंटिंग उन्होंने प्रेम को प्रतीकात्मक ढंग से चित्रित किया है लेकिन रोटी को ठोस ढंग से। रोटी इतनी वास्तविक जान पड़ती है कि तंदूर से निकालकर अभी-अभी टांगी गई है। उसका आकर और आग के स्पर्श और आंच से बने सिंकने के निशान बताते हैं कि इस कलाकार में रचने का स्तुत्य धैर्य है। इसी तरह वर्शीपर शीर्षक पेंटिंग में भी पानी की बूंदों, पंखुड़ियों और सलवटों पर किया गया काम ध्यान खींचता है। लव इज अवर रिलीजन पेंटिंग अपने मैसेज की वजह से ज्यादा सार्थक है।
अन्य माध्यमों में भी उनकी कितनी तगड़ी रियाज है इसका उदाहरण है वाटर कलरटेम्परा में बनाया एमएफ हुसैन का चित्र। यह इतनी खूबी से बना है कि इसमें हुसैन के माथे की सलवटें, चेहरे की झुर्रियां और चांदी की तरह चमकते सफेद बाल एक किसी बेहतरीन फोटो की माफिक लगते हैं। वे इसे बेचना नहीं चाहते क्योंकि वे मानते हैं कि ऐसे चित्र बार बार नहीं बनाए जा सकते। इसी तरह उनके अधिकांश श्वेतश्याम ड्राइंग भी इसलिए खूबसूरत हैं कि ये अपनी मांसलता, ऐंद्रिकता और रोचक विषयों के कारण खासे आकर्षित करते हैं। इनमें मिस्टीरियस बैलेंस कमाल का जिसमें असंतुलित चट्टानो पर एक खास मुद्रा में निर्वस्त्र स्त्री बैठी हुई है। यह अपने टोन और टेक्सचर में भी दर्शनीय बन पड़ी है।
यह प्रदर्शनी 12 अप्रेल तक रोज दोपहर 12 से रात आठ बजे तक निहारी जा सकती है।
पुरस्कृत हो चुकी है बिग बैंग
गैलरी में सबसे ज्यादा आकर्षित करती है विजेंदर की पेंटिंग बिग बैंग। इसे नईदिल्ली में आल इंडिया फाइन आर्ट्स एंड क्राफ्ट्स सोसायटी (आईफैक्स) द्वारा 5 से 30 मार्च तक आयोजित प्रदर्शनी में पहला पुरस्कार हासिल हुआ है। वस्तुत यह उस विचार पर आधारित है जब विज्ञान की दुनिया में एक घटना हुई थी जिसमें छोटे से पार्टिकल्स के टकराने से बड़ा भारी विस्फोट हुआ था। इसे बिग बैंग नाम दिया गया था। एक कलाकार किसी घटना को कितने मार्मिक और अलहदा निगाह से देखता है इसकी खूबसूरत मिसाल है बिग बैंग। इसी को आधार बनाकर विजेंदर ने दो गतिमय चेहरे बनाएं जो एकदूसरे का चुंबन ले रहे हैं। इनमें आवेग है, एक तड़प है, ये चेहरे एक गीले कपड़े से लिपटे हैं (जाहिर है यह एक भीगे अहसास का प्रतीक) और दुनिया का सबसे कोमल स्पर्श है है जिससे दूसरी तमाम बातें किसी विस्फोट से कम नहीं होतीं। उसे दुनिया के सबसे सुंदर फूल खिलते हैं, झरने खिलखिला उठते हैं और दूध की पवित्र नदी बहती है और यह धरती किलकारियो से गूंज उठती है। इसमें स्त्री का चेहरा और उसके हिस्से का कैनवास रोशनी से भरा है यानी चुंबन से स्त्री की दुनिया एक पवित्र रोशनी से भर गई है। जाहिर है यह अपनी कल्पना, कान्सेप्ट और रूपाकार के कारण अद्भत है। इस पेंटिंग को पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम आजाद खूब सराहा था।

