Monday, January 3, 2011
Sunday, December 19, 2010
Friday, December 17, 2010
Monday, June 29, 2009
उड़ते हुए रूई के फाहे
हमारा घर बहुत छोटा था। सदस्य ज्यादा थे। घर के लोगों के हाथ-पैरों पर खरोंचों के निशान थे। हम जब भी घर में आते-जाते तो हमें घर में रखी टूटी आलमारी, कुर्सी, या डिब्बों से खरोंचे लगती थीं। मां ने डिब्बे-डाबड़ी बहुत इकट्ठे कर रखे थे। मुझे पता है, जब एक बार पिताजी खाना खाने बैठे, तो पीछे रखे आटे के टूटे डिब्बे के ढक्कन से उन्हें एक लंबी खरोंच आई थी। उनकी बांईं जांघ पर खून की एक लकीर उभर आई थी।
घर में मां ने डिब्बे एक के ऊपर एक रखे हुए थे। वह कम जगह में ज्यादा से ज्यादा डिब्बे जमा कर रखती थी। उसका मानना था कि गृहस्थी आसानी से नहीं जमाई जा सकती!
कभी-कभी ऐसा होता कि कि मां यदि हल्दी का डिब्बा निकालना चाहती तो पटली पर रखा मिर्ची का डिब्बा गिर जाता। पूरे घर में मिर्ची की धांस उड़ती। ऐसे में पिताजी बड़बड़ाते। पिता को बड़बड़ाता देख मां उन्हें धीरे से देखती। हम भाई-बहन यह देख हंसते। हमें हंसता देखा मां और पिताजी भी धीरे-धीरे हंसते। उन्हें देख हम खूब हंसते। फिर मां-पिताजी भी खूब हंसते। घर में जब कभी कोई दिक्कत आती या दुःख छाने लगता तो मां-पिताजी हंसते। वे नहीं चाहते थे कि छोटे-छोटे दुःखों को हम तक आने दें। यही कारण था कि जब वे हंसते तो हमारे घर पर छाए दुःख रूई के फाहों में बदलकर उड़ने लगते। कभी-कभी मुझे लगता हमारे घर की दीवारों और छतों पर रूई के फाहे चिपके हुए हैं। लेकिन वे हमें दिखाई नहीं देते। हमें आश्चर्य तब होता जब दीवाली-दशहरे के पहले घर में सफाई होती और कहीं भी रूई के फाहे नहीं निकलते।
रात में सोते हुए हमें मां-पिताजी की बुदबुदाहट सुनाई देती। उनमें हमारी फीस, कपड़े, कॉपी-किताबों की चिंता होती। दादी की बीमारी और काकाओं के झगड़ों की बातें होती। मां-पिताजी की आवाज बहुत धीमी होती, इतनी कि दीवारें भी न सुन सकें। मां-पिताजी की ये बातें हमें रात में की गई किसी प्रार्थना के शब्दों जैसी लगती जिन्हें घर की उखड़ती और बदरंग होती दीवारें अपने में सोख लेतीं।
बारिश का मौसम हमारे और हमारे घर के लिए यातनादायक होता था। (यह बात मुझे बहुत बाद में बड़ा होने पर पता लगी ) बारिश में हमारी छत टपकती। घर गीला न हो इसलिए मां जहां पानी टपकता, बर्तन रख देती। कहीं तपेली, कहीं बाल्टी, कहीं गिलास। घर में तब बर्तन भी ज्यादा नहीं थे। कई बार में नमक का डिब्बा खाली कर उसे कागज की पुड़िया में बांध देती और डिब्बा टपकती बूंदों के नीचे। तेज बारिश में हम भाई-बहनों की नींद खुल जाती और हमें मां-पिताजी के प्रार्थना के शब्द सुनाई पड़ते। मां-पिताजी अगली बार छत पर नए कवेलू लगवाने की बात करते। तेज बारिश में उनकी बातों से अजीब वातावरण बन जाता। बाहर पानी की बूंदें टपकती और घर में मां-पिताजी का दुःख। इसी के साथ हम भाई -बहन घर की दीवारों के पोपड़े गिरते सुनते।
