



अखिलेश चित्रकार हैं। युवा और चर्चित। भोपाल में रहते हैं। इंदौर के ललित कला सस्थान से डिग्री हासिल करने के बाद दस साल तक लगातार काले रंग में अमूर्त शैली में काम करते रहे। भारतीय समकालीन चित्रकला में अपनी एक खास अवधारणा रूप अध्यात्म के कारण खासे चर्चित और विवादित। देश-विदेश में अब तक उनकी कई एकल और समूह प्रदर्शनियां हो चुकी हैं। कुछ युवा और वरिष्ठ चित्रकारों की समूह प्रदर्शनियां क्यूरेट कर चुके हैं। गाहे-बगाहे सूजा से लेकर रजा और हुसैन पर लिखते रहे हैं। विश्वविख्यात चित्रकार मार्क शागाल की जीवनी का अनुवाद किया है। अभी कुछ दिनों पहले ही अखिलेशजी से फोन पर बात हुई। पता चला वे दुबई में कुछ दिन एमएफ हुसैन के साथ रहकर आए हैं। मैंने उनसे आग्रह किया, कुछ लिखें। लिहाजा उन्होंने यह लिख कर भेजा। मैं इसे अपने ब्लॉग पर देते हुए अखिलेशजी के प्रति गहरा आभार प्रकट करता हूं। साथ ही अखिलेशजी द्वारा खींचे गए हुसैन के कुछ फोटो भी दे रहा हूं जो बताते हैं कि हुसैन में कितनी रचनात्मक भूख है। अच्छी खबर यह भी है कि हुसैन साहब के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक राहतभरी बात कही है। लीजिए पढि़ए अखिलेशजी का लेख-
अब वे अपने विश्व में रहते हैं
दुबई में बाबा से मिलना हुआ। पांच वर्षों के अतंराल के बाद मिलना। सुखद अनुभव था। मैंने जब भोपाल के बारे में उनसे बात की तब उन्होंने कई बातों का पिटारा खोल लिया। भोपाल का वैश्विक रूप दिखाई देने लगा। हुसैन साहब के लिए समय का प्रचलित रूप कोई मायने नहीं रखता न ही देश की सीमाअों का अस्तित्व बचा। अब वे अपने विश्व में रहते हैं जहां सब कुछ उनका अपना है। वे समय-सीमाअों को पार कर जाते हैं। वे देश की भौगोलिकता के बाहर रहते हैं। भोपाल की मेरी शुरुआती स्मृति भोपाल स्टेट की है। भोपाल की बेगमों का दम और राजकाज शुरू से आकर्षित करता रहा है। हुसैन कहते हैं। भोपाल के तांगे, तंग गलियां, पटियेबाजी आदि सभी दुर्लभ हैं।
"मैं लैंडस्केप करने जाया करता था। भोपाल भी गया। घुमक्कड़ स्वभाव था। यहां-वहां भटका करता था। एक बार सोलेगांवकर के साथ अकंलेश्वर चला गया। दिन भर चित्र बनाते रहे, अब रात को क्या करें? मंदिर में जाकर सो गए। सुबह पुजारी ने जगाया। नहा-धोकर आरती की, प्रसाद खाया फिर चले।"
"लोहियाजी के कहने पर रामायण पेंट की। सात-आठ साल बद्री विशाल पित्ती के घर रहा। हैदराबाद में बनारस से पंडित बुलाए गए। वे रोज रामायण पढ़कर सुनाते। रोज सुबह नहाकर पंडित के सामने बैठता, वे घंटे दो घंटे रामायण पढ़ते और उसको सुनकर दिन भर चित्र बनाता। बड़े-बड़े कैनवास और ढेरों चित्र बनाए। सब रखे हैं।"
हुसैन ९३ वर्ष के हो गए हैं। भारतीय समकालीन चित्रकला के भीष्म पितामह-स्वामीनाथन अक्सर हुसैन को इसी पदवी से नवाजते थे। हुसैन के चेहरे पर वही तेज। वहीं गंभीरता और वही रौनक थी। हुसैन की चपलता वैसी ही है। चित्र बनाते वक्त उन्हें देखना एक पूरी सदी को चित्र बनाते हुए देखने जैसा है। हुसैन के हम उम्र इस दुनिया में नहीं हैं और संभवतः जो हैं भी वे निष्क्रिय हैं। हुसैन आज भी अनेक युवा चित्रकारों से ज्यादा चित्र बनाते हैं। बेचने के लिए नहीं बल्कि अपनी रचनात्मक ऊर्जा को सहेजते-संवारते हुए। हुसैन के चार स्टूडियो हैं। वे उन सभी जगह ले गए और हर स्टूडियो अलग-अलग विषयों पर काम कर रहे हैं। एक तरफ भारतीय संस्कृति पर केंद्रित संग्रहालय के लिए चित्र बना रहे हैं, दूसरी तरफ भारतीय सिनेमा के इतिहास को चित्रित कर रहे हैं। घोड़ों पर वे एक चित्र श्ृखला बना रहे हैं और कतर की महारानी के संग्रहालय के लिए ९९ चित्र बना रहे हैं। ये सब श्ृखलाएं वे एक साथ बना रहे हैं। वे अपनी यायावरी में रचनात्मक हैं। उनका एक जगह पर न होना भी उनके सृजन का स्रोत है। "शाम को आप चलिएगा। मेरे दोस्त हैं, वे डॉक्टर हैं, डेंटिस्ट हैं, उनकी पत्नी का जन्मदिन है, बस मुबारकबाद देकर लौट आएंगे। मैं आपको ले चलता हूं, रवि रेस्त्रां में वहीं खाना खाएंगे फिर शाम को फिल्म देखेंगे।"