रूप और रंगों में खिलता राग विजेंदर शर्मा की चित्रकारी चैनदारी की चित्रकारी है। यानी इसमें एक इत्मीनान है। रंगों और रेखाअों के बरताव में। विषय के साथ लगाव में। अपनी कल्पना को किसी बिम्ब या प्रतीक में ढालने में। यानी वे यदि कोई पीठ बना रहे हैं या गेंदे का फूल बना रहे हैं तो महसूस होता है कि कैनवास और चित्रकार के बीच एक रागात्मक संबंध बन रहा है। जैसे रंग को लगाने में चित्रकार एक आलाप ले रहा है। कोई जल्दबाजी नहीं, बल्कि रचने का धैर्य। लगता है जैसे उनके रूप और रंग में कोई राग खिल रहा है। नईदुनिया से बातचीत करते हुए वे कहते हैं कि मैं कैनवास चित्रित करते हुए संगीत सुनता हूं। इससे एक लय बनती है, ध्यान लगता है। और मैं फिर सब भूलकर रंगों में खो जाता हूं। तब कोई हड़बड़ी नहीं होती। बस मैं और मेरा कैनवास होता है।
वे कहते है बाहरी जीवन के साथ कलाकार की एक कलात्मक आंतरिक यात्रा जारी रहती है। वह बाहरी और भीतरी दुनिया से प्रभावित होकर अपने रूपाकार हासिल करता है। लेकिन खाली कैनवास के सामने मैं बिलकुल खाली होकर जाता हूं। मैं खाली कैनवास को निहारता हूं और उसमें फिर धीरे-धीरे मेरी कल्पना आकर लेती है। इसमें जीवन का भ्रम और यथार्थ एक साथ आते हैं। हमारे यहां तो जीवन को मिथ्या कहा गया है, माया कहा गया है। तो मैं जीवन के यथार्थ और भ्रम को चित्रित करने की कोशिश करता हूं।
मेरा ऐसा मानना है कि यदि ईश्वर ने यह दुनिया रचकर माया पैदा की है तो एक कलाकार भी माया चित्रित कर सकता है क्योंकि एक कलाकार भी आखिर ईश्वर का ही तो अंश है। लिहाजा मेरी चित्रकारी में आपको यथार्थ के साथ इस माया या भ्रम का भान होगा। अमूर्त और आकृतिमूलक चित्रकारी को लेकर होने वाली बहसों पर वे कहते हैं कि यह एक नकली बहस है। सब अपने अपने माध्यमों और शैली में चित्रकारी करते हैं। ये कुछ लोग हैं जो व्यर्थ की बहस कर अपना मजमा लगाना चाहते हैं। मैंने खुद अमूर्त शैली में काम किया है। और मैं मार्क राथको और सोहन कादरी जैसे अमूर्च चित्रकारों के काम को बेहद पसंद करता हूं। इन कलाकारों की एक बेहद साफ आंतरिक दृष्टि है, अपने माध्यम पर असंदिग्ध नियंत्रण है। और है एक स्थायित्व। इसीलिए ये जो बहस है वह नकली लड़ाई है।
उनका मानना है कि फिगरेटिव पेंटिंग करने में साधना की जरूरत होती है। डिटेल्स पर काम करना बहुत धैर्य मांगता है। कलात्मक कौशल चाहिए। मैने एक पेटिंग की थी सिक्रेट आफ लाइफ। ये इतनी रिअलि्स्टिक थी कि डॉ. कलाम ने इसमें बनी नॉट को खोलने की कोशिश की थी और चकित रह गए थे। पेंटिंग में यह कौशल हासिल करना आसानी से संभव नहीं है।