दीवार में जहां -जहां से पोपड़े गिरते, सुबह उनमें मां और पिताजी का दुःख काला-भूरा दिखाई देता। मां गोबर और पीली मिट्टी से उन्हें भर देती। घर की दीवार पर ऐसा जगह-जगह था।
ज्यादा बारिश होने से घर की दीवारों में सीलन आ जाती। छत चूने से पटली पर रखी हमारी कॉपी-किताबें गीली होने लगतीं। फिर हमारे कपड़े गीले होते और फिर हमारे बिस्तर। घर कितना गीला हो गया है, यह देखने के लिए जब हम लाइट चालू करने उठते तो हमारे पैर किसी के हाथ, पैर या मुंह पर पड़ते। लाइट जलाने के बाद मां बिस्तर ओटकर हमें सुलाती। सुबह हम भाई -बहन रात वाली बात याद कर खूब हंसते। हम रूई के फाहे उड़ते हुए देखते।
लेकिन कभी-कभी मुझे लगता कि मां और पिताजी हंस नहीं रो रहे हैं, हालांकि वे हमें हंसते हुए ही दिखते।
ठंड के दिनों में खूब मजा आता! हम भाई-बहन बीच में सोने के लिए झगड़तेएक ही रजाई में हम सब सोते। बीच में सोने का फायदा था। रजाई छोटी थी इसलिए जो अगल-बगल में सोते वे रजाई की खींचातानी करते।बीच वाला मजे में रहता। इस तरह हम ठंड से लड़ते।
मुझे सपने नहीं आते। लेकिन एक दिन मुझे सपना आया। मैंने देखा कि पिताजी बर्फ के पहाड़ पर धीरे-धीरे चढ़ रहे हैं। पहले तो मैं उन्हें पहचाना ही नहीं। उनका बदन रूई के फाहों से ढंका हुआ था। ये वही रूई के फाहे थे जो हमारे घर पर छा जाते थे। ये ही दुःख मां-पिताजी के हंसने पर रूई के फाहों में बदल जाते थे। तो मैंने देखा कि पिताजी धीरे-धीरे पहाड़ पर चढ़ रहे थे। उनका बदन रुई के फाहों से ढंका है। मैंने उनकी आंखों से पहचाना कि ये तो पिताजी हैं।
धीरे-धीरे वे चढ़ रहे थे। उन्हें बहुत ऊंचाई पर जाना था। बिलकुल शिखर पर , जहां कोमल हरी पत्तियों का पेड़ था। बहुत घना और खूबसूरत पेड़ था वह, जिस पर हमारे तमाम सुख लाल सुर्ख सेबों की तरह उगे हुए थे। वे ही सेब पिता को तोड़कर लाने थे। -हमारे लिए, हमारे घर के लिए...और वे चढ़ रहे थे!
लेकिन मैंने देखा कि वे जितना ऊपर चढ़ने की कोशिश करते, उनके पैर उतने ही धंसते चले जाते। लेकिन पिताजी अपनी पूरी ऊर्जा, पूरी ताकत से धंसते पैरों को निकालकर चढ़ने की कोशिश करते।
अचानक मैंने देखा कि बर्फ का पहाड़ धीरे-धीरे रूई के फाहों के पहाड़ में बदल रहा है। और पिताजी धीरे-धीरे उसमें धंसते चले जा रहे हैं। मैंने देखा पिताजी कमर तक धंस गए हैं फिर गले तक! मैंने उनकी आंखों में चमक कम होती देखी, फिर वह चमक धीरे-धीरे बुझ गई। फिर आखिर में मैंने उनके हिलते और कांपते हुए हाथ देखे....