हुसैन ने आवाज लगाई। हसन को एक कैनवास और रंग निकालने के लिए कहा। वे चित्र बनाने लगे। शाम की तैयारी। लगभग आधे घंटे में चित्र तैयार हो गया।। फिर हम लोग चल पड़े। उनके डॉक्टर के घर पहुंचे, उन्होंने चित्र डॉक्टर और उनकी पत्नी को दिखलाया, फिर उसे जन्मदिन का तोहफा है कहकर भेंट कर दिया। अवाक् रह गईं डॉक्टर साहब की पत्नी। फिर वे खुशी से रोने लगी। हम लोग लगभग आधे घंटे वहां बैठे, चाय पी, कुछ बातें की। उनका रोना चलता रहा। वे अपनी खुशी को अंत तक संभाल नहीं पाईं। हुसैन की सहजता और चित्र की ताकत उनके आंसुअों में झलक रही थी। वे बार-बार कुछ कहना चाहती रहीं, किंतु उनका रूंधा गला साथ न दे सका। हुसैन अपनी उदारता के लिए प्रसिद्ध हैं। वे कभी भी कहीं भी चित्र बनाने में सक्षम हैं और इन चित्रों को मित्रों में बांटने में झिझकते नहीं।
"मैंने आपबीती को फिर से लिखना शुरू किया है। वे किताब पंद्रह साल पहले लिखी थी ओर इन पंद्रह सालों में बहुत कुछ बदला है। इन सब बातों को लिखना चाहिए। मैंने शुरू कर दिया है। आपको सुनाता हूं।" हुसैन ने अपनी डायरी से इस हफ्ते लिखा अध्याय निकाला और सुनाने लगे। हुसैन के लिखने में छंद है। वे रदीफ –काफिए को सहज ही बिठाते हैं। उनके लिखने में रस है और उनके पढ़ने में रिदम। ९३ वर्ष की उम्र में उनकी स्मृति साफ है। वे हर लम्हे को ठीक तरह से सुनाते हैं। याददाश्त में दरार नहीं है। उन्हें याद है कि मैं उनसे पांच साल बाद मिल रहा हूं। और उन्होंने इन पांच सालों में मैंने क्या किया, यह जानने में देर नहीं की। वे कुछ भी भूले नहीं। और उन्हें सब कुछ याद नहीं।
"शाहीन के उद्घाटन के लिए भोपाल आया था। स्वामीनाथन बढि़या आदमी थे। उन्हें पश्चिमी कला का का आतंकवादी रवैया पसंद नहीं था। वे इन सबको नहीं मानते थे। मैं कहा करता था इन सब बातों को लिख डालो स्वामी। मगर वे नहीं लिखते थे। कौन पढ़ेगा यह सब। स्वामीनाथन ने भारत भवन बनाया। बहुत अच्छा किया था। आदिवासी कला आधुनिक कला सब एक साथ लाए। स्वामीनाथन ने क्या कुछ लिखा है इन सब पर?"
"शाहीन के उद्घाटन पर उनका तेवर भी देखने वाला था। वो अचानक हवा का तेज चलना और बारिश होना। यह सब स्वामी के कारण ही हुआ। रियासत नाम का एक अखबार निकलता था उन दिनों। अंग्रेज निकालते थे। उस अखबार में भोपाल स्टेट की खबर भी छपी थी। तब से भोपाल मेरे जेहन में बसा हुआ है। भोपाल की बेगमों के द्वारा किए गए कार्यों का ब्यौरा भी छपा था। और सभी रियासतों के बारे में छापते थे।
मैंने यह नियम बनाया है कि हर शुक्रवार हमारे परिवार के जो भी सदसय यहां हैं वे सब इकट्ठे होते हैं एक रेस्त्रां में सुबह के नाश्ते के लिए। वहां मैं अपनी आपबीती का एक अंश पढ़कर सुनाता हूं। सब लोग आते हैं। खूब मजा रहता है। सारे लोग इकट्ठे एक साथ बैठते हैं, सुनते हैं..."
हुसैन के मुंबई के घर में शुक्रवार के दिन दाल बनती है। यहां वे सबको इकट्ठा कर बाते करते हैं। हुसैन के जीवन का हर क्षण उन्होंने अपनी मर्जी से जीया। रचनात्मकता और सृजन से भरा हुआ।
उनकी योजना इंस्टालेशन करने की है, जिसमें वे संसार की महंगी कारों का इस्तेमाल करेंगे। हुसैन अभी भी ऊर्जावान, नए विचारों से अोतप्रोत और किसी शुरूआत के उत्सुक हैं, प्रस्तुत हैं। उनकी रचनात्मक प्रतिभा मे अभी काल का स्पर्श नहीं हुआ है। वे स्फूर्त हैं। सक्रिय हैं। सृजनरत हैं और सफल हैं।