Friday, April 3, 2009

वे दिन पर कुछ बे-मंशाई नोट्स



आज निर्मल-दिवस है। हरा कोना उन्हें याद करते हुए यहां युवा कवि और अनुवादक सुशोभित सक्तावत के निर्मल वर्मा के उपन्यास वे दिन पर कुछ बेमंशाई नोट्स प्रस्तुत कर रहा है। हरा कोना हमेशा की तरह सुशोभित के प्रति आभार व्यक्त करता है।


1.
वे दिन' में इतना भर किया गया है कि कोई एक ऐसा स्‍पेस सजेस्‍ट किया जा सके, जिसमें अलग-अलग किरदारों के समांतर स्‍पेस 'को-एग्जिस्‍ट' करते हों. इस नॉवल का मूल कॉन्‍सेप्‍ट इसके ही एक वाक्‍य में छिपा है- 'एक ख़ास सीमा के बाद कोई किसी की मदद नहीं कर सकता, और तब, हर मदद कमतर होती है.' तब हम प्राग की धुंध में देखते हैं उन किरदारों को, जो एक-दूसरे के प्रति पर्याप्‍त सदाशय, संवेदनशील और जिम्‍मेदार होने के बावजूद एक-दूसरे के लिए कुछ नहीं कर पाते.

2.
यहां इंदी है, जो अपने मुल्‍क़ से हज़ारों मील दूर एक छात्र की हैसियत से प्राग आया है, और वो यह जानता है कि 'एक उम्र के बाद तुम घर लौटकर नहीं जा सकते.' फिर टी.टी. है, एक और अप्रवासी, एक बर्मी. वह अपने मुल्‍क़ को चाहता है, लेकिन वहां लौटने की उसकी भी अब इच्‍छा नहीं. रायना वियना से प्राग घूमने आई है, लेकिन लड़ाई के दिनों और टूटे रिश्‍तों की छाया लगातार उसके अस्तित्‍व पर मंडलाती रहती है. (कुछ चीज़ें हैं, जो लड़ाई के बाद मर जाया करती हैं, और वह उनमें से एक है!) वह अपने पति से अलग है और उसका एक बेटा है. निश्चित ही, वह प्राग में 'गंभीर होने' नहीं आई है, दरअस्‍ल वो एक 'सिस्‍टम' (शायद कोलोन का कॉन्‍सेंट्रेशन कैम्‍प या वियना का घर!) से बाहर निकलकर आती है, और अब उसमें जीवन को लेकर एक तरह का बेपरवाह बिखराव है. वो एक साथ 'फ़्लर्ट' और 'सिनिक' है, एक साथ 'ग्रेव' और 'विविड' (विविड! विविड!!), एक साथ बसंत और पतझर, और चूंकि उसे हासिल नहीं किया जा सकता, इसलिए उसे चाहना एक सुसाइडल डायलेमा ही हो सकता है). इंदी रायना को चाहता है, लेकिन ज़ाहिर है कि वह उसे कभी भी एक और 'सिस्‍टम' में दाखिल होने के लिए राज़ी नहीं कर सकता. यहां पर इन दोनों की दुनियाएं (इन दोनों के 'स्‍पेस'!) ट्रैजिक रूप से इंटरसेक्‍ट कर जाती हैं. फ्रांज़ फिल्‍में बनाता है, लेकिन यहां प्राग में उसका काम कोई समझ नहीं पाता. वह अपने देश जर्मनी लौट जाना चाहता है. मारिया उसके साथ रहती है, लेकिन वह उसके साथ बर्लिन नहीं जा सकती, क्‍योंकि वे दोनों विवाहित नहीं हैं, और ग़ैर-विवाहितों को साथ जाने का वीज़ा नहीं मिलता. ये तमाम किरदार अपनी-अपनी 'जगहों' से बाहर हैं और इन सभी में एक तरह का सर्द उचाटपन है. फिर भी ये किरदार अंतत: अपनी पीड़ाओं को स्‍वीकारते हैं, और इसके लिए वे किसी को दोषी भी नहीं ठहराते, जो उन्‍हें एक शहादत का-सा ग्रेंजर देता है. ये निर्मल वर्मा के वे ही किरदार हैं, जिन्‍हें मदन सोनी ने 'कथा के एकांत में कूटबद्ध देह' लिखा था, जिनके लिए निर्मल वर्मा अपनी कथा के ज़रिये एक ऐसा 'अवकाश' रचते हैं, जहां उनके 'अतीत और यातनाओं के विचित्र संदेश' ग्रहण किए जा सकें, जहां उनकी 'गुप्‍त गवाहियों का गवाह' हुआ जा सके.