उसके बाद...उसके बाद घबराहट में मेरी नींद टूट गई। आंखें खोलने पर मैंने देखा कोई बाबाजी मेरे पास बैठे हैं। मैं चौकां। वे तो पिताजी थे और रजाई लपटे बैठे हुए थे। वे बुदबुदा रहे थे। रात के अंधेरे में मेरा ध्यान इस कदर पिताजी की तरफ था कि उनकी प्रार्थना के शब्द मुझे सुनाई नहीं दिए।
सुबह जब हम भाई-बहन उठे, तो मैंने उन्हें अपना सपना सुनाया। मां और पिताजी को बुलाकर भी सुनाया। और वह बात भी बताई कि पिताजी रात में रजाई लपटे कैसे बुदबुदा रहे थे। हम सब खूब हंसे। हमें हंसता देख मां और पिताजी भी खूब हंसे। खूब हंसे।
हमने देखा रुई के फाहे घर में उड़ रहे हैं! आंगन में उड़ रहे रूई के फाहे भी हमने देखे! छतों और दीवारों पर भी रूई के फाहे चिपकते हमने देखे! खूब! खूब! खूब रूई के फाहे हमने उड़ते हुए देखे!
बहुत बाद में जब हम भाई-बहन बड़े और समझदार हुए, हमें पता लगा कि वे रूई के फाहे नहीं, हमारे घर पर अक्सर छा जाने वाले दुःख थे!
Tuesday, June 23, 2009
मां का मंत्रोच्चार
मैं जब भी मां के बारे में सोचता हूं मुझे मटके में ताजा पानी भरने की आवाज सुनाई देती है।
उसकी उम्र उसकी झुर्रियों से ज्यादा उन बर्तनों की खनखनाहट में थी जिसे वह सालों से मांजती चली आ रही थी। भरे-पूरे परिवार के लोगों के कपड़ों के रंग उड़ चुके रेशों में उसकी उम्र धुंधला चुकी थी। कपड़ों को लगातार रगड़ती-धोती वह उठती तो अपने घुटनों पर हाथ धरकर उठती । एक हलकी सी टसक के साथ।
हम भाई-बहन जब सुबह सो कर उठते तब तक सबके झकाझक धुले कपड़े तार पर सूख रहे होते। पटली पर रखे बर्तन चमाचम चमक रहे होते। सिगड़ी पर दाल उकल रही होती और परात में आटा गूंथा हुआ रखा है।
मटके में ताजा पानी भरा हुआ है।
मां जब भी उठती अपने घुटनों पर हाथ रखती हुई उठती। उसके घुटनों से हलकी सी आवाज निकलती और वहीं दम तोड़ देती। कई बार ऐसा होता कि आटा गूंथा हुआ रखा होता तो मां की उंगलियों के निशान गूंथे आटे पर छूट जाते।
मां घर में इतना मर खप गई थी कि कुल मिलाकर उसके चेहरे की झुर्रियों और अंदर धंस चुकी आंखों में हमसे लगी उम्मीदें बाकी रह गईं थीं। पिता इतने चुप रहते कि उनकी चुप्पी में उनका दुःख बजता रहता। वे अकसर चुप रहते और कोई न कोई दुःख उनके कंधे पर बैठा रहता। किसी पालतू पक्षी की तरह। वह पक्षी अजर-अमर था। पिता को अपना दुःख दिखाई नहीं देता और मां का दुःख उनसे देखा नहीं जाता।
हमारा घर मेनरोड पर था। मकानों की दीवारें बदरंग थीं। कहीं कहीं काली-भूरी। कच्चे मकान धूप में चमकते हुए और भी बदरंग दीखते। मेनरोड से आने-जाने वाले वाहनों से निकलता धुंआ और उड़ती हुई धूल मकानों की दीवारों पर चिपकती रहतीं।
यही नहीं, धूल और धुंआ उड़ता हुआ रसोई घर तक आ जाता । घरों में रहती तमाम चीजों पर यह धूल-धुंआ बैठ जाता। रजाई, गादी, कम्बलों और दरियों पर यह धूल-धुआं जमता रहता। रात को बिस्तर बिछाने से पहले मां दरी, रजाई गादी और कम्बलों को खूब झटकारती। यह धूल-धुआं झरता और फिर थोड़ी देर हवा में रूककर वापस जम जाता।
