
कविता का अनुवाद ः अशोक पांडे
पेंटिंग ः रवीन्द्र व्यास
हेमन्त शेष की कविता
नर्म और सुगंधमयी कोंपलों की तरह
फूट आती हैं नीली
कांपती हुई इच्छाएं
अनसुने दृश्यों और अनदेखी आवाज़ों के स्वागत में
प्रेम खोल देता है आत्मा की बंद खिड़की
वहां बिलकुल शब्दहीन
अोस से भरी हवाएं प्रवेश कर सकती हैं
देह की दीर्घा की हर चीज़
भीगी और मृदुल जान पड़ती है
बेचैन हाथों से
मृत्यु और काल का प्राचीन फाटक खोलकर
पूरी पृथ्वी पर बचे दो लोग आचमन के लिए
अलौकिक रोशनी से भरे तालाब की तरफ़ आते हैं
भय और आशंका की असंख्य लहरें गड्डमड्ड कर देती हैं स्पर्शों के बिम्ब
सिर्फ़ रात के आकाश की कलाई पर गुदा हुआ मिलता है
स्थायी हरा चंद्रमा
जिसके हर गुलाबी पत्थर पर लिखा वे
एक-दूसरे का नाम देखते हैं
वहां से झीने आलोक में डूब दिन उन्हें
जहाज़ों की तरह तैरते नज़र आते हैं
अनन्त दूरियां और विस्तारों तक जिन्हें ले जाते हैं आकांक्षा के पंख
शरीर में जागे हुए करोड़ों फूलों और
कुहरे में झिलमिलाते हुए जुगनूअों जैसी
मौलिक लिपि में
प्रेमीगण बार-बार लिखते हैं
संसार की सबसे प्राचीन त्रासद पटकथा
वे जिसकी बस
कांपती हुई नीली शुरूआत जानते हैं
इति जैसा कोई शब्द
प्रेम के शब्दकोश में नहीं होता।
(कवि के प्रति गहरा आभार प्रकट करते हुए और इस कविता के साथ अपनी पेंटिंग लगाकर कृतज्ञ महसूस करते हुए)
एक बार खिलता फूल कहूंगा
एक बार जिगर में अंगारा
एक बार गहराती रात कहूंगा
एक बार झिलमिल तारा
एक बार जागा सपना कहूंगा
एक बार हाथ में लकीर
एक बार धूनी रमाता कहूंगा
एक बार गाता फकीर
एक बार दर दर भटका कहूंगा
एक बार मिला कमंडल
एक बार ये है चिमटा कहूंगा
एक बार अलख निरंजन
एक बार तुमसे प्रेम कहूंगा
एक बार टपका आंसू
एक बार पहाड़ काटूंगा कहूंगा
एक बार नदी में झांकूं
बाहर पानी भरी सड़क पर इक्का -दुक्का वाहनों की आवाज़ें आती । बीच-बीच में नेपाली की सीटी की आवाज़ गूंजती सुनाई पड़ती और उसमें कुत्ते के भौंकने की आवाज अजब तरह से मिल जाती। कोई एक हे राम कहता हुआ निकल जाता। पेड़ों की सरसराहट से लगता बारिश बीच-बीच में तेज़ हो रही है।
हमारे घर के आगे पीपल और पिछवाड़े नीम का पेड़ है। बारिश में ये पेड़ जटाधारी की तरह हिलते हुए भयावह लगते और हमें कभी-कभी लगता ये पेड़ हमारे घर पर गिरकर उसे धराशायी कर देंगे। लेकिन सालों से ये पेड़ बारिश में झूमते रहते और हमारे घर की देह कांपती रहती ।
जब बारिश बंद हो जाती तो उसके बहुत देर बाद तक हमारे घर की छत पर कभी बौछारों या बूंदों के टपकने की आवाज़ आती रहती। छत पर पेड़ों की डगाल झूलती रहती और पत्तों से फिसलता पानी हमारी छत पर टपकता रहता। बहुत तेज़ हवा चलती तो हमें लगता बारिश फिर से शुरू हो गई है। हवा के चलने से पत्तों पर ठहरा पानी एक साथ गिरकर छतों पर गिरता तो लगता बारिश हो रही है। पेड़ की सरसराहट से भी बारिश की आवाज़ निकलती रहती।
कई बार सिर्फ टप् टप् टप् टप् की आवाज़ आती। जैसे बरसों से इकट्ठा हुआ पानी पत्थरों में पैदा हुई दरारों से रिसता हुआ धीरे-धीरे टपक रहा हो। इन बूंदों की आवाज़ घर में एक अजीब वातावरण पैदा करतीं। उस आवाज़ को लगातार सुनते हुए पिता का चेहरा कंदरा में बैठे किसी साधु की तरह लगता। बारिश के दिनों में दिन में भी अंधेरा लगतार् जैसे हम किसी कंदरा यद में बैठे हों।