3.
'वे दिन' की तमाम क्राफ़्टमैनशिप इन किरदारों की अपने स्‍पेस में छटपटाहट और समांतर स्‍पेसों के पारस्‍परिक संवाद की असंभवता को लक्ष्‍य करने में है, जिसे निर्मल वर्मा ने प्राग के कासल, गिरजों, मॉनेस्‍ट्री, वल्‍तावा के पुलों और एम्‍बैंकमेंट के दुहराते हुए, मेलंकलिक मोनोटॅनी-सी गढ़ते डिटेल्‍स के साथ बुना है. हमेशा की तरह निर्मल वर्मा यहां तंद्रिल परिवेश रचते हैं- धुंध से ढंका हुआ, और स्‍वप्निल, जो आपको अवसन्‍न और शिथिल करता है, मेडिटेटिव बनाता है और एक जागे हुए अवसाद में झोंकता है. आप इस किताब को राहत के साथ नहीं पढ़ सकते, (आप उस गाढ़े 'आम्बियांस'- इतने गाढ़े ('डार्क एंड डीप!') कि जहां परिवेश पात्रों को लील जाए!- में 'ईज़ के साथ सांसें नहीं ले सकते), या कह लें यहां एक 'टीसता हुआ सुख' है, होनेभर का एक सूना-सफ़ेद सुख... शायद इसे ही मदन सोनी ने 'एक समझ, एक वापसी और एक पछतावा' कहा है. निर्मल वर्मा की डिस्क्रिप्टिव पॉवर आपको अपने भीतर की बेचैनी और अपनी अदम्‍य चाहना के परिप्रेक्ष्‍य में खोज निकालती है. आप अब पहले से ज्‍़यादा उदास और रिफ़्लेक्टिव, लेकिन पहले से ज्‍़यादा होशमंद, सजग और जिंदगी की विडंबनाओं के प्रति अधिक संवेदनशील हैं... अब आप छोटे सुखों के बरक्‍़स बड़े सुखों और प्रत्‍याशाओं के बरक्‍़स छलनाओं और हालात-किरदारों की सीमाओं को समझते हैं और आखिरकार एक ठंडी नि:श्‍वास छोड़कर रह जाते हैं- 'वे दिन' के बर्फ के फ़ाहों और ठंडे उजालों के ब्‍यौरों के साथ आपकी फितरत का यह सर्दीलापन बारीक़ी के साथ हर सफ़हे पर सजेस्‍ट होता है.