मां जब भी कचरा बुहारती, मैं मां को बहुत ध्यान से देखता। मां मुझे देखती और धीरे से हंसने लगती। कहती इस घर में जगह जगह दुःख बिखरे पड़े हैं। मैं पूछता कहां हैं दुःख। तो मां दीवारों पर धीरे-धीरे हाथ फेरती। दीवारों से झरती धूल को देखती। टूटे कप-बशी के टुकड़ों, पिता के कुरते के टूटे बटनों, सुई, हमारे पेम के टुकड़ों और कपड़े से बने फटे बिस्तों, फटी कॉपी-किताबों को देखती रहती।
मैं मां को कचरा बुहारते अकसर देखा करता। मां बहुत धीरे-धीरे कचरा बुहारती। लगाव और प्रेम के साथ। कभी कभी रूककर धूल या कचरे में पड़ी चीजों को ध्यान से देखती। कचरे में कभी उसे ब्लैड मिलती, कभी सुई, बटन या स्टोव की पिन। कभी धागे का कोई टुकड़ा। वह उन्हें निकालती और सावधानी से किसी कोने या आलिये में रख देती।
हम सुबह उठते तो हमेशा देखते कि मां चाय बनाने के साथ ही खाना बनाने की तैयारी भी कर रही है। एक सिगड़ी और एक स्टोव था और उसी पर सब काम होता था। चाय भी उसी पर बनती, नहाने का पानी भी उसी पर गर्म होता और दाल-भात भी उसी पर बनते। चाय के साथ खाना बनाने की जल्दबाजी में कई बार चाय ढुलती और उसके हाथ झुलस जाते। वह तुरंत हाथ पानी में डाल देती। कभी कभी कपबशी हाथ से छूटकर टूटते-फूटते।
सुबह की हड़बड़ाहट और जल्दबाजी में वह बड़बड़ाती। बड़बड़ाने के साथ उसका काम करना रूकता नहीं। हाथ पर हाथ धरे वह बैठी नहीं रहती। और न कभी सिर पक़ड़ कर बैठ जाती। उसका बड़बड़ाना स्टोव की आवाज में मिल जाता।
मां की बडबड़ाहट और स्टोव की आवाज मिल जाने से घर में अजीब सी आवाजें गूंजती। पिता इस आवाज को सुनते और चुप रहते। मां की आवाज स्टोव की आवाज की तरह थी। कभी तेज, कभी धीमी, और कभी लगभग बंद होती हुई। अंत में जैसे स्टोव बंद हो जाने की एक लंबी सीटी की आवाज निकलती, वैसी ही मां की रूलाई फूटती। पहले धीरे, फिर तेज और फिर धीरे होती हुई अचानक बंद ।
स्टोव की हवा बार-बार निकल जाती। वह बार-बार भरती। हवा भरने के बाद भी स्टोव की लौ ठीक तरह से जलती नहीं। वह पिन ढूंढ़ती। ताकि स्टोव की लौ तेज हो सके। पिन न मिलने पर उसकी चिड़चिड़ाहट बढ़ जाती। वह बहुत देर तक चिढ़ती रहती। हमें डांटती और कहती कि इस स्टोव को ठीक क्यों नहीं करा लाते।
दूसरे कमरे के एक कोने में पिता पूजा कर रहे होते। वे एक-एक भगवान की मूर्तियों को तरभाणे में रखते। पहले पानी से अभिषेक करते, फिर दूध से और फिर पानी से। मूर्तियों को पोंछकर यथा स्थान रखते। अष्टगंध निकालकर चंदन के साथ घीसते। मूर्तियों को चंदन लगाते। अक्षत चढ़ाते। फूल की पंखुरियां लगाते। अगरबत्ती लगाते। असली घी का दीपक लगाना नहीं भूलते। दही, दूध, शहद, घी और शकर से पंचामृत बनाते। फिर मंत्रोच्चार करते। फिर आरती होती। कर्पूर जलाया जाता। पुष्पांजलि के बाद आरती ली जाती। पंचामृत देते और प्रसाद बांटते।