रात में सोते हुए हमें यही लगता कि हम किसी कंदरा में सो रहे हैं लेकिन छत पर बिल्ली के चलने की आवाज़, सड़क पर कुत्ते के भौंकने और गाय के रंभाने की आवाज़ से या फिर सीटी की आवाज़ सुनकर हमें लगता हम कंदरा में नहीं, अपने घर में ही सो रहे हैं।
सुबह हम उठते तो सबसे पहले रसोईघर से खटर-पटर की आवाज़ सुनते। फिर मां की आवाज़ होती और इसके पीछे पेड़ों के सरसराने की आवाज़ होती। एक पक्षी की आवाज़ भी हम सुनते जिसे हमने कभी देखा नहीं।
हम भाई-बहन कुल्ला करने और चाय पीने के बाद पहला काम यही करते कि आंगन में आकर पानी में छपाक् छपाक् खेलते। मां चिल्लाती कि सर्दी हो जाएगी लेकिन हम अपनी छपाक् छपाक् में मगन रहते। फिर आसमान की अोर मुंह उठाकर गाने लगते-पानी बाबा आना, ककड़ी भुट्टा लाना।
अपने बचपन के दोस्तों के नाम मैं भूल गया लेकिन उनके चेहरे मुझे याद आते हैं। एक दोस्त के माथे पर चोट का निशान था। मैं जब भी उसे याद करता हूं तो सबसे पहले वह चोट का निशान याद आता है। पता नहीं, माथे पर वह चोट का निशान उसे कैसे पड़ा? वह कहीं से गिर पड़ा था या किसी ने उसे मारा था या जन्मजात था, मुझे याद नहीं। लेकिन जब उसके पिता ट्रांसफर होकर जाने लगे तो उस वक्त बारिश हो रही थी। वे सब तांगे में बैठ चुके थे। मेरा वह दोस्त भी। मैं खिड़की में बैठा तांगे को जाते हुए देख रहा था। तांगा थोड़ी दूर ही गया होगा कि उस दोस्त ने अपनी जेब से आधा खाया भुट्टे का टुकड़ा निकाला और मेरी तरफ उछाल दिया। भुट्टे का वह टुकड़ा एक क्षण के लिए धूप में चमका और छप्प से पानी भरे गड्ढे में गिरा। वह छप्प की आवाज़ और दोस्त का हिलता हुआ हाथ मेरी स्मृति में हमेशा के लिए ठहर गया।
और यह बारिश की आवाज़ ही थी जो मेरे बड़े होने के साथ-साथ यहां तक चली आई थी। बारिश में ही मेरे नए दोस्त बने और पुराने छूटे। मुझे अच्छी तरह याद है जब हम दोस्तों को पहली नौकरी मिली थी तो एक रायपुर, एक बालाघाट और एक फरीदाबाद चला गया। कुछ इसी शहर में रह गए थे। फिर एक के पिता, दूसरे का भाई और तीसरे की मां मर गई थी और बारिश में हम एक-दूसरे के आत्मीयजनों को चिटकती चिता में जलता देख रहे थे। हमारे अंदर रह रहकर कुछ चीजें गिरती रहती थीं और हम आंखें बंद किए उनका दरकना और गिरना सुनते रहते थे।
फिर कुछ दिनों बाद हमने बिना बोले विदा ली। वे हाथ हिलाते हैं और मैं उनका कांपना देखता हूं। वे मेरी फीकी हंसी की अोट में रुलाई को सुनते हैं। वे धीरे-धीरे चलने लगते हैं। पानी भरी सड़क पर उनकी पदचाप सुनता हूं, अपनी पीठ के पीछे। वे जा चुके हैं। और बारिश मुझे भिगो रही है। मैं अकेला धीरे-धीरे चलने लगता हूं। जो दोस्त विदा ले चुके हैं उनके सुनाए चुटकुले याद आते हैं और ठहाकों की गूंज सुनाई पड़ती है।
दोस्त विदा ले चुके हैं लेकिन लगता है, बांए कंधे पर एक दोस्त का हाथ अब भी रखा हुआ है।
विदा होने से पहले हमने अपनी-अपनी प्रेमिकाअों को याद किया। फिर हमने सोचा प्रेम-पत्रों का क्या किया जाए। एक ने कहा इनकी नाव बनाकर बारिश के पानी में छोड़ा जा सकता है। हम सभी दोस्तों ने ऐसा ही किया और प्रेम-पत्रों की नाव पानी में तैर रही थी। फिर हमने तेजी से एक ट्रक को आते देखा जो हलका-सा चर्ररर करता हुआ निकल गया। हमने देखा ट्रक के पहियों पर हमारे प्रेम-पत्र चिपके थे। हम सब दोस्त भागते ट्रक की आवाज़ सुनते रहे और पहियों के साथ घूमते हुए अपने प्रेम-पत्र देखते रहे।
बारिश अब भी हो रही थी और उसमें हम भीग रहे थे....
(इस कहानी का एक और टुकड़ा जल्द ही)
पेंटिंग-रवींद्र व्यास