4.
इस नॉवल में भय, अंदेशे, तक़लीफ़, आकांक्षा और सुख की प्रत्‍याशा के इतने शेड्स हैं, कि वह अपने आपमें एक अलग कथा हो सकती है- 'प्रत्‍यक्ष ऐंद्रिय बोध' के स्‍तर पर एक समांतर कथानक. यहां 'जीने का नंगा-बनैला आतंक' है, प्रभाव की तीव्रता के साथ नॉवल के पन्‍नों पर अंकित. जो लोग मौत की शर्त पर एक साथ होते हैं, वे बाद में, जीवन की शर्तों पर उस तरह से साथ नहीं हो सकते... 'वे दिन' में लड़ाई के दिनों की छाया है और लड़ाई ख़त्‍म होने के बाद की मुर्दा ख़ामोशी भी. लड़ाई के आतंक से ज्‍़यादा लड़ाई ख़त्‍म होने के बाद का वह सालता हुआ-सीलनभरा सन्‍नाटा इस नॉवल के किरदारों को ज्‍़यादा तोड़ता है (बक़ौल ब्रेख्‍़त- 'उनकी ख़ामोशी ने मिटा डाला है वह सब कुछ/जो उनकी लड़ाई ने बचा छोड़ा था'). लेकिन, फिर भी, लड़ाई के दिनों का जिक्र यहां एक 'ड्रमैटिक डिवाइसभर' है... नॉवल का एक्‍सेंट उस पर नहीं गिरता, नॉवल का एक्‍सेंट कोल्‍डवार या पीसटाइम पर भी नहीं गिरता (जबके प्राग पर 'बिहाइंड दि आइरन कर्टेन' का लाल लेबल चस्‍पा था!)... यह नॉवल कुछ व्‍यक्तियों के बीच के उस अंधेरे को उभारता है, जो वहां है, जिससे इनकार नहीं किया जा सकता, और एक ही 'स्‍पेस' में होने के बावजूद, जिसे जोड़कर चिपकाया नहीं जा सकता. शायद इसीलिए इस नॉवल के किरदार 'इट वुडंट हेल्‍प' और 'बिकॉज़ दैन इट इज़ जस्‍ट मिज़री' जैसे संवाद दुहराते हैं... किसी ऐसी चीज़ पर 'विश्‍वास' करने की बात करते हैं, जो नहीं है, और यह सोचने की 'कोशिश' करते हैं, कि सब कुछ पहले जैसा ही है. तब 'वे दिन' रागात्‍मकता के परिप्रेक्ष्‍य में मानव-नियति का त्रासद आख्‍यान हो जाता है.

5.
पहली दफ़े पढ़ने पर मुझे 'वे दिन' में कुछ अपरिभाषेय-सा 'मिसिंग' लगा था, अब दूसरी रीडिंग में मुझे समझ आया है कि 'मिसिंग' नॉवल में नहीं, कहीं और है, और 'वे दिन' महज़ उस 'मिसिंग' को व्‍यक्‍त करने की कोशिश करता है. मेरे लिए फिर से 'वे दिन' के पन्‍ने पलटना वैसा ही था, जैसे किसी परिचित देह, या किसी पहचानी जगह पर लौटना. और तब, आपको पता चलता है कि कुछ हिस्‍से ऐसे थे, जो पहले आपके स्‍पर्श से छूट गए थे, और वहाँ आपकी प्रतीक्षा में अनमने-से पड़े थे... कि आप आएँ, और उन लम्‍हों को, उनके नए अर्थों को खोलकर देखें, उनकी बुझी हुई धूप सहलाएँ, और उनकी तक़लीफ़ों को फिर से झेलें. यह ठीक वैसा ही है, जैसे नॉवल में रायना एक बार फिर प्राग देखने आती है, और पाती है कि लोरेंत्‍तो गिरजे का गु़म्‍बद और प्राग के पुल, वे ही हैं, लेकिन फिर भी वे वही नहीं हैं... उनमें अब कुछ ऐसा है, जिसमें विएना की मृत हवा, और कोलोन के कैम्‍प पीछे छूट गए हैं, और अब केवल प्रेतछायाओं-सी उनकी स्‍मृति किसी पतली परछाईं की तरह बची रह गई हैं, और तब, आपको पता चलता है कि उद्घाटित जगहों में भी बहुत कुछ अधखुला छूट जाया करता है, जिन्‍हें उघाड़ने के लिए आपको लौटना पड़ता है. यह लौटना- स्‍मृति और मृत समय में यह वापसी- आगे चलने से कम क़ीमती नहीं होता, जब आप ख़ुद को एक और परत खोलकर फिर से देखते हैं, और पहले से ज्‍़यादा पहचानते हैं. 'वे दिन' में लौटने की यातनामय प्रक्रिया का ये ही नॉस्‍टेल्जिक लेकिन दिलक़श इलहाम है!