जितनी देर में पिता पूजा करते उतनी देर में मां हमें नहला-धुलाकर खाना भी तैयार कर देती। पिता चिल्लाते, नैवेद्य ला। मां थाली परोसकर पिता को नैवेद्य लगाने के लिए देती। पिता तुलसी पत्र तोड़ते, पानी से धोते और भात पर रखकर नैवेद्य लगाते।
कई बार ऐसा होता कि मां को खाना बनाने में देर हो जाती और उसका बड़बड़ाना भी शुरू हो जाता। कभी उसे पिन नहीं मिलती, कभी घासलेट खत्म हो जाता। कभी कोयले नहीं तो कभी लकड़ी नहीं सुलगती।
कभी कभी ऐसा होता कि मां की बड़बड़ाहट और पिता के मंत्रोच्चार मिल जाते। इससे घर में अजीब सी आवाज पैदा होती। ये आवाजें अजब ढंग से गड्ड-मड्ड हो जातीं।
मुझे लगता, मानो मां तो मंत्रोच्चार कर रही है और पिता बड़बड़ा रहे हैं!
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अफ्रीकन चित्रकार बोबास की कलाकृति हार्ड वर्किंग वुमन।
Saturday, June 13, 2009
धूप एक ख़ूबसूरत जादूगरनी है!
वहाँ धूप फैली हुई थी। ख़ूबसूरत। जिसे छूती उसे ख़ूबसूरत बना देती। गुनगुनी। मुलामय। ऊन का हल्कापन लिए। वह हर जगह थी, घास की नोक पर, तार पर, तार पर सूखते कपड़ों पर, बच्चों की हँसी पर इठलाती, फूलों के खिले गालों पर तितली-सी बैठी, अपने कोमल पंखों को हिलाती हुई। और कुत्ते के सफेद-भूरे बच्चों के चेहरों पर फिसलती यह धूप उन्हें किसी भोले खिलौनों में बदल रही थी।
अभी-अभी नहाकर बैठी स्त्री के साँवलेपन पर, उसे और उजला करती हुई, शॉल से बाहर निकली उस बच्चे की पगथलियों को थोड़ा सा और रक्ताभ करती हुई जो धूप में माँ की गोद में स्तनपान कर रहा है, और माँ के चेहरे की अलौकिकता को पवित्र करती हुई...जैसे धूप के रूप में ईश्वर की ही पवित्रता माँ के चेहरे पर उतर आई हो...
धूप थी, इसीलिए घास कुछ ज्यादा हरी दिखाई दे रही थी। उसे धूप में हिलता देखें तो लगेगा हमारे भीतर का हरापन भी हिल रहा है। तार कुछ ज्यादा चमकीले दिखाई दे रहे थे जैसे वे तार न होकर ऊन के गोले से निकला कोई मुलामय सिरा हो, तार पर सूखते कपड़े ज्यादा रंगीन दिखाई दे रहे थे, लगता था जैसे उनसे पानी नहीं, उनमें रचा-बसा रंग ही टपकने लगेगा।
बच्चों की हँसी कुछ ज्यादा मुलायम थी, उनकी हँसी धूप में वैसे ही चमक रही थी जैसे कोई रंगबिरंगी गेंद टप्पे खाती उछल रही है। और फूलों के रंग कुछ ज्यादा ही चटख दिखाई दे रहे थे, जैसे शाख़ की कोख से जन्म ले मुट्ठियाँ तानकर किलकारियाँ मार रहे हों। अपने ताजापन में दिलखुश।
और उस स्त्री के साँवलेपन में धूप जैसे उजलापन घोलकर कर उसे और निखार रही थी। और माँ का स्तनपान करते उस बच्चे की पगथलियों पर धूप किसी फरिश्ते की तरह चुहलबाजियाँ कर रही थी...और उस बूढे़ के चेहरे की झुरियों को धूप किसी नाती-पोती की अँगुलियों की माफिक छू रही थी।
इन सबसे मिलकर जो दृश्य बन रहा था, वह इस पृथ्वी की एक सबसे उजली सुबह थी, सबसे ज्यादा सुहानी।
इसीलिए कभी-कभी लगता है कि धूप एक खूबसूरत जादूगरनी है। यह न होती तो हम ज़िंदगी के कई सारे जादू को देखने से हमेशा हमेशा के लिए वंचित रह जाते। इसलिए जब कभी धूप आपके आँगन में, आपकी दहलीज पर, आपकी बालकनी में या कि आपकी खिड़की पर आए तो उसके करीब जाएँ और उसके जादू का अहसास पाएँ।
यह धूप का ही जादू है कि वह हमें बताती है कि कैसे उजलेपन की पवित्रता में छूकर एक गुनगुनाता जादू जगाया जा सकता है। देखिए कि वह फूल के गालों को कैसे चूमती है। देखिए कि वह एक बच्चे की हँसी को कैसे ज्यादा मुलायम बनाती है। देखिए कि वह कैसे एक साँवलेपन को रोशन करती है और उसकी कशिश को और ज्यादा बढ़ा देती है। देखिए कि कैसे वह माँ का स्तनपान करते बच्चे की पगथलियों की छोटी-छोटी हरकतों में इस पृथ्वी की सबसे सुंदर संभावनाओं को जगाती है।
आप धूप में तो बैठिए, उसका जादू महसूस करेंगे। आप पाएँगे एक हरापन आपमें उग रहा है, आपकी पीठ पर दुनिया का सबसे गुनगुना आलाप झर रहा है, आप पाएँगे कि आपके गालों को अदृश्य हाथ छू रहे हैं और बहुत सारी गेंदें टप्पा खाती हुई आपकी की ओर आ रही हैं और आपके चेहरे पर माँ की छाती से निकले दूधिया उजाले की ललाई अब भी बाकी है, और यह भी कि उस बूढ़े चेहरे की झुर्रियों में आपसे लगी उम्मीदें अब भी धूप में कोंपलों की तरह हिल रही हैं....
यह सब है, क्योंकि धूप है। उसकी अँगुलियों की पोरों में कुछ है क्योंकि वह एक ख़ूबसूरत जादूगरनी है। अपनी विरल धुन से इस दुनिया को रोशन करती हुई...
(दिसंबर की एक उजली सुबह की याद...)
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पोलिश चित्रकार तमारा डि लैम्पिका की पेंटिंग द म्यूजिशियन। लैम्पिका का जन्म वारसा में हुआ था और मृत्यु मैक्सिको में। वे अपने समय की विवादास्पद चित्रकार रहीं। वे लेस्बियन भी रहीं। तनावग्रस्त जीवन के कारण उनका पति से तलाक हुआ। बाद में उन्होंने अपने एक प्रेमी से शादी की। यहां जो पेंटिंग दी गई है उसमें यदि शेडिंग टेकनिक पर ध्यान दिया जाए तो बाआसानी कहा जा सकता है कि यह पिकासो के क्यूबिज्म से प्रभावित लगती है। इसमें लैम्पिका ने शेडिंग के जरिये आकारों के घनत्व को साफ किया है और बढ़ाया है। इसे सॉफ्ट क्यूबिज्म भी कहा गया। यदि इस म्यूजिशियन के पीछे ब्लैकएनव्हाइट शैड्स पर भी ध्यान दें तो जाहिर होगा कि यह वही एक रंगीय और घनवाद की शैली है। हालांकि लैम्पिका इसमें पूरी तरह से उस शैली का अनुकरण नहीं करती और यही कारण है कि इस पर क्यूबिज्म की सिर्फ छाप ही देखी जा सकती है। इसीलिए इसे सॉफ्ट क्यूबिज्म कहा गया। उन्होंने कई न्यूड्स बनाए जिसमें यह छाप देखी जा सकती है।
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